!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 32 !!
“निभृत निकुञ्ज” – प्रेम के सर्वोच्च लोक
भाग 3
गुरुदेव ! ये “निभृत निकुञ्ज” क्या है ?
ये प्रश्न पाँच दिन के बाद किया जब प्रेम समाधि टूटी थी दोनों की …..तब प्रश्न किया था वज्रनाभ नें ।
वज्रनाभ !
महर्षि शाण्डिल्य अभी भी देह भाव से परे ही थे ।
नित्य निकुञ्ज में, सुरत सुख में युगल वर जब डूब जाते हैं …….
तब सखियाँ लताओं के रन्ध्र से उस सुख का दर्शन करती हैं ।
पर हे वज्रनाभ ! तुमनें प्रश्न किया कि ये “निभृत निकुञ्ज” क्या है ?
तो सुनो …..ये सर्वोच्च लोक है…….इस “निभृत निकुञ्ज” में सखियाँ भी नही हैं …….और युगल वर भी युगल नही हैं ……….
महर्षि शाण्डिल्य बडे विचित्र रहस्य का वर्णन कर रहे थे ।
तो सखियाँ कहाँ चली जाती हैं ? वज्रनाभ नें पहले ये प्रश्न किया ।
जहाँ से प्रकटी थीं …..वहीँ चली जाती हैं ……..महर्षि नें उत्तर दिया ।
ये समस्त सखियाँ श्रीआल्हादिनी शक्ति से ही तो प्रकटती हैं ! ……..और फिर उसी में समा जाती हैं ।
फिर युगलवर ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
प्रेम का सिद्धान्त अटपटा है …………यहाँ एक और एक ग्यारह नही होते ….न एक और एक “दो” ही होते हैं ………….
यहाँ तो एक और एक “एक” ही होते हैं …ये प्रेम का अपना गणित है…
महर्षि प्रेम में पगे बोल रहे हैं ।
दोनों जब सुहाग की सेज पर शयन करते हैं…….तब श्याम रँग और गौर…….ऐसे मिल जाते हैं……..तब कुछ समझ नही आता …….हम अपनी नही कह रहे ……..उन दोनों को भी समझ नही आता कि …कौन राधा है और कौन श्याम ?
वो दोनों एक हो जाते हैं ………..एक ही हैं ……..एक ही थे …….. फिर एक …….वो एक ही है ……..और अंत में एक ही रहते हैं ।
बड़ी रहस्यमयी बातें मैनें आज तुम्हे बताईं वज्रनाभ !
ये सब उसी ब्रह्म का विलास है इसे समझो …………और समस्त लोक उसी ब्रह्म के हैं …………जिसकी जैसी उपासना होती है …….जो इष्ट होता है ………उसी के लोक में वो साधक जाता है ……
इसमें कोई छोटा बड़ा नही मानना चाहिए ……..भगवान शंकर के उपासक कैलाश लोक ( पृथ्वी का कैलाश नही ) में जाते हैं ………..तो भगवान नारायण के उपासक वैकुण्ठ …..भगवान राम के उपासक साकेत में जाते हैं………..तो कृष्ण के उपासक गोलोक में ……..पर जो विशुद्ध प्रेम का उपासक है …….वो अपनें अधिकार या आल्हादिनी की कृपा के द्वारा वो ….. …..हे वज्रनाभ ! मैने जो “निकुञ्ज” “निभृत निकुञ्ज” इत्यादि बताया है …..वो आल्हादिनी के उपासकों का ही लोक है …….और ये तो सर्वमान्य है कि …..शक्ति सर्वोच्च है …….पर उस शक्ति में भी “आल्हादिनी शक्ति” तो सर्वोच्चतम है ही ………….
ये दिव्य लीला के लोक हैं ………यही लोक अवतार काल के समय पृथ्वी पर उतर आते हैं ……जैसे साकेत अयोध्या है ….श्रीरंगम् वैकुण्ठ है……ऐसे ही गोलोक बृजमण्डल है ……….और “कुञ्ज निकुञ्ज नित्य और निभृत निकुञ्ज ये श्रीधाम वृन्दावन है ………………
सब ब्रह्म का विलास है ……….और यहाँ तक पहुँचना मात्र साधना से सम्भव नही है ।
……..लीलाएं अभी भी हो ही रही हैं ……चल ही रहा है ।
इतना कहकर महर्षि आगे कुछ बोल ही नही पाये …..वो उस दिव्य प्रेम लोक का वर्णन कर चुके थे…..कि बोलना उन्हें अब भारी पड़ रहा था ।
सूर्य मिटे चन्द्र मिटे , मिटे त्रिगुण विस्तार ।
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश को , मिटे न नित्य विहार ।
शेष चरित्र कल ……
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