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August 1, 2025 7:59 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (067),(068)&(069) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (067),(068)&(069) : Niru Ashra

Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (067)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )m

जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

प्रश्न यह है कि ब्रह्म के रूप में गोपी नहीं जानती थी, तो यह जो कहा कि उनका प्राकृत-शरीर, गुणमय शरीर बदल गया, गुणप्रवाह में यह जो त्रिगुण हुआ है वह त्रिगुण से महत्त्व, महत्त्व से अहंकार और अहंकार त्रिविध होकर सात्त्विक,राजस, तामस होकर जो ज्ञान, क्रिया और द्रव्य के रूप में उनके बैठा हुआ था- वह कैसे मिट गया? उनको अप्राकृत दिव्य शरीर कैसे प्राप्त हुआ?

गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम् ।

उनकी बुद्धितो गुण में लगी हुई थी, गुणों से पार कैसे पहुँच गयी। अब महाराज श्रीशुकदेव जी बोले कि देखो तुमको बार-बार मत समझायी समझ में तो तुम्हारे आता नहीं है, याद रहता नहीं है, और प्रश्न ठोंक देते हो। देखो क्या बढ़िया हम वर्णन कर रहे थे कि सब गोपियाँ कृष्ण के पास पहुँच गयीं और वर्णन करते कि कृष्ण ने यह कहा और गोपियों ने यह कहा, अब कहाँ हम वृन्दावन का रस सुनाते तो कहाँ यह बीच में ढेला फेंक दिया सवाल का। अब कोई प्रश्न करे और उसका उत्तर न दे तो वह बात भी ठीक नहीं जमती देखो, भगवान् की कथा जो होती है वह रसास्वादन करने के लिए होती है और आनन्द बढ़ाने के लिए होती है। सत्संग जो होता है संशय की निवृत्ति के लिए होता है। प्रश्नोत्तर जो होता है वह भी संशय की निवृत्ति के लिए और चिद्विषयक ज्ञान बढ़ाने वाला होता है। और योगाभ्यास जो है सत्यनिष्ठित करने के लिए होता है और रंगमंच पर ये जो भिन्न-भिन्न व्याख्यान होते हैं वे नेताओं के अपनी पार्टी बढ़ाने के लिए होते हैं, कुर्सी पर अपना अधिकार जमाने के लिए होते हैं। श्रीशुकदेवजी ने कहा- उक्तं पुरस्तादेतन्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः।

अरे-ओ, ओ परीक्षित। परीक्षित का अर्थ है परीक्षा करके, तब जो बात को पक्की करे। गर्भ में देख आये थे भगवान् को, तब लोक में उसकी परीक्षा करें। पूरी तरह से ये परीक्षित हैं- परीक्षित हैं माने जानते हैं; जिसका इम्तहान, जिसकी परीक्षा पूरी तरह से कर ली गयी हो उसका नाम परीक्षित है, उनकी परीक्षा क्या हुई है, कि वह जो ब्राह्मण का बेटा था, उसने कहा कि तक्षक तुमको काट लेगा। तक्षक तक्षक माने बढ़ई। जो वसूले से लकड़ी छीलकर आरी से चीरकर, काटकर, रन्दा मारकर लकड़ी को सुन्दर काम की बना देते हैं। तो यह तक्षक जो आया सो तो देहाभिमान को छील काटकर के फेंकने के लिए शुद्ध, बुद्ध, मुक्तरूप में परीक्षित को चमका देने के लिए रन्दा मारकर देहाभिमान छुड़ाने के लिए और पालिश करके गुणाधान के लिए मनन निधिध्यासन के द्वारा श्रवण के द्वारा उनका निर्माण करने के लिए आया। यह तक्षक कोई दंशक नहीं है। लेकिन मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर परीक्षित ने क्या कहा? यह ही उसकी परीक्षा है बोला- बाबा, एकदिन तो मरना था अभी सही, दशत्वलं गायतविष्णुगाथाः- आकर डसने दो तक्षक को, तुम तो भगवान् की लीला कथा सुनाओ। तुम मौत की परवाह छोड़कर कृष्ण कथा सुनने के लिए बैठे ही परीक्षित। मैंने तुमको पहले यह बात बतायी थी- उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः। +

