!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकादशोध्याय:)
गतांक से आगे –
“विधुमुखी” ….ये चाची थी विष्णुप्रिया की ….सनातन मिश्र जी के एक छोटे भाई भी थे जिनका नाम कालिदास था …विवाह के कुछ समय बाद ही ये परलोक सिधार गये थे …पर कोख में एक बालक था , विधुमुखी ने उसी को जन्म दिया था ….पर ये अपने पुत्र की अपेक्षा विष्णुप्रिया को ही ज़्यादा स्नेह करती थी । भोली थी विधुमुखी ….विष्णुप्रिया को दुखी कभी देख नही सकतीं थी।
आज ये मिश्र परिवार बहुत प्रसन्न है ….विधुमुखी भी बहुत प्रसन्न है । विष्णुप्रिया का विवाह जो होने वाला है …इन्हीं तैयारियों में ये जी जान से लगी है । पर विधुमुखी को ये पता नही कि पण्डित काशीनाथ जी क्या कह कर चले गये ….वो गये नही महामाया देवि ने उन्हें भेजा …और कहा कि अभी जाइये और निमाई के मन की बात को समझ कर आइये ….अन्यथा ये विवाह सम्भव नही होगा । सनातन मिश्र भी उदास हैं …पण्डित जी चले गये हैं विवाह के प्रति निमाई की स्पष्टता जानने के लिए ।
पर विधुमुखी …..
विष्णुप्रिया ! प्यारी प्रिया ! दरवाज़ा तो खोल …देख मैं तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ ……
किन्तु विष्णुप्रिया ने अपने कक्ष का द्वार नही खोला ….विधुमुखी चिन्तित हो गयीं ….उन्होंने महामाया देवि से ये बात कही ….पर महामाया का ध्यान निमाई की ओर था इसलिये विधुमुखी को कह दिया ….थक गयी होगी …सो गयी है । पर विष्णुप्रिया अभी सो नही सकती ….विधुमुखी ने धीरे से कपाट के छिद्र से देखा …तो वो स्तब्ध हो गयी….विष्णुप्रिया की स्थिति विचित्र थी ……नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे …..विष्णुप्रिया एक ओर ताकती ही जा रही है …..उसके पलक तक नही गिर रहे ….फिर एकाएक वो चारों ओर देखने लग जाती है …फिर पेट के बल लेट जाती है …तकिये को अपने अश्रुओं से भिगो दिया है ।
विष्णुप्रिया ! ओ प्रिया ! इस बार सुन ली चाची विधुमुखी की आवाज , अपने अश्रुओं को पोंछकर द्वार खोल दिया । और तकिये को अपने गोद में रखकर बैठ गयी ।
क्या हुआ विष्णुप्रिया ! तुम्हारा तो विवाह होने जा रहा है …फिर ऐसे शुभ वेला में ये उदासी , ये रुदन क्यों ? क्या तुम्हें निमाई प्रिय नही है ?
नही नही काकी ! ऐसा मत कहो ….वो तो मेरे जीवन सर्वस्व हैं …मेरे प्राण हैं …मेरे जीवन धन हैं ….प्रिय शायद उन्हें मैं नहीं ….ये कहते हुए विष्णुप्रिया अपनी चाची के हृदय से लग गयी थी ।
निमाई ! इधर आओ ,
शचि देवि को जाकर पण्डित काशीनाथ जी ने सारी बात बता दी ….और ये कह दिया -जब तक निमाई अपने मुख से ना कह दे कि …हाँ मैं सनातन मिश्र जी की पुत्री से विवाह करूँगा तब तक ये विवाह सम्पन्न नही होगा ।
निमाई भात खा रहे थे …..
शचि देवि से पण्डित जी ने ये भी कहा कि इस तरह मैं विवाह नही कराता ….जो बात है स्पष्ट होनी चाहिये ….आप तैयार हो शचि देवि ! पर विवाह तो निमाई के साथ होनी है ना ! इसलिये स्पष्टीकरण अभी हो …
वो भात खाते रहे ….और पण्डित जी की बातें सब सुनते रहे ….आज जानबूझकर कर विलम्ब कर रहे हैं निमाई …..माता शचि ने फिर आवाज दी …इस बार बोले …”भात तो अच्छे से खाने दे माँ”।
देखो , शचि देवि ! मैं पागल हूँ ? जो सुबह से शाम होने को आई …कभी इधर कभी उधर भाग रहा हूँ ….तुम कहती हो …विवाह पक्का है …तुम्हारा निमाई कह रहा है …उसे विवाह ही नही करनी । लड़का ही तैयार नही है तो क्या ज़बर्दस्ती लड़की उसके गले में बाँध दोगे …इसलिये जो बात है पक्की हो …शचि देवि ! मेरी भी तो इज्जत है …..
