Niru Ashra: 🙏🙏🙏🙏🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 124 !!
“रससाधना” – एक समीक्षा
भाग 1
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हे पार्थ ! ये है हमारा निकुञ्ज ! इसके आगे “नित्यनिकुञ्ज” है ……जहाँ पर हम नित्यसिद्धा सखियाँ ही जाती हैं……….बाकी और को उस नित्य निकुञ्ज में कोई प्रवेश नही है ।
ललिता सखी नें अर्जुन को समझाया ।
मध्यान्ह का समय हो गया था ……राजभोग ( दोपहर का भोग ) लगाकर और बड़े प्रेम से “युगलवर” को सुलाकर ललिता जैसे ही बाहर आईँ …….तो सामनें सखीरुप से अर्जुन खड़े थे ।
मुस्कुराईं ललिता …… अर्जुन का हाथ पकड़कर एकान्त कुञ्ज में ले गयीं …….. और अर्जुन से चर्चा करनें लगीं थीं ।
क्या मैं नही जा सकता “नित्य निकुञ्ज” में ? अर्जुन नें पूछा था ।
नही …….तुम नही जा सकते…….फिर कुछ देर बाद ललिता सखी बोलीं ……..युगल कृपा से कुछ भी असम्भव नही है………जैसे – अर्जुन ! तुम निकुञ्ज में आगये……..जिस निकुञ्ज में बड़े सिद्ध लोग भी नही आपाते ………ब्रह्मादि भी बस लालसा ही करके बैठे हैं कि – निकुञ्ज के हमें दर्शन हों……पर । ललिता सखी नें बताया ।
हे देवी ललिता ! क्या आप हमें बता सकतीं हैं कि ……इस निकुञ्ज में कौन आ पाता है ? …….और उसके लिए साधना क्या करनी पड़ती है ……..कैसे साधक आगे बढ़ता है …? उस साधना का नाम क्या है ? और उस साधना का क्रम क्या है ?
मैं अगर अधिकारी हूँ……तो मुझे उस “रससाधना” के बारे में बताइये ।
अर्जुन का प्रश्न सुनकर ललिता सखी उठ गयीं …….अर्जुन भी उठ गए थे ……….अर्जुन ! ये “रस साधना” बहुत गम्भीर और गोप्य है …….सब इसके अधिकारी नही हैं ………….।
हे अर्जुन ! संसार में नाना प्रकार के जीव हैं…….अनेक जन्मों के चित्त में संग्रहित संस्कारानुसार ही नाना विषयों में उनकी आसक्ति है ।
धन, पद , प्रतिष्ठा , सुख …..इन्हीं सबों में भटक रहा है जीव ……….फिर जैसे जैसे पूर्वजन्म के संस्कार वश …..या किसी महत्पुरुष की कृपा से ………..संसार दुखप्रद प्रतीत होता है ……और वह इससे बाहर निकलनें की सोचता है ……….वो ज्ञान मार्ग में जाता है …वो कर्म मार्ग में जाता है …..या वो उपासना के मार्ग में जाता है ……..फिर मुक्त होनें की स्थिति में पहुँचता है वह जीव ………..साधना करके वह मुक्त भी हो जाता है ……….हो गया मुक्त ……..पर वो मुक्त जीव जब देखता है “उछलते रस” को ………”उन्मत्त रस” को ……….चारों ओर उसे रस ही रस दिखाई देनें लगता है ….।
और रस ही इकठ्ठा होकर रास में परिणत हो रहा था…….रास महारास बन रहा था…….अब वो मुक्त जीव क्या करे ?
बस ललचानें के सिवा उनके हाथ में कुछ नही बचता ।
क्यों की – अर्जुन ! वे लोग हो गए मुक्त ! अब क्या ? छा गयी शान्ति …..सब शान्त …..अन्तःकरण शान्त……….शान्ति !
“रस साधना” के आचार्यों नें बहुत कुछ छुपा कर रखा ………….सबके सामनें इसका वर्णन भी नही किया गया ………..और अगर वर्णन भी किया तो जीवों पर करुणा करके पृथ्वी में “भू वृन्दावन” में सखी ही अवतरित होकर गयीं ……….और आचार्यों के रूप में सखी नें ही इस रससाधना का उपदेश करके जीवों को निकुञ्ज का अधिकारी बनाया…………ललिता सखी नें अर्जुन को समझाया था ।
तुम वासुदेव कृष्ण के सखा हो…….और तुम अधिकारी भी हो ……..इसलिये मैं तुम्हे इसका रहस्य बता रही हूँ ……तुम ध्यान से सुनो अर्जुन ! ………. इतना कहकर ललिता सखी नें अर्जुन को इस साधना के सम्बन्ध में बताना शुरू किया था ।
हे अर्जुन ! “रससाधना” की शुरुआत होती है , ब्रह्मचर्य के पालन से ……..यानि बिन्दु की रक्षा से………प्रथम , वासना से जीव को वैराग्य हो उठे……..स्त्रीदेह के प्रति पुरुष का ……..और पुरुष देह के प्रति स्त्री का आकर्षण कम होता जाए ।
यहीं से शुरुआत होती है रससाधना की ।
गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखे…….गुरु जो कहें उसे अक्षरशः पालन करे ।
गुरु के द्वारा मिले मन्त्र को उत्साह के साथ जाप करे …………और ये उत्साह बनाये रखे …….कम न होनें दे ।
इसके पश्चात् ही आता है “साधक भाव”………गुरुमन्त्र सिद्ध किये बिना आप “साधक” नही हो सकते……..रससाधना तो यही कहती है ।
गुरु मन्त्र सिद्ध तब माना जाता है …….जब आप बिना माला के ….बिना संख्या के ……..मन्त्र जाप करते हुए मन ही मन में संख्या भी सोचते चलें ….और 108 बार इसे बिना किसी व्यवधान के जपलें ……..तो आपनें सिद्ध कर लिया है गुरुमन्त्र ये माना जाएगा ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🌻 राधे राधे🌻
Niru Ashra: 🙏🙏🙏🙏🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 124 !!