जिस प्रकार से चैद्य को सिद्धि मिली (चैद्य माने शिशुपाल, चेदि देश का राजा, उसका नाम चैद्य), अरे देखा नहीं, सुना नहीं, तुम्हारे दादा के यज्ञ में गाली दे रहा था शिशुपाल, द्वेष कर रहा था शिशुपाल और उसके शरीर में से ज्योति निकली और कृष्ण के शरीर में समा गयी, कृष्णाकार हो गयी। गाली देनेवाले की जब ऐसी गति हुई, तो प्रेम करने वाले को भला क्या गति मिलेगी।

द्विषन्नपि हृषिकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं- वह तो हृषीकेश से द्वेष करता था। द्वेष में दो चीज होती हैं और प्रेम में भी दो चीज होती हैं, प्रेम में स्मरण होता है और स्वाद आता है; द्वेष में स्मरण होता है और जलन होती है। एक में जलन है और एक में मजा है, लेकिन स्मरण दोनों में है। चैद्यः सिद्धिं यथा गतः । एक बाप के सामने दो बच्चे बैठे थे। देखा, बाप बैठा है तो एक दौड़कर पाँव छूने लगा, बाप ने झट उसको गोद में बैठा लिया। दूसरा दौड़ा कि मूँछें उखाड़ लें। उस जमाने में लोग मूँछ रखते थे, अब नहीं रखते। उस जमाने में पौरुष का चिह्न मानते थे। नाक में से बलगन सीधे मुँह में न पहुँच जाए इसके लिए भगवान् ने मूँछ बनायी थी। इतना ही नहीं जब हम लोग साँस लेते हैं तो हवा के कण साफ-साफ छन जायँ और हवा शुद्ध होकर नाक में घुसे इसके लिए भी हमारे पूर्वजों ने मूँछों की आवश्यकता समझी थी। इस पर पुरुषों ने कहा कि अगर यह कोई बात होती तो भगवान् स्त्रियों के लिए भी मूँछें देते कि उनका भी बलगम सीधे मुँह में न जाय और उनकी नाक में भी शुद्ध हवा जाय। भगवान् ने ऐसा पक्षपात क्यों किया?

लेकिन पक्षपात यों किया कि स्त्रियों के बारे में भगवान् की धारणाएँ थी कि ये सड़क पर ज्यादा नहीं घूमेंगी, ऐसा उनका ख्याल था। अब इसमें क्या बात हुई कि जब बाप बैठा था और बच्चा मूँछ पकड़ने के लिए दौड़ा, नाक में उँगली डालने के लिए दौड़ा, तो जैसे उसने प्रणाम करने वाले को गोद में बैठाया था वैसे ही उसको भी उसने अपनी गोद में बैठा लिया। तो क्यों बैठाया? क्योंकि वह उसको भी अपना बच्चा समझता है- कथश्चिन्नेक्ष्यते पृथक् श्रीमद्भावगत में आया कि बच्चे भले न पहिचाने कि हमारा बाप है लेकिन बाप तो पहचानता है कि यह हमारा बेटा है। किसी भी भाव से जब अपना बेटा अपने पास आता है तो बाप उसके प्रति स्नेह ही करता है, वात्सल्य ही करता है, उसका भला ही करता है। द्विषन्नपि हृषिकेशं- शिशुपाल, दन्तवक्र, कंस, कंस भय से आया, शिशुपाल द्वेष से आया, पाण्डव लोग संबंध से आये, यदुवंशी लोग स्नेह से आये नारद आदि ईश्वर की भक्ति से आये और कुब्जा आदि काम से आयीं और गोपियाँ प्रेम से आयीं, लेकिन भगवान् यह नहीं देखते हैं कि कैसे आये, वे तो यह देखते हैं कि हमारे पास आते हैं। उनका यह ख्याल है कि दुनिया में जो हमारे पास आता है वह हमारी छाती से लगने के लिए आता है; उनको अपने सच्चिदानन्द होने का भाव है न! ये सब चित्सस्वरूप, आनन्दस्वरूप, रसस्वरूप हैं तो जो मेरी ओर आ रहा है, हृदय में ही लगने के लिए आ रहा है। द्वेष से आने वाले के हृदय में भगवान् का स्मरण जो है वह भगवान् के पास पहुँचा देता है और जलन जो प्रतिबन्ध है उसको मिटा देता हैं और अंत में भगवान् का वात्सल्य उसको हृदय से लगा लेता है।++

