!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी !!
( आनन्द सिन्धु का उछाल – “चलहि राधिके सुजान” )
गतांक से आगे –
आपको पता है ? भागवत में एक प्रसंग है पंचमस्कन्ध में ….कि दूध का समुद्र है ..दही का समुद्र है ….गन्ने के रस का समुद्र है – आदि आदि । मैंने एक दिन पागल बाबा से ऐसे ही पूछा था …वैज्ञानिकों को तो ऐसा कोई समुद्र मिला नही ? तो बाबा ने उत्तर दिया था …गौ के थन में दूध आरहा है …माँ के वक्ष में दूध आरहा है …वो कहाँ से आरहा है ? अरे भई ! मूल उसका कहीं तो होगा ? इस विराट अस्तित्व के रहस्य को तुम्हारे वैज्ञानिक क्या समझें ? बात तो सही है ….”यहाँ जो है उसका मूल कहीं तो है”….भागवत यही समझाना चाहती है …इसलिये उसने दूध समुद्र , दही समुद्र , की बात कही ।
अब आइये अपने विषय पर ……..
हमें आनन्द आता है ….हम मिठाई खाते हैं …तो हम कहते हैं …भई ! आनन्द आगया । हम पहाड़ों में घूमने जाते हैं ….तो हमें आनन्द आगया …..हम अपने प्रिय से मिलते हैं तो आनन्द आगया ….है ना ? तो ये आनन्द कहाँ से आरहा है ? हमारे सन्तों ने एक बड़ी प्यारी बात कही है …..बात गम्भीर है इसलिये गम्भीरता से ही समझना ।
ये जो भव सिन्धु संसार है ना …ये आनन्द सिन्धु का ही एक रूप है …उसी का विलास है ।
मूल में आनन्द सिन्धु है ….उसी की प्रतिकृति है ये भव सिन्धु । अब जिसने इस भव सागर में ही आनन्द सागर को खोज लिया , पा लिया , वो तो धन्य धन्य हो गया ।
अच्छा ! फिर कैसे पाया जाये उस आनन्द सागर को , इस भव सागर में ? तो हमारे श्रीवृन्दावन के सन्तों ने कहा है ….जैसे – अग्नि के सम्पर्क में आने से लकड़ी में अग्नि प्रकट हो जाती है ….लकड़ी में अग्नि है किन्तु प्रकट नही है । अब किसी प्रकट अग्नि से छुवा दो …तो लकड़ी के अन्दर की अग्नि प्रकट हो गयी ।
ऐसे ही किसी रसिक के पास जाओ …जिसने उस आनन्द सिन्धु को पा लिया है , उनका संग करो …उन रसिक के चरण रज को अपने माथे से लगाओ …बस फिर वही आनन्द सिन्धु आपके हृदय में प्रकट हो जाएगा । अभी तो आनन्द रुचि अनुकूल प्रकट होता है …रुचि का भोजन , रुचि का स्थान , रुचि के लोग मिलें तब आनन्द आता है पर ये जो थोड़ा थोड़ा है , आनन्द है वो पूरा ही आयेगा ….आनन्द बना ही रहेगा । क्यों की – थोड़ा है यहाँ , तो पूरा कहीं तो होगा ही ? श्रीवृन्दावन के सन्तों ने यही समझाया है ।
आपको श्रीराधा श्यामसुन्दर से प्यार है कि नही ? हाँ उसे आप कुछ भी कह लो , रति , अनुरक्ति , प्रीति ….है या नही ? क्यों की यही हैं आनन्द सिन्धु । हाँ , अगर इनसे अनुरक्ति नही है ..प्रीति नही है …तो जाइये किसी आध्यात्मिक चिकित्सक के पास ..और कहिये कि मैं रोगी हूँ ….मुझे मिश्री भी मीठी नही लग रही ।
