श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 26
( कृष्ण ने जब फिर कहा – “मैं आऊँगा” )
गतांक से आगे –
हे मथुराधीश ! हे वासुदेव ! आप कहाँ हैं ?
ओह ! बाग से भीतर कक्ष की ओर देखा ललिता ने वहाँ कोई राजपुरुष …शायद उद्धव हैं …ललिता देख रही है ….यहाँ तो अचेत पड़े हैं कृष्ण , ललिता उन्हें अपनी चादर से ढँक देती है ।
क्या भगवान वासुदेव को इधर आपने देखा है ?
गवाक्ष से झांक कर उद्धव ने बाग में बैठी ललिता से पूछा ।
ललिता ध्यान मुद्रा में बैठ गयी है ।
ओह ! क्षमा करें ….इतना कहकर उद्धव कक्ष से बाहर चले गये ।
ललिता ने लम्बी स्वाँस ली …ब्रह्ममुहूर्त की वेला हो चुकी है…उद्धव के पीछे कुब्जा भी आयी थी …किन्तु इधर उधर देखकर वो भी चली गयी ।
अब फिर कृष्ण को मूर्च्छा से जगाना है । ललिता ने फिर सरोवर की ओर देखा …वो इधर उधर देखते हुए वहाँ गयी …और कमल पत्र में जल भरकर ले आयी …जल का छींटा श्रीमुख में दिया ….कृष्ण मूर्च्छा से जाग उठे थे ।
राधा , राधा , राधा !
कृष्ण उठे ….तो उनके मुख से यही नाम निकल रहा था ।
ओह ! तुमने कैसा वर्णन किया मेरे वृन्दावन का ! ललिते ! क्या ऐसा हो गया है मेरा बृज ? मेरे ग्वाल सखा अभी भी मेरी प्रतीक्षा करते हैं ?
मेरी मैया ! मेरे बाबा क्या अब इतने अधीर हो चुके हैं ?
ओह ! और मेरी राधा ? मेरी प्राण , मेरी जीवनी राधा की दशा ?
कृष्ण ये कहते हुए हिलकियों से रो रहे हैं ।
हे श्याम सुन्दर ! श्रीराधारानी के दुःख का वर्णन अब मुझ से नही होगा । ललिता ने बोल दिया ।
जैसे सूर्य के बिना कमलिनी मलीन हो जाती हैं …ऐसे ही वह स्वर्ण कमलिनी श्रीराधा मुरझा गयीं हैं …..उनके लिए हे श्याम सुन्दर! तुम ही सूर्य हो …..तुम्हारे बिना वो एक प्रकार से विरह की प्रवल ज्वाला को आलिंगन कर बैठी हैं …..अब तुम ही बताओ क्या कहें ? तुम पूछो …कि चलो मेरी राधा जीवित तो हैं ……तो हे कुटिल सखे ! उनका जीवन तो मृत्यु से भी भयानक है । वो प्रत्येक क्षण मरती हैं …..उनके अन्दर जो विरह की ज्वाला धधकती है ….उससे उनके मन प्राण सुलगते रहते हैं …..हे धूर्त श्याम ! और कितना सुनोगे ? कभी कभी हम सखियों को भी लगता है कि ये मृत्यु का वरण कर लें …..इतने कष्ट में हैं वो । ललिता शान्त है …उसके नयनों से अश्रु बह रहे हैं …वो पोंछ रही है । हे श्याम सुन्दर ! बताओ ना ! उनसे क्या अपराध बन गया है ? मैं नही कह रही …जब मैं उनके पास से इधर आ रही थी …तो उन्होंने ही मुझ से संकेत में कहा था ….कि पूछना मेरे नाथ से कि मुझ से क्या अपराध बन गया, जो मुझे छोड़ दिया ?
