महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (037)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन
नयना रे चित चोर बताओ-
तुमही रहत भवन रखवारे, बाँके बीर कहाओ।
घर के भेदी बैठ द्वारपर दिन ही घर लुटवाओ ।।
नारायण मोहि वस्तु न चहिए लेने हार दिखाओ ।
नयनारे चित्तचोर बताओ ।।
चोर के नाम से प्रसिद्ध हैः- अपहरति मनो मे कोप्ययं कृष्णचौरः। अरे ये कोई काला-काला चोर हमारे मन को चुराये जा रहा है। दौड़ो-दौड़ो काला चोर है यह।
अपहरति मनो मे कोप्ययं कृष्णचौरः
प्रणतदुरितचौरः पूतनाप्राणचौरः ।
बलयवसनचौरो बालगोपांगनानां
नयनहृदयचौरः पश्यतां सज्जनानाम् ।।
अरे! यह तो आँख चुरा ले, दिल चुरा ले; दिल चुरा ले; यह तो मन चुरा ले, यह मक्खन का चोर नहीं है। ‘पश्यतां सज्जनानां’ और महाराज। चोरी करें तो सज्जनों की। एक चोर था, रोज-रोज चोरी करे, एकादशी को भी नहीं छोड़ता था। एक चोर था, दुर्जनों की तो चोरी करे, सज्जनों को भी नहीं छोड़ता था। ये जूताचोर लोग सत्संग में भी आ जाते हैं कि नहीं? औरों की गाँव में चोरी करें सो तो करें, विचारे सत्संगियों की भी चोरी कर ले जाते हैं। हमारे बाबा जी लोगों की भी चोरी हो जाती है। तो यह कृष्ण चोर है, काला चोर है, यह प्रिय है। दृष्टा कुमुद्वन्तं- पाँच धर्म लेकर चंद्रमा को देखा। कुमुद्वन्त अखण्डमंडलं, रमानानाभं, नवकुंकुमारुणम् चंद्रमा है आसमान में पर कृष्ण को बता रहा है; कुमुद्वन्तं- अकेला चंद्रमा और धरती में कुमुदुनि करोड़ो हैं।
कुमुदिनी क्या? ये कोइन होती हैं, तालाब में चंद्रमा को देखकर ये खिलती हैं। महाराज। संसारी जो प्रेमी होते हैं न, इनसे ते यो कोइन बिचारी अच्छी हैं। कहा- क्यों इनमें ईर्ष्या दोष तो नहीं होता न, करोड़ो कोइन, अरबों कुइन एक चंद्रमा को देखकर मुस्करा पड़ती हैं न, एक दूसरे की ओर नहीं देखती हैं, सब की सब चंद्रमा की ओर देखती हैं। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे चंद्र। हमारा काम करने के लिए तुम आसमान में क्यों उगे। बोले- गोपियों के मन में कभी सौतियाडाह आवेगा तो चंद्रमा कहेगा- जरा हमारी ओर देखो, करोड़-करोड़ कुमुदिनी हमसे प्रेम करती हैं पर उनमें ईर्ष्या दोष नहीं होता; फिर तुममें क्यों हो रहा है? तो गोपियों के चित्त का समाधान करेगा, इसलिए आसमान में चंद्र उगा ‘कुमुद्वन्तं अखण्डमण्डलम्’।
रास में चंद्रमा का योगदान
दृष्टा कुमुद्वन्तम्………वनं च तत्कोमलगोभिरंजितम
दृष्ट्वा कुमुद्वन्तं अखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुं कुमारुणम् ।
वनं च तत्कोमलगोभिरंजितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ।।