अरे ! विचार करो ….मन पाकर , बुद्धि पाकर , इन्द्रिय पाकर भी तुम प्रभु से प्रेम नही कर रहे …उनसे मिलने की इच्छा नही करते , उनको देखने के लिए तुम्हारे नेत्र व्याकुल नही होते ..जिह्वा मिली है पर उस जिह्वा से मधुर से मधुर “राधा राधा राधा राधा” नाम का उच्चारण नही करते …तो अवश्य आप अभागे हो । भव सिन्धु को देखो और उस आनन्द सिन्धु की भावना तो करो ! इससे सुन्दर मार्ग और कोई होगा ? जहां भव सिन्धु से ही आनन्द सिन्धु तक पहुँचने की व्यवस्था हमारे श्रीवृन्दावन के रसिकों ने हमें दे दी है ।
मन है …..काहे इधर उधर डुला रहे हो ! ले चलो ना उस निकुँज में मन को । मन लगेगा वहाँ …मन की गति वहाँ पंगु हो जाती है …क्यों की मन रस चाहता है ….आनन्द चाहता है ।
अच्छा ! कभी अचानक घड़ी देखो , रात में आप उठे घड़ी देखी …कितने बजे हैं ? दो बजे हैं …तो विचार करो …इस समय हमारी श्रीजी श्याम सुन्दर क्या कर रहे हैं ? तो उसी समय चिन्तन चला दो अपना , कि प्रिया जी श्याम सुन्दर की बाहों में प्रेम पूर्वक सो रही हैं …मन में चिन्तन करो ..उनकी लट श्याम सुन्दर के मुखारविंद पर हैं ..आहा ! बस , मन से दर्शन करते करते सो जाओ ।
समझे ? यहीं से होगा जो होगा । स्वर्ग मिलेगा यहीं से , नर्क मिलेगा यहीं से , मुक्ति मिलेगी यहीं से …और निकुँज में वो उछलता आनन्द सिन्धु भी इसी भव सिन्धु से ही मिलेगा ।
बाबा ! वो आनन्द रस कहाँ मिलेगा ? ये प्रश्न आज मैंने किया राधाबाग में अपने बाबा से ।
“यहीं मिलेगा”, बाबा सहज बोले ।
मुझे चुप होता देख बाबा फिर बोले …निकुँज श्रीवृन्दावन ही है ….ये उस श्रीवृन्दावन की ही प्रतिकृति है …यही है …और यहीं से मिलेगा । बाबा अब स्पष्ट बोले थे ।
जब से मैं ये “श्रीहित चौरासी जी” लिखने लगा हूँ तब से कुछ बदल सा रहा हूँ …एक तो मुझे किसी से कुछ बोलने की इच्छा नही होती …न मिलने की होती है । कुछ चाह थोड़ी बहुत थी पर अब तो बिल्कुल ही नही है ।
बाबा आज शान्त हैं , परम शान्त ….वो जब ऐसे होते हैं तो इसका मतलब होता है वो यहाँ नहीं हैं दिव्य धाम में किसी लीला का दर्शन कर रहे हैं ।
राधा बाग दिव्य लग रहा है आज …एक महात्मा आए हैं जो सबको इत्र ही बाँट रहे हैं ….सबको श्रीजी की प्रसादी इत्र देते हैं और आनंदित होते हैं ….एक महात्मा हैं जो श्रीहित चौरासी जी के पदों में भी नृत्य करते हैं ….सज धज के तैयार होकर आते हैं । लोग कहते हैं कि ये बहुत बड़े सरकारी अधिकारी थे …एक बार आये थे श्रीवृन्दावन तो बाँके बिहारी ने इन्हें पकड़ लिया …फिर तो ये यहीं के हो गये …सब कुछ छोड़ दिया …छोड़ दिया नही ….छूट गया । एक महात्मा तो ऐसे हैं तो सबको पंखा करते रहते हैं ….हाथ का पंखा घुमा घुमा कर करते हैं ।