निभृतमरुन्मनोक्षदृढयोगयुजो हृदि*
यन्मुनय उपासते, तदरयोऽपि ययुःस्मरणात्।
स्त्रिय उरगेंद्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो
वयमपि ते समाः समदृशोङ्घ्रिसरोजसुधाः ।।

वेद स्तुति में यह प्रसंग आया कि बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, यती संन्यास, महात्मा प्राणवायु को वश में करके मन को वश में करके, इन्द्रियों को वश में करके, अपने हृदय में जिसका ध्यान करते हैं, द्वेष करने वाले शिशुपाल, दन्तवक्र आदि शत्रु भी उसी परमात्मा को प्राप्त हुए। क्यों हुए? बोले- स्मरणात्; स्मरण तो उनमें भी है भले ही द्वेष से हो। किस कारण से द्वेष करते हैं, यह मतलब नहीं है। एक ने कहा कि लड़ेंगे चलकर, एक ने कहा कि हम प्यार करेंगे चलकर, लेकिन जब सामने गये तो दोनों मिल गये। पनाला गया, गन्दी नाली गयी कि हम समुद्र को गन्दा करेंगे और गंगा गयी कि हम समुद्र को पवित्र करेंगे, लेकिन समुद्र में मिलने के बाद गंदा करने वाली समुद्र हो गयी और पवित्र करने वाली गंगा भी समुद्र हो गयी। एक में पवित्र करने का भाव था एक में गंदा करने का भाव था लेकिन समुद्र में मिलने के बाद दोनों एक हैं- यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेअस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय; उनका नाम रूप टूट जाता है। ये गोपियाँ जो हैं किस कारण से गयीं; बाँसुरी से आकृष्ट होकर गयीं, उनका सौन्दर्य देखकर गयीं, उनका बल-पौरुष देखकर गयीं, प्रेम से आकृष्ट होकर गयीं कैसे भी गयीं, कैसे भी उनका ध्यान लग गया, गयीं तो उन्हीं के पास। ध्यान लगा तो उन्हीं का न। तो बाबा जब दुश्मनी करने वाले भी उनसे जाकर मिल जाते हैं, फिर प्रेम से जाकर क्यों नहीं मिलेंगी।

द्विषन्नपि हृषीकेशं- हृषीकेश कहने का क्या अभिप्राय है? अरे भाई, द्वेष किया तो उसने बड़ी भारी गल्ती की? बोले न-न ऐसा नहीं समझना, उन्होंने द्वेष करवा लिया- बोले बेटा। तुम हमसे द्वेष करके मिलो। इन्द्रियों के स्वामी तो वे हैं, अपने से द्वेष करने की प्रेरणा दे दी। बोले बहुत बढ़िया नाटक किया है बेटा। अब आ जाओ हम तुसमे प्रसन्न हैं। जब द्वेष करने वालों के लिए भी यह गति, यह मति, यह वात्सल्य, यह स्नेह, फिर जिससे भगवान् प्रेम करें, जो भगवान् को प्यार करें, उनके संबंध में कहना ही क्या। किमुताधोक्षजप्रियाः अधोक्षजः प्रियो यासां, अधोक्षजस्य प्रियाः- गोपियाँ कृष्ण की प्यारी हैं और कृष्ण उनके प्यारे हैं; और प्यार के संबंध से ध्यानमग्र होकर यदि कृष्ण के पास पहुँच गयीं, तो क्या आश्चर्य की बात है।

क्रमशः …….


