श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 27
( श्रीवृन्दावन लौटी ललिता…)
गतांक से आगे –
ललिता ! सम्भालो अपने आपको ….मैं सच कह रहा हूँ ….मैं कल आऊँगा ।
कृष्ण ने ललिता को संभलने के लिए कहा ।
अब विश्वास नही रहा तुम्हारे ऊपर मुझे । क्यों विश्वास करूँ ….हे श्याम ! तुमने विश्वास के लायक किया ही क्या है ? अरे ! मैंने सोचा था कि तुम कभी तो याद करते होगे ….कोई तो क्षण होता होगा जब तुम हम लोगों को याद करके अश्रु बहाते होगे । किन्तु मैंने देख लिया ….समझ लिया प्यारे ! तुम्हारे पास समय ही नही है …कि हमें याद करो ….तुम मथुरा के सुख वैभव को पाकर पूर्व स्मृतियों को भुला चुके हो । ललिता बोलती जा रही है ….उसे अब नही सुननी कृष्ण की बातें …..तुमने कहा …मैं “कल” आऊँगा ? “कल” पर अब हमें भरोसा नही रहा ….बिल्कुल भरोसा नही रहा …डर और लगता है “कल” की बात पर । पता नही कैसा होगा “कल” ? बहुत दुःख कष्ट सह लिए हैं हमने ….अब नही । हे श्याम ! हमारा कुछ नही है …बस चिन्ता रहती है स्वामिनी की ….मैं इसलिये आयी थी मथुरा कि तुम्हें अपने साथ ले जाऊँ ! पर नही ले जा सकी ….ललिता ये कहते हुए हिलकियों से रोने लगी थी ।
ललिता ! जैसा तुम कह रही हो क्या मेरा स्वभाव ऐसा है ? दुखी होकर कृष्ण बोले ।
हाँ , हाँ तुम निष्ठुर हो ….तुम्हारे मन में कोई प्रेम नही है ….तुम जहां हो वहीं के होकर रह जाते हो …दूसरा मरे या जीये उससे तुम्हें कोई मतलब नही है ….हे श्याम ! मैं जब आयी थी मथुरा तो बहुत कुछ सोचकर आयी थी ….कि तुम हमें याद करते होगे …किन्तु तुम्हें जब मैंने देखा …रथ में देखा ….प्रसन्न मुखमण्डल तुम्हारा …..तुम अपने लोगों को अपनी माला दे कर आह्लादित हो रहे थे …लोग तुम्हारी जयजयकार कर रहे थे और तुम उसी में मग्न थे ।
और उधर …..हम लोग पागल हैं ….हमारी कोमल से भी कोमल श्रीराधारानी ….हे श्याम ! हर क्षण उनकी आह निकलती रहती है ….जब से तुम गये हो अन्न का दाना मुँह में नही गया है उनके …..उनकी मुस्कुराहट कैसी थी हम सब भूल चुकी हैं ! हे घनश्याम ! तुम्हारे विषय में लोग बहुत कहते हैं कि तुम दयालु हो , कृपालु हो ….मैं भी यही मानती थी …किन्तु यहाँ आकर पता चला कि तुम तो निर्दयी हो सखे ! पाषाण भी पिघल जाये बृज की स्थिति देखकर ….पर तुम यहीं रहोगे । हम मर भी जायें ….तुम्हें क्या मतलब श्याम ! तुम्हें ये राज्य मिल गया , राजा बन बैठे हो ….बस हो गया । ये कहते हुए ललिता ने अपने हाथ जोड़ लिए ।
मैं अपनी प्रिया राधा को बहुत याद करता हूँ ललिता ! मेरा विश्वास करो । कृष्ण चिल्लाये ।
देख लिया मैंने ……तुम कितना याद करते हो ….और ये अश्रु बहाने से मुझे छलना नही …मैं तुम्हारी छलना सब समझती हूँ ।
ललिता के पाँवों में गिर गए श्याम सुन्दर …तू मेरी प्रिया की प्रिय सखी है ललिता ! ऐसा मत बोल …मैं कहता हूँ ….मेरी बातों पर विश्वास कर …..मैं हर पल राधा में ही जीता हूँ ।
ललिता व्यंग में हंसी …और बोली ….वाह ! तो बताओ ….तुम्हारा श्याम अंग गौर क्यों भी हुआ ? कृष्ण कुछ न बोल सके । ललिता चिल्लाई ….हमारी स्वामिनी साँवली हो गयी हैं …उनका गौर वर्ण अब नही रहा ….वो तुम्हें याद करते करते श्याम ही बन गयी हैं ।
हे श्याम सुन्दर ! तुम तो ऐसे नही हुए ? तुम तो और सुन्दर लग रहे हो ….वृन्दावन से ज़्यादा तुम्हारा रूप यहाँ खिल गया है …..छोड़ो प्यारे ! मथुरावासियों को ये सब बताओ …इन्हें बहलाओ ….इनके साथ राग रंग करो । हम सब तो अब पुरानी हो गयी हैं । ललिता ने अब अपने कदम वहाँ से बढ़ा दिये थे । किन्तु फिर मुड़कर ललिता ने श्याम को उठा लिया ….और फिर रोती हुयी बोली …..सखे ! एक बार तो आजाओ । अपनी प्रिया को तो देख जाओ ….सच में वो बहुत कष्ट में हैं । ये कहते हुए हिलकियों से ललिता खूब रोई । कृष्ण भी रोये ।
तभी –
अरे ! आप यहाँ हो ? उद्धव आये और कृष्ण से कहा ।
कृष्ण ने तुरन्त अपने अश्रु पोंछ लिए ।
ललिता ने तुरन्त अपना चादर खींचकर मुख ढँक लिया ।
आप यमुना स्नान के लिए नही जायेंगे प्रभो ? उद्धव ! ये योगिनी हैं इनके दर्शन के लिए मैं बाग में आगया था …कृष्ण ने ललिता को दिखाकर कहा । इनको तो मैंने ध्यानस्थ देखा था …उद्धव ने भी कहा ।
ललिता धीरे से बोली …..अच्छा ! अब मैं चलती हूँ …..वो चार कदम आगे बढ़ी …फिर रुक गयी ….हो सके तो आजाना । हाँ , मैं कल आजाऊँगा । कृष्ण फिर बोले ।
इस बार अपना वचन मत तोड़ना । ललिता इतना ही बोली ….और इधर उधर बिना देखे तेज चाल से वृन्दावन की ओर चल पड़ी ।
उद्धव उसे देखते रहे …..ये क्या सिद्ध लोक की योगिनी हैं ? उद्धव का प्रश्न था ।
ये सिद्धों की भी सिद्ध है उद्धव ! कृष्ण बोल उद्धव से रहे हैं …किन्तु देखते रहे उस मार्ग को …जिस मार्ग से ललिता चली गयी थी ।
क्रमशः….


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