!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 38 – “और जहाँ दुःख ही सुख है” )
गतांक से आगे –
यत्र दुःखमेव सुखम् ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) दुःख को ही सुख माना गया है ।
*इस प्रेम नगर में दुःख ही सुख है । इससे पहले ( कल ) कहा गया था कि “प्रेम नगर में सुख ही दुःख है” । किन्तु अब कह रहे हैं …दुःख ही इस प्रेम नगर में सुख माना गया है । इस अटपटे सूत्र को समझने के लिए चलिये …इस झाँकी का दर्शन करते हैं ।
श्रीकृष्ण ने जब बारम्बार गोपियों को वापस जाने के लिए कहा ….रासलीला के लिए तैयार होकर आयी गोपियों को जब लौटने की बात कही , वो भी अपने प्रीतम के द्वारा , तब इन सबके मन में अपार कष्ट हुआ ….उन गोपियों के गोरे गोरे कपोल काले हो गये , अंजन अश्रुओं के साथ बह गये थे …नेत्र अरुण हो गये थे ….गोपियाँ बस नीचे देख रहीं थीं ….और अपने पैर के अंगूठे से धरती कुरेद रही थीं । ये क्या है ? गोपियाँ अब मुस्कुराने लगीं ….हंसने लगीं …अब क्या हुआ ? श्याम सुन्दर ने पूछा …अभी तक रो रहीं थीं अब क्यों हंसने लगी हो ?
गोपियों ने कहा ….ओह ! ये तो बडे आनन्द की बात हमारी समझ में आरही है ….क्या आनन्द की बात ? गोपियों ने मुस्कुराते हुए कहा ….हम क्यों जायें वापस अपने घर …हम यहीं न अपने प्राण त्याग दें । हे श्याम सुन्दर ! हमने सन्तों के मुख से सुना है कि ….जिसका चिन्तन करते हुए प्राणी अपने देह को त्यागता है दूसरे जन्म में उसे ही प्राप्त करता है ….तो हम यही सोचकर बहुत प्रसन्न हैं कि …कोई बात नही , इस जन्म में तुम्हें नही पा सकतीं …किन्तु दूसरे जन्म में तो पा ही लेंगीं ….क्यों की अभी हम तुम्हारा चिन्तन करते हुए मर रही हैं ….दूसरे जन्म में तो तुम्हें मिलना ही होगा । एक गोपी तो कहती है ….हे श्याम सुन्दर ! ये तो तुम्हारा अपना कर्म सिद्धांत है …ये नही बदल सकता । दूसरे जन्म में हम तुम्हें अपना बना कर ही रहेंगी ….ये कहते हुए , गोपियां आनंदित हो उठीं थीं ।
ये क्या हुआ गोपियों को ? अपार दुःख के सागर में डूबी हुई गोपियाँ एकाएक सुख का अनुभव करने लगीं । जी ! यही है प्रेम नगर की रीत । दुख में सुख का अनुभव होने लगता है ।
कुछ दिन पहले शाश्वत कह रहा था …..हंसी जब चरम पर होती है तो आँसु आजाते हैं …और आँसु जब चरम पर होते हैं तो व्यक्ति हंसने लगता है । ये होता है ।
हे रसिकों ! प्रेम विशुद्ध हृदय की विषय वस्तु है , इसलिये कोई तर्क इसमें काम नही करता ।
प्रेम में कब क्या होने लगे कुछ नही कहा जा सकता । वहाँ सुख में दुःख का अनुभव हो सकता है ।
और दुःख में सुख का अनुभव ।