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

उक्तं पुरस्तादेतत्ते……पेशैर्विमोहयन

श्रीशुक उवाच

उक्तं परस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।
द्विषन्नपि हृषिकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।।
नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।
अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ।।
कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च ।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतांहि ते ।।
न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।
योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत यतद् विमुच्यते ।।
ता दृष्टान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।
अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्वमोहयन ।।

रासलीला के संबंध में राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से प्रश्न उठाया। शुकदेव जी ने कहा यदि भक्त के हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की हार्दिक व्याकुलता हो और प्रेम पूर्वक ध्यान हो, तो शरीर का एक-एक कण बदलकर भौतिक से दिव्य हो जाता है, लौकिक से अलौकिक हो जाता है, आधिभौतिक देह की जगह आतिवाहिक देह की प्राप्ति हो जाती है और मंगलमय, दिव्यमय होकर भगवाने के उपभोगयोग्य शरीर प्राप्त कर वह उनकी लीला में प्रविष्ट हो जाता है। भगवान् के प्रेमपूर्वक ध्यान में बड़ी शक्ति है।
राजा परीक्षित ने शंका की कि भगवान् का आदरभाव ज्ञान से होता है या भक्ति से होता है और गोपियों को न तो ज्ञान था और न तो ईश्वर की जैसी भक्ति होनी चाहिए वैसी भक्ति थी, ऐश्वर्य ज्ञानपूर्वक तो भक्ति नहीं थी, पहचानती नहीं थी गोपियों कि ईश्वर है; या भक्ति से होता है और गोपियों को न तो ज्ञान था और न तो ईश्वर की जैसी भक्ति होनी चाहिए वैसी भक्ति थी, ऐश्वर्य ज्ञानपूर्वक तो भक्ति नहीं थी, पहचानती नहीं थी गोपियाँ कि ईश्वर है; उल्टे उनको अपना यार समझती थीं। फिर दोनों के बिना जो गोपियों को गुणप्रवाहोपरम वह कैसे हुआ? वह जो गोपियों के शरीर में प्रकृति के गुणों का प्रवाह बन्द हो गया और भगवत् प्रवाह का आविर्भाव हो गया-बिना ज्ञान के, बिना भक्ति के, वह कैसे हो गया? प्रेम करने भर से उनको भगवान् की प्राप्ति कैस हो गयी?+

यह प्रश्न का अभिप्राय है। इसके उत्तर में शुकदेव जी महाराज ने कहा कि हमने दशम स्कन्ध के पहले इतनी विशाल-भूमिका तुमको सुनायी-

*उक्तं परस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।
*द्विषन्नपि हृषिकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ।।*

राजन् ! मैंने तुमको पहले बताया कि शिशुपाल को सिद्धि कैसे मिली। सातवें स्कन्ध में यह प्रसंग आया था। युधिष्ठिर ने नारद ने प्रश्न किया था। अर्थात् तुम्हारे दादा ने हमारे दादा गुरु से यह प्रश्न पूछा था। वह बात हमने तुमको सारी-की सारी सुना दी थी। उक्तं पुरस्तादेतत्ते। क्या सुनायी कि शिशुपाल के शरीर में- से निकली हुई ज्योति श्रीकृष्ण के शरीर में समा गयी। यह आश्चर्य हुआ। बोले- हाँ, महाराज, समझाया तो था। तो बोले- देखो, ज्ञान का प्रयोजन है स्वयं प्रकाश के आविर्भाव में जो प्रतिबन्धक है, आवरण है, अज्ञान है, उसको ज्ञान मिटा दे। ज्ञान का प्रयोजन भगवान के आविर्भाव में है। अरे, भगवान तो ब्रह्म हैं; आत्मा हैं; भगवान के आविर्भाव में ये ज्ञान और भक्ति तब जरूरी होते हैं, जब भगवान का स्वयं आविर्भाव न हुआ हो। और जब बिना ज्ञान के और बिना भक्ति के ही स्वयं भगवान ही प्रकट होकर आ गये हैं तो उस समय भी यदि ज्ञान भक्ति की जरूरत पड़े तो भगवान का आविर्भाव व्यर्थ। शत्रुओं का मारना, पृथ्वी का भार उतारना- यह काम तो बिना भगवान के अवतार के हो सकता था, भगवान संकल्प करें कि कंस पैदा ही न हो, शिशुपाल, दन्तवक्र पैदा ही न हों और पैदा होवें तो दुष्ट ही न बनें। अरे उनके संकल्प से ही सारा काम चल जाय।