शरद ऋतु की पूर्णिमा, सायंकाल का समय और भगवान ने जिन रात्रियों का दान गोपियों को बिहार के लिए किया था, वे सब सोलहो श्रृंगार करके सामने खड़ी थीं; बेला, चमेली खिली हुई थी। भगवान ने देखा- कि गोपियाँ भी विहार के लिए तत्तपर, रात्रियाँ भी उपस्थित और उद्दीपन की सारी सामग्री बी तो भगवान के मन में भी रास का संकल्प उदय हो गया। प्रश्न यह है कि वह भगवान कैसा भगवान है जो किसी समय को देखकर रम जाय, किसी स्थान को देखकर रम जाय, किसी वस्तु को देखकर रम जाय, किसी व्यक्ति को देखकर रम जाए? यह तो कभी हो सकता है जब ज्यादा आनन्द उन वस्तु, काल या व्यक्तियों में हो। परंतु ऐसा यदि हो तो भगवान की भगवत्ता ही चली जायेगी। काहे के भगवान जिसके दिल में सुख ही नहीं है, जो दूसरे सुख उधार लेना चाहते हैं? इससे तो अच्छा दरिद्र। जरूरतमन्द को भगवान नहीं कहते। तब भगवान रमण का संकल्प क्यों करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में ही भक्ति का रहस्य है।
जब भगवान देखते हैं कि यह पुण्यात्मा जीव संसार की वासना छोड़कर मेरा नाम लेना चाहता है तो वे अपने नाम को उसकी जीभ पर रख देते हैं, स्वयं नाम बन करके उसकी जीभ पर आ जाते हैं; और उसकी जीभ पर जब नाम नाचता है तो उसको सुन-सुनकर खुश होते हैं। अपनी ही नाम की ध्वनि को सुनकर भगवान प्रसन्न होते हैं, क्योंकि जो रूप में है सोई नाम में है। यह भक्ति की बड़ी अद्भुत लीला है। मैं कई बार यह बात आपको सुना चुका हूँ, कि योगी लोग मानते हैं कि सत्त्वगुण की वृत्ति जब इष्टाकार होती है तब उसको भक्ति कहते हैं, परंतु सत्त्वगुण की वृत्ति में इतना आनन्द नहीं है कि भगवान उस पर मोहित हो जाएं वह भगवान को वश में कर ले। योगी लोग कहतेहैं, कि आनन्दाकार वृत्ति, सम्प्रज्ञात समाधि है। परंतु इस वृत्ति का तो उनको निरोध करना पड़ता है। वेदान्ती लोग कहते हैं कि अज्ञान का कार्य जो अन्तःकरण है उस अंतःकरण की एक श्रद्धा से बनी हुई वृत्ति भक्ति है। परंतु क्या मायिक वृत्ति भगवान को वश में कर लेगी और क्या मायिक वृत्ति पर भगवान मुग्ध हो जायेंगे?
तांत्रिक लोग कहते हैं कि शास्त्रोक्त रीति से क्रिया करने पर जो इष्टाकार वृत्ति उत्पन्न होती है उस प्रयत्नजन्य वृत्ति का नाम भक्ति है। अरे जीव के प्रयत्न में इतना सामर्थ्य कहाँ कि उसको देखकर भगवान मोहित हो जाएं। यह अभिमान ही है, कि हमारी नाक देखकर रीझ गये, कि हमारी आँख देखकर रीझ गये, हमारी चमड़ी देखकर रीझ गये। भगवान नाक, आँख, कान, चमड़ी देखकर नहीं रीझत हैं। यह सब देखकर तो वे रीझते हैं जिनको दिल नहीं दिखता है। यह सब नखरा है, खरा नहीं है, सच्चा नहीं है तब भगवान किसके वश में होंगे?
