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July 18, 2025 7:50 pm

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श्री सीताराम शरणम् मम 152 भाग 3 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra


🌺भाग 1️⃣5️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

मैं लंका लौटकर अब जानें वाली नही हूँ ……….वो बहुत कुछ बोल रही थी ………..पर सभा को यहीं पर रोक दिया आज मेरे श्रीराम नें ।

राज निर्णय आचुका था ……देश निकाला दे दिया था त्रिजटा को ।


मुझे नही पता रामप्रिया ! मुझे क्या हुआ ?

मैं तुम्हारी बनकर रहना चाहती थी ……तुम्हारे नजदीक मैं रहना चाहती थी …..जैसे लंका में रहती थी……।

पर यहाँ वैसा सम्भव न हुआ ……..होता भी कैसे तुम यहाँ की महारानी हो ……..तुम्हारे और भी रिश्ते नाते हैं …..।

पर मैं चिड़चिड़ी हो गयी……दिमाग तो समझता था पर इस हृदय को मैं कैसे समझाती….मेरा अपना स्वभाव……राक्षसी स्वभाव कहाँ जाता ?

  मैने त्रिजटा को अपनें पास बुलाया था.......उसके द्वारा मुझे सुनना था कि उसनें ऐसा क्यों किया   ?       

रामप्रिया ! मैं जब तुम से – दूर सा अनुभव करती तब मेरा राक्षसी स्वभाव जाग जाता था…..उसी समय मुझ से ये गलती हो गयी होगी ।

गलती हो गयी होगी ? तुम्हे पता है तुम अब अयोध्या में नही रह सकतीं …….तुम्हे यहाँ से जाना होगा …….यही राजाज्ञा है ।

मैने त्रिजटा को बताया ।

मैं कहाँ जाऊँगी ? रामप्रिया ! मैं तुम्हे छोड़कर कहाँ जाऊँगी ?

वो तो धरती में गिर पड़ी ……उसे कुछ होशो हवास नही था ।

मैने उसे सम्भाला ………..वो बस रामप्रिया ! रामप्रिया ! यही बोल रही थी …….हाँ बेहोशी में भी वो यही बोल रही थी ।

मेरा हृदय उसकी स्थिति देखकर द्रवित हो उठा ।

कुछ विचार मेरे मन में आनें लगे …………………

मैं बैठ गयी और त्रिजटा के मस्तक को अपनी गोद में रख लिया ……

त्रिजटा ! मेरी सखी ! उठ ! उठ त्रिजटा !

उसका मेरे प्रति जो प्रेम था वो अद्भुत था ……..मैं उसे नजरअंदाज कैसे कर सकती थी…………।

त्रिजटा ! तू मेरे मायके में रह ………..मेरे जनकपुर धाम में ।

ये सुनते ही त्रिजटा को होश आया ………..वो उठनें की कोशिश करनें लगी …………….

हाँ …….हाँ त्रिजटा ! मेरे जनकपुर धाम में जाकर रहो ……….

और तुम वहाँ की कोतवाल बनो…..जैसे अयोध्या के कोतवाल तुम्हारे भाई “मत्तगजेन्द” हैं ना………ऐसे ही मेरे जनकपुर की कोतवाल तुम रहोगी……मैने त्रिजटा के सिर में हाथ रखते हुये कहा ।

पर रामप्रिया ! आप वहाँ कहाँ हो ?

त्रिजटा ! मायका हर नारी के हृदय में होता है ……………यानि मेरे हृदय में मेरा मायका जनकपुर धाम है ………..तो मैं जनकपुर में नही हूँ ये तुम कैसे कह सकती हो ? मैं जनकपुर में हूँ ………..मेरे हृदय में जनकपुर है ……..मैं वहाँ के कण कण में बसी हुयी हूँ ।

त्रिजटा प्रसन्न हुयी थी ये सुनकर ………..वो उठी ………….मैं उसी भूमि में रहूँगी जहाँ तुम प्रकट हुयी थीं ।

प्रणाम किया मुझे और “जनक नन्दिनी सिया सुकुमारी की जय “

जयकारा लगाते हुये वो आनन्द से उड़ चली ।

वो गयी जनकपुर में……….मेरे भाई लक्ष्मी निधि नें त्रिजटा को स्थान दिया………वो उसी स्थान पर ध्यानस्थ हो जाती थी ।

फिर तो “राजदेवी” यही नाम जन सामान्य में प्रचलित होनें लगा ।

आज भी जनकपुर धाम की कोतवाल राजदेवी हैं……मेरा दर्शन करके इनका दर्शन करना भी आवश्यक है……और ये त्रिजटा राक्षस वंश की है …..इसलिये बलि प्रथा यहाँ मान्य है ।

शेष चरित्र कल ………..!!!!!!!

