उद्धव गोपी संवाद
( भ्रमर गीत)
४३ एवं ४४
देखत इन्ह कौ प्रेम,नेंम ऊधौ कौ भाज्यौ।
तिमिर भाव आवेस,बौहौत अपने जिय लाज्यौ।।
मन में कहि “रज” पाइ के,लै माथे निज धार।
मैं तौ कृत कृत है गयौ, त्रिभुवन आनंद वार।।
वंदना जोग ए।।
भावार्थ:-
इस प्रकार गोपियों का अपने प्रियतम कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम को देखकर,ऊधौ के नियम, ज्ञान इत्यादि सब दूर हो गए।मन में तिमिर भाव का आवेश आ गया और अपने मन में बहुत लज्जित होने लगे।ब्रज की रज को अपने माथे पर लगाकर के अपने मन में कहने लगे कि मैं तो कृत्य कृत्य हो गया हूं,ऐसे ब्रज गोपियों के प्रेम का आनंद मुझे प्राप्त हुआ,इन पर तो पूरे त्रिभुवन के आनंद को वार दूं।
कबहूं कहै,गुन गाइ स्याम कें, इन्हें रिझाऊं।
प्रेम भक्ति तौ भलें,स्यामसुंदर की पाऊं।।
जा विधि मो पै रीझि हीं,सो हौं करुं उपाय।
ताते मो मन सुद्धि होय, दुविधा ज्ञान मिटाय।।
पाऊं रस प्रेम कौ।।
भावार्थ:-
अब उद्धव जी कह रहे हैं कि अब इन गोपियों को श्याम के गुण गाकर रिझाऊं और इनके द्वारा मैं भी श्यामसुंदर की भक्ति और प्रेम को पाऊं। जैसे भी हो, कैसे भी हो, कोई भी उपाय से ये ब्रज गोपियां मुझ पर प्रसन्न हो जाएं ,मेरा मन शुद्ध बने और मेरे ज्ञान की दुविधा मिट जाए और प्रेम रस की प्राप्ति हो।
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