!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 32 !!
“निभृत निकुञ्ज” – प्रेम के सर्वोच्च लोक
भाग 2
अब इस “निकुञ्ज लोक” से भी ऊपर एक लोक और है………..”नित्य निकुञ्ज”………..इस “नित्य निकुञ्ज” में प्रेम से भरे ये दो दम्पति श्याम सुन्दर और उनकी आल्हादिनी ही विहार करते हैं ………सेवा के लिये निरन्तर सखियाँ तत्पर रहती हैं …….निकुञ्ज से भी ऊपर ये “नित्य निकुञ्ज” है इसकी विशेषता ये है कि ………इसमें “सुरत सुख” का दर्शन और “रति विपरीत” का दर्शन समस्त सखियों को होता है …..उस सुरत सुख का दर्शन कर ……….ये माती फिरती हैं …….प्रेम की मत्तता इनमें छायी रहती है ……ये उस सुख का दर्शन करती हैं ….जिसका दर्शन बड़े बड़े योगियों को तो दुर्लभ है ही ………नारदादि जैसे भक्तों की भी वहाँ तक गति नही है ……..वहाँ की देवता श्रीराधा रानी ही हैं …….और वहाँ के मुख्य पुजारी स्वयं श्याम सुन्दर है ……….जैसे उपासक कामना करता है …….भावना करता है ……अपनें इष्ट के प्रति मनोरथ करता है ….ऐसे ही इस नित्य निकुञ्ज में स्वयं उपासक बने श्याम सुन्दर और अपनी उपास्य श्रीराधा रानी के प्रति ऐसा दिव्य मनोरथ करते हैं !
चूड़ियाँ ऐसी हों मेरी प्रिया की ………महावर मैं लगा दूँ आज अपनी प्रिया के पांवों में ………करधनी उस कृश कटि में मैं ही पहनाऊँ ……बालों को मैं सुलझा दूँ …….बेणी गूँथ दूँ ………बेणी में फूल सजा दूँ …….उनको सुन्दर साडी पहना कर ………दूर खड़े होकर मैं उन्हें देखूँ ……..चन्द्रिका माथे में अच्छी नही लग रही ………दूसरी चन्द्रिका ला ना ललिते !
अपनी प्यारी श्रीराधा रानी के गौर देह में चित्रावली बनाऊँ ……….हाथ में सृवर्ण की पतली तूलिका ले……केशर से उनके वक्ष में पुष्पों के चित्र अंकित करूँ ।
जैसे साधक ध्यान करता है ……..ऐसे ही नित्य निकुञ्ज में श्रीराधा रानी जब सो जाती हैं ……..तब बैठ कर श्याम सुन्दर इस तरह उनका ध्यान करते हैं ……नेत्र बहनें लगते हैं इस प्रेम पूर्ण ध्यान से इनके । वो स्थिति विचित्र हो जाती है ……सखियाँ देखती हैं ………..वो श्रीराधा जी से कहती हैं …….तब उठकर अपनें हृदय से लगाते हुए श्याम सुन्दर को श्रीराधारानी अपनें अधर रस से उन्हें तृप्त करनें की कोशिश करती हैं ।
इतना कहकर कुछ देर मौन हो गए महर्षि शाण्डिल्य……कुछ बोल नही पाये ……..वज्रनाभ की स्थिति भी विचित्र थी …….वो भी उसी नित्य निकुञ्ज में ही सखी भाव से भावित हो, पहुँच गए थे ।
गुरुदेव ! ये “निभृत निकुञ्ज” क्या है ?
ये प्रश्न पाँच दिन के बाद किया जब प्रेम समाधि टूटी थी दोनों की …..तब प्रश्न किया था वज्रनाभ नें ।
वज्रनाभ !
महर्षि शाण्डिल्य अभी भी देह भाव से परे ही थे ।
नित्य निकुञ्ज में, सुरत सुख में युगल वर जब डूब जाते हैं …….
तब सखियाँ लताओं के रन्ध्र से उस सुख का दर्शन करती हैं ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल ……
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