हे कृष्णचन्द्र ! वो तुम्हारी चकोरी है …. यहाँ के लोग तुम्हारे नही है ….ये कुब्जा कल तक कंस की थी आज तुम्हारी है …कल कोई और राजा बनेगा तो ये उसकी हो जाएगी । किन्तु वृन्दावन के लोग ऐसे नही हैं ….वो तुम्हारे ही थे , तुम्हारे ही हैं और तुम्हारे ही रहेंगे । श्रीराधारानी किसी ओर की हो नही सकती ….वो या तुम्हारी है या मृत्यु उन्हें स्वीकार है । ललिता शान्त होकर ही ये सब बोल रही है । कृष्ण उसकी बातें सुन रहे हैं और अश्रु प्रवाहित कर रहे हैं ।
हे कृष्ण ! आप के हमारे अश्रु गिरते हैं कुछ समय के लिए ….किन्तु श्रीराधा के अश्रु अविरल बहते रहते हैं ….अष्ट काल अश्रु प्रवाहित करते हुए वो आपमें ही रहती हैं ।
हे निष्ठुर कृष्ण ! और कितना कहूँ ….भीतर विरह की ज्वाला है ,और नेत्रों से अश्रु …..किन्तु वो निरन्तर बहते हुए अश्रु भी इनको शीतलता प्रदान नही कर पाते और विरह अग्नि जल उठती है….उस समय वो चीखती हैं …धरती में लोटती हैं …..और हमारा दुर्भाग्य कि हम उनके लिए कुछ नही कर पातीं …हम इतनी हताश और निराश हो जाती हैं …..कभी कभी मन करता है हम मर जायें …मर ही जायें ….किन्तु लाड़ली को फिर कौन सम्भालेगा । ललिता की हिलकियाँ फिर शुरू हो गयी हैं । हे श्याम ! तुमने जब अपनी प्रिया को देखा था तो कैसी पूर्ण चन्द्र की तरह थीं …किन्तु अब देखो कृष्ण ! जाकर देखो …वो पूर्ण शशि अब क्षीण कला होकर बिलख रही है । हे श्याम ! तुमने देखा होगा उन्हें….वो विद्युत के समान चमकती थीं ….पर अब वो अमावस्या के गहन रात्रि के समान हो गयी हैं । वो तुम्हारी याद में इतनी डूबी रहती हैं कि ….उनका अब गौर वर्ण नही रहा ….श्याम वर्ण हो चुका है ।
ये बात ललिता ने अन्तिम में कही । क्यों की अब प्रभात की वेला होने वाली है ….ये राजा हैं अब इन्हें यहाँ से जाना होगा ….और मुझे भी अपने आपको छुपाना है …वृन्दावन की लाज मेरे ही हाथों में है । ललिता ने इधर उधर देखकर अपनी बात को यहीं विराम देने की सोची ….और कृष्ण को अब वृन्दावन ले जाने की बात ……..
हे ललिते ! अब मैं अविलम्ब वृन्दावन गमन करूँगा ।
ओह ! ये क्या बोल दिये थे श्याम सुन्दर …ललिता को कुछ कहना भी नही पड़ा । उसका रोम रोम पुलकित हो उठा …उसके नेत्रों से जो दुःख के अश्रु बह रहे थे वो अपार सुख के अश्रुओं में बदल गए ।
ललिता हाथ जोड़कर चरणों में गिर गयी श्याम सुन्दर के …और रोने लगी ।
चलो ! चलो श्याम ! चलो । तुम यहाँ हो , किन्तु यहाँ के लोगों में तुम्हारी महिमा नही है ….तुम वृन्दावन चलो ….वहाँ के लोग सर्वस्व तुम्हारे चरणों में चढ़ा देंगे …..जीवन ही मिल जाएगा उन्हें । अपने सुख के अश्रुओं को पोंछते हुए ललिता कहती है ….यहाँ तुम्हारा काम पूरा हुआ ….राजा कंस दुष्ट था …तुमने उसका वध कर दिया …हो गया काम ….अब मथुरा सुखी है….तुम यहाँ रहो या न रहो …अब कोई विशेष फ़र्क़ नही पड़ेगा । किन्तु वृन्दावन तुम चले चलोगे ना ….तो वहाँ के लोगों को जीवन मिल जाएगा । हे राधा रमण ! हे राधिका वल्लभ ! मेरी बात मान लो …वहाँ के लोगों को बचा लो …..चले चलो । वृन्दावन चलो ।
“आऊँगा” । कृष्ण ने ललिता से दृष्टि झुकाकर कहा ।
क्या कहा ? फिर कहना ….आऊँगा ? हम लोगों से छलना मत करो । हम कोई और नही हैं तुम्हारी ही हैं …हमसे क्यों झूठ बोलते हो ! क्यों ये सब कर रहे हो ? मत करो । आऊँगा ? ललिता हंसी …ये तो तुम कहकर ही आए थे …..आऊँगा …..पर रम गए इस मथुरा के वैभव में ।
ललिता फिर हिलकियों से रोने लगी …..तुम नही आओगे ! तुम झूठे हो । फिर हमसे छल कर रहे हो । बोलो – क्यों ऐसा कर रहे हो ?
ये कहते हुए ललिता सखी अपना सिर पटकने लगी थी ।
क्रमशः….


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