अब देखो ! हमारे कन्हैया की भूआ कुन्ती जी को । जब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से द्वारिका जाने लगे तब हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं ….कन्हैया ने कहा भी …भूआ ! क्या बात है …..भतीजे को भूआ लोग हाथ नही जोड़ते । मुझे कुछ माँगना है …कुन्ती कहती हैं । हाँ , क्या माँगना है ? श्रीकृष्ण भी माँगने के लिए कह देते हैं …तब भूआ कुन्ती कहती हैं ….कुछ नही चाहिए ….बस दुःख दे दे । हे नन्दसुवन ! दुख दे दे । क्या ? कन्हैया चौंक जाते हैं । हाँ , नन्दनन्दन ! दुख दो ।
क्यों ? कन्हैया पूछ ही लेते हैं ।
क्यों कि हे कृष्ण ! दुख में सुख है …बहुत सुख है । कैसे ? कृष्ण फिर जब पूछते हैं तो कुन्ती उत्तर देती हैं ….आज तक दुःख था ..है ना ? कभी लाक्षागृह में जलाने का प्रयास किया गया मेरे पुत्रों को , कभी वनवास दे दिया गया , कभी मेरे पुत्रों को अपमानित किया गया …और इतना ही नही मेरी पुत्र वधु द्रोपदी को नग्न करने का प्रयास किया गया था किन्तु हे कृष्ण ! इतना दुःख था जीवन में फिर भी कभी लगा नही कि दुःख है ….पता है क्यों ? कृष्ण ने पूछा – क्यों ? क्यों कि “तुम साथ थे”और तुम हो तो हे कृष्ण ! दुःख भी सुख बन जाता है ….दुःख में भी आनन्द आता है …क्योंकि तुम मेरे साथ रहते हो ना ! किन्तु अब तो सुख आने वाला है …मेरे पुत्र राजा बनेंगे ….चारों ओर मेरे पुत्रों की जय जयकार होगी …मैं राजमाता कुन्ती !
तुम तो जा रहे हो ना गोविन्द ! सुख के समय …फिर, रहने दो ….सुख रहने दो …दुःख दो …और ऐसा दुःख दो जो बना ही रहे …ताकि तुम्हारा संग हमें मिलता रहे, तुम हमारे साथ में रहो, हे हरि ! हमें दुःख दो उसी में हमारा सुख है ।
ये भागवत में कुन्ती जी कहती हैं ।
आज सूर्य की पूजा कर रही हैं श्रीराधारानी …..किन्तु पूजा करते हुए भाव विभोर हो गयीं हैं …भाव सिन्धु में डूब गयी हैं …..तब उन्हें लगा कि सूर्य नारायण उनसे प्रसन्न हैं और वर माँगने के लिए कह रहे हैं । तब श्रीराधारानी सूर्य नारायण से हाथ जोड़कर वर माँगती हैं …हे भगवान भास्कर ! एक वरदान दो कि “मेरे श्याम सुन्दर का मेरे प्रति जो प्रेम है …वो कम हो जाये “।
विचित्र वरदान माँगा श्रीराधा रानी ने ….कि मेरे प्रीतम का मेरे प्रति प्रेम कम हो जाए ।
ये क्या था ?
इससे तो तुम्हें दुःख होगा …..तुम्हारे प्रीतम तुम्हें भूल जायें तो तुम्हें दुःख नही होगा ? सूर्य नारायण ने पूछा ।
श्रीराधारानी बोलीं …..हे भुवन भास्कर ! वो दुःख भी मेरे लिए सुख होगा …क्यों कि मेरे मन में ये तो रहेगा ना ! कि चलो श्याम सुन्दर अब मुझे याद नही कर रहे तो वो प्रसन्न होंगे …यही सुख मुझे मिलेगा …दुःख में भी सुख का अनुभव जो मुझे होगा …उसके कारण मुझे आनन्द हो रहा है । सूर्य कुछ नही बोले ….क्यों की वो श्रीराधा रानी के इस दिव्य प्रेमभाव को समझे ही नही । श्रीराधा जिस प्रेम नगर में विराजमान हैं वहाँ इस सूर्य का कहाँ प्रवेश है ।
हे रसिकों ! ये अद्भुत है , अद्भुत है ये प्रेमनगर । यहाँ दुःख में भी सुख का अनुभव होता है ।
अब शेष कल –
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