Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (064)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3
जारबुद्ध्यापि संगताः- जार शब्द का अभिप्राय बड़ा गंभीर है। जरयति इति जारः- जो भोगवासना को जला दै, उसका नाम जार है- ये श्रीकृष्ण जो हैं ये हमारी ऐन्द्रियक भोगवासना को जलाने वाला है। इसलिए जार बुद्ध्यापि संगताः इस जार बुद्धि से गोपी गयीं श्रीकृष्ण के पास। परंतु जहुर्गुणमयं देहं, उनके गुणमय देह का त्याग हो गया। जो जार मानते हैं उनका अभिप्राय बड़ा विलक्षण है। ये जो हमारी इन्द्रियाँ हैं इनका असली प्यारा कौन है? बड़ा धोखा होता है आदमी को समझने में, मालूम यह पड़ता है कि फूल हमको प्यारा है या भोजन हमको प्यारा है; जीभ कहती है कि भोजन प्यारा है, आँख कहती है कि गुलाब का फूल प्यारा है। लेकिन असल में गुलाब को देखकर आँख को जो सुख होता है वह उसको गुलाब को नहीं देती, खुद को भी नहीं देती, अपने भीतर के चैतन्य ले जा करके सुख दे देती है।
भोजन मं जो सुख जीभ को है, वह क्या जीभ भोजन को सुख देती है या स्वयं सुख लेती है? वह तो भोजन में से सुख लेकर भीतर जो चैतन्य बैठा हुआ है उसको ले जाकर देती है। देखो, हमारी इन्द्रिय-वृत्तियों का और मनोवृत्तियों का असली प्यारा जो है वह तो भीतर बैठा हुआ है और हमारी इन्द्रिय-वृत्तियों ने झूठ-मूठ का नाता जोड़ रखा है संसार के बाह्य विषयों से। ये बाहर जो संबंध हैं वे दिखाऊ हैं- हमको भोजन प्यारा है, रूप प्यारा है, रस प्यारा है, गंध प्यारी है, ये सब हमारे ब्याहते हैं। पर जो असली प्यारा है वह तो हृदय-मंदिर में, नित्यनिकुंज में, वृन्दावन में, छिपा हुआ है। जार भाव का अर्थ है कि बाहर से इन्द्रियों का ब्याह विषयों से मालूम पड़ता है लेकिन उनके असली प्यारे भीतर-हृदय-वृन्दावन में बैठे हुए हैं, नित्यनिकुंज में विहार कर रहे हैं।+
जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है
तमेव परमात्मानं……. किमुताधोक्षजप्रियाः
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः ।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।।
राजोवाच
कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।
गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम् ।।
श्रीशुक उवाच
उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।
द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।।
वे कहते हैं कि विरह से गोपियों को इतना ताप हुआ कि उनके भगवत् प्राप्ति में प्रतिबन्धक जो पापकर्म के संस्कार थे वे नष्ट हो गये; मन-ही-मन मिलन में, आलिंगन में, जो आनन्द हुआ उस आनन्द से जितने-स्वर्गादिप्रापक- पुण्य कर्म के प्रतिबन्धक संस्कार थे वे सब भस्म हो गये। भक्त लोग ईश्वर की प्राप्ति में अज्ञान को प्रतिबन्धक नहीं मानते हैं। यह बात अगर आपके ध्यान में नहीं रहेगी तो भक्ति का सिद्धांत समझ में नहीं आयेगा। वे कहते हैं कि यह जो संसार में कर्मवासना, भोगवासना-रूप-विक्षेप है इसी ने हमको ईश्वर से जुदा कर दिया है। हम यह कहेंगे तो यह पावेंगे, यह करेंगे तो यह पावेंगे; यह पाने के लिए यह करना चाहिए- इसी में दुनिया कैसे फँस गयी है। पाने के लिए भी बहुत है और करने के भी बहुत है-