🌹 जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ४४*

               *🤝 ३. संसार 🤝*

                _*संसार की प्रतीति*_ 

   अज्ञानी को जिस प्रकार संसार दिखलायी देता है, वैसा ज्ञानी को नहीं दिखलायी देता । यही बात पंचदशी में और ही तरह से समझायी गयी है, जो देखने-योग्य है। वहाँ कहा गया है-

 *ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन निर्मिता ।*
 *जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥*

   यहाँ जगत् को दो भागों में बाँट दिया गया है- एक तो ईश्वरनिर्मित सृष्टि और दूसरा जीवकल्पित संसार । ईश्वर ने अपने संकल्पमात्र से कार्य-कारण भावयुक्त नाम-रूपात्मक सृष्टि की रचना की। यह सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है और इसमें कोई कमी-बेशी नहीं होती है। यह केवल कार्य-कारण भावरूप है। इसलिये पदार्थों का रूपान्तर हुआ करता है और इसी कारण नाम-रूप बदला करते हैं। इस सृष्टि का नाश नहीं होता। परंतु प्रलयकाल में इसका तिरोभाव हो जाता है और सृजनकाल में फिर उसी सृष्टि का आविर्भाव होता है। इस आविर्भाव और तिरोभाव को सृष्टि की उत्पत्ति और लय कहते हैं।

   *संसार – जीव जब शरीर धारण करके माता के उदर में से बाहर निकलता है, तबसे लेकर जबतक वह शरीर का त्याग नहीं करता, तबतक अपनी कल्पना से 'मैं और मेरे' रूप में प्राणी और पदार्थों का संग्रह करता है, उसको ही संसार कहते हैं। यह संसार जीव की ही कल्पना होने के कारण घटता और बढ़ता रहता है और जीव जब यह शरीर छोड़ता है, तब इस शरीर से रचा हुआ संसार भी छूट जाता है अर्थात् जीव का गत शरीर के-संसार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता; इतना ही नहीं, बल्कि उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती।*

   अब यह देखना चाहिये कि जीव अपनी कल्पना से किस प्रकार संसार की रचना करता है। जीव जब माता के गर्भ में होता है, तब वह अनेक यातनाओं को भोगता रहता है। माता के आहार-विहार से उसको दुःख पहुँचता है। फिर बँधी जगह में प्रवाही तत्त्वों के बीच उलटे सिर लटकने का दुःख भी कोई छोटा दुःख नहीं है तथा माता की जठराग्नि के ताप से संतप्त होते रहना आदि अनेक दुःख होते हैं; परंतु सबसे अधिक और असह्य दुःख तो उसको पश्चात्ताप का होता है। सैकड़ों बिच्छुओं के डंक की अपेक्षा भी इस दुःख की वेदना अति तीव्र होती है। जीव जब गर्भ में रहता है, तब उसकी सुषुम्ना नाड़ी खुली रहती है और इस कारण उसको गत जन्मों की सारी बातें याद होती हैं तथा सारा ही भूतकाल सिनेमा की फिल्म के समान उसकी दृष्टि के सामने उपस्थित होता है। इससे गत मनुष्य-जन्मों में ईश्वर ने दया करके मुक्ति प्राप्त करने के लिये जो-जो सुअवसर प्रदान किये, उन सबको विषय-सेवन के पीछे धूल में मिला देने के कारण उसको अत्यन्त पछतावा होता है। सच्चे पश्चात्ताप की तीव्र वेदना की कल्पना तो भुक्तभोगी ही कर सकता है। उस समय भी जीव प्रभु से प्रार्थना करता है— *'भगवन् ! मैं कृतघ्न हूँ। आपके द्वारा प्रदान किये गये सभी अवसरों को मैंने व्यर्थ ही गवाँ दिया और आपको दिये हुए वचन का भी मैंने पालन नहीं किया। मैं अत्यन्त नीच और वचन-भंग करनेवाला विश्वासघाती तथा आत्मद्रोही हूँ। फिर भी आपकी दया का पार नहीं है, इसलिये इस समय मुझको इससे बाहर निकालिये। इस जन्म में तो जरूर ही आपकी भक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं करूँगा, जिससे कि मुझको फिर कभी गर्भवास का दुःख न भोगना पड़े।'* करुणा के समुद्र परमात्मा उसको गर्भ से बाहर निकालते हैं। प्रसव का धक्का लगते ही उसकी सुषुम्ना नाड़ी इडा और पिंगला के बीच गुँथ जाती है और परिणामस्वरूप उसे ज्ञान की विस्मृति हो जाती है। गर्भ से बाहर निकलने पर वह बेसुध होता है और जड़ के समान उसको अपना तथा दूसरे विषयों का कुछ भी ज्ञान नहीं होता।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
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