!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 49 – “और जहाँ संयोग ही वियोग है”)
गतांक से आगे –
यत्र संयोग एव वियोग : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) संयोग ही वियोग है ।।
और जब प्रेम मिलन की अपनी उच्चस्थिति में होता है….तब प्रेमी को ऐसा लगता है …कि हमारा वियोग होगा , और वियोग होगा तो हम क्या जी पायेंगे । ये स्थिति मिलन की उच्च अवस्था में ही पाई जाती है । हे रसिकों ! इसलिये मैं बारम्बार कह रहा हूँ …प्रेम की सीधी रेखा नही है ….प्रेम सीधा चलता ही नही है …ये टेढ़ा है ….और टेढ़ा ही चलता है ।
तो क्यों करें प्रेम ? एक साधक ने प्रश्न किया ।
मैंने कहा – क्या प्रेम के बिना आप जीवित रह सकते हैं ? प्रेम तो आप करते ही हैं ना ? भले ही पत्नी से हो या पुत्र से, या घर से या धन से ? जिसके जीवन में प्रेम होगा नही तो वो जीयेगा नही ।
उस साधक ने फिर पूछा – ज्ञानी , जो मात्र आत्मतत्व को ही मानते हैं ..जिन्हें वेदान्ती कह सकते हैं ….वो ज्ञानी लोग कहाँ “प्रेम-प्रीतम”को मानते हैं ?
मैंने कहा – ज्ञानी लोग एक शब्द का प्रयोग करते हैं …”आत्मरति”…ये क्या है ? आत्मरति यानि अपनी आत्मा से ही प्रेम । अरे भैया ! गोपियाँ क्या करती हैं ? वो स्वयं कहती तो हैं गोपी गीत में ….”न खलु गोपिका नन्दनो भवान्”…..हे कृष्ण ! तुम यशोदा के पुत्र नही हो , तुम नन्दनन्दन भी नही हो …तुम तो अखिल देह धारियों में विराजमान आत्मतत्व हो …हम अपनी आत्मा से ही प्रेम करती हैं । मैंने कहा …क्या ये बात सही नही ? कि प्रेमियों का प्रेम अपनी आत्मा से ही होता है …अपनी आत्मा के प्रतिकूल कोई भी हो तो क्या एक सामान्य मनुष्य भी उसे त्याग नही देता ? चाहे वो पत्नी हो या पति , पिता अपने पुत्र को नही छोड़ देता ? अन्त में मैंने यही कहा …प्रेम को सबने स्वीकार किया है …क्यों की प्रेम के बिना कोई जिंदा नही रह सकता ।
ये सूत्र है “प्रेमपत्तनम्” का …कल के सूत्र में बताया कि …”वियोग ही संयोग है”…और आज के सूत्र में बताया गया कि – “संयोग ही वियोग है” । हे रसिकों ! प्रेम की उच्चतम स्थिति होने के कारण प्रेमी को विरह छाया रहता है ….इसलिये मिलन की उस अवस्था में भी उसको लगता है कि मुझे मेरा प्रेमी कहीं छोड़ न दे ।
एक झाँकी भागवत जी में अद्भुत आयी है …..आप उसका दर्शन करें ।
द्वारिका में श्रीकृष्ण की रानियाँ अपने पति श्रीकृष्ण को आलिंगन करके सोई हुई हैं ….मिलन गम्भीर है …तभी उन रानियों को विरह व्यापने लगता है ….कुरर पक्षी बोल रही हैं ….रानियाँ सुनती हैं तो उन्हें डर लगता है ….कहीं श्रीकृष्ण नींद से उठ न जायें क्यों कि ये उठ गये तो फिर पर्यंक को त्याग ही देंगे ….और पर्यंक को त्याग दिया तो ये सुख , ये विलास कहाँ मिलेगा ! हे कुररी ! चुप ! बोल मत ….क्यों बोल रही है । मेरे प्राण नाथ जाग जायेंगे , तुझे नींद नही आती क्या ? ओह ! तू रो रही है ? पर क्यों ? तेरे प्राण नाथ ने तुझे छोड़ दिया ? आज रात्रि में तेरे साथ विलास नही किया …ओह ! इसलिए तू हमारे विलास से चिढ़ रही है ….इसलिए हमारे विलास में खलल डाल रही है । चुप , चुप हो जा । अब ये पक्षी चुप हो गयी …किन्तु सागर की भीषण गर्जना ! रानियाँ कहती हैं ….अब तुझे क्या हुआ ? तू क्यों हल्ला मचा रहा है ? देख ! वो तो पक्षी थी उसका बोलना तो समझ आता है किन्तु तू तो सागर है बूढ़ा बड़ा है ….तुझे अच्छा लगेगा हमारे प्राण नाथ हमें छोड़ कर उठ जायेंगे ? चुप , चुप हो जा ।
हे रसिकों ! ये प्रेम की स्थिति होती है …..संयोग है ….मिले हैं दोनों ….किन्तु उसी स्थिति में लगता है कि प्रीतम हमें छोड़कर चले गये तो ? ये स्थिति बड़ी अबूझ सी होती है …जो प्रेमियों को ही समझ में आती है ।
एक इससे सुन्दर झाँकी और है ….उसका भी दर्शन करो –
आज कुँज में मिले हैं श्याम सुन्दर अपनी प्रिया श्रीराधारानी से ….वहाँ कोई नही है …बस ये दोनों सनातन प्रेमी हैं । धीरे धीरे मिलन में एकत्व आने लगा था …सुरत सुख छाने लगा था कि तभी – हे नाथ ! हे श्याम सुन्दर ! हे दयित ! ..एकाएक श्रीराधा पुकार उठीं थीं ….श्याम सुन्दर समझ नही पाये कि ये हुआ क्या ? श्रीराधा बस पुकार रही हैं …..ये दोउ मिले हैं …किंचित भी अलग नही हैं …यहाँ तक कि अधर भी अधर से लगे हैं …दोनों की बाँहें लिपटी हुई हैं एक दूसरे से …दोनों ही तमाल और कनक बेल की तरह मिले हुये हैं …उस अवस्था में …श्रीराधा को विरह व्याप जाता है ।
श्याम सुन्दर अपनी प्यारी की ऐसी स्थिति देखकर डर जाते हैं ..और कहते हैं क्या हुआ ? प्यारी क्या हुआ ? किन्तु श्रीराधारानी पुकारती जा रही हैं …तुम कहाँ गये प्राण ! हे प्यारे ! इस राधा को छोड़कर तुम कहाँ गये ? श्याम सुन्दर ने झकझोरा और कहा …प्यारी जू ! मैं यहीं हूँ ….मैं कहाँ जाऊँगा ? तब श्रीराधा ने छूआ, देखा ….तब उन्हें विश्वास हुआ कि श्याम सुन्दर तो मेरे साथ ही हैं ….वो फिर लिपट गयीं और रोते हुए बोलीं ….मुझ से दूर कभी न जाना प्यारे ! श्याम सुन्दर ने कपोल चूमते हुए कहा ….प्यारी ! अपनी आत्मा से दूर चला जाऊँगा तो मर न जाऊँगा ।
श्रीराधारानी ने अपने कोमल हस्त श्याम सुन्दर के मुखकमल में रख दिया था ।
हे रसिकों ! ये सूत्र बड़ा ही विलक्षण है …..कि प्रेमनगर में संयोग ही वियोग है ।
शेष अब कल –


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