श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “उद्धव गीता- मोहान्ध जीव की दो कहानियाँ” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 86 !!
भाग 2
उद्धव ! प्रातः की बेला थी, जब दत्त भगवान भिक्षा माँगने आए थे …..किन्तु अब तो दोपहर भी हो गयी और शाम , फिर रात भी …..अब आएगा कोई पुरुष , जो मेरे इस शरीर को देखेगा और धन देकर जाएगा …..सोचते सोचते उसे झपकी आगयी…..तभी द्वार किसी ने खटखटाया …..दासी शायद सो चुकी थी ……नींद में ही दौड़ते हुये जैसे ही गयी पिंगला, द्वार खोला ….तो सामने खड़े हैं …एक दिव्य महात्मा ……वो देखती रही उन्हें …….वो हंसे …..उसके बाल बिखरे हुए थे ….नींद के कारण उसके आँखों का अंजन फैल गया था ….मुख से लार निकल रही थी …….पुरुष मोह के कारण ऐसी दशा …..छी । बस निकल गए इतना बोल कर ।
ओह ! पिंगला लड़खड़ाती हुई गयी अपने महल में, आइने में अपने आपको देखा ……
नेत्रों से अश्रु बह चले , धिक्कार है मुझे …..इतनी प्रतीक्षा ! एक पुरुष की इतनी प्रतीक्षा ….क्यों , इसलिए कि वो मेरे देह को नोचेगा ! मेरे देह के साथ खेलेगा ! हाय ! इतनी प्रतीक्षा मैंने भगवान कि की होती तो वो मेरे सामने होते …..उनसे मुझे सच्चा प्रेम मिलता ……इस शरीर के प्रति मैं कितनी मोह ग्रस्त हो गयी …….पुरुष के साथ रमण करने की कामना ने मेरे जीवन को नर्क बना दिया ….रमण तो सन्तों के सत्संग में करना था ……आहा ! कामी लोगों के चिन्तन ने मेरा सब कुछ हर लिया ….पर अब मैं …….अपने आंसू पोंछ डाले पिंगला ने …श्वेत वस्त्र धारण करके घुंघराले काले केशों को काट कर वो निकल गयी थी वन की ओर ।
मोह के बंधन पिंगला ने जब तोड़े तभी उसे परम शान्ति मिली थी …..भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ।
उद्धव ! एक राजा था ….चक्रवर्ती राजा …..पुरुरवा उसका नाम था ।
ये एक स्त्री के पीछे पगला गया…और स्त्री भी कोई पृथ्वी की नही स्वर्ग की स्त्री ….उर्वशी ।
तात ! भगवान श्रीकृष्ण मुझे ये दूसरी कहानी सुनाने लगे थे ….विदुर जी से उद्धव ने कहा ।
मनुष्य देवताओं से भी बड़ा होता है ….वो इसलिए कि देवता नया कुछ पा नही सकते किन्तु मनुष्य कुछ भी पा सकता है ……सबसे बड़ी बात वो मुक्त हो सकता , देवताओं को मुक्त होने के लिए मनुष्य बनना पड़ता है ।
किन्तु पुरुरवा के लिए अभी मुक्ति की बात छोड़ो ….ये तो मोहान्ध था ….उर्वशी के प्रति ।
आखिर इसने नाना प्रकार के यज्ञ आदि करके उर्वशी को पा ही लिया ……
किन्तु ……उर्वशी ज़्यादा दिन तक उसके पास रही नही ……भोग के संस्कार तो उसके चित्त में छपने ही थे , छप गए …..और भोग भी किसी सामान्य स्त्री के प्रति नही था …था उर्वशी अप्सरा के प्रति ……वो पाँवों में गिरा उर्वशी के ….उर्वशी के सामने रोया , गिड़गिड़ाया …..पर उर्वशी नही मानी …….उद्धव ! इसके बाद पुरुरवा ने फिर सौ वर्षों तक यज्ञ किया …..यज्ञ के पूर्ण होने पर देवराज इन्द्र ने कहा …..उर्वशी को ही चाहते हो ?
पुरुरवा ने कहा …उर्वशी के सिवा मेरे मन में और कोई है ही नही …इसलिए मुझे वही चाहिए ।
न दूँ तो ? इन्द्र ने कहा ।
मैं सौ वर्ष और तप करूँगा ……पुरुरवा मोह के दल दल में फँस चुका था ।
तथास्तु …..कहना ही पड़ा देवराज इन्द्र को ….और अंतर्ध्यान हो गए ।
उर्वशी उनके पास आयी …….पुरुरवा के आनन्द का ठिकाना नही था …..उसे लग रहा था – उर्वशी को पाकर सर्वस्व की प्राप्ति हो गयी है आज ।
उद्धव ! भोग किया पुरुरवा ने उर्वशी के साथ ……..एक दो दिन नही , एक दो वर्ष नही …सौ दो सौ वर्ष भी नही ….दस हजार वर्ष तक …….सतयुग का समय था …..मनुष्य की आयु दीर्घ होती ही थी …और आयु को बढ़ाया भी जा सकता था । किन्तु इतने वर्षों तक उर्वशी के साथ भोग करने पर भी …….
एक रात्रि …..उर्वशी को पुरुरवा ने देखा सोते हुए ….अस्त व्यस्त उसके वस्त्र थे …केश येसे बिखरे हुए थे मानों कोई प्रेतनी हो ….लार टपक रही थी ….इसी लार को ये कभी अधर अमृत कहते हुए थकता नही था …….वो देखता रहा उर्वशी को ……फिर अपने आपको देखा उसने आइने में ……ओह ! धिक्कार है तुझे हे पुरुरवा ! तू भारत वर्ष का सम्राट ….भारत वर्ष में तेरा जन्म हुआ पर तूने क्या किया …..अपने मोह का इतना विस्तार ! दस हजार वर्ष तक तू बस स्त्री के मोह में पड़कर अपने जीवन के अमूल्य काल को बर्बाद करता रहा ।
पुरुरवा को परम वैराग्य हुआ ….और वो मोह के बन्धनों को काट कर निकल गया वन की ओर ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – उद्धव ! ये कहानी कोई पिंगला और पुरुरवा की नही …समस्त मोहान्ध जीव की यही कहानी है …..मोह से बचना चाहिए …मोह ही समस्त मानसिक रोग का मूल है ।
शेष चरित्र कल
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