(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है
ये देखेंगे कि उसने आँख में अंजन लगाया है कि नहीं? इतनी छोटी चीज देखकर छोड़ देंगे उसको। नहीं, इस पर उनकी नजर नहीं जाती। वे तो उसका दिल देखते हैं। मिलने के लिए आयी- बस यही देखते हैं।
भगवान अज हैं। संस्कृत में अज का दो अभिप्राय होता है। अज माने एक तो होता है जिसका कोई बाप न हो, जो जात न हो और अज माने दूसरा होता है जिसका कोई बेटा न हो, जो कार्य न हो, जिसमें विकार न हो। स्वयं पैदा न हुआ हो, और उससे कोई दूसरा पैदा भी न हो। किसी के फूटने से बना न हो, और स्वयं फूटकर दूसरे का बनावे नहीं। अज शब्द का अर्थ अकार्य, और अकारण दोनों होता है।
न जायते इति, न जायते यस्मादिति ।
जिससे कोई पैदा न हो और जो स्वयं किसी से पैदा न हो, उसका नाम अज होता है, और स्वयं तो ज्यों-का-त्यों है। एक ने उलाहना दिया भगवान को-
गोपालजिरकर्दमे विहरसे विप्राध्वरे लज्जसे।
ग्वाले के आँगन में जो तरह-तरह की कीचड़ हरी-हरी, पीली-पीली, लाल-लाल, काली-काली उसमें तो लथपथ होकर उसको तो अपने शरीर में लगाते हो, क्या ब्राह्मणों के यज्ञ में जाने को तुमको कोई शर्म आता है।
ब्रूषे गोधनहुंकृतैः श्रुतिशतैर्मौनं विधत्से विदाम् ।
गौएं जब हुंकार करती हैं तो उनके साथ ही, सरस्वती, गंगे, यमुने करते हुए दौड़ते हो और जब ब्राह्मण लोग वेदपाठ पढ़ते हैं, तो मौनीबाबा क्यों बन जाते हैं?
दास्यं गोकुलपुंश्चलीसुपुरुषे स्वाम्यं नदान्तात्मसु ।
गोपियों की तो सेवा करना चाहते हो, और संन्यासियों का मालिक बनना भी मञ्जूर नहीं करते हो?
जाने कृष्ण तवाऽङ्घ्रिपंकजयुगं प्रेमैकलभ्यं शताम् ।
समझ गया कृष्ण, समझ गया, तुम्हारे चरणारबिन्द की प्राप्ति केवल प्रेम से होती है, उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके सर्वमय भगवद्भाव की जरूरत नहीं होती।+
सर्वमय भगवद्भाव तो इष्ट-दर्शन के अनुकूल नहीं है, उसके लिए तो एक में ईश्वर बुद्धि होनी चाहिए, सर्व में कैसे होगी? नारायण! तो बोले बाबा कृष्ण के बारे में शंका मत करो- योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते- अरे ये योगेश्वश्वर कृष्ण हैं, मामूली योगी भी शक्तिपात करे तो भगवत्-प्राप्ति में जो प्रतिबंधक है उसको मिट देता है और योगेश्वर शंकर जी स्वयं प्रसन्न हो जायँ तो कहना ही क्या। सनकादिक योगी प्रसन्न हो जायँ तो ईश्वर को मिला दें, नारदादि प्रसन्न हो जायें तो मिला दें, शिवजी प्रसन्न हो जायँ तो ईश्वर को मिला दें, नारदादि प्रसन्न हो जायें तो मिला दें, शिवजी प्रसन्न हो जाएँ तो मिला दें। और ये कृष्ण तो योगेश्वर उनके भी स्वामी हैं, वे स्वय सबको खींचने के लिए आये हैं। अरे! उनके पाँव के नीचे जो तिनका पड़ गया, उसको भी भगवत्प्राप्ति हो गयी। जिस पेड़ पर उन्होंने हाथ रख दिया उसको भी भगवत्प्राप्ति हो गयी- यत् एतत् विमुच्यते। जो धूलिकण उनके पाँव के नीचे आ गया, उसका स्पर्श जिसको मिला, उसकी मुक्ति हो गयी। और राजा परीक्षित तुम्हें गोपी के संबंध में संदेह है?
अब शुकदेवजी महाराज कथा आगे बढ़ाते हैं- कृष्ण ने देखा कि गोपियाँ आ गयीं- ताः दृष्ट्वान्तिकमायाताः भगवान व्रजयोषिताः भगवान ने तो खड़े होकर जरा कमर टेढ़ी की, घुटना टेढ़ा किया, चिबुक टेढ़ी की और बाँसूरी लेकर बजाना शुरु किया और देखा कि ये महाराज झुण्ड की झुण्ड चली आ रही हैं- किंभूत किमाकार- किसी की आँख में काजल एक में है, एक में नहीं, किसी के पाँव में कपड़ा, किसी में नहीं, किसी ने घाघरा ठीक पहना है, किसी ने नहीं, किसी के शरीर पर ओढ़नी है, किसी के नहीं, किसी के कान में एक ही कुण्डल है। बोले- यह पागलों का झुंड कहीं से आ रहा है? और महाराज। आयीं तो दूर खड़ी हो जाती परंतु वे तो खड़ी ही नहीं हुईं, इनसे चिपकी जायँ, चिपकी जायँ- तां दृष्ट्वान्तिकमायाताः बिना छुए माने नहीं।
दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान व्रजयोषितः ।
भगवान ने कहा-सुनो बाबा। उन्होंने सोचा बाँसुरी बजाने से काम नहीं चलेगा, अब इनसे बात करनी पड़ेगी। अब अपने मुँह की आवाज से काम बनेगा, बाँसुरी की आवाज से परम्परया काम नहीं चलेगा। आचार्य का काम पूरा हो गया है। अब भगवान का काम है। बुलाकर ले आना, यह आचार्यजी का काम है उनके पास पहुँच जाने पर आचार्य बाँसुरी का काम खत्म। ++
गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ
ता दृष्ट्वान्तिकमायाता…….ब्रूतागमनकारणम
अब चलें फिर वहीं, नारायण! जैसे नाटक प्रारम्भ हो- बिगुल बजे। रास-लीला प्रारम्भ हो रही है। दिव्य वृन्दावनधाम जो अपने को कभी गुप्त नहीं करता, केवल अभक्त को नहीं दिखता है। अभक्त हृदय में उसको देखने की आँख नहीं है। नहीं तो वृन्दावन धाम अपने को कभी गुप्त नहीं करता, हमेशा प्रकट रहता है। ‘यहीं कहूँ श्याम; काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवे कूँ जिय उमगत है।’ आज भी, इस समय भी है वह तमाल की हरियाली, वह कदम्ब की डाली; आनन्द-वृन्दावन में हमारे बगीचे में एक कदम्ब का वृक्ष है, ऐसी डाल है उसकी कि उसको देखते ही ऐसा मन होता है कि उसमें झूला-डालकर झूलें। पहले झूलते थे, उड़ियाबाबाजी महाराज झूलते थे, भक्त कोकिल सीं झूलते थे। हमने उस डाली का नाम दोला कदम्ब रखा है। ठाकुर जी महाराज उस पर राधा के संग हिंडोला झूलते- ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं।’ सेवाकुंज में जाओ तो बताते हैं ठाकुरजी माखन खाकर हाथ यहाँ पोंछ देते ते, यह कदम्ब चिकना है। हमारे कदम्ब के वृक्ष में से देनें निकलते हैं; बने बनाये दोने, बनाना नहीं पड़ता है। उन पर मक्खन लेकर, दही लेकर ठाकुर जी खाते थे। ये जो ठाकुरजी की लीला है वह पाँच हजार वर्ष पुरानी नहीं है, यह तो आज भी देखने की! ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवै को मन उमगत है’ मन होता है कि दोनों हाथ से पकड़े और हृदय से लगा लें, वह यमुना का तीर, वह बालुकामयं पुलिन, वह कदम्ब कुञ्ज, वह तमाल वृक्षों की पंक्ति, वह मोर-चकोर, वह चाँदनी छिटकी हुई। नारायण! पीताम्बरधारी, मुरली मनोहर, बादल जैसा शरीर जिसको देखकर गौएँ दौड़ती हैं कि यह कोई यमुना जल है, पीलें, इसको देखकर मोर नाचने लगते हैं क्योंकि इसकी वंशी ध्वनि को बादलों की मधुर-मधुर गर्जन समझते हैं। चलो वृन्दावन में चलो-चलो सखी वाम कुंज की ओरः-
ता दृष्टान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।
अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन् ।।
स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः ।
व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम् ।। +
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 4
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् || ४ ||
सांख्य – भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ – भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक् – भिन्न; बालाः – अल्पज्ञ; प्रवदन्ति – कहते हैं; न – कभी नहीं; पण्डिताः – विद्वान जन; एकम् – एक में; अपि – भी; आस्थितः – स्थित; सम्यक् – पूर्णतया; उभयोः – दोनों को; विन्दते – भोग करता है; फलम् – फल |
भावार्थ
अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |
तात्पर्य
भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है | भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं | भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है | एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है | सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूंढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है | अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है | जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है |
Niru Ashra: 🙏🌹🙏🌹🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 125 !!