श्रोतव्यादीनि राजेंद्र नृणां सन्ति सहस्रशः ।
सुनते-सुनते कहीं दुनिया का अंत हो जाय, करते-करते कहीं दुनिया का अंत हो जाय, पाते-पाते कहीं विषय-भोगों का अंत हो जाय, ऐसा सम्भव नहीं है। तो बोले- भगवद्- भाव में डूब जाना चाहिए। दुनिया को जहाँ का तहाँ रहने दो और तुम भगवान् की भावना में डूब जाओ। भगवान् का अज्ञान है तो रहने दो; वह उनकी प्राप्ति में बाधक नहीं है। यदि शंका हो कि हम तो भगवान् को पहचानते नहीं है, तो भाई, वे पहचान बता देंगे। शक्कर तुम्हारी जीभ में पड़ जाय तो क्या तुम्हारी जीभ यह नहीं बतायेगी कि शक्कर है? खटाई-नमक तुम्हारी जीभ पर पड़े तो क्या मालूम नहीं पड़ेगा नहीं पड़ेगा कि खटाई है कि नमक है? तो जब ईश्वर तुम्हारे सामने आयेगा तो तुमको साफ मालूम पड़ जायेगा कि यही ईश्वर है। परंतु दुनिया कर्म और भोग में मग्न है। कर्म और भोग में जो मन फँस गया है उससे ईश्वर के भाव में डूबने का मजा नहीं आता।
नमक के पहाड़ की चींटी गयी शक्कर के पहाड़ पर रहने वाली चीटीं के पास। तो बोली जैसा हमारे घर का पहाड़ वैसा तुम्हारे घर का पहाड़। शक्कर की चींटी ने कहा- बहिन! तुम्हारे मुँह में कुछ है तो नहीं? देखा तो अपने घर के नमक की डली थी। बोली- धो डालो इसको। फिर देखो नमक के स्वाद में और शक्कर के स्वाद में क्या फर्क है। लेकिन जब तक मुँह में नमक की डली पड़ी है तब तक शक्कर का स्वाद मालूम नहीं पड़ता है। यह जो संसार का स्वाद है, उससे संसारी लोगों को ईश्वर का स्वाद नहीं आता।
संसारी लोगों को गुरु नहीं चाहिए, ईश्वर नहीं चाहिए, ज्ञान नहीं चाहिए, भक्ति नहीं चाहिए? इनको तो चाहिए-
भज कलदांर, भज कलदारं, कलदारं भज मूढ़ मते।
कर्मवासना और भोगवासना दोनों भगवद्भक्ति में, भगवत्प्राप्ति में रुकावट है, अड़चन है, प्रतिबन्धक है। गोपी को दोनों छूट गयीं। जब दोनों छूट गयी, तो भगवान के पास पहुँची। बोले ठीक है पहचानती तो नहीं भगवान को? अरे नहीं पहचानती है तो क्या हुआ? नारायण, एक हमारे महात्मा हैं दोनों आँक नहीं है वे जाते हैं बिहारी जी का दर्शन करने। वृन्दावन में रहते हैं। किसी ने पूछा कि देखते नहीं तो हो क्यों जाते हो? बोले- बाबा, हमारे आँक नहीं है तो क्या हुआ, उनके तो है, वे तो देखते होंगे कि आया है।
तमेव परमात्मनं जारबुद्ध्यापि संगताः