असल में भगवान का आविर्भाव दुष्टों के दमन के लिए नहीं होता, शिष्टों के पालन के लिए होता है। और फिर वे जब प्रकट होते हैं तो छुट्टी कर देते हैं। उदार आदमी के घर जब भोजन होता था तो उसमें यह नहीं देखा जाता था कि जो निमंत्रित हैं वही खायँ, निमंत्रित हैं या अनिमंत्रित जो भोजन के समय आ गया, खोल दो दरवाजा। क्या भगवान के घर में की कमी है? वह तो सबसे मिलने के लिए, सबको मुक्ति देने के लिए, सबके समान आविर्भाव के लिए आते हैं। भगवान का अवतार पुष्टि में है। जीव के भाव की, ज्ञान की उस समय अपेक्षा नहीं रहती है, जिस समय भगवान प्रकट होते हैं- द्विषन्नपि हृषिकेशं- भगवान से कोई द्वेष करे तो? कल आपको सुनाया कि अपना ही बच्चा नाक में उँगली डालने के लिए दौड़े, तो भी बाप उसको गोद में बिठा लेता है। द्विषन्नपि हृषीकेशं- उद्देश्य की उपाधि से भगवान का स्मरण होता है कि नहीं? तदरयोऽपि ययुःस्मरणाद्- कल सुनाया- ‘निभृतमरुन्मनोक्षदृढयोग- युजो हृदि यन्मुनय उपासते’ मुनि लोग ध्यान करते हैं और शिशुपाल द्वेष, किन्तु वहीं वह पहुँच गया। क्यों पहुँच गया? अरे बाबा, राग से स्मरण करो, कि द्वेष से स्मरण करो, प्रेम से दौड़कर आओ, कि द्वेष से दौड़कर आओ, आते तो हो, भगवान की गोद में।++

कथश्चित् नेक्ष्यते पृथक्- भगवान तो देखते हैं कि हमारा बच्चा बहुत देर के बाद खेलकर, घूमकर, भटककर, रोककर, गाकर, कैसे भी हमारी गोद में आया। वे यह नहीं देखते कहाँ से कैसे आया- ‘कथश्चिन्नेक्ष्यते पृथक्’ कैसे भी आये, उसको पराया समझते ही नहीं है, अपना आया ही समझते हैं, अपना ही समझते हैं। द्विषन्नपि हृषीकेशंका अर्थ वल्लभाचार्यजी महाराज ने बताया है कि यह मत समझना कि कंस ने भगवान से भय किया था, शिशुपाल ने द्वेष किया, तो वे भय करने में या द्वेष करने में स्वतंत्र थे। हृषिकेशं- अरे। वही तो उनके इन्द्रियों के स्वामी हैं, जब कंस कृष्ण को गाली देता था और शिशुपाल कृष्ण को गाली देता था तब उनके हृदय में भगवान बैठे थे कि नहीं? और उनको प्रेरणा दे रहे थे कि नहीं? तो जब खुद ही अपने को गाली दे रहे थे; तो उन्हें गाली सुन करके भी खुश होना पड़ेगा कि नहीं? यह मैंने वल्लभाचार्यजी महाराज का भाव सुनाया-सुबोधिनी में जैसा है, भला! हृषिकेशम्- वही अंतःकरण को प्रेरणा देने वाले, वही इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले, वही स्वामी, वही अंतर्यामी, वही गाली दिलवा रहे हैं, वही गाली सुन रहे हैं। अब गाली की वजह से नहीं मिलेंगे तो कैस भगवान? गाली भगवत्-प्राप्ति प्रतिबन्धंक नहीं हो सकती, वही तो दिलवा रहे हैं अपने लिए।