अर्जुन नें दर्शन किये “निभृत निकुञ्ज” के
भाग 3
🌲🍁🌲🍁🌲
ये है नित्य निकुञ्ज……यहाँ हम अष्ट सखियाँ ही आती हैं……और संगीत के माध्यम से अपनें प्राण प्रिय युगल को रिझाती हैं ।
वो रहा “निभृत निकुञ्ज”……..अर्जुन नें दर्शन किये दूर से ।
पर …….देखो अर्जुन ! समय फिर बीत गया ………चलो ! युगलवर अब आरहे होंगें लौटकर ………रात होंने वाली है ………चलो ।
ललिता सखी अर्जुन को लेकर आगयीं थीं फिर निकुञ्ज में ।
भोग लगाया सखियों नें ……………सुन्दर सुन्दर व्यंजन बनें हैं …..पकवान बनें हैं ………….बड़े प्रेम से दोनों को पवाया ।
आचमन कराया …………
फिर बीरी ( पान ) अर्पित करी…………।
चलिए लाल जू ! ललितादी सखियाँ युगलवर को लेकर चल पडीं ।
अर्जुन को इशारा किया ……..तुम पीछे पीछे आओ ……….
अर्जुन दौड़े ललिता सखी के पीछे पीछे ।
निकुञ्ज की सीमा तक सब सखियाँ चलीं …..पर आगे ?
यहीं पर सब सखियों नें प्रणाम किया ……….रज को माथे से लगाती हुयी ………जयजयकार करती हुयी अपनें अपनें कुञ्जों में लौट गयीं ।
नित्य निकुञ्ज से होते हुये “दिव्य निभृत निकुञ्ज” में युगल सरकार पहुँच गए थे …………अष्ट सखियाँ इनको लेकर आईँ थीं ………हाँ साथ में आज एक नई सखी भी है ।
सुन्दर शैया है ……………नाना प्रकार के पुष्प लगे हुए हैं …….गुलाब जल का छिड़काव किया है ………….सुगन्धित तैल में दीया जल रहा है ।
उस दीये के प्रकाश में …….श्रीकिशोरी जी का मुख चन्द्र दमक रहा है ।
प्यारे श्याम सुन्दर…..बस अपनी प्राण श्रीराधा का ही मुख देख रहे हैं ।
दुग्ध सखियों नें दिया …….लाल और लाली दोनों नें दुग्ध पीया ……..बचा हुआ जो था ….उसे सब सखियों नें बाँट कर ले लिया ।
अब सब सखियाँ बाहर आगयीं………
और सुन्दर सुन्दर गीत गानें लगीं ……ताकि युगलवर को आनन्द मिले ।
वीणा लेकर स्वयं ललिता सखी बैठ गयीं थीं ……मंजीरा लेकर विशाखा सखी ……..रंगदेवी जू मृदंग बजा रही थीं ……….आहा ! आनन्द उमड़ घुमड़ कर बरस रहा था ।
कुछ देर में संगीत शान्त हुआ ।
सब सखियाँ उठीं ……….और मत्तता से चलती हुयी ……….लता रन्ध्र से सब देखनें लगीं –
कौन क्या है ? सखियाँ भी समझ नही पा रही हैं ।
नीली ज्योति कभी उज्ज्वल प्रकाश को ग्रस लेती है …..और कभी उज्ज्वल प्रकाश नीली ज्योति को ग्रस लेता है ।
कौन उज्ज्वल है ….और नीला है ……अब ये भी समझ में नही आरहा ।
नीला रँग और उज्ज्वल रँग , दोनों मिलकर निभृत निकुञ्ज को प्रकाशित कर रहे हैं……….कभी कभी ऐसा लगता है कि घनें काले बादलों में बिजली बीच बीच में चमक रही है………
दोनों एक हो रहे हैं……….एक हो गए ।
अधर अधर से मिल गए………देह , देह से मिलकर एक हो गए ।
साँसों की गति दोनों की उन्मत्त चल पड़ी हैं ……….ऐसा लग रहा है कि साँसे दोनों की मिल गयीं हैं ……….कंचुकी भार लगनें लगा है …..नही आभूषण भी भार लगने लगें हैं दोनों को …….अरे ! इतना ही नही ……ये देह भी अलग अलग क्यों है ये भी भार लगनें लगा है ।
दोनों मिल एक ही भये श्रीराधा बल्लभ लाल ।
हो गए एक ……अब दो नही हैं इस निभृत निकुञ्ज में ।
अर्जुन मूर्छित हैं, , इस रस को पचा नही पाये गीता के श्रोता…..सखियाँ आनन्द में भरी हुयी हैं…..मद माती हो गयी हैं ।
अर्जुन की दशा सच में विचित्र हो गयी है ।
शेष चरित्र कल –
💞 राधे राधे💞
[1/5, 10:26 PM] Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! जुवा खिलावति जुगल कों !!
गतांक से आगे –
!! दोहा !!
