श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 21
( कृष्ण ने जब पहचान लिया ललिता को.. )
गतांक से आगे –
महाराज ! महाराज !
दो बार ललिता ने आवाज दी कृष्ण को ….कृष्ण तो “राधा नाम” लेते ही भाव सिन्धु में अवगाहन करने लगे थे । वो नेत्रों को मूँद कर अपनी प्रिया का स्मरण करने लग गये थे । उनके नेत्रों के कोर से अश्रु बिन्दु झर रहे थे ।
हाँ , कुछ देर बाद नेत्र खोले कृष्ण ने । ललिता को देखा …फिर संकेत में पूछा ।
ललिता हंसी……कृष्ण गम्भीर हैं ….ललिता हंस रही है पागलों की तरह ….
मैं अभी सहज नही हूँ ….मैं भावुक हो गया हूँ ….और तुम हंस रही हो ? कृष्ण को इस तरह एक जोगन का हंसना अच्छा नही लगा था ।
छोड़िये महाराज ! ऐसे तो हम , भावुक मात्र नही , भाव के सागर में पूरे दिन रात ही डूबी रहती हैं …..और कोई हमें वहाँ से निकालने वाला भी नही होता । एक दो आँसु में ही आप कहने लगे कि “मैं भावुक हो गया हूँ” …..हमारे तो ….”निशि दिन बरसत नयन” । नेत्रों से पनारे बहते हैं …..वस्त्र भींज जाते हैं ….उन्हें बदलते रहना पड़ता हैं । ललिता सब बोली ।
कृष्ण ने अपने अश्रुओं को पोंछा ….सहज हुए …फिर बोले – हे जोगन ! तुमने जो नाम लिया ना ! राधा । आहा ! फिर इतना बोल कर चुप हो गये ….किन्तु ललिता ने उन्हें सम्भाल लिया इस बार …और कहा …आगे बोलिये महाराज ! राधा आपकी कौन लगती हैं ? जिनका नाम लेने से , सुनने से आपकी ऐसी दशा हो रही है ? ललिता ने उत्तर माँगा ।
हे चतुर जोगन ! क्या बताऊँ मैं ? लम्बी स्वाँस ली कृष्ण ने ….फिर बताने लगे ….इस ब्रह्माण्ड में पृथ्वी श्रेष्ठ है ….पृथ्वी में भी बृज मण्डल श्रेष्ठ है किन्तु उस बृजमण्डल में मेरा श्रीवृन्दावन ! आहा ! उस श्रीवृन्दावन की महिमा मैं क्या गाऊँ ? उसका रज मैंने चखा है ….वहाँ के रज में भी एक मधुरता है ….कृष्ण श्रीवृन्दावन महिमा का गान करने लगे थे । फिर आगे बोले …श्रीवृन्दावन में रहने वाले ग्वाल बाल श्रेष्ठ हैं ….मेरे सखा ! कृष्ण ने सखाओं को याद करके फिर अपने अश्रु पोंछे ….हे जोगन ! मैं और क्या बताऊँ ! सखाओं से भी श्रेष्ठ मेरी गोपियाँ हैं ..आहा! उनका निश्छल प्रेम ! किन्तु ! ….कृष्ण यहाँ रुक गये ….आगे बोल न सके …अब अश्रु धार इनके बह चले थे….उठ गये ….रुँधे कण्ठ से कृष्ण ने कहा – “राधा” गोपियों से भी श्रेष्ठ हैं , मेरी राधा ।
ये सुनते ही हिलकियों से ललिता सखी भी रो पड़ी थी …..अब दोनों ही रोने लगे थे …ये स्थिति कुछ समय तक बनी रही ….फिर ललिता ने ही अपने को सम्भाला …..
हे राधारमण ! फिर आप ऐसे क्यों हो गये ? ललिता ने अश्रु बहाते हुए पूछा ।
तुम कैसा देख रही हो मुझे ? कृष्ण भी अपने अश्रु को पोंछते हुए पूछ रहे थे ।
हे बृजबल्लभ ! बातें जैसी हैं , वैसे आपके कार्य दिखाई नही दे रहे । ललिता दो टूक बोली ।
कृष्ण उठ गये …..ललिता भी उठ गयी ….कृष्ण ललिता के पास आये ….ललिता पीछे खिसक रही है । तुम कोई जोगन नही हो । तुम जो मुझे बात बात में व्यंग कर रही हो ना …मैं समझता हूँ ….और तुम्हें भी जानता हूँ ….तुम से मेरा परिचय है किन्तु स्मरण नही आरहा ।
हंसी ललिता …खुल कर हंसी ….क्या कह रहे हो आप ! जानता हूँ किन्तु पहचानता नही ?