सच में बहुत आनन्द है……सब आनन्द में हैं ….सर्वत्र इस समय आनन्द ही आनन्द है ।
अब श्रीहित चौरासी जी का पाठ होगा ….आज है बारहवाँ पद …..श्रीहित चौरासी जी का बारहवाँ पद …..गौरांगी ने गायन किया मधुर कण्ठ से …सब एक स्वर में गा उठे ।
चलहि राधिके सुजान , तेरे हित सुख निधान ।
रास रच्यो स्याम तट , कलिंद नन्दिनी ।
निर्तत्त जुवती समूह , राग रंग अति दुकूल ।
बाजत रस मूल , मुरलिका अनन्दिनी ।।
वंशीवट निकट जहाँ , परम रवनि भूमि तहाँ ।
सकल सुखद मलय बहे , वायु मंदिनी ।
जाती ईषद विकास , कानन अतिसे सुवास ।
राका निशि सरद मास , विमल चंदनी ।।
“नरवाहन” प्रभु निहारि, लोचन भरि घोष नारि ।
नख सिख सौन्दर्य , काम दुःख निकंदिनी ।
विलसहि भुज ग्रीव मेलि , भामिनी सुख सिंधु झेली ।
नव निकुँज श्याम केलि , जगत बंदिनी ।12 ।
चलहि राधिके सुजान ……………
सबने पद गायन के बाद वाणी जी रख दी …..और अपने अपने नेत्र बन्द कर लिये ।
!! ध्यान !!
कल फूलों के बंगले में युगल सरकार विराजमान थे …प्रेम क्रीड़ा उन्मुक्त खेली रसराज ने ।
शरद की रात्रि है ……श्रीजी ने नभ की ओर देखा ….तो वहाँ चंद्रमा पूर्ण है …उसकी पूर्णता ऐसी लग रही है मानों काम देव ने अपना चंदोवा तान दिया हो । श्रीजी को बहुत सुन्दर लग रहा है…वो मुस्कुराती हुई अपने प्यारे को देखती हैं और कहती हैं ….मुझे श्रीवृन्दावन की शोभा देखनी है ।
श्याम सुन्दर आज्ञाकारी हैं ….तुरन्त श्रीजी का हाथ पकड़ वो ले धीरे धीरे उस कुँज से बाहर आते हैं ….आहा ! आज तो श्रीवृन्दावन की शोभा अलग ही है ….श्रीजी आनंदित होकर घूमती हैं ….फिर सामने खिले हुए पुष्पों को छूती हैं ….यमुना भी मत्त हैं आज ….उसमें भी फूलों का अम्बार लग गया है ….श्याम सुन्दर यमुना में जाकर एक कमल तोड़ लाते हैं और अपनी प्यारी के केश में लगा देते हैं …..प्यारी बहुत प्रसन्न हो गयीं हैं ….चारों ओर चाँदनी जो फैल रही है उससे पूरा श्रीवन जगमग कर रहा है …..वहीं श्रीजी बैठ गयीं हैं …..वो श्रीवृन्दावन की रात्रि की शोभा देखकर मुग्ध हैं । श्याम सुन्दर श्रीजी के पास आते हैं और कान में कुछ कहते हैं …श्रीजी मना करती हैं और श्याम सुन्दर को खींच कर अपने पास बिठा लेती हैं ।
पर श्याम सुन्दर मानते नही हैं …वो रास करना चाहते हैं , ये तो श्रीराधा भी चाहती हैं पर श्याम सुन्दर का कहना है कि मैं अपने हाथों से कुँज बनाऊँगा और सजाऊँगा । फिर उसी में रास होगा । श्रीराधा ने कहा ..प्यारे ! सखियाँ हैं ना , वो कुँज बना देंगी और सजा भी देंगी । पर श्याम सुन्दर कहाँ मानने वाले थे …वो लग गये मोती कुँज बनाने ….यमुना ने मोतियों का ढेर लगा दिया …उसी मोतियों से श्याम सुन्दर कुँज बनाने लगे ….दिव्य कुँज बनकर तैयार हो गया है …सब कुछ मोतियों का है …और उसमें जब चन्द्रमा की चाँदनी पड़ती है …तो जो चमक उठती है उससे पूरा श्रीवन चमक रहा है । यमुना में अपने चरण रख कर बैठी हैं श्रीराधा रानी मुस्कुराते हुए देख रही हैं अपने प्यारे की कृति …..मुग्ध हैं ….वो अपने आपको भी भूल रही हैं ।