सुख दे भाँवरि गारि गुन , करे बधाई गीत ।
जुवा खिलावति जुगल कों , को हारै को जीत ।।
जीती दुलहिन लाड़ली , आनन्द भयो अपार ।
हरषि हिये हितु सहचरी , डारयौ पिय गल हार ।।
हार डारि पिय के गरें , गरबीली गुन गोर ।
हुलसत हँसत करावहीं , चार डोरना छोर ।।
हठडोरन जु छुड़ावहीं , सहचरि सब रस बोर ।
देखि छकनि छबि छैल की , नहिं छूटे बर जोर ।।
*प्रेम रस में बड़प्पन होगा तो वो प्रेम रस ही नही होगा । वहाँ तो बड़प्पन को बगल रखकर प्रेम रस में प्रवेश किया जाता है । याद रहे प्रेम देश में प्रेमी याचक के सिवा और कुछ नही है । बड़े हो ? अखिल ब्रह्माण्ड नायक हो ? सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हो ? तो रहो अपने वैकुण्ठ आदि ऐश्वर्य प्रधान लोक में ….यहाँ तुम्हारा क्या काम है ? अरे सखियाँ ही घुसने ना दें । यहाँ तो प्रिया जू के सामने सिर झुकाए रहना पड़ेगा । जो चाहिए उसके लिए भी याचना करनी होगी । आहा ! ये प्रेम है ही ऐसा ! क्या करोगे ? यहाँ तो निकुँज बिहारी अपनी बिहारनि के जूठन प्रसाद के लिए ललचाते देखे जाते हैं …यहाँ तो ये भी देखा गया है कि …श्रीरँगदेवि जू चरण चाँप रहीं थीं लाड़ली जू के …तब श्यामसुन्दर आगये …और हाथ जोड़कर संकेत में ही श्रीरँग देवि जू से बोलने लगे ….ये सेवा हमें भी प्रदान करो । यहाँ ठाकुर कहलाना भी इन्हें पसन्द नही है …यहाँ तो जो भी हैं ठकुरानी ही हैं …और ये इनके चाकर हैं ।
प्रिया जू की बात तो अभी छोड़ दें …और सखियों की बात करें तो ये सखियाँ हैं ना , ये भी नचाती हैं इस रसिक शेखर को ….और ये मानते हैं …बहुत मानते हैं ।
अब दर्शन कीजिए ब्याहुला के …….
भाँवरि पड़ गयी और दिव्य आसन में दम्पति विराजमान हो गये । सखियाँ नाच रही हैं गा रही हैं अति आनन्द उत्साह से भरी हुई हैं । निकुँज में ही रस की मानौ बाढ़ ही आगयी है …लता पत्र तक झूम रहे हैं तो पक्षियों की बात क्या करें ! लताएँ इतनी मत्त हो गयीं हैं कि दम्पति के ऊपर ये पुष्प बरसा रही हैं । अद्भुत अनुपम उत्सव हो रहा है ये …और क्यों न हो परम रसिक और परा रसिकनी का विवाह उत्सव जो हो रहा है ।
दिव्य आसन में दोउ विराजे हैं ….तभी हरिप्रिया अपने साथ कुछ सखियों को लेकर दम्पति के सामने बैठ गयीं , श्रीरंगदेवि जू ने पूछा भी कि …क्या है ? तो मुस्कुराते हुए हरिप्रिया बोलीं …सखी जू ! कुछ नही , हम सब ये देखना चाहती हैं कि …हारेगा कौन और जीतेगा कौन ?
श्रीरँगदेवि जू समझ गयीं ….वो आगे कुछ नही बोलीं ।
हरिप्रिया ने ताली बजाई ….और वहाँ जुवा का खेल उपस्थित हो गया ।
ये क्या है ? वर भेष धारी श्याम सुन्दर पूछने लगे थे ।
प्यारे ! अब परीक्षा होगी ….कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा ? हरिप्रिया चहकते हुए बोलीं ।
“जीतेंगे तो हम हीं”…….ये कहते हुए प्यारी जू की ओर देखा ।
हरिप्रिया बोलीं ….आज तक तो जीते नही हो …चलो आज देख लें ।
सखियों ने करतल ध्वनि की ….हास्य गूँज उठा निकुँज में …सब “जुवा खेल” देखने लगे …सखियाँ तो देख ही रहीं हैं, निकुँज के पक्षी भी वहीं आगये और वो भी देख रहे हैं …मोर हंस कोयल आदि सब उचक कर देख रहे हैं । पासे लाये गये ….सखियाँ जितनी उत्साहित हैं उतने ही प्रिया लाल भी हैं …..जुवा बिछाया गया था दम्पति के सामने । “हमारी लाड़ली ही जीतेंगीं” समस्त सखियों ने एक स्वर से कहा । “मेरी ओर कोई नहीं”….चारों तरफ़ देखते हुए श्याम सुन्दर बोले थे । “बेचारे लालन ! हम हैं तुम्हारी ओर” ये कहती हुयी साँवरी साँवरे रंग की जितनी सखियाँ थीं वो सब श्याम सुन्दर की तरफ आकर खड़ी हो गयीं ।
जुवा चल पड़ा …..खूब रँग जमने लगा इस खेल में । किन्तु क्या करें ! लाड़ली जू ही जीत गयीं ….जीतनी ही थीं । ये देखते ही पूरा निकुँज उछल पड़ा था । सखियाँ तो हर्षोल्लास से भर गयीं । श्याम सुन्दर ने सिर झुका लिया था । दुलहन के आगे दुलहा न हारे तो शृंगार रस में, रस कहाँ घुला ? हरिप्रिया उन्मादिनी हो गयीं थीं…कमल की एक हार उन्होंने ली …और नृत्य की भंगिमा से चलते हुए …..सारी सखियाँ ताली बजा रही हैं …एक ही लय में …अनन्त तालियाँ एक साथ बज रहीं हैं ..प्रिया जू हंस रहीं हैं ..प्रिया जी की अष्ट सखियाँ हरिप्रिया के इस स्वाँग पर रीझ रही हैं । हरिप्रिया हार लेकर दुलहा सरकार के पास गयीं ..और बोलीं ..ये हार है ..जो हारता है उसे हम पहनाती हैं …प्यारे ! आप तो पहले ही हार गये । हरिप्रिया के ये कहते ही सखियों ने हंसना आरम्भ किया ….हास्य में सुख अपार था ….वातावरण में आनन्द घुल गया था । और हरिप्रिया ने वो “हार” इस रस रँग में हारे , प्यारे के गले में डाल दिया था ।
“हार डारि पिय के गरे , गरबिली गुन गोर”
क्रमशः….