सुनो कमल नयन ! जिस दिन पहचानना चाहोगे …पहचान जाओगे । ललिता बोली ।
किन्तु कृष्ण अभी भी सोच रहे हैं …इस तरह से बोलने वाली ? सोचने लगे फिर ।
रहने दो , रहने दो ….अपनी बुद्धि में इतना जोर मत डालो ….मुझे पहचानने की आवश्यकता नही है …मैं कौन हूँ , एक सामान्य नारी। मुझे पहचानोंगे ? अरे ! जिस राधा को “मेरी राधा” कहकर सम्बोधित कर रहे हो….उसे तो आप भूल गये थे , फिर मैं कौन हूँ !
हाँ , पहचानते थे ….हंसी ललिता …अश्रुओं के साथ हंसी ….मुझे उन दिनों पहचानते थे आप …..नही , पहचानते ही नही थे …..मेरे आगे पीछे डोलते थे ….मेरे हाथ पाँव जोड़ते थे ….ललिता आगे नही बोली …वो इतना ही बोलकर चुप हो गयी ।
कृष्ण सोच रहे हैं ….ललिता को देखकर सोच रहे हैं ….अभी रात्रि ही है ….ब्रह्ममुहूर्त होने वाला है …किन्तु अभी हुआ नही है …अंधकार है …..इसलिए ललिता को ये पहचान नही पा रहे ।
छोडिये …..मुझे पहचान कर भी क्या होगा ? क्या फल मिलेगा जान पहचान से ….ललिता लम्बी स्वाँस लेकर कहती है ….हे मथुराधीश ! कोई लाभ नही है ….रो पड़ी फिर ललिता …”प्रीत करी काहु सुख न लह्यौ”…..जिस जिस ने प्रेम किया उसे सुख कहाँ मिला ? अब फिर जान पहचान बढ़ाने से क्या लाभ ! दुख ही तो मिलेगा ना ? ललिता रुँधे कण्ठ से कहती है ।
क्यों ? कृष्ण पूछते हैं ।
क्यों ! ललिता हंसती है ….जान पहचान से क्या मिला ? आज हम भटक रही हैं …वहाँ उनका रो रोकर बुरा हाल है ….कोई क्षण तो शान्ति मिले …पर कहाँ शान्ति ! पागल हैं हम जो प्रेम की डगर में शान्ति खोजने चली आयीं ! रहने दो ….ललिता बार बार अश्रु पोंछ रही है ।
कृष्ण कुछ नही बोले …वो बस पहचानने की अभी भी कोशिश कर रहे हैं ।
किन्तु राजा से परिचय रहेगा तो अच्छा होगा ना ? कृष्ण गलती से ये बात बोल दिये ।
अब ललिता ने कृष्ण को देखा ….उसके नेत्र लाल हो गये ……
ओ महाराज !
आपको लगता है हमें राजा से परिचय रखने की आवश्यकता है ? ललिता आक्रामक हो उठी थी ।
क्यों हम परिचय रखें ? जो वहाँ कुछ यहाँ कुछ है …उससे हम परिचय क्यों रखें ?
हमें क्या लाभ ? हाँ , लाभ उससे होता जो सम रहे ….किन्तु जो विषम हो जाये …स्थान बदलकर सब कुछ भूल जाये , उससे परिचय रखने से हमें क्या लाभ ? ललिता आक्रामक बोल रही है ।
कुब्जा मिल गयी ….हाँ , कूबड़ी को ही जो रानी बनाने की सनक में बैठा हो …उससे हमें क्या मतलब ? जैसा संग होता है ना महाराज ! वैसा ही व्यक्ति हो जाता …संग ही जिसके कुब्जा हो ….आपकी बुद्धि कुब्जा खा गयी है …..
देखो ! लो …..
ये कहते हुये क्रोध में भरी ललिता ने अपनी चोली से वो पत्र निकाला ….और श्याम सुन्दर के हाथों में देते हुए कहा ।
श्याम सुन्दर ने उस पत्र को लिया ….पत्र को छूते ही वो समझ गये …..पत्र को जब पढ़ा ….
“हे राधे ! मैं तुम्हारा दास हूँ”
श्याम सुन्दर ने ही लिखा था …..ओह ! हृदय में पीर उठने लगी । नेत्रों से अश्रु धार चल पड़े …..हिलकियाँ फूट गयीं ….उफ़ ! पत्र को अपने हृदय से लगा लिया श्याम सुन्दर ने …..और नेत्रों को मूँद लिया ।
कुछ देर बाद नेत्रों को खोलकर श्याम सुन्दर बोले – ललिता ! मेरी प्रिया जू की प्रिय सखी…..ये कहते हुए श्याम सुन्दर ने आगे बढ़कर ललिता सखी को अपने हृदय से लगा लिया था । अब ललिता भी रो रही है और श्याम सुन्दर भी ।
क्रमशः…


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