परमात्मा तो वही है- आत्मा का परम रूप। एक बड़ी मजेदार बात है- परमात्मा माने राधा, लक्ष्मी। उन राधा या लक्षमी का जो आत्मा अर्थात् परम प्रेमास्पद है उसका नाम है परमात्मा। रमायाः परपं रूपं, परमा रमा परमा, परा रमा परमा, रमायाः परमं रूपं परमेत्याभिधीयते। तस्या परमायाः आत्मा परमात्मा, जो उस परमा राधारानी का परम श्रेष्ठ है, परमप्रियतम है, उसका नाम परमात्मा। असल में जिससे हम प्रेम करें वह ख़ाली हमारा ही प्यारा नहीं होना चाहिए, औरों का भी प्यारा होना चाहिए। यदि राधारानी का अखण्ड प्रेम श्रीकृष्ण से न हो, तो दूसरी गोपियों के लिए प्रेम करने की रीति तो मिलेगी न। अच्छा क्या आप ऐसे से प्रेम करना चाहते हैं कि जिसे दुनिया में कोई न पूछता हो?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (065)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है
अपने प्रियतम के संबंध में ऐसी धारणा होना कि दुनिया में उसको कोई पूछने वाला न हो- जब खिलावें तो हम खिलावें, जब पिलावें तो हम पिलावें, हमारे बिना भूखे रहें और प्यास रहें- ऐसी संकीर्ण दृष्टि ईश्वर में नहीं जाती है। तो गोपियाँ देखती हैं कि परमा राधा के आत्मा हैं, परम प्रेष्ठ हैं; बोलीं- वाह-वाह, हमको तो प्रेम का मार्ग मिल गया। जैसे इनसे राधारानी प्रेम करती हैं वैसे हम भी प्रेम करेंगे। परमः आत्मा परमात्मा, परमः अंतः करणादि संबंधवर्जितः आत्मा-परमात्मा परम माने अंतःकरणादि के संबंध से रहित जो आत्मा है उसको परमात्मा बोलते हैं।
‘प्रीञ् पालनपोषणयोः’ से पिपर्ति इति परमाः- जो सबका पालन-पोषण करें, सबको पुष्टि दें, उसको परमात्मा बोलते हैं। कोई कैसे गया उसके पास वह परमात्म-वस्तु सत्य यह नहीं देखता कि यह किस बुद्धि से उसके पास आया है। इसलिए जार-बुद्धि से भी गोपी जब कृष्ण के पास गयी तो कृष्णरूप हो गयी मानो बन्धनयुक्त हो गयी। उसका गुणमय शरीर छूट गया और बन्धनमुक्त हो गयी। जारबुद्ध्याऽपि संगताः- पञ्चदशी में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन आया है। पञ्चदशी में एक प्रकरण है ‘ध्यानदीप’। जैसे- संस्कृत में व्याकरण शब्द का अर्थ होता है वैसे वे ही वेदान्त में प्रकरण शब्द का अर्थ होता है। प्रक्रिया बताने वाले ग्रंथभाग को प्रकरण कहते हैं- प्रक्रियते अनेन। तो ध्यानदीप में ऐसे बताया कि दो आदमी थे, दोनों ने देखा कि दूर से चमक आ रही है, कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई हीरा पड़ा हुआ है, निश्चय हो गया कि वहाँ कोई हीरा ही है।
दोनों ने बँटवारा कर लिया कि उस हीरा को तुम ले लो और वह हीरा हम ले लें। दोनों के मन में हीरा-बुद्धि हो गयी लेकिन एक आदमी जब उस चमक के पास पहुँचा तो वहाँ दीया जल रहा था। उस दीपक की प्रभा में उसको हीरा की भ्रान्ति हो गयी थी। वहाँ हीरा नहीं मिला। दूसरा भी चमक ही देख रहा था और चमक देखकर गया लेकिन वहाँ तो दर-असल हीरा था। दोनों को चमक देखकर हीरा की पहले भ्रान्ति ही हुई थी परंतु एक पहुँच गया हीरे के पास और एक पहुँच गया दीपक के पास। वहाँ चमक में हीरे की भ्रान्ति होना एक के लिए लाभकारक हो गया और एक के लिए लाभकारक नहीं हुआ। जिसको हीरा मिला उसके भ्रम को वहाँ संवादी भ्रम बताया है; दूसरे को विसंवादी भ्रम के रूप में बताया गया है। वहाँ बात यह बतायी कि एक बिना जाने यह ध्यान करे कि आत्मा ब्रह्म है और एक जानकर ध्यान करे तो बोले- अनजान में भी कोई ध्यान करेगा कि आत्मा ब्रह्म है तो उसको भी वही अनुभव होगा जो जानकर ध्यान करने वाले को होगी क्योंकि यह तो सत्य ही है कि आत्मा ब्रह्म है। जब ध्यान करने से झूठी चीज भी मिल जाती है तब सच्ची चीज को तो बात ही क्या है। ध्यान में बड़ा बल है।+