[1/5, 10:26 PM] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (072)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ
महाराज, अब तो वे पहुँची। देखा भगवान् ने अरे बाबा, उनसे अब कैसे छूटें? तो बाँसुरी हटा दी, क्योंकि बाँसुरी तो बुलाती है, कहाँ तक बुलायेगी? वह तो आँख मिले तब भी बुलावे, साँस-से-साँस मिल जाय तब भी बुलावे, त्वचा-से-त्वचा मिल जाय तब भी बुलावे, कहाँ तक बुलावे ये बाँसुरी? भगवान् ने बाँसुरी को अलग किया। बाँसुरी मुखर है, मुखर है माने जो ज्यादा बोले। किसी-किसी का स्वभाव होता है बोलता जाय, बोलता जाय, बोलता जाय। बाँसुरी ने अपनी जड़ता का खूब फायदा उठाया है। यह साक्षात् सरस्वती है, यह तो श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर उनके प्रेम पर जब मोहित हो गयी तो जड़ हो गयी। सरस्वती जड़ भावापन्न होकर जड़ बनी; अब वह तो लगी-लगी अधरामृत का पान करे और बोलती जाय; तो भगवान् ने कहा- ये बुलाये भी। अब इन गोपियों के लिए बुलाने की जरूरत नहीं है, अब ये तो आ गयीं। अब इनको बाँसुरी की जरूरत नहीं है, इनको गुरु की जरूरत नहीं है, अब इनको दूती की आवश्यकता नहीं है। अब कोई बीच में तीसरे के रहने की जरूरत नहीं है, अब सीधे-सीधे बात करने की जरूरत है।
देखो श्रृंगार रस का प्रभाव यह है कि उसमें पुरुष जो है वह अपनी ओर से मिलने के लिए उत्सुक होवे, वो धृष्टता करे और स्त्री दुर्लभ होवे, मानिनी होवे, यह श्रृंगार की साहित्यिक मर्यादा है। तभी श्रृंगार समृद्ध होता है। यहाँ उल्टा हो गया-
दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।
उत्सुकता आ गयी गोपी में, व्याकुलता आ गयी गोपी में, उत्कण्ठा आ गयी गोपी में। तो श्रृंगार रस की दृष्टि से इस स्थिति को बहुत अच्छी नहीं मानते, रसाभास हो जाएगा। तो भगवान् ने कहा कि हमारी लीला में रसाभास भला क्यों होगा? आओ रस बनाते हैं। कैसे? कि तुम सब सुलभ हो गयीं तो हम दुर्लभ हो जाएंगे, एक क दुर्लभ हो जाना चाहिए। तब यह जो प्यास जगती है न, प्यास ही रस को रस बनाती है और सुलभता में प्यास नहीं होती है, सुलभता में प्यास बढ़ती नही है। तो कृष्ण ने कहा कि ठहरो- ‘स्वागतं वो महाभागाः’ अरे गोपियों! महाभाग्यवती है! अरे सब कैसे आयीं! सायंकाल का समय कहीं बिच्छू घूम रहा है, कहीं साँप बोल रहा है, कहीं गीदड़ कहीं साही। जंगल में भूली-भटकी नहीं? किसी को साँप- बिच्छू ने तो कहीं काटा तो नहीं? अरे आयीं कैसे? आने का आखिर मतलब, प्रयोजन क्या है? महाभाग्यवती गोपियो, महाभाग्य हैं। +
महाभाग कौन है? वेद में जहाँ महाभाग का शब्द आता है वहाँ एक तो भजन के लिए आता है-
सचिविदं सखायं न तस्य वाचि भागो आस्ति ।
ज्ञानसूत्र में यह मंत्र आता है कि जिसने अपने सच्चे प्यारे को छोड़ दिया, आत्मदेव से विमुख हो गया, परमात्मा की ओर पीठकर दिया, ‘सचिविदं सखायं न तस्य वाचि भागो अस्ति’ उसको बोलने का कोई अधिकार नहीं। जिसने परमात्मा को छोड़ दिया, विमुख हो गया, वाणी का अभिप्राय समझने का उसका अधिकार ही नहीं है, उसका भाग ही नहीं है। तो महाभागा क्या हुआ कि जो अपने सखा के पास दौड़कर आ गया वह भागीदार नहीं है, महाभाग है। धर्म में उसका भाग, अर्थ में उसका भाग, बोध में उसका भाग, मोक्ष में उसका भाग, परमात्मा में उसका भाग, हिस्सेदार है। भगवान् ने कहा कि भाग्यवती गोपियों! तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है।
अब महाराज आजकल की कोई स्त्री होय तो फूली न समाय कि हमारे प्यारे हमारा इतना स्वागत करते हैं। गोपियों को तो नारायण! बड़ा दुःख हुआ। बोलीं- हम कोई पराये घर आयी हैं? पराये के पास आयी हैं? स्वागत-शिष्टाचार तो दूसरे के घर में होता है। अपने प्यारे के पास तो स्वागतम् में बन्दनवार नहीं बाँधे जाते, स्वागतम्-स्वागतम्, नहीं लिखा जाता! ये तो ऐसे बात कर रहे हैं जैसे बिना बुलाये आयी हों, जैसे इनको कुछ मालूम ही न हो। ये तो तटस्थ हो गये? सुष्ठु आगतम् सुष्ठु आगतम्- भले आयीं, भले आयी; अच्छा हुआ, कोई तकलीफ तो नहीं हुई? अब तो गोपियाँ महाराज, सूरत देखने लगीं! जैसे प्रेम से हम आयीं ऐसा प्रेम तो इसके अन्दर नहीं दिखता है।
शिष्टाचार कर रहा है- पधारिये-पधारिये। हमको याद है, बचपन में जब कभी बहुत देर तक बच्चों में खेलते रह जाते हैं और बहुत देर से घर आते तो हमारे बाबा बोलते थे- कहो परमात्मा कहाँ से आ रहे हो? कभी महात्मा बोलते कभी महापुरुष बोलते- कहो महापुरुष कहाँ से आ रहे हो? इतनी देर कहाँ लगा दी? तो व्यंग्य हुआ न! यह नहीं कि वह हमको महात्मा या महापुरुष समझते थे, वह तो बच्चा समझते थे पर बोलते ऐसे थे। और एक बड़े भाई थे तो उनको उर्दू का अभ्यास था; तो वे बोलते थे कि कहो हजरत, इतनी देर कहाँ रहे? गोपियों के लिए यह महाभागा शब्द ऐसे ही है जैसे कोई महात्मा, महापुरुष, महाभाग, हजरत कहकर स्वागत-सत्कार करे। ++
‘स्वागतं वो महाभागाः’ गोपियों को अरुचिकर लगा। वे रुक गयीं, अगर ये शब्द अरुचिकर न लगते तो वे जाकर महाराज चिपक ही जातीं, घुस जातीं शरीर में। तो जब टिक गयीं तो कृष्ण समझ गये कि इनको अप्रिय लगा; तो बोले- ‘प्रियं किं करवाणि वः’ क्या हमारे योग्य कोई सेवा है? निकाल दें? रास्ता भूलकर आयीं तो चलो घर बतला दें, लौट जाओ। क्या कोई गाय-बैल तुम्हारे भाग गये हैं? कोई बच्चा तुम्हारा खो गया है? आखिर शाम को किस भाव से जंगल में आयी हो?- ‘प्रियं किं करवाणि वः’ में कौन सी सेवा आपकी करूँ? हमको तो डर लग रहा है, क्या बात है, जल्दी बताओ!
अब तो गोपियाँ उदास हो गयीं; चेहरा उतर गया। यह भाव की जो प्रतिक्रिया है वह स्त्री-शरीर पर ज्यादा होती है, खासकर प्रेमी शरीर पर ज्यादा होती है। तुरन्त मुँह लाल हो जाय, तुरन्त आँख से पानी गिरने लगे, तुरन्त मुँह लटक जाय! तो उसको यह नहीं समझना कि हमेशा कि लिए हो गया। वह तो थोड़ी देर के लिए होताहै। मैंने एक स्त्री को देखा तो एक साथ ही आँख से आँसू गिरे और मुँह से हँसे। तो देखा कि गोपियों का मुँह लटक गया, तो भगवान ने कहा- ‘समझ गया गोपयों’, मालूम पड़ता है हमको गाँव से बाहर समझकर कंस का भेजा हुआ कोई असुर आ गया गाँव में! क्या कहीं आग लग गयी?
