जय श्री राधे राधे जी
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🦚 पुष्टिमार्ग
🌹 पुष्टिमार्गीय सेवा राग, भोग और शृंगार प्रधान मानी जाती है। इस कथन को प्रायः सही अर्थ में ग्रहण नहीं किया जाता। परिणाम यह है कि भगवद-सेवा में वैभव और आडंबरपूर्ण प्रदर्शन को महत्त्व मिलने लगता है। राग का अर्थ एक ओर तो सांसारिक राग को भगवद-सम्बन्ध से युक्त कर भगवद-रागमय बना देना है।
दूसरी ओर
🍁 स्वर-साधनात्मक भगवद-सेवा है। भोग का अर्थ जो भी कुछ सामग्री उपलब्ध है वह सब भगवान् को समर्पित की जाय और उसे प्रसाद रूप में ग्रहण की जाये। शृंगार का अर्थ भी यही है कि यथाशक्ति भगवान् के स्वरूप का सुन्दरतम शृंगार किया जाए। उसके लिए वैभव का प्रदर्शन और ताम-झाम अपेक्षित नहीं है। भगवान् के लिए तो पुष्प-माला, गुंजे की माला और मोर-पंख भी पर्याप्त हो सकते हैं।
🌸 पुष्टिमार्ग निस्साधनों का मार्ग है। भगवान् साधनों से प्रसन्न नहीं होते।
👉 पद्मनाभदास, अड़ेल की एक ब्राह्मणी, सन्तदास चोपड़ा, आदि की वार्ताओं से यह स्पष्ट हो जाता है। पद्मनाभदास केवल छोले ठाकुरजी को समर्पित करते थे और पत्तल पर अलग – अलग ढेरियाँ बनाकर दाल, भात, साग, कढ़ी, खीर आदि की भावना करते थे।
👉 अड़ेल की ब्राह्मणी के घर में न तो बर्तनों का ठिकाना था और ना खाद्यान्न का। लेकिन महाप्रभुजी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ठाकुरजी प्रेम के भूखे हैं। वे न तो धन से रीझते हैं और न आचार या क्रिया से किसी से वश में होते हैं।
👉 सन्तदास चोपड़ा जब निष्कंचन हो गये तो ढ़ाई पैसे रोज में भगवद-सेवा करते हुए आनंदपूर्वक जीवन-यापन करते थे।
👉 कुंभनदास के मोदी तो करील और बेर के वृक्ष थे। गदाधरदास के घर में एक बार कोई खाद्य पदार्थ न होने के कारण उन्होंने मंगला से लेकर शयन तक की सेवा में केवल जल ही धरा था।
👉 ऐसे निस्साधनों पर पुष्टिप्रभु ने असीम अनुग्रह किया था। वे भगवान् राग, भोग और शृंगार का ऊपरी बाहुल्य नहीं चाहते हैं, वे चाहते हैं सच्चा प्रेम।
👉 राग-प्रधान साधना का तात्पर्य है हृदय की रागात्मक प्रवृत्ति प्रभु की ओर ही हो तथा कलात्मक साधना का प्रभु-सेवा में विनियोग हो। शृंगार मानव की सौंदर्योन्मुख प्रवृत्ति को भगवद-अभिमुख करता है ।*
🌻 अपने शरीर को सजाने-सँवारने की प्रवृत्ति समाप्त होती है। प्रभु का शृंगार ही मन को लुभाने-रमाने लगता है। जो भी उपलब्ध है, चाहे वह स्वल्प मूल्य की वस्तु हो या अतुलनीय मूल्य की वस्तु; उसकी सार्थकता इसी में हैं कि वह प्रभु को समर्पित हो। भोग मानव की भौतिक लिप्सा के परिष्कार, उन्नयन और दैवीकरण का साधन हो। भोग पदार्थों और भोज्य पदार्थों से आसक्ति हटाने का सुगम मार्ग है। जो भी इच्छा हो वह प्रभु के लिए ही हो, अपने लिए, अपने स्वाद और पोषण के लिए मानव की प्रवृत्ति न हो।
जय श्री कृष्ण जी
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