!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
(प्रेम नगर 46 – “जहाँ बिना पैर वाले ही पैर वाले हैं”)
गतांक से आगे –
यत्रापद एव सहस्रपद : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) बिना पैर वाले ही हजार पैर वाले हैं ।
हे रसिकों ! इस प्रेम नगर की पद्धति ही विपरीत है । जो प्रियतम के समीप से प्रेमवश प्रेमी , सेवा के निमित्त भी एक पैर आगे नही चल सकता ….अति भाव के कारण उसमें चलने का सामर्थ्य ही नही रहा , यहाँ ( प्रेम नगर में ) उसे ही हजार पैर वाला कहा गया है । यानि हजार पैरों से सम्पन्न होने वाली सेवा वो मात्र प्रेम पूरित हृदय द्वारा सम्पन्न कर लेता है ।
वैसे प्रेम के अभाव में इधर उधर भाग दौड़ मचाकर , सेवा का दम्भ दिखाते रहो …उसका प्रेमनगर में ज़्यादा महत्व नही है …..महत्व है उसका , जब आप प्रेम में डूब जायें और कुछ करने योग्य न हों …वही आपकी सही योग्यता है । ये बात आप समझ रहे हैं ना ?
नही समझे , और समझाइये ? शाश्वत कल मुझ से कह रहा था ।
मैंने कहा …..शाश्वत ! कभी शहद में डूबी मक्खी देखी है ?
वो क्या चल पाती है ? बस ऐसी ही दशा जिस दिन प्रेम में डूब कर होगी ….तुम न चल पाओ !
ओह ! तुम अति प्रेम के कारण खड़े न हो पाओ । तुम नयनों में अश्रुओं के भर जाने के कारण देख न पाओ । बस, वही स्थिति इस “प्रेमनगर” को अपेक्षित है , और प्रेमनगर के रसिक कहते हैं ….अति प्रेम के कारण जिनके पैर अब चल नही पा रहे …बस वही वही प्रेमी तो हजार पैरों वाला है …यानि वही धन्य है । उसके पैर नही चल रहे तो कोई बात नही ..न चलने दो ..हजार पैरों वाले श्रीहरि तो है ना ! दौड़ पड़ेंगे तुम्हारे लिए वो । वो ही तुम्हारे पैर बन जायेंगे ।
जय हो ……
भागवत में परम भक्त अक्रूर जी की चर्चा आती है ….
और भागवत ने बड़ी सुन्दर झाँकी खींची है अक्रूर जी की ।
मथुरा से चले हैं अक्रूर श्रीकृष्ण को लेने श्रीवृन्दावन । जैसे ही श्रीवन की सीमा प्रारम्भ होती है …अक्रूर जी देह सुध भूलने लग जाते हैं …श्रीवन की हवा में ही प्रेम भरा हुआ था ….उन्हें रोमांच होता है ..हाथों से रथ की लगाम छूट जाती है …वो रथ से बाबरे होकर गिर पड़ते हैं …तभी उन्हें बृज भूमि में श्रीकृष्ण चरण चिन्ह दिखाई पड़ते हैं ….बस फिर तो उनके पैर वही ठहर जातें हैं ….वो आगे बढ़ ही नही पा रहे । वो अति भाव के कारण स्तब्ध हैं । उसी समय श्रीकृष्ण गौ चारण करके वहीं आ पहुँचते हैं …वो देखते हैं रज में लुंठित अक्रूर को …उस समय न तो वो चल पा रहे थे …न कुछ सोच पा रहे थे …अति भाव के कारण बस श्रीकृष्ण ही उनके मन में छा चुके थे ।
हम युगलघाट में बैठे हैं ….गिरिराज जी से शाश्वत आया है …उसी ने मुझ से कहा ….स्पष्ट कीजिए “प्रेम पत्तनम्” के इन सूत्रों को – कि कैसे बिना हाथ वाला हजार हाथ वाला है , बिना आँख वाला हजार आँख वाला है आदि आदि ।
शाश्वत ! प्रेम की ये विषम गति है …इसे बुद्धि से नही समझा जा सकता ….ये वो प्रेम की उच्च स्थिति है …”जहाँ बिना हाथ वाले , हजार हाथ वाले हैं”…..यानि ये सब क्रियायें प्रेम सिंधु में बह जानी चाहिए ….अरे ! इस प्रेमनगर में जो बिना बुद्धि का है उसी की बुद्धि खुल गयी है …
“तुलसी सोई नर चतुर है राम चरण लवलीन ।
पर धन पर मन हरण को वेश्या बहुत प्रवीन।।”
बुद्धि को प्रीतम में लगाकर मिटा दो ….बुद्धि ही न रहे …यानि प्रेम में इतने डूब जाओ कि प्रीतम के सिवा सोचने समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाये । उस स्थिति को प्राप्त करो ।
फिर देखो …बुद्धिमानों में भी बुद्धिमान तुम होगे । ये बुद्धि तुम्हारी जिस दिन प्रेम के कारण ठहर जाएगी उसी दिन हजारों बुद्धि तुम्हारी भीतर ही खुलने लग जाएगी ।
इस बुद्धि का उपयोग क्या करते हो ? यही ना , कि धन कैसे कमायें ? किसी सुन्दरी का हृदय कैसे जीतें ? अरे ये तो एक वेश्या भी कर लेती है । फिर तुम ने कौन सा तीर मार लिया ?
इस बुद्धि को “सनातन प्रीतम”में लगाओ …उन्हीं का चिन्तन करो …उसी में बुद्धि को मिटा दो …अरे ! सारी इंद्रियाँ लगा दो ….प्रेम सब कुछ माँगता है …सब कुछ । प्रेम में ऐसा नही चलता कि थोड़ा संसार भी और थोड़ा प्रीतम भी । ना , या तो संसार या प्रीतम ।
“चाहे हरि की भक्ति कर, चाहे विषय कमाव ।।”
ये दो ही विकल्प हैं तुम्हारे सामने। या तो भक्ति प्रेम में अपने को मिटा दो …या विषय को भोगो ।
मैंने शाश्वत को अंतिम में यही कहा …मुख्य बात है मन ही प्रीतम बनना चाहिए ….मन ही प्रीतम बने …फिर देखो ….प्रीतम के सिवा कुछ नही होगा । बस मक्खी की तरह तुम भी शहद में पड़े रहोगे किन्तु चल नही पाओगे , क्यों चलना ? मंज़िल तो मिल ही गयी ना ? अब चलने की कामना भी क्यों ? अब चलना भी कहाँ ?
शाश्वत और हम कुछ देर के लिए मौन हो गये थे ।
शेष अब कल –


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