काशी काका ! तुम्हारी ही तो इज्जत है ….सबका घर बसाते हो …सबके घरों में ख़ुशियाँ भर देते हो …बड़ा पुण्य का काम है काका । निमाई खाकर आगये थे ….हाथ धोकर गमछा से पोंछते हुए बोल रहे थे ।
निमाई ! बैठ …..शचि माँ ने उसे पास में बिठाया …..निमाई ! देख , सनातन मिश्र जी की बेटी है विष्णुप्रिया …….माँ ! तुम्हें ठीक लग रहा है ? निमाई ने अपनी माता की पूरी बात भी नही सुनी …और बोले …माँ ! तुम्हें ठीक लगे वही करो ।
पर निमाई ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? काशीनाथ पण्डित जी ने अब गम्भीरता के साथ पूछा ।
काशी काका ! आप देख लो …मेरी माँ को ठीक लग रहा है …मुझे भी ठीक लग रहा है ।
तो फिर तुमने क्यों कहा था कि मुझे विवाह नही करना ? काका ! क्या तुम्हारा निमाई तुमसे विनोद भी नही कर सकता ? तो बोल दो …मैं भी अध्यापक हूँ …उसी भाषा में बोला करूँगा ।
काशीनाथ पण्डित जी अब सन्तुष्ट हुये थे …शचिदेवि का मुखमण्डल खिल गया था …तो निमाई ! मैं जा रहा हूँ …और अब तिथि तय होने वाली है तुम्हारे विवाह की । कर दो काका निमाई का विवाह …फिर बजने दो शहनाई …निमाई हंसकर ये कहते हुए वहाँ से अपने पाठशाला चले गये।
पण्डित जी ! तुम तो जानते ही हो ….निमाई बचपन से ही ऐसा है ….कभी गम्भीर होता ही नही है …ऐसा ही अल्हड़ है ….हर समय विनोद के मूड में ही रहता । आप जाओ और तिथि तय करके आओ । पण्डित जी ने अब राहत की साँस ली थी …पण्डित जी को अब प्रसन्नता हो रही थी ….वो तेज चाल से सनातन मिश्र जी के घर की ओर चल दिये थे ।
विष्णुप्रिया ! क्या बात है क्यों रो रही हो ? मुझे पता है अपने हृदय की बात कन्या बहुत छुपा कर रखती है …कहीं तुम किसी ओर से प्रेम तो नही करतीं ? विधुमुखी पूछ रही हैं ….क्या तुम्हें प्रेम हो गया है …क्यों की इस तरह प्रेम में ही लड़कियाँ रोती हैं ।
तभी नीचे पण्डित काशीनाथ के आने की आहट सुनाई दी ….वो सनातन मिश्र जी को पुकारने लगे थे ….उनकी आवाज़ सुनकर महामाया देवि और सनातन मिश्र जी दोनों आगये …..ये क्या!विधुमुखी ने देखा विष्णुप्रिया एकाएक उठकर बाहर गयी और चुपके से परिवार की बात सुनने लगी ।
मैंने निमाई से स्पष्ट पूछा ….कि तुम्हें इस विवाह में रुचि है या नही ?
तो क्या उत्तर दिया निमाई ने ? महामाया देवि ने पूछा । विष्णुप्रिया का ये सब सुनते हुये हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा है …..सनातन मिश्र जी भी पण्डित की ओर ही देख रहे हैं …..
