!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 93 !!
प्रेमीयों की विचित्र अभिलाषाएं
भाग 3
अच्छा ! आप लोगों की अभिलाषा क्या है ?
मुक्ति ? मोक्ष ? मैने येसे ही पूछ लिया । वही – ज्ञान के कुछ संस्कार अभी भी गए नही थे मेरे अन्तःकरण से ।
मुक्ति………ये तो हमें खारी लगती है …………..उद्धव ! मुक्त हो जायेंगीं तो फिर हमारा श्याम सुन्दर तो हमें मिलनें से रहा ……
हाँ …..ये बात तुमनें ठीक पूछी है कि हमारी अभिलाषाएं क्या हैं !
तो सुनो उद्धव –
हमें धूल बना देना उस गली का …..जहाँ हमारे प्रियतम पाँव रखते हों ।
हमें जल बना देना ……वह जल…… जिसे हमारे प्यारे अधरों से लगाकर पीते हों ……..
हमें फूल बना देना उस बगिया का …….जहाँ के फूलों को हमारे प्यारे चुनते हों …………
क्या पागलपन है ये………उद्धव तो बस चकित हो , सुनते रहे ।
एक गोपी आगे आयी, और बोली – “मेरे मरते समय, मथुरा से आकर मेरा श्यामसुन्दर मेरे मुँह में अपनें हाथों से पानी चुआ जाए” !
फिर चाहे नरक मिले या स्वर्ग, परवाह नही ।
दूसरी गोपी आगे आई और बोली – मेरी भी अभिलाषा सुन लो उद्धव !
मेरी तो एक ही अभिलाषा है …….कि मरते समय श्याम आकर अपनें पैरों के तलवों से मेरी आँखें मल जाए ……..आहा !
तीसरी सखी आगे आयी – उद्धव ! मेरी भी अभिलाषा है एक …….
मेरा शरीर जब मरेगा …..उसे लोग जलायेगें …….शरीर राख हो जाएगा ……बस उसी समय हवा चले और मेरे देह की राख को उड़ाकर वहाँ ले जाए …..जहाँ मेरा श्याम क्रीड़ा करता हो ………..
उद्धव ! मेरी बहुत दिनों से ये अभिलाषा थी……बस ऐसे ही पूरी हो जाए …….उफ़ ! वो गोपी प्रसन्नता से अपनी अभिलाषा बता रही थी ।
आपकी कोई अभिलाषा ?
ललिता सखी शान्त बैठी थीं ………….मैने उनसे पूछा ।
मेरी अभिलाषा ? उद्धव ! मेरी अभिलाषा तो बस यही है कि ……..हमारी लाडिली श्रीराधारानी का विरह जल्दी खतम हो ……..
फिर दोनों युगलवर पहले की तरह कदम्ब की छाँव में हँसे , खेलें ……
इससे ज्यादा ललिता सखी की कोई अभिलाषा भी नही है ।
मैने साष्टांग प्रणाम किया अपनी सदगुरु श्रीराधारानी को ………..
हे स्वामिनी ! आपकी कोई अभिलाषा ?
“वे खुश रहें”……..जहाँ उन्हें ख़ुशी मिले वे वहीं रहें ……..राधा को इसी बात से प्रसन्नता होगी कि …..उनका प्रियतम प्रसन्न है”
“वे न आएं यहाँ………वहीं रहें……….जहाँ उन्हें सुख ही सुख मिले “
श्रीराधारानी इससे ज्यादा कुछ बोलीं नहीं ………क्यों की प्रेम का मूल सिद्धान्त यही है…….”उसके सुख में सुखी रहना”……..।
उद्धव ! तुम्हारी इच्छा क्या है ? ललिता नें पूछा ।
उद्धव बोले – “इन चरणों की धूल बनूँ” ।
( श्रीराधारानी के चरण की ओर दिखाते हुए )
हे वज्रनाभ ! प्रेमी भी कैसे पागल होते हैं ना !
उद्धव भी इन पागलों की मण्डली के सदस्य बन गए थे ………
मैने पहले कहा है – “प्रेम संक्रामक होता है” ….महर्षि शाण्डिल्य बोले ।
शेष चरित्र कल –
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