श्रीराधाचरितामृतम् – 1
वज्रनाभ और महर्षि शाण्डिल्य
भाग 2
उस समय कृष्ण की महारानी जाम्बवती नें बहुत सेवा की श्रीराधा रानी की…….वैसे ये संकोच की मूर्ति श्रीराधा किसी से सेवा क्या लेंगीं …..पर हर समय ख्याल रखना……ये सब जाम्बवती नें ही किया …..उस समय जाम्बवती के साथ ये बालक ……..वज्रनाभ आता था ….इसी बालक वज्रनाभ नें श्रीराधा रानी के चरणों में वही चिन्ह देखे थे ……जो श्रीकृष्ण के चरणों में भी थे ।
ये बालक वज्रनाभ ………….वहीं बैठे ” श्रीराधा राधा राधा राधा” ……यही जपना आरम्भ कर देता …………
अरे ! वत्स ! क्यों मेरा नाम लेते हो ……..अपनें “द्वारकेश” का नाम लो ।
पर बालक वही नाम जपता था ……………एक दिन बड़े प्रेम से अपनी गोद में बिठाकर श्रीराधा रानी नें पूछा ……अच्छा ! क्या चाहते हो ?
आपका बृजमण्डल ……..आपका श्रीधाम वृन्दावन……
बालक नें यही मांगा था ।
मुस्कुराईं श्रीराधिका ……..ठीक है तुम आजाओ मेरे बृजमण्डल ।
वृन्दावनेश्वरी की आज्ञा ………..उनका वरदान प्राप्त हो गया था ……इसीलिए तो बच गए थे ये वज्रनाभ ।
और आज जब समुद्र में समा गयी द्वारिका तब कुछेक के साथ वज्रनाभ ……और उनकी माताएँ ……सोलह हजार ओह !
चल पड़े थे बृज मण्डल की ओर द्वारिका से , साथ में अपनी उन माताओं को लेकर ……..आ पहुँचे बृजमण्डल में ………पर यहाँ तो कुछ नही था ।
सोलह हजार कृष्ण पत्नियाँ साथ में हैं …………..वज्रनाभ नें उनके लिये कुछ व्यवस्था की ……. कुछ सुन्दर भवन बनवाये.. …पास में ही हस्तिनापुर राज्य था ( दिल्ली) जहाँ से सेवकों कि भरमार आगयी थी …….अब सब व्यवस्थित हो गया था ….।
ओह ! ऐसा हो गया ये बृज मण्डल ! ……….मनुष्य तो दिखाई दे ही नही रहे ………पर पशु पक्षी भी नही हैं यहाँ तो ………….
वज्रनाभ !
अत्यन्त मधुर पुकार पीछे से किसी नें लगाई ।
जैसे ही पीछे मुड़कर देखा वज्रनाभ नें ………..तात परीक्षित ! तुरन्त झुक कर वज्रनाभ ने प्रणाम किया ।
अपनें हृदय से लगा लिया था वज्रनाभ को राजा परीक्षित नें ।
कोई नही हैं तात ! इस बृजमण्डल में ?
मानव की कौन कहे, कोई खग जीव भी दिखाई नही देते ……..
अत्यन्त दुखित स्वर में हस्तिनापुर नरेश परीक्षित से वज्रनाभ नें कहा ।
सन्ध्या का समय हो रहा था …………तभी दूर, बहुत दूर एक दीया टिमटिमाता हुआ दिखाई दिया …………..
कुटी थी कोई………उस कुटी में एक ऋषि बैठे तप कर रहे थे ।
ऋषि तेजस्वी थे………सफेद दाढ़ी उनके मुख मण्डल की शोभा और बढ़ा रही थी ………श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा ………।
ब्रजेश्वरी श्रीराधा का नाम उनके रोम रोम से निकल रहा था ………..
वज्रनाभ और परीक्षित नें ऋषि के चरणों में जाकर जैसे ही प्रणाम किया ………ऋषि नें नेत्र खोले ………..मुस्कुराये ।
मैं द्वारकेश श्रीकृष्ण का प्रपौत्र वज्रनाभ !
और मैं पाण्डवों का पौत्र परीक्षित !
ओह ! मैं महर्षि शाण्डिल्य तुम दोनों को देखकर आज अतिप्रसन्न हुआ ………ऋषि नें प्रसन्नता व्यक्त की ।
महर्षि शाण्डिल्य ? वज्रनाभ चौंके………..आप ही हैं महर्षि ! पूज्य चरण श्रीनन्दबाबा के कुल पुरोहित ?
ऋषि मुस्कुराये ………नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का पुरोहित………ऊपर की ओर देखते हुए उन्होंने लम्बी साँस ली . …….हाँ मैं श्रीमान् नन्द राय और स्नेह मूर्ति मैया यशोदा का पुरोहित हूँ ।
नेत्रों से झरझर आँसू बह चले थे, वज्रनाभ और परीक्षित के ….।
पर आज बृज की ये स्थिति ?
ऐसा वीरान क्यों हो गया ये बृज मण्डल ?
उठे महर्षि शाण्डिल्य …………कुटिया से बाहर आये …………वज्रनाभ और परीक्षित ने भी उनका अनुसरण किया ।
श्रीकृष्ण …………..पूर्णब्रह्म ……….पूर्ण परात्पर परब्रह्म ……….।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल …..
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