निमाई ने कहा …मैं विनोद कर रहा था …ये सम्बन्ध मुझे स्वीकार है ।
ये सुनते ही विधुमुखी के हृदय से चिपक गयी विष्णुप्रिया और हंसते हुए बोली …विनोद कर रही थी मैं तो ? विनोद ! विधुमुखी भोली भाली है ….हाँ क्या विनोद वही कर सकते हैं ? ये कहते हुए इतरा रही थी विष्णुप्रिया ।
तभी ज्योतिषी को बुलाया गया …तिथि का निश्चय किया गया ….और निश्चय होते ही मंगल वाद्य सब बज उठे ….सब महिलायें मंगल ध्वनि करने लगीं । नवद्वीप में ये बात अब फैली ….विष्णुप्रिया और निमाई के विवाह की बात सुनते ही पूरा नवद्वीप झूम उठा था …सब कह रहे थे बहुत सुन्दर जोड़ी है ….उपमा सब सीताराम या रुक्मिणीकृष्ण की ही दे रहे थे ।
शचि देवि के आनन्द का कोई पारावार नही है …वर्षों बाद फिर ख़ुशहाली देखेगा ये परिवार ..साड़ियाँ तैयार कर रही हैं शचि माता ..गहने आभूषण …सब महिलाओं को दिखा रही हैं ….कपड़े का व्यापारी घर में ही आगया है …वो निमाई के लिए सुन्दर धोती कुर्ता दिखा रहा है ….निमाई धोती कुर्ता देखते हैं और पसन्द भी कर रहे हैं ।
नवद्वीप वासी अपने भाग्य को सराह रहे हैं कि …सीताराम जी का विवाह तो हम लोग इन नयनों से देख नही पाये ….पर निमाई-विष्णुप्रिया के विवाह का दर्शन वही फल देगा …वही सुख और आनन्द प्रदान करेगा ।
“चार सौ रुपये” ….कपड़े के व्यापारी ने धोती और कुर्ते का हिसाब करके बताया । पचास धोती थीं ….अन्य को भी तो देना होता है विवाह आदि में । और उतने ही कुर्ते के कपड़े थे ….अभी तो और खर्चा होना था ……विवाह में खर्चा होता ही है ।
निमाई हंसते हुए उस व्यापारी से बोले ….निमाई के पास चार आने हैं …इतने से हो जाये तो बोलो ….नही तो रहने दो …हम तो भगवान शंकर की तरह जायेंगे विवाह करने …बिना कुछ लगाये ….क्या करें ! ब्राह्मण हैं पैसा नही है हमारे पास । ये कहते हुये निमाई उठ गये …माता शचि ने देखा …उनके पास भी सब मिलाकर पचास रुपये ही थे ।
निमाई ! मेरे मित्र ! चल मेरी ओर से तेरे विवाह का सारा खर्चा …..ये नवद्वीप का धनी बुद्धिमंत कायस्थ था …ये निमाई का मित्र था ….अवस्था में निमाई से बड़ा था …पर निमाई को ये , और निमाई इसे मित्र ही मानते थे …एक प्रकार का ये नवद्वीप का राजा था…..इसी के तो गुरु थे सनातन मिश्र जी , जो ससुर बनने जा रहे थे निमाई के । निमाई को किसी से धन लेना प्रिय नही था …मना किया पर बुद्धिमंत कायस्थ ने बात नही मानी …ये श्रद्धा भी रखता था निमाई के प्रति । पाँच सौ रुपए देकर व्यापारी को भेज दिया बुद्धिमंत ने …और निमाई से कहा …सारा खर्चा मेरा होगा ..निमाई ! तुम मुझे रोकोगे नही ।
पर इतना ही नही …निमाई तो पाठशाला चलाते थे …तो इनके जो शिष्य थे वो भी जुट गये …उन सबने उत्साहित होकर कहा …हमारे गुरु निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिये जो नवद्वीप ने आज तो देखी नही होगी । धन जुटाना शुरू किया शिष्यों ने आपस में ही ।
अब तो नवद्वीप के आम लोग भी कहने लगे थे कि …निमाई का विवाह ऐसा होना चाहिए जैसे …किसी राजकुमार का हो ….गंगा घाट में आपस में सब लोग कहते …नवद्वीप का राजकुमार तो है हमारा निमाई । इसके विवाह में कोई कमी नही आनी चाहिए । पूरा नवद्वीप उत्साहित है …एक अलग ही उमंग से भरा हुआ है ।
रात्रि में अपनी छत में है विष्णुप्रिया और चन्द्र को देख रही है …पर चन्द्र में इसे निमाई चन्द्र ही दिखाई दे रहा है …वो असीम सुख का अनुभव कर रही हैं ….पर ….
काकी ! मुझे डर क्यों लगता है ? एकाएक अपनी चाची से विष्णुप्रिया पूछती है …कैसा डर प्रिया ? कि “वो मुझे छोड़ देंगे”…..पगली है तू …सो जा …..ये कहकर चाची तो सो गयी …पर विष्णुप्रिया …..उफ़ ! ये प्रेम देवता भी ना ! जो कराये कम है !
शेष कल –
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