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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 124 !!
“रससाधना” – एक समीक्षा
भाग 3
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याद रहे – ये चर्चा होरही है “रस साधना” की ।
साधक की भूमिका जब तक रहती है ………..तब तक वह अपनें गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है …….रखना ही चाहिये ……नही तो साधना में गति नही आएगी ।
पर साधक की भूमिका समाप्त होते ही……जब वह सिद्ध होजाता है …….तब वह “सिद्ध” गुरु के प्रति श्रद्धा नही……”निकुञ्ज की सखी” को ही गुरुभाव से पूजनें लग जाता है….सिद्ध की गुरु होती हैं सखियाँ ।
अर्जुन सुनो ! एक बात और बताती हूँ …….ललिता सखी बतानें लगीं ।
“रससाधना” के सिद्ध जन कैसे ध्यान करते हैं ….कैसे उपासना करते हैं ……उसके बारे में भी कुछ सुनो …………
वो सिद्ध, सदैव अपनें में ही मत्त रहते हैं ………उन्हें आनन्द के लिये किसी मित्र की ……किसी सांसारिक व्यक्ति या सम्बंधी की कोई जरूरत नही होती ……..वो एकान्त प्रिय होता है ………”अष्टयाम सेवा” में वो हर समय लीन रहता है ……….अपनें प्रिय इष्ट को …..उठाना ……खिलाना …..सजाना …… घुमाना…..सुलाना ।
ये उस सिद्ध की स्थिति होती है ……वो देह में रहनें के बाद भी देहातीत होता जाता है ……..उसका देह कहाँ है उसे पता नही ……वो तो अपनें निकुञ्ज में ही प्रिया लाल की सेवा और ध्यान में लगा रहता है ।
ललिता सखी आगे कहती हैं …….ऐसी स्थिति जब हो जाए ………तब समझना वो सिद्ध अब अपनी स्थिति से भी ऊपर उठनें की तैयारी में है ।
क्या सिद्ध से भी बड़ी कोई स्थिति है ?
अर्जुन नें पूछा ।
हाँ …..हाँ अर्जुन ! सिद्ध से भी ऊँची स्थिति है “रसिक” की ।
रसिक , सिद्ध से बड़ा माना गया है “रससाधना” में ।
समझो अर्जुन ! रससाधना का एक मात्र उद्देश्य है ………रसिक होना ….रसिकपनें को पाना ………..ललिता जी नें एक और रहस्य खोल दिया था ।
ये रसिकत्व बहुत ऊँची वस्तु है……इसे साधारण लोग क्या समझें ! अर्जुन ! दो भाव की चर्चा विशेष अध्यात्म में होती है …..एक जीव भाव और एक ब्रह्म भाव ………….
..मैं देह हूँ …..मैं सुन्दर हूँ …मैं विद्वान हूँ ……मैं पैसे वाला हूँ ….
ये जीव भाव है ……………
और एक है – ब्रह्म भाव ………
मैं शुद्ध चिन्मन्य हूँ ……मैं आत्मतत्व हूँ …..मैं स्वयं प्रकाशित हूँ ।
ये ब्रह्म भाव है ………….
पर रसिक होना, जीव भाव और ब्रह्म भाव से परे की बात है ।
जीव भाव, हम सामान्य लोग…..जो देहादि को ही सबकुछ मानें हैं ……ब्रह्म भाव, शुकदेवादि ब्रह्मर्षि लोग ……..पर रसिक भाव !……
जो निरन्तर उस रस के चिन्तन में ही मग्न है …….रस रूप कृष्ण है…..रस रूप उनकी आल्हादिनी श्रीराधा हैं ….. ……उस रस के पान करनें में ही जो मदमत्त हो ………और इतना मत्त की “मुक्ति” भी उसे तुच्छ लगनें लगे …..ऋद्धि सिद्धियाँ व्यर्थ की चीजें लगें ……..बस अपना जो प्रियतम है …….वही अपना लगे ……और वही सबमें दीखे ………उसके सिवा और कुछ न दीखे …..न देखना चाहे ……….उसे कहते हैं रसिक ।
आगे ? अर्जुन नें पूछा ।
आगे क्या अर्जुन ! मुक्ति तो कब का ठुकरा कर वो “रसिक” चल पड़ा है इस मार्ग में ……….आगे क्या ? अब तो धीरे धीरे उसका प्रवेश ही होगा निकुञ्ज में …………
श्रद्धा, साधक और सिद्ध में होती है………रसिक में मात्र श्रद्धा नही होती ………….रसिक में तो लोभ होता है ………रस का लोभ ……..उस रस को लूटनें का लोभ …..उस रस को पा लेंने का लोभ ।
“लीला राग” ……..लीला के दर्शन का राग …………ये राग, भरा होता है रसिक के मन में ……….लीला, नूतन लीला …..नव नूतन लीला के दर्शन का राग ……। ललिता सखी नें समझाया ।
बताना तो और भी बहुत कुछ था ललिता सखी जू को ……..पर –
अब साँझ होनें वाली है………समय कितनी जल्दी बीत गया …..ये बात अर्जुन नें कही थी ……………
ललिता सखी मुस्कुराईं…..अब युगलवर को उठानें का समय हो गया ….चलो अर्जुन ! अब रात्रि में “युगल” के शयन के बाद चर्चा करेंगें । ये कहकर ललिता सखी सरोवर में स्नान करनें के लिये चली गयीं थीं ……क्यों कि अब युगल सरकार को उठानें का समय हो गया है ।
शेष चरित्र कल –
🌻 राधे राधे🌻


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