कहीं कोई उपद्रव हो गया तो क्या उसीसे दुःखी हो रही हो तुम लोग? क्या हमको बुलाने के लिए आयी हो तुम लोग? ‘व्रजस्यानामयं कश्चिद्’ व्रज मंगल तो है न? अनामय अर्थात् कुशल तो है न?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[1/5, 10:26 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 5
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यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते |
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति || ५ ||
यत् – जो; सांख्यैः – सांख्य दर्शन के द्वारा; प्राप्यते – प्राप्त किया जाता है; स्थानम् – स्थान; तत् – वही; योगैः – भक्ति द्वारा; अपि – भी; गम्यते – प्राप्त कर सकता है; एकम् – एक; सांख्यम् – विश्लेषात्मक अध्ययन को; च – तथा; योगम् – भक्तिमय कर्म को; च – तथा; यः – जो; पश्यति – देखता है; सः – वह; पश्यति – वास्तव में देखता है |
भावार्थ
जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है |
तात्पर्य
दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है | चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अतः इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है | सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जिव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है | फलतः जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सराकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्र्वर से सम्बद्ध होने चाहिए | जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है | सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे से एक विधि में विरक्ति दीखती है और दुसरे में आसक्ति है | जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (071)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है
ये देखेंगे कि उसने आँख में अंजन लगाया है कि नहीं? इतनी छोटी चीज देखकर छोड़ देंगे उसको। नहीं, इस पर उनकी नजर नहीं जाती। वे तो उसका दिल देखते हैं। मिलने के लिए आयी- बस यही देखते हैं।
भगवान अज हैं। संस्कृत में अज का दो अभिप्राय होता है। अज माने एक तो होता है जिसका कोई बाप न हो, जो जात न हो और अज माने दूसरा होता है जिसका कोई बेटा न हो, जो कार्य न हो, जिसमें विकार न हो। स्वयं पैदा न हुआ हो, और उससे कोई दूसरा पैदा भी न हो। किसी के फूटने से बना न हो, और स्वयं फूटकर दूसरे का बनावे नहीं। अज शब्द का अर्थ अकार्य, और अकारण दोनों होता है।
न जायते इति, न जायते यस्मादिति ।
जिससे कोई पैदा न हो और जो स्वयं किसी से पैदा न हो, उसका नाम अज होता है, और स्वयं तो ज्यों-का-त्यों है। एक ने उलाहना दिया भगवान को-
गोपालजिरकर्दमे विहरसे विप्राध्वरे लज्जसे।
ग्वाले के आँगन में जो तरह-तरह की कीचड़ हरी-हरी, पीली-पीली, लाल-लाल, काली-काली उसमें तो लथपथ होकर उसको तो अपने शरीर में लगाते हो, क्या ब्राह्मणों के यज्ञ में जाने को तुमको कोई शर्म आता है।
ब्रूषे गोधनहुंकृतैः श्रुतिशतैर्मौनं विधत्से विदाम् ।
गौएं जब हुंकार करती हैं तो उनके साथ ही, सरस्वती, गंगे, यमुने करते हुए दौड़ते हो और जब ब्राह्मण लोग वेदपाठ पढ़ते हैं, तो मौनीबाबा क्यों बन जाते हैं?
दास्यं गोकुलपुंश्चलीसुपुरुषे स्वाम्यं नदान्तात्मसु ।
गोपियों की तो सेवा करना चाहते हो, और संन्यासियों का मालिक बनना भी मञ्जूर नहीं करते हो?
जाने कृष्ण तवाऽङ्घ्रिपंकजयुगं प्रेमैकलभ्यं शताम् ।
समझ गया कृष्ण, समझ गया, तुम्हारे चरणारबिन्द की प्राप्ति केवल प्रेम से होती है, उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके लिए साधन की, उसके लिए प्रमाण की, उसके लिए साधन-प्रमाण के निषेध की और उसके सर्वमय भगवद्भाव की जरूरत नहीं होती।+
सर्वमय भगवद्भाव तो इष्ट-दर्शन के अनुकूल नहीं है, उसके लिए तो एक में ईश्वर बुद्धि होनी चाहिए, सर्व में कैसे होगी? नारायण! तो बोले बाबा कृष्ण के बारे में शंका मत करो- योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते- अरे ये योगेश्वश्वर कृष्ण हैं, मामूली योगी भी शक्तिपात करे तो भगवत्-प्राप्ति में जो प्रतिबंधक है उसको मिट देता है और योगेश्वर शंकर जी स्वयं प्रसन्न हो जायँ तो कहना ही क्या। सनकादिक योगी प्रसन्न हो जायँ तो ईश्वर को मिला दें, नारदादि प्रसन्न हो जायें तो मिला दें, शिवजी प्रसन्न हो जायँ तो ईश्वर को मिला दें, नारदादि प्रसन्न हो जायें तो मिला दें, शिवजी प्रसन्न हो जाएँ तो मिला दें। और ये कृष्ण तो योगेश्वर उनके भी स्वामी हैं, वे स्वय सबको खींचने के लिए आये हैं। अरे! उनके पाँव के नीचे जो तिनका पड़ गया, उसको भी भगवत्प्राप्ति हो गयी। जिस पेड़ पर उन्होंने हाथ रख दिया उसको भी भगवत्प्राप्ति हो गयी- यत् एतत् विमुच्यते। जो धूलिकण उनके पाँव के नीचे आ गया, उसका स्पर्श जिसको मिला, उसकी मुक्ति हो गयी। और राजा परीक्षित तुम्हें गोपी के संबंध में संदेह है?