यह बड़ी अद्भुत लीला है भक्ति की। भगवान परम स्वतंत्र हैं; उनमें माया, अज्ञान, देश, काल वस्तु किसी का असर नहीं पड़ता। भगवान की आह्लादिनी, सन्धिनी या संवित्- कोई शक्ति शक्तिमान को वश में नही कर सकती, शक्ति को शक्तिमान के अधीन करती है। आह्लादिनी शक्ति भी भगवान के वश में नहीं कर सकती। परंतु आह्लादिनी शक्ति का जो सार-सर्वस्व है, जो उसका नवनीत है, जो उसका मन्थन है, उसको भगवान जिसके साथ विहार करना चाहते हैं, उसके हृदय में स्थापित कर देते हैं। उनके स्वातन्त्र्य में व्याघात नहीं आता, उनकी स्वतंत्रता में कोई फर्क नहीं पड़ता। वे हृदय में रखते हैं। वे अपने स्वरूप सच्चिदानन्द के सार सर्वस्व को निकालकर भक्त के हृदय में रखते हैं।
देखो आदमी ऐसे अपने आप बैठा हो तो उतना मजा नहीं लेता, लेकिन जब उसका बढ़िया चित्र उतर जाय या शीशा में दिखने लगे तो उसका मजा लेता है। तो भगवान असल में मजा किस बात का लेते हैं कि जब गोपियों के हृदय में भगवान अपने आपको देखते हैं तो अपने आप में वैसे उतने अच्छे नहीं दिखते हैं जितने कि गोपियों के हृदय में दिखते हैं। अपने आप में भगवान सगुण दिखें तो भगवान भी अभिमानी हो जाएगा, वह गुणों का अभिमानी हो जाएगा। अपने आप में भगवान जानता है कि हमारे पास कुछ नहीं, लेकिन भक्तों के हृदय में वह देखता है, अपना परम सुन्दर, परम मधुर रूप। गोपी इसलिए सुन्दर नहीं है कि वह ग्वालिनी है। गोपी का सौन्दर्य यह है कि गोपी के हृदय में केवल भगवान हैं।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (038)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास में चंद्रमा का योगदान
एक दिन गोपी बैठी और ध्यान करने लगी- हमारी नाक ऐसी, हमारी आँख ऐसी, हमारा कपोल ऐसा, हमारी बाँह ऐसी बढ़िया! अब महाराज भगवान ने देखा कि यह तो अपने आप में डूबी हुई है, कोई योगिनी होगी, कोई वेदान्तिनी होगी, छोड़ो इसको। ये वेदान्तिनी भी एक सखी होती है- अपने स्वरूप में डूबी हुई; इन्हीं लोगों से भगवान अन्तर्धान रहते हैं। कहा क्यों? वह तो अपने स्वरूप में डूबी हुई है, भगवान को भूल गयी। योगिनी सखी भी ध्यानमग्ना हो गयी। अब एक दूसरी सखी को देखा तो उसके हृदय में थे भगवान। बोले- वाह! मैं यहाँ अच्छा लगता हूँ। हम कलेजे में अच्छा लगते हैं। तो भगवान अपने ही सत्सार को, अपने चित्सार को, अपने ही आनन्दसार को गोपियों के हृदय में स्थापित करके और उसके प्रेम के उपादान से सच्चिदानन्द स्वरूप को साकार बनाकर अपने आप पर रीझते हैं।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ।
अपने आपको रखकर वीक्ष्य माने वीक्षण किया- वीक्षण किया माने बनाया। प्रत्येक गोपी के हृदय को कृष्णाकार बनाकर प्रत्येक गोपी के हृदय को कृष्ण-प्रेमरस-मग्न बनाया। प्रत्येक गोपी का हृदय तो रसगुल्ले की तरह है उसमें जो चासनी है, वह प्रेम है। सच्चिदानन्द छेना है, प्रेम उसमें चासनी है। सच्चिदानन्द तो सनकादिकों के मन में भी रहता है, हृदय में रहता है, लेकिन वहाँ वह रसीला नहीं हैं; बिना चासनी का सच्चिदानन्द सनकादिकों के हृदय में है। और प्रेम रस की चासनी वाला सच्चिदानन्द गोपियों के हृदय में है। सनकादिकों के हृदय में सच्चिदानन्द है परंतु ममत्व नहीं है- बिना ममत्व एकत्व न होई। बिना ममता के प्रेम नहीं होता, अपना बनाना पड़ता है भगवान को! तब रस होता है। वीक्ष्य का अर्थ है– वृन्दावन धाम को भगवान ने प्रेम रस से सराबोर सच्चिदानन्द बनाया; उन रात्रियों को प्रेम रस से सराबोर सच्चिदानन्द बनाया। बेला, चमेली के फूल को प्रेम-रस से सराबोर सच्चिदानन्द बनाया और गोपियों को प्रेम-रस से सराबोर करके सच्चिदानन्द बनाया। अब रन्तुं मनश्चक्रे इनको देख करके फिर श्रीकृष्ण के मनने विहार का, रस का, रसदान का नहीं रसग्रहण का संकल्प किया।*
