!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकत्रिंशत् अध्याय:)
गतांक से आगे –
शचि दीदी ! शचि दीदी ! पागलों की तरह शचि देवि की बहन दौड़ी चली आईं थीं ।
क्या बात है ? सब ठीक तो है ना ! शचि देवि अपना काम छोड़कर बाहर ही आगईं ।
दीदी ! आप सच कह रही थीं ….निमाई सन्यास ले रहा है । बहन स्वयं दुखी थीं …वो ये सूचना देने के लिए ही आईं थीं ।
ओह ! सिर चकराने लगा शचि देवि का …वो गिरने जा रही थीं की बहन ने सम्भाल लिया ।
दीदी ! हिम्मत मत हारो ….निमाई ने तुमसे कहा था ना कि तुमसे बिना पूछे वो कुछ नही करेगा । तो तुम उसे साफ साफ कह देना कि सन्यास लेना ही नही है । बस दीदी ! फिर वो सन्यास नही लेगा । हिलकियों से रोती हुई शचि देवि बोलीं ….नही बहन ! नही , इतना आसान नही है निमाई को समझाना ….उसके पास अपने शास्त्र हैं वेद उपनिषद हैं …पर हमारे पास क्या हैं ? उसके पास तर्क है …हमारे पास ? और मैं तो उसकी माँ हूँ …जन्म दिया है मैंने उसे ..मैं जानती हूँ उसके स्वभाव को ….वो जो ठान लेता है करके ही छोड़ता है ….बहन ! मुझे अपनी चिन्ता नही है ….सत्तर वर्ष की तो हो ही गयीं हूँ ….पर वो बेचारी तो चौदह वर्ष की मात्र है …उसका क्या होगा ? शचि देवि के इस रुदन से वातावरण और कारुणिक हो उठा था । बहन ! जब विष्णुप्रिया सिर झुकाये मेरे पास आएगी और कहेगी …मेरे प्राणेश्वर कहाँ गये ? क्यों लिया उन्होंने सन्यास ? तब मैं उस बालिका को क्या उत्तर दूँगी । शचि देवि ये कहते हुए मूर्च्छित हो कर गिर गयीं थीं।
बहन कुछ देर तक वहाँ रहीं फिर जब शचि देवि को होश आया तो वो सान्त्वना देकर चली गयीं ।
विष्णुप्रिया , मना करने के बाद भी वो अपने मायके से निकल गयीं ….पास में ही थी ससुराल।
पिता सनातन मिश्र जी कहीं गये थे पूजा पाठ के लिये …माता किसी कार्यवश पड़ोस में गयीं हुयी थीं उस समय अपनी चाची विधुमुखी को बोलकर वो चली गयीं । गंगा घाट पर परिचित महिलायें मिलीं ….उन्होंने प्रिया से कुशल क्षेम पूछा ….प्रिया मुस्कुराती हुई सबको बता रही थीं ….कि एक महिला ने तुरन्त कहा ….तेरा निमाई तो सन्यास ले रहा है । ओह ! मानों इस बच्ची के कान में शीशा पिघला कर किसी ने डाल दिया हो ….काँप गयी विष्णुप्रिया …उससे अब चला नही जा रहा …किसी महिला ने कहा ….ये निमाई को सन्यास लेने थोड़े ही देगी …अपने रूप पाश से बाँध लेगी ….दूसरी महिला तुरन्त कह उठी थी ….वो निमाई है वैराग्य की साक्षात् मूर्ति, वो किसी के रूप पाश में बंधने वाला नही है । तू ज़्यादा मत बोल …बेचारी प्रिया को दुखी बना दिया ….तेरा पति सन्यासी न हो जाये ध्यान देना ….निमाई के साथ बहुत संकीर्तन में उछलता फिरता है वो भी ।
महिलाओं की बातों ने तोड़ दिया था इस विष्णुप्रिया को …..वो धीरे धीरे चल रही थी …अपने को सम्भाल कर चल रही थी ……घर आया ….द्वार कोई बाहर से ही लगा कर गया था …..द्वार खोलकर विष्णुप्रिया ने प्रवेश किया …..दर दीवार रो रहे हैं , प्रिया को ऐसा लग रहा है ….घनी उदासी घर के कोने कोने में छा रही थी …..वो भीतर जाती है …शचि देवि लेटी हुई हैं ….उन्हें कुछ होश नही ….ये क्या है ? क्या गृह त्याग दिया मेरे प्राणेश्वर ने ? नही , इतने कठोर वे नही हैं ।
माँ ! माँ ! प्रिया शचि देवि के पाँवों को हिलाकर उन्हें उठा रही है ।
शचि देवि उठीं ….हाँ , हाँ कौन ? आँसुओं से भरे नेत्रों ने प्रिया को पहले तो पहचाना नही …जब प्रिया ने कहा ….मैं आपकी बहू विष्णुप्रिया । विष्णुप्रिया ! अपने हृदय से लगाकर फिर रोना शुरू कर दिया शचि देवि ने । उस घर में चीख पुकार मच गयी थी ….प्रिया ! क्या करूँ मैं …बोल बेटी ! मैं कुछ सोच नही पा रही हूँ । शचि देवि को इस दशा में देखकर बेचारी विष्णुप्रिया ने ही उन्हें सम्भाला …..फिर कहा …माँ ! वे आते होगें ….मैं भोजन बना लेती हूँ …किन्तु माँ ! उनके भोजन करने तक आप इस विषय को नही छेड़ोगी ।