नारायण। अब देखो, मधुसूदन सरस्वती ने दूसरा ढंग लिया। उन्होंने तो इसका विवेक करने के लिए बहुत बड़ा निबंध ही लिखा है, वे कहते हैं कि परमात्मा एक है, अद्वितीय है और मिलेगा तो एक ही होगा, नहीं मिले तो बात दूसरी, पर मिलेगा तो वही का वही होगा; तो प्रेम से मिले कि द्वेष से मिले, जब मिलेगा तो वही मिलेगा। तो बोले फिर प्रेमी में, द्वेषी में कोई फर्क ही नहीं हुआ, तो क्या हुआ? जो प्रेम करेगा सो जिन्दगी भर खुश रहेगा। और मरने के बाद भी उसको प्राप्त करेगा। जब वे मिलेंगे तो मिलेंगे, इस जीवन में मिलें या अगले जन्म में मिलें। लेकिन जो दुश्मनी वह इस जीवन में दुःखी रहेगा, घुलता रहेगा और मर जायेगा तो वह मिलेगा। शिशुपाल की ज्योति समा जायेगी लेकिन शिशुपाल जब तक जिन्दा रहेगा, तब तक हाथ-पाँव पटकता रहेगा, दाँत पीसता रहेगा, चेहरा लाल रहेगा, मार डालेंगे इस ग्वाले को, जिन्दा रहते द्वेष में रहा। उन्होंने कहा तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्- बोले स्मरण तो दोनों को है, द्वेष, करने वाले को भी है; और प्रेम करने वाले को भी है; लेकिन प्रेम करने वाला स्मरण कर करके खुश होता है और द्वेष करने वाला स्मरण कर-करके जलता है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (069)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

ये तो हुई जिन्दगी, लेकिन द्वेष और प्रेम दोनों के अंत में जब मिला परमात्मा तो वही का वही। ये तो रंगमंच पर हैं- प्रेम और द्वेष दोनों रंगमंच पर हैं, परदे के पीछे नहीं हैं, परदे के पीछे तो अपना घर है। एक आदमी के घर कोई मेहमान आया और टाले न टले तो पति पत्नी ने आपस में सलाह की कि इसे कैसे टालें, तो महाराज! दोनों बस चाय पीने के लिए बैठे, तो लड़ गये आपस में। पत्नी ने कहा- चूल्हा ही नहीं जलेगा, घर में रोटी नहीं बनेगी। पति ने कहा- कैसे नहीं जलेगा।

आज मेहमान हैं घर में और चूल्हा कैसे नहीं जलेगा? तो बोली- तुम्हारे मेहमान के मुँह में मैं आग डाल दूँगी। अब महाराज, मेहमान ने दोनों को नमस्कार किया; बोला हम तो जाते हैं। मेहमान चले गये तो दोनों ताली पीटकर हँसने लगे, कि अच्छी युक्ति निकाली। तो यह जो लड़ाई है वह केवल रंगमंच पर है, नेपथ्य में नहीं है। नेपथ्य में ईश्वर से किसी की लड़ाई नहीं है। वह परम प्रेमास्पद आत्मा सबका अन्तर्यामी, सबका स्वामी है। एकान्त में लड़ाई नहीं है, वह तो नाटक में लड़ाई है। यह तो भगवान् की लीला थी, इसमें कोई भगवान् का द्वेषी नहीं है, प्रेमी नहीं है। भगवान् जैसा खेलना चाहते हैं उसके साथ वैसा ही खेल खेलते हैं। चैद्यः सिद्धिं यथा गतः।