जिसने श्रीकृष्ण को भगवान समझा उसको तो भगवान की प्राप्ति हुई ही; परंतु यह जो गोपी जिनके पास दौड़ी जा रही है, जानती तो नहीं है कि ये भगवान हैं पर हैं तो वे भगवान ही। अज्ञान में भी कोई अमृत पी ले, अमर तो वह हो ही जाएगा। जारबुद्ध्यापि संगताः- अरे! बाबा! वही ब्रह्म है, परमात्मा है और अपने सब आवरण तोड़कर, फोड़कर प्रकट होकर आया है, उसको यशोदा मैया बच्चा समझकर प्यार करती हैं तो ब्रह्म से ही प्यार करती हैं, ग्वालबाल, सखा समझकर प्यार करते हैं तो भी ब्रह्म को ही प्यार करते हैं और गोपियाँ यार समझकर प्यार करती हैं तो परब्रह्म परमात्मा से ही प्यार करती हैं, क्योंकि दरसल वे परब्रह्म परमात्मा हैं।
अब आगे देखो- ‘जारबुद्ध्याऽपि’ क्या बुद्धि है उनके चित्त में? ऐसे समझो कि हमारे हिंदू धर्म की यह बात है- कभी कर्मनाशा में आदमी को नहाना पड़ जाय, कभी वरुणा में नहाना पड़ जाए और कभी नर्मदा में नहाना पड़ जाय, परंतु उसके मन में भाव हो कि हम गंगा में स्नान कर रहे हैं, तो गंगा-स्नान का पुण्य उसको मिलेगा और यदि कदाचित् गंगाजी में स्नान कर रहा हो और गंगाजी को समझता हो कि कोई मामूली नदी है, तो हिंदू धर्म के अनुसार उसको गंगा स्नान का पुण्य ही मिलेगा। क्योंकि वह तो असली गंगा में नहा रहा है, यह हिंदू धर्म की मर्यादा है। केवल भाव में ही गुण नहीं होता, द्रव्य में भी गुण होता है। देखो, डॉक्टर लोग दवा देते हैं नाम नहीं बताते हैं कि क्या है; परंतु शरीर में जाने पर दवा गुण तो करती है। हमारे वैद्य लोग तो पहले बताते ही नहीं थे कि क्या देते हैं। ये महाराज खिलावें कबूतर का बीट (कोई औषधि है जिसको खाने से शरीर का कोई रोग दूर होता है।) लेकिन बताते नहीं थे कि रोगी नहीं खायेगा, उसको ग्लानि होगी।
तो क्या हुआ कि वस्तु में भी गुण होता है। यहाँ वस्तु हैं श्रीकृष्ण और उनका गुण है कि जो उनसे मिलेगा, कृष्णरूप हो जाएगा। यह साँवरा सलोना यह मीठा-मीठा व्रजराजकुमार, जिसकी आँखें प्रेम रस से सनी, खिले कमल की पंखुड़ी- सी जिनमें गुलाबी शर्बत घुला है, जिसके होंठ सन्तरें की फाँक जैसे हैं उनमें क्या रस रखा है। जिसके कपोलों में कचौड़ी का निवास है। तो चलो आनन्द लो। अब एक गोपी यहाँ जो आयी श्रीकृष्ण के पास वह शरीर से कमरे में बंद थी और ध्यान से मिल गयी कृष्ण के साथ; और उसका देह छूट गया। तो जरा उस पर विस्तार से बात करते हैं। यह तो महाराज ऐसा ही हुआ कि प्रथमग्रा से मक्षिकापातः- पहले ग्रास में ही मक्खी गिर गयी। यह रासरसों का मंगल प्रारम्भ होना और उसमें पहले ही मौत का वर्णन आना।++