“रससाधना” – एक K
भाग 2l
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यहीं से शुरुआत होती है रससाधना की ।
गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखे…….गुरु जो कहें उसे अक्षरशः पालन करे ।
गुरु के द्वारा मिले मन्त्र को उत्साह के साथ जाप करे …………और ये उत्साह बनाये रखे …….कम न होनें दे ।
इसके पश्चात् ही आता है “साधक भाव”………गुरुमन्त्र सिद्ध किये बिना आप “साधक” नही हो सकते……..रससाधना तो यही कहती है ।
गुरु मन्त्र सिद्ध तब माना जाता है …….जब आप बिना माला के ….बिना संख्या के ……..मन्त्र जाप करते हुए मन ही मन में संख्या भी सोचते चलें ….और 108 बार इसे बिना किसी व्यवधान के जपलें ……..तो आपनें सिद्ध कर लिया है गुरुमन्त्र ये माना जाएगा ।
आप साधक हो गए ।
ललिता सखी के चरण पकड़ लिये थे अर्जुन नें …………..हे देवी ! ललिते ! मैं आज धन्य हो गया हूँ……आप मुझे रस साधना की जो गुह्य और गूढ़ बातें बता रही हैं……….मैं कृतकृत्य हो गया ।
हे ललिता देवी ! कृपा करके अब और रहस्य भी खोलिए …..हे देवी ललिते ! मैं आपका ये उपकार कभी नही भूलूंगा ।
ललिता सखी नें अर्जुन को उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया था ।
हे अर्जुन ! साधक बनते ही ……….उस जीव के , पूर्व जन्म के सारे प्रारब्ध जल उठते हैं ……..पाप भी जल जाते हैं और पुण्य भी ……….इस निकुञ्ज में प्रवेश करनें के लिये पाप का नष्ट होना भी आवश्यक है , और पुण्य का भी ।
अच्छा और बुरा ……..दोनों से परे जाना पड़ता है इस रससाधना के साधक को ……….चिन्तन की धारा अपनें इष्ट के प्रति बहती रहे ।
और कोई नही……राग द्वेष को मिटाना नही है……इस “रससाधना” में, …….अपितु राग द्वेष को अपनें इष्ट के प्रति मोड़ देना है ।
ये बड़ी विलक्षण साधना पद्धति है …………इस साधना पद्धति में अपनें राग द्वेष अहंकार मोह, ममता, इन सबको खतम करना नही है ………..इन्हीं को सीढ़ी बनाकर निकुञ्ज की ओर बढ़ना है ।
राग, अपनें इष्ट से करनी है……द्वेष, उससे करना है जो हमें हमारे साधना से हटानें में लगा हुआ है ……अहंकार……”मैं किशोरी जी की हूँ”…….ये अहंकार ………मोह – अपनें ही इष्ट से …….और ऐसा मोह जैसा अपनें “संसारी यार” के प्रति होता है ………यानि सबकुछ मोड़ देना है अपनें इष्ट के प्रति ।
ललिता सखी आगे बोलीं ………जब साधक की स्थिति ये होती है कि ……उसकी हर चेष्टा, इष्ट के लिये ही है, उसका हर क्षण इष्ट की ही यादों में …….तड़फ़ में ……..जब बितनें लगता है………….
ललिता सखी बोलते बोलते रुक गयीं …..फिर कुछ देर में बोलीं –
अर्जुन ! ये तड़फ़ …..ये विरह ….इष्ट का अखण्ड चिन्तन ……..दो प्रकार से होता है ………या तो साधना करके अभ्यास के द्वारा. ……..या फिर पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण ……और हाँ कोई आवश्यक नही कि ये सब किया ही जाए तभी “निकुञ्ज रस” मिलेगा ………..नही …..सबसे बड़ी है “कृपा” ………पर कृपा कहकर बैठे रहना ये भी उचित नही है ……..हमें अपना “भाव” बनाते भी रहना चाहिए ।
ऐसी स्थिति हो जाती है ………तब वह साधक , साधक की भूमिका से उठकर “सिद्ध” की भूमिका में चला जाता है ।
याद रहे – ये चर्चा होरही है “रस साधना” की ।
साधक की भूमिका जब तक रहती है ………..तब तक वह अपनें गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है …….रखना ही चाहिये ……नही तो साधना में गति नही आएगी ।
पर साधक की भूमिका समाप्त होते ही……जब वह सिद्ध होजाता है …….तब वह “सिद्ध” गुरु के प्रति श्रद्धा नही……”निकुञ्ज की सखी” को ही गुरुभाव से पूजनें लग जाता है….सिद्ध की गुरु होती हैं सखियाँ ।
अर्जुन सुनो ! एक बात और बताती हूँ …….ललिता सखी बतानें लगीं ।
“रससाधना” के सिद्ध जन कैसे ध्यान करते हैं ….कैसे उपासना करते हैं ……उसके बारे में भी कुछ सुनो …………
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🌻 राधे राधे🌻

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