अब शुकदेवजी महाराज कथा आगे बढ़ाते हैं- कृष्ण ने देखा कि गोपियाँ आ गयीं- ताः दृष्ट्वान्तिकमायाताः भगवान व्रजयोषिताः भगवान ने तो खड़े होकर जरा कमर टेढ़ी की, घुटना टेढ़ा किया, चिबुक टेढ़ी की और बाँसूरी लेकर बजाना शुरु किया और देखा कि ये महाराज झुण्ड की झुण्ड चली आ रही हैं- किंभूत किमाकार- किसी की आँख में काजल एक में है, एक में नहीं, किसी के पाँव में कपड़ा, किसी में नहीं, किसी ने घाघरा ठीक पहना है, किसी ने नहीं, किसी के शरीर पर ओढ़नी है, किसी के नहीं, किसी के कान में एक ही कुण्डल है। बोले- यह पागलों का झुंड कहीं से आ रहा है? और महाराज। आयीं तो दूर खड़ी हो जाती परंतु वे तो खड़ी ही नहीं हुईं, इनसे चिपकी जायँ, चिपकी जायँ- तां दृष्ट्वान्तिकमायाताः बिना छुए माने नहीं।
दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान व्रजयोषितः ।
भगवान ने कहा-सुनो बाबा। उन्होंने सोचा बाँसुरी बजाने से काम नहीं चलेगा, अब इनसे बात करनी पड़ेगी। अब अपने मुँह की आवाज से काम बनेगा, बाँसुरी की आवाज से परम्परया काम नहीं चलेगा। आचार्य का काम पूरा हो गया है। अब भगवान का काम है। बुलाकर ले आना, यह आचार्यजी का काम है उनके पास पहुँच जाने पर आचार्य बाँसुरी का काम खत्म। ++
गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ
ता दृष्ट्वान्तिकमायाता…….ब्रूतागमनकारणम
अब चलें फिर वहीं, नारायण! जैसे नाटक प्रारम्भ हो- बिगुल बजे। रास-लीला प्रारम्भ हो रही है। दिव्य वृन्दावनधाम जो अपने को कभी गुप्त नहीं करता, केवल अभक्त को नहीं दिखता है। अभक्त हृदय में उसको देखने की आँख नहीं है। नहीं तो वृन्दावन धाम अपने को कभी गुप्त नहीं करता, हमेशा प्रकट रहता है। ‘यहीं कहूँ श्याम; काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवे कूँ जिय उमगत है।’ आज भी, इस समय भी है वह तमाल की हरियाली, वह कदम्ब की डाली; आनन्द-वृन्दावन में हमारे बगीचे में एक कदम्ब का वृक्ष है, ऐसी डाल है उसकी कि उसको देखते ही ऐसा मन होता है कि उसमें झूला-डालकर झूलें। पहले झूलते थे, उड़ियाबाबाजी महाराज झूलते थे, भक्त कोकिल सीं झूलते थे। हमने उस डाली का नाम दोला कदम्ब रखा है। ठाकुर जी महाराज उस पर राधा के संग हिंडोला झूलते- ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं।’ सेवाकुंज में जाओ तो बताते हैं ठाकुरजी माखन खाकर हाथ यहाँ पोंछ देते ते, यह कदम्ब चिकना है। हमारे कदम्ब के वृक्ष में से देनें निकलते हैं; बने बनाये दोने, बनाना नहीं पड़ता है। उन पर मक्खन लेकर, दही लेकर ठाकुर जी खाते थे। ये जो ठाकुरजी की लीला है वह पाँच हजार वर्ष पुरानी नहीं है, यह तो आज भी देखने की! ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवै को मन उमगत है’ मन होता है कि दोनों हाथ से पकड़े और हृदय से लगा लें, वह यमुना का तीर, वह बालुकामयं पुलिन, वह कदम्ब कुञ्ज, वह तमाल वृक्षों की पंक्ति, वह मोर-चकोर, वह चाँदनी छिटकी हुई। नारायण! पीताम्बरधारी, मुरली मनोहर, बादल जैसा शरीर जिसको देखकर गौएँ दौड़ती हैं कि यह कोई यमुना जल है, पीलें, इसको देखकर मोर नाचने लगते हैं क्योंकि इसकी वंशी ध्वनि को बादलों की मधुर-मधुर गर्जन समझते हैं। चलो वृन्दावन में चलो-चलो सखी वाम कुंज की ओरः-
ता दृष्टान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।
अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन् ।।
स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः ।
व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम् ।। +
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 4
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् || ४ ||
सांख्य – भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ – भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक् – भिन्न; बालाः – अल्पज्ञ; प्रवदन्ति – कहते हैं; न – कभी नहीं; पण्डिताः – विद्वान जन; एकम् – एक में; अपि – भी; आस्थितः – स्थित; सम्यक् – पूर्णतया; उभयोः – दोनों को; विन्दते – भोग करता है; फलम् – फल |
भावार्थ
अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |
तात्पर्य
भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है | भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं | भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है | एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है | सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूंढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है | अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है | जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है |
Niru Ashra: 🙏🌹🙏🌹🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 125 !!
अर्जुन नें दर्शन किये “निभृत निकुञ्ज” के
भाग 3
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ये है नित्य निकुञ्ज……यहाँ हम अष्ट सखियाँ ही आती हैं……और संगीत के माध्यम से अपनें प्राण प्रिय युगल को रिझाती हैं ।
वो रहा “निभृत निकुञ्ज”……..अर्जुन नें दर्शन किये दूर से ।
पर …….देखो अर्जुन ! समय फिर बीत गया ………चलो ! युगलवर अब आरहे होंगें लौटकर ………रात होंने वाली है ………चलो ।
ललिता सखी अर्जुन को लेकर आगयीं थीं फिर निकुञ्ज में ।
भोग लगाया सखियों नें ……………सुन्दर सुन्दर व्यंजन बनें हैं …..पकवान बनें हैं ………….बड़े प्रेम से दोनों को पवाया ।
आचमन कराया …………
फिर बीरी ( पान ) अर्पित करी…………।
चलिए लाल जू ! ललितादी सखियाँ युगलवर को लेकर चल पडीं ।
अर्जुन को इशारा किया ……..तुम पीछे पीछे आओ ……….
अर्जुन दौड़े ललिता सखी के पीछे पीछे ।
निकुञ्ज की सीमा तक सब सखियाँ चलीं …..पर आगे ?
यहीं पर सब सखियों नें प्रणाम किया ……….रज को माथे से लगाती हुयी ………जयजयकार करती हुयी अपनें अपनें कुञ्जों में लौट गयीं ।
नित्य निकुञ्ज से होते हुये “दिव्य निभृत निकुञ्ज” में युगल सरकार पहुँच गए थे …………अष्ट सखियाँ इनको लेकर आईँ थीं ………हाँ साथ में आज एक नई सखी भी है ।
सुन्दर शैया है ……………नाना प्रकार के पुष्प लगे हुए हैं …….गुलाब जल का छिड़काव किया है ………….सुगन्धित तैल में दीया जल रहा है ।
उस दीये के प्रकाश में …….श्रीकिशोरी जी का मुख चन्द्र दमक रहा है ।
प्यारे श्याम सुन्दर…..बस अपनी प्राण श्रीराधा का ही मुख देख रहे हैं ।
दुग्ध सखियों नें दिया …….लाल और लाली दोनों नें दुग्ध पीया ……..बचा हुआ जो था ….उसे सब सखियों नें बाँट कर ले लिया ।
अब सब सखियाँ बाहर आगयीं………
और सुन्दर सुन्दर गीत गानें लगीं ……ताकि युगलवर को आनन्द मिले ।
वीणा लेकर स्वयं ललिता सखी बैठ गयीं थीं ……मंजीरा लेकर विशाखा सखी ……..रंगदेवी जू मृदंग बजा रही थीं ……….आहा ! आनन्द उमड़ घुमड़ कर बरस रहा था ।
कुछ देर में संगीत शान्त हुआ ।
सब सखियाँ उठीं ……….और मत्तता से चलती हुयी ……….लता रन्ध्र से सब देखनें लगीं –
कौन क्या है ? सखियाँ भी समझ नही पा रही हैं ।
नीली ज्योति कभी उज्ज्वल प्रकाश को ग्रस लेती है …..और कभी उज्ज्वल प्रकाश नीली ज्योति को ग्रस लेता है ।
कौन उज्ज्वल है ….और नीला है ……अब ये भी समझ में नही आरहा ।
नीला रँग और उज्ज्वल रँग , दोनों मिलकर निभृत निकुञ्ज को प्रकाशित कर रहे हैं……….कभी कभी ऐसा लगता है कि घनें काले बादलों में बिजली बीच बीच में चमक रही है………
दोनों एक हो रहे हैं……….एक हो गए ।
अधर अधर से मिल गए………देह , देह से मिलकर एक हो गए ।
साँसों की गति दोनों की उन्मत्त चल पड़ी हैं ……….ऐसा लग रहा है कि साँसे दोनों की मिल गयीं हैं ……….कंचुकी भार लगनें लगा है …..नही आभूषण भी भार लगने लगें हैं दोनों को …….अरे ! इतना ही नही ……ये देह भी अलग अलग क्यों है ये भी भार लगनें लगा है ।
दोनों मिल एक ही भये श्रीराधा बल्लभ लाल ।
हो गए एक ……अब दो नही हैं इस निभृत निकुञ्ज में ।
अर्जुन मूर्छित हैं, , इस रस को पचा नही पाये गीता के श्रोता…..सखियाँ आनन्द में भरी हुयी हैं…..मद माती हो गयी हैं ।
अर्जुन की दशा सच में विचित्र हो गयी है ।
शेष चरित्र कल –
💞 राधे राधे💞
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! जुवा खिलावति जुगल कों !!