गोपी को घरवालों ने रोक लिया, रास्ता मिला नहीं, वह मन-ही-मन भगवान् के पास पहुँच गयी और शरीर छूट गया। बोले इसका यह अर्थ तो है ही नहीं बिलकुल, वह मरी नहीं- जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः। अगर मरना इष्ट करना था तो यूँ कहना चाहिए था कि जुर्हुदेहं- उन्होंने देह छोड़ दिया और प्रक्षीणबन्धनाः- उनके सारे देह मूलक बन्धन कट गये और वे कृष्ण के पास पहुँच गयीं। परंतु ‘गुणमयं देहं’ क्यों कहा? जबकि देह तो गुणमय होता ही है। तीन गुण तो महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से पंचतंमात्रा, पंचतंमात्रा से पंचमहाभूत र उनसे शरीर। शरीर बना तो तीनों गुण से ही बना। जब गुण से ही बना तो यह कहने की जरूरत कहाँ रहती कि गुणों से बना शरीर। शरीर तो यहाँ देह कहने से ही समझ में आ जाता है कि उनका देह छूट गया, उसको गुणमय देह क्यों कहा गया।
विशेषण किसका व्यावर्तक है? क्या कहना चाहते हैं। वैष्णव सिद्धांत में देह दो प्रकार का होता है- एक गुणमय प्राकृत देह और एक गुणमय नहीं अपितु अप्राकृत देह। तो भगवान् की प्राप्ति के लिए प्राकृत देह जो इस गोपी का था, व तो घर में गिर गया, लेकिन जब इसने ध्यान किया तो प्राकृत देह त्याग होकर आप्राकृत देह की उत्पत्ति हो गयी। जाति का परिवर्तन हो गया, देहस्थ जो प्राकृत परमाणु थे वे बदल गये, उसका भौतिक देह आतिवाहिक देह हो गया। अतिवाहिक शब्द का अर्थ होता है- अतिक्रम्य वहति जो दीवार में- से निकल जाय भी तो जिसको रोक न सके, जो फाटक बन्द हो तो भी निकल जाय, जिसे कोई रोक न सके, ऐसे शरीर को बोलते हैं। आतिवाहिक शरीर वह अप्राकृत शरीर किसी ग्वालों की पत्नी नहीं था, किसी ग्वाले की बेटी नहीं था, वह किसी मकान में आबद्ध नहीं था। ध्यान से गोपी को दिव्य शरीर प्राप्त हुआ और वह जो उसका गुणमय शरीर था उसका परित्याग करके ऐसा अप्राकृत रूप ग्रहण किया। यह ध्यान के बल का वर्णन किया। श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज एक श्लोक बोला करते थे-
आतिवाहिकदेहोऽयं शुद्धचिद्व्योम केवलः ।
आधिभौतिकतान्नीतः पश्याभ्यासविजृम्भितम् ।।
तुम अभ्यास की महिमा देखो। असल में यह आत्मा शुद्ध मुक्त ब्रह्म है, यह चिदाकाश है। लेकिन मैं देह हूँ- मैं देह हूँ, इस अभ्यास के कारण यह परिच्छिन्न जड़ हो गया है। यह भाव का ही बल है कि ब्रह्म अपने को परिच्छिन्न द्रव्य मान रहा है। इसी प्रकार यदि उल्टा भाव किया जाए तो, ध्यान की महिमा, अभ्यास की महिमा आपको प्रकट हो जाएगी। आप अपने को दाढ़ी, बाल, मूँछवाला मर्द मत समझो और आप अपने को बिना दाढ़ी की, बिना मूँछ की स्त्री मत समझो, अपने को शुद्ध-बुद्ध-मुक्त भगवत्सेवोपायिक शरीरवाला समझो. हमारा यह शरीर भगवान् की सेवा के लिए है और भगवान् का जैसा शरीर वैसा ही शरीर हमारा है, क्योंकि विजातीय के साथ भगवान् का संबंध कैसे होगा?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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