विष्णुप्रिया भोजन बनाने के लिए चली गयी…..शचि देवि को फिर रोना आया ….इतनी समझदार बहु मिली मुझे …पर मेरा पुत्र इसे नही समझ रहा ।
दोपहर में निमाई भोजन करने के लिए आये …उन्हें पता नही था कि अपने मायके से उनकी धर्मपत्नी विष्णुप्रिया लौट आई है….ये तो घर में आकर अपनी माता को आवाज दे रहे थे कि भीतर से विष्णुप्रिया आई ….इन्होंने देखा तो मुस्कुरा दिये ….अरे वाह ! तुम कब आईं ? तभी निमाई के मुख से ये भी निकल गया अच्छा हुआ तुम आगयीं नही तो माँ अकेली रह जाती । ये सुनते ही प्रिया फिर काँप गयी थी …भीतर से शचि देवि भी अपने अश्रु पोंछ कर आईं ….और सुस्त मनःस्थिति से निमाई को बोलीं …..बेटा ! भोजन कर ले । निमाई मुस्कुराये पर शचि देवि ने गम्भीरता के साथ ही कहा ….मेरा स्वास्थ्य ठीक नही है ….इसलिये तू भोजन कर ले । शचि देवि ये कहकर चली गयीं ।
विष्णुप्रिया ने भोजन दिया …पिता जी माता जी सब कुशल तो हैं ? निमाई सहज बनाने के लिए पूछ रहे हैं । प्रिया ने सिर ‘हाँ’ में हिलाया । भोजन करने के बाद उठे हाथ धोये और अपनी माता के पास जाकर बैठ गये । माँ ! क्या हुआ ? तू अस्वस्थ लग रही है ? तेरे कारण निमाई ! शचिदेवि ने निमाई को कहा …..मेरे कारण ? निमाई पूछ रहे हैं । हाँ हाँ , तेरे कारण …क्यों इस बुढ़िया माँ को मारने का मन बनाकर बैठा है …बोल ! क्यों ? मैंने क्या किया ? निमाई ने कोने में देखा तो विष्णुप्रिया रो रही थी । माँ , स्पष्ट बोलो ना , क्या बात है !
तू भी निर्दयी बन रहा है अपने बड़े भाई की तरह ……तू भी सन्यास ले रहा है ना ! दुनिया को धर्म की शिक्षा देगा अपनी माँ को मारकर ? ये कैसा धर्म है तेरा निमाई !
बड़ साध छिल मने नदीया वसति ।
काल हइया एल मोर केशव भारती ।।
मैंने कितना सोचा था कि नवद्वीप में मेरे बेटे का घर बसाऊँगी …पर मुझे क्या पता था वो केशव भारती नामक सन्यासी मेरा काल बनकर आगया । उस सन्यासी को किसी ओर का घर नही मिला ….किसी ओर के पुत्र नही मिले …इसी विधवा बूढ़ी का पुत्र ही उसे ले जाना है …ओह ! शचि देवि चीख रही हैं ….आवाज पड़ोस में गयी तो कान्चना दौड़ी चली आई ….विष्णुप्रिया को पकड़ कर खड़ी हो गयी …शचि देवि अपने पुत्र निमाई से बात कर रही हैं । निमाई कुछ नही बोल रहे वो एक अपराधी की भाँति सिर झुकाकर खड़े हैं ।
माता की हृदय विदारक बातें सुनकर निमाई भी अत्यन्त दुखी हो गये …..वो क्या कहें ….माता की बातों को काटने के लिए उनके पास आज कोई तर्क भी तो नही हैं ।
सुन निमाई ! एक बात मेरी भी सुन ले ….तेरे बड़े भाई ने हम सबको छोड़ दिया और सन्यास लेकर चला गया …तेरे पिता हम सब को छोड़ स्वर्ग सिधार गये …अब अगर तू सन्यास लेगा तो ये तेरी माँ शचि आत्म हत्या कर लेगी । ये कहते ही निमाई बिलख उठे …ऐसा मत बोल माँ ! मत बोल ।
क्यों न बोलूँ ….निमाई ! तू ही तो मेरी लाठी था ना ….अब कौन ? देख उसे …बेचारी चौदह वर्ष की मात्र है …..ये किसके आधार में रहेगी ….बोल निमाई ! बोल ।
तेरे जन्म के समय मैंने कितने देवि देवता मनाये थे ….तू तब जन्मा था ….मेरे कुल का दीपक है निमाई कहते नही थकते थे तेरे पिता …मैं इतराती थी ….नवद्वीप के लोग मुझे भाग्यशाली कहते थे ….पर अब ये तू क्या कर रहा है निमाई ?
तू भी तो कोमल है ….बिना पनहीं के चलेगा तो कोमल पग में कंटक न चुभेंगे ! तुझे वन प्रदेश में प्यास लगेगी तो कौन जल पिलायेगा ? बोल निमाई ! बोल । निमाई कुछ नही बोल रहे …वो मात्र सिर झुकाकर खड़े हैं ।
सर्व जीवे दया तोर , मोर अकरुण ,कि जानि कि लागि , मोरे विधाता दारुण ।।
निमाई ! तुम सभी जीवों पर दया करते हो …..सर्व जीवों पर दया करो ये शिक्षा भी देते हो …पर मेरी बात आते ही तुम क्यों निर्दयी बन जाते हो ….बोलो निमाई बोलो ।
ये कहते हुए मूर्छित हो गयीं शचि देवि ….निमाई ने सम्भाला अपनी माँ को ….पीछे मुड़कर देखा तो विष्णुप्रिया सिसकियाँ भर रही थी ….उसकी सखी उसे सम्भाल रही थी …पर रो वह भी रही थी ।
शेष कल –


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