श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 22
( विरह में हाहाकार करती वेदना )
गतांक –
हिलकियों से दोनों रो रहे हैं ….कुछ देर तक रोते रहे …फिर ललिता ही कृष्ण से अलग हुयी ।
क्यों कि प्रभात होने से पूर्व ही कृष्ण से अपनी बातें कर लेनी हैं ललिता को ……नही तो नगर के लोग जान जायेंगे कि बृज से अब नारियों को भेजा जा रहा है , कृष्ण को बुलाने के लिए । इस बात से बृज की छवि बिगड़ेगी ।
ललिता अपने बुद्धि चातुर्य का ऐसी दशा में भी प्रयोग करती है ।
वो सावधान हुयी …..उसे कृष्ण को वापस श्रीवृन्दावन ले जाना है ….जैसे भी हो, ना , कोई तर्क नही , कोई विकल्प नही …कृष्ण को वापस ले जाने के लिए ही तो ये आयी है । और अपनी स्वामिनी को बोल कर आयी है । स्वामिनी उधर इसकी प्रतीक्षा में है ….उन्हें विश्वास है कि ललिता जो ठान लेती है वो पूरा करती ही है । वो मेरे प्रीतम को लेकर आएगी ही ।
कह ललिते ! मेरा बृज कैसा है ?
ललिता के हाथों को अपने हाथों में लेकर कृष्ण पूछ रहे हैं ।
सब मंगल तो है वहाँ ? नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं कृष्ण के ।
तू मेरी प्रिया की प्रिय सखी है ….बता ! मेरा वृन्दावन कैसा है ? वहाँ मेरे बाबा कैसे हैं ? कृष्ण रो पड़े ….मेरे ऊपर मेरे बाबा ने बहुत स्नेह बरसाया है ….उनका वो स्नेह , उनका वो दुलार …मैं नही भूल सकता । ललिता सुन रही है कृष्ण कि एक एक बातें ….कृष्ण अब अपने अश्रु भी नहीं पोंछ रहे ….उनको बहने दे रहे …वो बह रहे अविरल ।
और मेरी ममता से भरी वो मैया यशोदा ? हिलकियाँ छूट गयीं कृष्ण की ये प्रश्न करते ही ।
वो मेरी मैया ! मेरा कितना ध्यान रखती थी ….हर समय “मेरा कन्हैया मेरा कन्हैया” ….ललिता ! एक दिन उसनें मुझे बांध दिया था ….पर उसके बाद वो उस दिन की घटना स्मरण करके मुझे बार बार कहती रही ….लाला ! तेरी मैया दुष्ट है …तेरी मैया क्रूर है ….तेरी मैया अतिशय निष्ठुर है । ओह !
मुझे माखन खिलाती थी ….मुझे दूध पिलाती …कभी मैं कम दूध पीता था ..तो मन्त्र फूकनें वालों को बुलाकर कहती …मेरे बेटे को नज़र लग गयी है ….उतार दो ….वो परेशान हो उठती थी ….ललिता ! यहाँ मथुरा में मुझे कोई पूछने वाला नही है …दास दासियाँ ले आती हैं छप्पन भोग …कह दूँ …आज नही खाऊँगा …तो ले जाती हैं । पर वहाँ ! वहाँ तो मैंने एक दिन नही खाया तो पूरा नन्दगाँव परेशान हो उठता था ….ललिता ! मेरी मैया ! कैसी है ? ओह ! कैसे रहती होगी ! मैं सुबह जाता था गौचारण के लिए और साँझ में लौट आता था तो….उतने समय में भी उसकी बैचेनी देखी जा सकती थी …मेरे लौटने के समय वो द्वार पर ही खड़ी मुझे मिलती ….मुझे देखकर उसका मुखमण्डल खिल जाता था ….उसकी वो गोद ? ललिता ! उस गोद में जो सुख था वो कहीं नही है । उसका वो माखन खिलाना , जब मैं कहता था कि मैया , पेट भर गया …वो कहाँ मेरी बात मानती थी …पेट दबाती थी …पेट दबाकर कहती थी …अभी बहुत जगह है …मैं फिर भी मना करता तो वो मेरे कान पकड़ती …कहती – माखन खा , नही तो मारूँगी ….वो मुझे ताड़ना भी देती । रात में सोती नही थी …मैं करवट भी बदलता तो उठकर वो मुझे देखती ….मैं कभी शीत के प्रकोप में आजाता तो हिम्मत होती निद्रा देवि की , कि वो मेरी मैया को छू भी जाये !