भक्ति के ग्रंथों में ऐसा वर्णन आता है कि भगवान स्वरस के अतिरिक्त दूसरे रस से संतृप्त नहीं हो सकते। यदि गोपियों के हृदय में भगवद्- रस ही न होता तो उसको पाने की इच्छा भगवान को नहीं होती। भक्ति भगवान की प्रधानता से होती है, जीव की प्रधानता से नहीं होती। भक्त का हृदय भगवान के अतिरिक्त अन्य सबसे ख़ाली रहना चाहिए। तभी उसको अपने से भर देते हैं। रास पञ्चाध्यायी में यह बात देखने लायक है कि जब गोपी के हृदय में यह आया कि हम इतने सुन्दर, इतने मधुर हैं, हम इतनी मीठी कि कृष्ण हमारे पीछे-पीछे घूमते हैं, तब भगवान अन्तर्धान हो गये-
तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयता ।।
गोपियों की नजर अपने पति पर नहीं गयी, सास-ससुर पर नही गयी, अपनी सौत पर भी नहीं गयी। कहाँ गयी थी? कि अपने पर गयी थी कि हम बड़ी रसीली। तो भगवान ने कहा- अच्छा तुम रसीली हो तो पिओ अपना रस, हमें तुम्हारे रस की जरूरत नहीं है। हम रस-पान तब करेंगे जब तुम्हारा रस और और हमारा रस एक होगा, नहीं तो तुमको अभिमान होगा कि हमने यह दिया, वह रस दिया, एक आदमी ने पाँच-सात दिन भोजन कराया, तो कहे कि कथा सुनाओ। कहा- भाई। हमारी मौज नहीं आती कथा करने में। तो बोला- हमें पाँच सात दिन रोटी खिलाते-खिलाते हो गया और तुम एक दिन भी कथा नहीं सुनाते हो। तो नारायण भगवान को खरीदा नहीं जा सकता, अपनी कीमत पर भी भगवान को खरीदा नहीं जाता- जौ सिरकाटे हरि मिले तौ हरि लीजिए दौर। गोपियों ने अपनी कीमत रख दी, इसलिए भगवान अंतर्धान हो गये। हृदय जब ख़ाली होता है- माने उसमें दुनिया न हो, अपना आपा भी न हो, अपना अहं बी न हो, अभिमान भी न हो, तब भगवान दूसरा कोई न हो उस ख़ाली दिल में अपने को रखते हैं। और अपने आपको हँसाकर अपने आपको खिलाकर, अपने आपको नचाकर प्रसन्न होते हैं। यह है- वीक्ष्य- वीक्ष्य रंन्तुं मनश्चक्रे*
योगमाया के संबंध में श्रीवल्लभाचार्य महाराज ने श्रीसुबोधनी टीका में लिखा है- कि योगमाया का काम है एक वस्तु को ज्यों-की-त्यों बिना उसमें अदला-बदली किए- एक जगह से दूसरी जगह रख देना। जैसे बलरामजी थे देवकी की पेट में- योगमाया ने क्या किया? कि गर्भ को ज्यों का त्यों, बालबाँका न हो, उठाकर रोहिणी के पेट में रख दिया। तो यहाँ रास के प्रसंग में- ‘योगमायामुपाश्रितः’ का अर्थ हुआ कि अन्यत्र स्थापयति- योगमाया ने भगवान के हृदय में जो आनन्द था उसको गोपी के हृदय में रख दिया। अब गोपी हो गयी, आनन्दमयी, गोपी हो गयी आनन्दरूप। और गोपी के हृदयदर्पण में अपनी छवि निहारकर भगवान प्रसन्न होने लगे।
बाहर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहते हुए वही मुरली-मनोहर पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर, गोरोचनांकित भाल, अनुग्रहपूर्ण भौंहें, प्रेमभरी चितवन, वही सुचिक्कन नीलम के समान चम-चम चमकता हुआ कपोल, वही आरक्ताधर, वही पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर बाहर खड़े हैं और अपने को देख रहे हैं, गोपी के हृदय में। बोले-अरे। मैं एक और अनेक रूप में? प्रसन्न हो गये। तदोडुराजः ककुभः श्रीसुबोधिनीजी ने बताया- कि जब भगवान में मन का उदय हुआ तब चंद्रमा ने कहा- आओ-आओ, बहती गंगा में नहायें। अधिदेवता बनकर आ गया। चाँदनी छिटक गयी, पुष्टि मिल गई सबको। चंद्रमा ओषधि- वनस्पतियों को पुष्टि देता है, शोक को नष्ट करता है। अब श्रीकृष्ण की उस पर दृष्टि पड़ी।
दृष्टा कुमुद्धन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम् ।
वनं च तत्कोमलगोभिरञ्चितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ।।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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