अब बोले द्विषन्नपि हृषीकेशं- शिशुपाल की बात तो ठीक, परंतु गोपियों की कथा तो बिलकुल निराली है। क्या? किमुताधोक्षजप्रियाः- अधोक्षज शब्द भगवान् के लिए आता है। इसका अर्थ होता है कि संसार में जितना सुख है भगवान् से नीचे है, जितना ज्ञान है सो भगवान् से नीचे है, जितनी वस्तु है सो भगवान् से नीचे है अधस्ताद् अक्षजं ज्ञानं यस्मात्- इन्द्रियजन्य ज्ञान, ऐन्द्रिक ज्ञान जिससे बहुत नीचे हैं उसको बोलते हैं अधोक्षज। नारायण। अंतर्यामी, आत्मदेव, साक्षी अधोक्षज हैं। बोले- उनसे हैं अधोक्षज। नारायण। अन्तर्यामी, आत्मदेव, साक्षी अधोक्षज हैं। बोले- उनसे यदि सद्भाव, चिद्भाव, आनन्दभाव, अप्राकृतिक, अलौकिक दिव्य शरीर की प्राप्ति हो जाए और वे भगवान् की लीला में पहुँच जायँ तो आश्चर्य क्या?+

अब जरा बात आगे बढ़ती है। बोले- भाई, और कोई प्रयोजन हो भगवान के प्रकट होने का! बोले- नहीं, नृणां निः श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप- अरे बाबा, राजा तो सिपाही को भेजकर काम चला लेता है। कहीं थानेदार को भेज दिया, बहुत हुआ तो कहीं दीवान को भेज दिया, लेकिन कहीं-कहीं खुद जाता है। तो क्यों जाता है? अपनी प्रजा की भलाई के लिए जाता है- नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप- हे नृप, हे राजन्, जैसे तुम्हारा प्रजा में जाना, प्रजा के कल्याण के लिए होता है वैसे भगवान किसी को साधन न करना पड़े, चलना न पड़े और भगवान मिल जाएँ इसलिए अवतार लेता है।

एक नयी बहू आयी गाँव में। सास ने कहा- बेटी, यहाँ जरा सम्हलकर रहना। बोली, क्या बात है माँजी? तो बोली- यहाँ एक नन्दनन्दन है, श्याम सुन्दर! उसकी ओर देखना मत, उससे बोलना मत। उसने कहा यह क्या बड़ी बात है, बचपन से मैंने किसी की ओर नहीं देखा। तो आयी महाराज, वह बैठ गयी, चावल बीनने लगी। उधर से निकले कृष्ण, उन्होंने देखा तो उनकी ओर देखे ही नहीं। तो महाराज जरा पाँव जोर-जोर से रखकर चलने लगे तो पाँव में नुपूर बजा। अब नुपूर की ध्वनि सुनकर उके मन में या कि देखें जरा। बोली- सासुजी ने मना किया है, चावल में मन लगाया। तो कृष्ण थोड़ा खाँस दिये, फिर उठाकर एक ढेला मारा। तब भी बिचारी बच गयी, नहीं देखा। तब बाँसुरी बजाकर नाचने लग गये। अब तो देखना पड़ेगा न। ये तो बलात् लोगों को आकृष्ट करने के लिए ही आये हैं। यह ब्रह्म का काम नहीं है। ब्रह्म तो अपने स्थान पर ज्यों का त्यों रहता है, जिसको हजार गरज हो तो उसकी ओर देखे। और इनका काम कि जो न देखता हो उसको भी अपनी ओर दिखाना, इसी का नाम कृष्ण है। ब्रह्म शब्द से महत्त्व है और कृष्ण शब्द में चुम्बकत्व है। जैसे चुम्बक लोहे की खींचता है वैसे श्रीकृष्ण चीजों को अपनी ओर खींचते हैं- कर्षति, आकर्षित जो आकर्षण करे उसका नाम कृष्ण है।