रात भर उठकर मुझे देखती …औषधि देती …मेरे लिए वो तन्त्र मन्त्र वालों को अपने घरों में बुलाती ….ललिता ! कहते हैं निस्वार्थ प्रेम श्रेष्ठ होता है …पर नही ..देवि देवता भगवान के प्रति मेरी मैया यशोदा का स्वार्थ से भरा प्रेम था …वो स्पष्ट कहती ..मैं जो व्रत कर रही हूँ …पूजा कर रही हूँ ..दान आदि दे रही हूँ ….केवल मेरा लाला स्वस्थ रहे ..प्रसन्न रहे इसके लिए ।
कृष्ण के सारे वस्त्र भींज गए हैं अश्रुओं से ।
कुछ देर ऐसे ही रहे कृष्ण …..रोते रहे …वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।
ललिता ! मेरे सखा कैसे हैं ? बता ! कृष्ण ने ललिता से पूछा ।
मेरा मनसुख कैसा है ? वो पागल मनसुख ! कहता था …तुझमें हिम्मत है तो मुझे मोटा करके दिखा । मैंने उसी के लिए माखन चोरी की थी ….अब कैसा है वो ?
वो सखाओं का प्रेम ! ओह ! यहाँ तो मुझे सब राजा , महाराजा कहते हैं …एक मित्र है उद्धव …किन्तु वो भी हाथ बांधे खड़ा रहता है जैसे वो सेवक हो । कृष्ण बोले – ललिता ! सख्य भाव को उजागर तो मेरे बृज के सखाओं ने ही किया है । मुझे घोड़ा भी बना देते थे ….मुझे पकड़कर बाँध देते थे …किन्तु उनका प्रेम अद्वितीय था । ललिता ! जब मेरे सखाओं ने समझा कि कंस के राक्षस मुझे मारने बृज में आरहे हैं ….ओह ! सबने मेरा रूप धारण करना शुरू कर दिया था …वो सब मेरी तरह ही मोर मुकुट धारण करते ..पीताम्बर मेरी तरह ! और हद्द तब हो गयी जब नीला रंग पोतकर उस दिन मनसुख आगया……मैं उस दिन बहुत हंसा …बहुत । मैं समझ ही नही पा रहा था कि मेरे सखा मेरा रूप क्यों धारण कर रहे हैं ! उस दिन मुझे श्रीदामा ने बताया ।
कन्हैया ! कंस तुझे मारने के लिए राक्षस भेजता है ना …तो तेरा स्वरूप उनको बताता होगा कि …..कृष्ण मोर मुकुट धारण करता है ….पीताम्बर पहनता है ….
तो ? मैंने पूछा था श्रीदामा से ।
तो श्रीदामा ने उत्तर दिया था …..हम ही कृष्ण हैं …मार हमें ! पहले हमें मार …उन राक्षसों को हम ही कृष्ण हैं ये बताने के लिए …तेरा स्वरूप धारण कर रहे हैं ।
कृष्ण ये प्रसंग सुनाते हुए खूब रो रहे हैं ….खूब ।
कन्हैया ! ये खा ….एक दिन मनसुख ने लड्डू लाकर दिया …और मुझे कहने लगा …खा ।
मैंने भी खा लिया …..तो श्रीदामा की ओर देखकर वो हंसा था ….मैंने मनसुख से पूछा …तू हंसा क्यों ? वो ताली बजाते हुए बोला ….मैंने अपना झूठा खिला दिया तुझे । मैं उसे पीटने के लिए भागा तो हाथ जोड़कर बोला …पीट…खड़ा हो गया मेरे सामने ।
पर मुझे झूठा क्यों खिलाया मनसुख ! मैंने जब उसे गम्भीरता से पूछा ….तो ललिता ! उसका उत्तर था ….झूठा खाने से प्रेम बढ़ता है ….मैंने कहा …तेरे मन में मेरे प्रति क्या प्रेम की कमी है ? तब गम्भीर होकर बोला मनसुख ….मेरे मन में तो तेरे प्रति बस प्रेम ही प्रेम है …किन्तु तेरे मन में नही है झूठा मैंने तुझे इसलिये खिलाया ताकि तू भी हमसे प्रेम करे । कहीं ऐसा न हो कि हम कर रहे हैं प्रेम …और किसी दिन हमें छोड़कर तू चला गया तो ?