श्याम सुन्दर ने कुँज बना भी दिया और सजा भी दिया …श्रीराधा रानी को अब बुलाना है …पर वो तो देह सुध भूल गयी हैं । क्या करें ? सखियों में से एक सखी को कहा श्याम सुन्दर ने …..कि मेरी प्यारी को इस कुँज में बुला दो …..वो सखी मुस्कुराती है और श्रीराधा जी के पास जाती है …किन्तु श्रीराधा जी को कुछ भान नही हैं ….सखी एक नील कमल यमुना से उठाकर उनकी गोद में रख देती है ….अपनी गोद में नील कमल को देख …श्रीराधा जी को श्याम सुन्दर की याद आती है ….वो इधर उधर देखने लगती हैं ….तब वो सखी कहती है ….प्यारी जू ! चलो !
हे राधिके ! चलो तो …..
कहाँ ? संकेत में श्रीराधा पूछती हैं ।
केवल तुम्हारे लिए कलिंद नन्दिनी यमुना के पास एक कुँज अपने हाथों से श्याम सुन्दर ने तैयार किया है ।
क्यों ? फिर पूछती हैं श्रीराधा जी ।
रास रचाना है उन्हें । इसलिये ।
रास ? रास के लिए तो समूह चाहिए …संगीत चाहिये …श्रीराधा जी कहती हैं ।
वहाँ सब हैं , सुन्दर सुन्दर सखियाँ हैं ….राग है रंग है….और सब नृत्य करने के लिए उत्साहित भी हैं …सखी कहती है – इतना ही नही समस्त रसों की मूल बाँसुरी भी है …जो बजेगी ना तो आनन्द का सिन्धु उछाल मारने लगेगा ।
स्थान कौन सा है ? सामने देख रही हैं फिर भी पूछती हैं श्रीराधा ।
बंशीवट …दिव्य भूमि है वो …प्रेम के सिवाय वहाँ किसी का प्रवेश नही है …मन्द पवन बह रहे हैं …श्रीवृन्दावन रस से मत्त होकर चारों ओर सुगन्ध बिखेर रहा है । शरद की ये चाँदनी मधु बरसा रही है …देखो प्यारी ! आप विलम्ब मत करो ..चलो । पता है श्याम सुन्दर बहुत व्यथित हैं …उनको एक एक पल युगों के समान लग रहे हैं ….आप चलो , और अपने इन कमल नाल की तरह भुजाओं को श्याम सुन्दर के कण्ठ में रख कर प्रेम की वर्षा करो ….निकुँज का ये रस वर्षण ही सम्पूर्ण सृष्टि की प्यास है ….ये उज्ज्वल रस विश्व को भी चाहिए …रस का वितरण प्यारी जू सृष्टि में यहाँ से ही तो होता है । इसलिए यही रस समस्त के लिए कल्याणकारी है ।
सखी के मुख से इतना सुनते ही श्रीराधा जी उठीं और दौड़ीं …सामने ही श्याम सुंदर थे उनके हृदय से जाकर लग गयीं ।
जय जय श्रीराधे ।
पागलबाबा जी आज इतना ही बोले ……..पूरा राधा बाग रस सिक्त हो गया था ।
“चलहि राधिके सुजान , तेरे हित सुख निधान ……..”
गौरांगी ने अन्तिम में इसी पद का फिर गान किया …..आनन्द सिन्धु उछाल मार रहा था ।
आगे की चर्चा अब कल –


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