बोले- देखो यह जो भगवान का आविर्भाव हुआ है वह तुम्हारी भलाई के लिए हुआ है। परंतु व्यक्ति चाहे जो कर ले, चाहे तो भगवान को प्रकट कर ले, किसी में यह सामर्थ्य नहीं है कि अपने बल पर भगवान को प्रकट कर ले। यह तो महाराज- ममैवेष वृणुते तेन लभ्यः। पहले ये पसंद करते हैं कि ये आदमी हमारे पास आवें, ये जीव हमसे मिलें, पहले इशारा करते हैं कि आजाओ हमारे पास, फिर जब जीव इशारा समझता है तब जाता है उनके पास। बोले; नहीं कि देखो हम कर्म से प्राप्त करेंगे भगवान को।++

अब जो चार विशेषण हैं भगवान्‌ के-

अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ।

किसी के घर में गेहूँ है, चावल है और खाने का मन है। तो गेहूँ, चावल चबाकर ईश्वर को बुलालें कि हमारे कर्म से प्रसन्न होकर तुम आ जाओ और वह प्रसन्न होकर आ जाये, यह बात दूसरी है। तुम दृष्टान्त दे दो, कि भाई, अमुक के होता है तब तो हम ईश्वर को गुणों से छान लेते- गुणों को अलग कर देते कि हट जा, अब हमारा परमात्मा रहेगा। अरे, वह तो गुणों से न्यारा नहीं। यह नहीं कि साँप को भगावेंगे तब रस्सी के रूप में परमात्मा मिलेगा, जिसको तुम सर्प समझ रहे हो वही तो है। तब कैसे मिलेगा? देखो, यदि वह रस्सी की तरह जड़ होता, बुद्धिहीन होता, मूर्ख होता तब तो हम जाकर उसको पकड़ लेते। अरे वह तो बड़ा समझदार है।

सब ज्ञानों का खजाना है जब तक वह स्वयं आविर्भाव को प्राप्त न होवे तब तक लोग उससे कैसे मिलें। वह स्वयं आता है मिलने के लिए, भला। उस तक पहुँच नहीं होती है भले चाहे सब गुणों में देखो कि वह भरा हुआ है। चाहे भले देखो कि नेति-नेति से निषेध कर देने पर वही रहता है। चाहे यह कहो कि सब प्रमाणों का विषय वही है, चाहे कहो कि सब वही है, लेकिन महाराज वह स्वयं-प्रकाश सर्वावभासक, जब स्वयं प्रकट होता है तब लोगों का कल्याण होता है। आज वह कृष्ण के रूप में आया है। अब यह शर्त मत लगाओ का उसको हम कर्म के द्वारा जानेंगे, प्रमाण के द्वारा जानेंगे, गुणों को नेति-नेति करके जानेंगे, सर्वरूप में जानेंगे सर्वरूप में जानने से कृष्ण नहीं मिलेगा, नेति-नेति से निषेध करने से कृष्ण नहीं मिलेगा। प्रमाण के विषय रूप से कृष्ण नहीं मिलेगा और कृति-साध्य रूप से नहीं मिलेगा। ये चारों बातें, सुबोधनीजी में हैं। तब कैसे मिले? नृणां निःश्रेयसार्थाय।

कृपयति यदि राधा बाधिताशेषबाधा
किमपरमशिष्टं पुष्टिमर्यादयोः ।।

वह स्वयं कृपा करके आया है। यह प्रकट हुआ है और अपने साथ ये जो आचारहीन हैं, जातिहीन हैं, ज्ञानहीन हैं, भक्तिहीन हैं, उनको भी अपने साथ लेकर प्रकट हुआ है, उनको नचाने के लिए आया है, उनको भी मिलने के लिए आया है। उसे भाव से पकड़ो या कुभाव से, उसे पकड़ने में ही कल्याण है। अच्छा, अब कहो भाई, एक आदमी गया गंगा-स्नान करने, बोले भाव होगा तब न गंगा-स्नान का फल मिलेगा? बोले-भाई तुमने तो जिसके लिए गंगाजी का अवतार हुआ था उसी को व्यर्थ कर दिया। बोले- ब्राह्मण की पूजा कब करो कि जब संपूर्ण वेदों का पूर्ण विद्वान हो?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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