विशुद्ध सख्य भाव ! कहीं कोई अन्य भाव का प्रवेश ही नही ।
कृष्ण को ज़्यादा रोते हुए देखा ललिता ने तो उन्हें बैठा दिया ….बोली – ज़्यादा मत रो श्याम ! हमें तो आदत है किन्तु तुम्हें नही है, कोमल हो …ये कहते हुए श्याम सुन्दर को ललिता ने बिठा दिया ।
इधर उधर देखा ललिता ने …क्या देख रही हो ? तुम्हारे लिए जल ! तुम्हारा कण्ठ सूख रहा है । ललिता के हृदय में अतिशय स्नेह है कृष्ण के प्रति । इस स्नेह को कृष्ण अनुभव कर रहे हैं ….वो लम्बी स्वाँस लेते हैं …रुँधे कण्ठ से कहते हैं ….यहाँ कोई नही है इस कृष्ण को पूछने वाला ।
ललिता जाती है बाग में सरोवर भी है , कमल पत्र में जल लेकर आती और कृष्ण को पिलाती है ।
मेरी गोपियाँ कैसी हैं ?
जल पीकर , कुछ देर अपने को सहज करके कृष्ण ने ये तीसरा प्रश्न किया था ।
किन्तु इस प्रश्न के करते ही कृष्ण के हृदय में विरह की वेदना और तीव्रतम हो उठी थी ।
ओह ! ललिता ! मेरी वो गोपियाँ ! उनके जीवन में मैं ही तो था ….उनकी हर क्रिया मेरे लिए ही तो होती थी ….उनकी बातों का विषय उनका ये श्याम सुन्दर ही तो था ।
फिर आँसुओं की वर्षा !
ललिता ! वो कहीं जाने को निकलती थीं अपने घर से किन्तु पहुँच जाती थीं मेरे घर …मुझे देखने ….उनके पाँव अपने आप मेरी ओर चल देते थे …उनकी आँखें बस मुझे ही देखना चाहती थीं ….उनके कान बस मुझे ही सुनते थे ….उनका मन मुझ में लगा हुआ था ….फिर रुक कर कृष्ण बोले …नही नही , उनका मन मुझ में लगा नही था …उनका मन मैं ही बन गया था ।
खाती थीं मेरे लिए …वो पहनती थीं मेरे लिए , वो सजती थीं मेरे लिए ….वो सोती थीं मेरे लिए तो जागती भी थीं मेरे लिए । उनके जीवन में केवल केवल मैं था । ओह ! वो कैसे रहती होंगीं इन दिनों मेरे बिना । ललिता ! उन गोपियों ने मेरे लिए सर्वस्व त्यागा ….इतना बड़ा त्याग तो कोई योगी , तपस्वी भी नही सकते …वो लाल वस्त्रों में सजी धजी एक उच्च सन्यासन हैं । मैं जब आ रहा था मथुरा …तब मैंने उनको देखा ….उनकी दशा देखी ….वो मर जातीं …किन्तु उन्होंने मेरे लिए अपने जीवन को धारण कर रखा था । ओह ! ये कहते हुए कृष्ण अब अचेत हो गये थे ।
ललिता ने उन्हें सम्भाला ।
ब्रह्ममुहूर्त भी हो रहा था ….बाहर लोगों का आवागमन शुरू हो रहा था ।
ललिता फिर गयी सरोवर में ……कमल पत्र में जल लेकर आयी …और जल का छींटा देते हुए …रो उठी ….उधर तुम्हारी प्रिया की दशा इससे भी ज़्यादा उन्मादपूर्ण है और इधर तुम !
हे कात्यायनी देवि ! इन दोनों को मिला दो ……
ललिता हाथ जोड़ रही है । देवि देवताओं को मना रही ।
क्रमशः….


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