गतांक से आगे –
!! दोहा !!
सुख दे भाँवरि गारि गुन , करे बधाई गीत ।
जुवा खिलावति जुगल कों , को हारै को जीत ।।
जीती दुलहिन लाड़ली , आनन्द भयो अपार ।
हरषि हिये हितु सहचरी , डारयौ पिय गल हार ।।
हार डारि पिय के गरें , गरबीली गुन गोर ।
हुलसत हँसत करावहीं , चार डोरना छोर ।।
हठडोरन जु छुड़ावहीं , सहचरि सब रस बोर ।
देखि छकनि छबि छैल की , नहिं छूटे बर जोर ।।
*प्रेम रस में बड़प्पन होगा तो वो प्रेम रस ही नही होगा । वहाँ तो बड़प्पन को बगल रखकर प्रेम रस में प्रवेश किया जाता है । याद रहे प्रेम देश में प्रेमी याचक के सिवा और कुछ नही है । बड़े हो ? अखिल ब्रह्माण्ड नायक हो ? सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हो ? तो रहो अपने वैकुण्ठ आदि ऐश्वर्य प्रधान लोक में ….यहाँ तुम्हारा क्या काम है ? अरे सखियाँ ही घुसने ना दें । यहाँ तो प्रिया जू के सामने सिर झुकाए रहना पड़ेगा । जो चाहिए उसके लिए भी याचना करनी होगी । आहा ! ये प्रेम है ही ऐसा ! क्या करोगे ? यहाँ तो निकुँज बिहारी अपनी बिहारनि के जूठन प्रसाद के लिए ललचाते देखे जाते हैं …यहाँ तो ये भी देखा गया है कि …श्रीरँगदेवि जू चरण चाँप रहीं थीं लाड़ली जू के …तब श्यामसुन्दर आगये …और हाथ जोड़कर संकेत में ही श्रीरँग देवि जू से बोलने लगे ….ये सेवा हमें भी प्रदान करो । यहाँ ठाकुर कहलाना भी इन्हें पसन्द नही है …यहाँ तो जो भी हैं ठकुरानी ही हैं …और ये इनके चाकर हैं ।
प्रिया जू की बात तो अभी छोड़ दें …और सखियों की बात करें तो ये सखियाँ हैं ना , ये भी नचाती हैं इस रसिक शेखर को ….और ये मानते हैं …बहुत मानते हैं ।
अब दर्शन कीजिए ब्याहुला के …….
भाँवरि पड़ गयी और दिव्य आसन में दम्पति विराजमान हो गये । सखियाँ नाच रही हैं गा रही हैं अति आनन्द उत्साह से भरी हुई हैं । निकुँज में ही रस की मानौ बाढ़ ही आगयी है …लता पत्र तक झूम रहे हैं तो पक्षियों की बात क्या करें ! लताएँ इतनी मत्त हो गयीं हैं कि दम्पति के ऊपर ये पुष्प बरसा रही हैं । अद्भुत अनुपम उत्सव हो रहा है ये …और क्यों न हो परम रसिक और परा रसिकनी का विवाह उत्सव जो हो रहा है ।
दिव्य आसन में दोउ विराजे हैं ….तभी हरिप्रिया अपने साथ कुछ सखियों को लेकर दम्पति के सामने बैठ गयीं , श्रीरंगदेवि जू ने पूछा भी कि …क्या है ? तो मुस्कुराते हुए हरिप्रिया बोलीं …सखी जू ! कुछ नही , हम सब ये देखना चाहती हैं कि …हारेगा कौन और जीतेगा कौन ?
श्रीरँगदेवि जू समझ गयीं ….वो आगे कुछ नही बोलीं ।
हरिप्रिया ने ताली बजाई ….और वहाँ जुवा का खेल उपस्थित हो गया ।
ये क्या है ? वर भेष धारी श्याम सुन्दर पूछने लगे थे ।
प्यारे ! अब परीक्षा होगी ….कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा ? हरिप्रिया चहकते हुए बोलीं ।
“जीतेंगे तो हम हीं”…….ये कहते हुए प्यारी जू की ओर देखा ।
हरिप्रिया बोलीं ….आज तक तो जीते नही हो …चलो आज देख लें ।
सखियों ने करतल ध्वनि की ….हास्य गूँज उठा निकुँज में …सब “जुवा खेल” देखने लगे …सखियाँ तो देख ही रहीं हैं, निकुँज के पक्षी भी वहीं आगये और वो भी देख रहे हैं …मोर हंस कोयल आदि सब उचक कर देख रहे हैं । पासे लाये गये ….सखियाँ जितनी उत्साहित हैं उतने ही प्रिया लाल भी हैं …..जुवा बिछाया गया था दम्पति के सामने । “हमारी लाड़ली ही जीतेंगीं” समस्त सखियों ने एक स्वर से कहा । “मेरी ओर कोई नहीं”….चारों तरफ़ देखते हुए श्याम सुन्दर बोले थे । “बेचारे लालन ! हम हैं तुम्हारी ओर” ये कहती हुयी साँवरी साँवरे रंग की जितनी सखियाँ थीं वो सब श्याम सुन्दर की तरफ आकर खड़ी हो गयीं ।
जुवा चल पड़ा …..खूब रँग जमने लगा इस खेल में । किन्तु क्या करें ! लाड़ली जू ही जीत गयीं ….जीतनी ही थीं । ये देखते ही पूरा निकुँज उछल पड़ा था । सखियाँ तो हर्षोल्लास से भर गयीं । श्याम सुन्दर ने सिर झुका लिया था । दुलहन के आगे दुलहा न हारे तो शृंगार रस में, रस कहाँ घुला ? हरिप्रिया उन्मादिनी हो गयीं थीं…कमल की एक हार उन्होंने ली …और नृत्य की भंगिमा से चलते हुए …..सारी सखियाँ ताली बजा रही हैं …एक ही लय में …अनन्त तालियाँ एक साथ बज रहीं हैं ..प्रिया जू हंस रहीं हैं ..प्रिया जी की अष्ट सखियाँ हरिप्रिया के इस स्वाँग पर रीझ रही हैं । हरिप्रिया हार लेकर दुलहा सरकार के पास गयीं ..और बोलीं ..ये हार है ..जो हारता है उसे हम पहनाती हैं …प्यारे ! आप तो पहले ही हार गये । हरिप्रिया के ये कहते ही सखियों ने हंसना आरम्भ किया ….हास्य में सुख अपार था ….वातावरण में आनन्द घुल गया था । और हरिप्रिया ने वो “हार” इस रस रँग में हारे , प्यारे के गले में डाल दिया था ।
“हार डारि पिय के गरे , गरबिली गुन गोर”
क्रमशः…
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (072)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ
महाराज, अब तो वे पहुँची। देखा भगवान् ने अरे बाबा, उनसे अब कैसे छूटें? तो बाँसुरी हटा दी, क्योंकि बाँसुरी तो बुलाती है, कहाँ तक बुलायेगी? वह तो आँख मिले तब भी बुलावे, साँस-से-साँस मिल जाय तब भी बुलावे, त्वचा-से-त्वचा मिल जाय तब भी बुलावे, कहाँ तक बुलावे ये बाँसुरी? भगवान् ने बाँसुरी को अलग किया। बाँसुरी मुखर है, मुखर है माने जो ज्यादा बोले। किसी-किसी का स्वभाव होता है बोलता जाय, बोलता जाय, बोलता जाय। बाँसुरी ने अपनी जड़ता का खूब फायदा उठाया है। यह साक्षात् सरस्वती है, यह तो श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर उनके प्रेम पर जब मोहित हो गयी तो जड़ हो गयी। सरस्वती जड़ भावापन्न होकर जड़ बनी; अब वह तो लगी-लगी अधरामृत का पान करे और बोलती जाय; तो भगवान् ने कहा- ये बुलाये भी। अब इन गोपियों के लिए बुलाने की जरूरत नहीं है, अब ये तो आ गयीं। अब इनको बाँसुरी की जरूरत नहीं है, इनको गुरु की जरूरत नहीं है, अब इनको दूती की आवश्यकता नहीं है। अब कोई बीच में तीसरे के रहने की जरूरत नहीं है, अब सीधे-सीधे बात करने की जरूरत है।
देखो श्रृंगार रस का प्रभाव यह है कि उसमें पुरुष जो है वह अपनी ओर से मिलने के लिए उत्सुक होवे, वो धृष्टता करे और स्त्री दुर्लभ होवे, मानिनी होवे, यह श्रृंगार की साहित्यिक मर्यादा है। तभी श्रृंगार समृद्ध होता है। यहाँ उल्टा हो गया-
दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।
उत्सुकता आ गयी गोपी में, व्याकुलता आ गयी गोपी में, उत्कण्ठा आ गयी गोपी में। तो श्रृंगार रस की दृष्टि से इस स्थिति को बहुत अच्छी नहीं मानते, रसाभास हो जाएगा। तो भगवान् ने कहा कि हमारी लीला में रसाभास भला क्यों होगा? आओ रस बनाते हैं। कैसे? कि तुम सब सुलभ हो गयीं तो हम दुर्लभ हो जाएंगे, एक क दुर्लभ हो जाना चाहिए। तब यह जो प्यास जगती है न, प्यास ही रस को रस बनाती है और सुलभता में प्यास नहीं होती है, सुलभता में प्यास बढ़ती नही है। तो कृष्ण ने कहा कि ठहरो- ‘स्वागतं वो महाभागाः’ अरे गोपियों! महाभाग्यवती है! अरे सब कैसे आयीं! सायंकाल का समय कहीं बिच्छू घूम रहा है, कहीं साँप बोल रहा है, कहीं गीदड़ कहीं साही। जंगल में भूली-भटकी नहीं? किसी को साँप- बिच्छू ने तो कहीं काटा तो नहीं? अरे आयीं कैसे? आने का आखिर मतलब, प्रयोजन क्या है? महाभाग्यवती गोपियो, महाभाग्य हैं। +
महाभाग कौन है? वेद में जहाँ महाभाग का शब्द आता है वहाँ एक तो भजन के लिए आता है-
सचिविदं सखायं न तस्य वाचि भागो आस्ति ।
ज्ञानसूत्र में यह मंत्र आता है कि जिसने अपने सच्चे प्यारे को छोड़ दिया, आत्मदेव से विमुख हो गया, परमात्मा की ओर पीठकर दिया, ‘सचिविदं सखायं न तस्य वाचि भागो अस्ति’ उसको बोलने का कोई अधिकार नहीं। जिसने परमात्मा को छोड़ दिया, विमुख हो गया, वाणी का अभिप्राय समझने का उसका अधिकार ही नहीं है, उसका भाग ही नहीं है। तो महाभागा क्या हुआ कि जो अपने सखा के पास दौड़कर आ गया वह भागीदार नहीं है, महाभाग है। धर्म में उसका भाग, अर्थ में उसका भाग, बोध में उसका भाग, मोक्ष में उसका भाग, परमात्मा में उसका भाग, हिस्सेदार है। भगवान् ने कहा कि भाग्यवती गोपियों! तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है।
अब महाराज आजकल की कोई स्त्री होय तो फूली न समाय कि हमारे प्यारे हमारा इतना स्वागत करते हैं। गोपियों को तो नारायण! बड़ा दुःख हुआ। बोलीं- हम कोई पराये घर आयी हैं? पराये के पास आयी हैं? स्वागत-शिष्टाचार तो दूसरे के घर में होता है। अपने प्यारे के पास तो स्वागतम् में बन्दनवार नहीं बाँधे जाते, स्वागतम्-स्वागतम्, नहीं लिखा जाता! ये तो ऐसे बात कर रहे हैं जैसे बिना बुलाये आयी हों, जैसे इनको कुछ मालूम ही न हो। ये तो तटस्थ हो गये? सुष्ठु आगतम् सुष्ठु आगतम्- भले आयीं, भले आयी; अच्छा हुआ, कोई तकलीफ तो नहीं हुई? अब तो गोपियाँ महाराज, सूरत देखने लगीं! जैसे प्रेम से हम आयीं ऐसा प्रेम तो इसके अन्दर नहीं दिखता है।
शिष्टाचार कर रहा है- पधारिये-पधारिये। हमको याद है, बचपन में जब कभी बहुत देर तक बच्चों में खेलते रह जाते हैं और बहुत देर से घर आते तो हमारे बाबा बोलते थे- कहो परमात्मा कहाँ से आ रहे हो? कभी महात्मा बोलते कभी महापुरुष बोलते- कहो महापुरुष कहाँ से आ रहे हो? इतनी देर कहाँ लगा दी? तो व्यंग्य हुआ न! यह नहीं कि वह हमको महात्मा या महापुरुष समझते थे, वह तो बच्चा समझते थे पर बोलते ऐसे थे। और एक बड़े भाई थे तो उनको उर्दू का अभ्यास था; तो वे बोलते थे कि कहो हजरत, इतनी देर कहाँ रहे? गोपियों के लिए यह महाभागा शब्द ऐसे ही है जैसे कोई महात्मा, महापुरुष, महाभाग, हजरत कहकर स्वागत-सत्कार करे। ++
‘स्वागतं वो महाभागाः’ गोपियों को अरुचिकर लगा। वे रुक गयीं, अगर ये शब्द अरुचिकर न लगते तो वे जाकर महाराज चिपक ही जातीं, घुस जातीं शरीर में। तो जब टिक गयीं तो कृष्ण समझ गये कि इनको अप्रिय लगा; तो बोले- ‘प्रियं किं करवाणि वः’ क्या हमारे योग्य कोई सेवा है? निकाल दें? रास्ता भूलकर आयीं तो चलो घर बतला दें, लौट जाओ। क्या कोई गाय-बैल तुम्हारे भाग गये हैं? कोई बच्चा तुम्हारा खो गया है? आखिर शाम को किस भाव से जंगल में आयी हो?- ‘प्रियं किं करवाणि वः’ में कौन सी सेवा आपकी करूँ? हमको तो डर लग रहा है, क्या बात है, जल्दी बताओ!
अब तो गोपियाँ उदास हो गयीं; चेहरा उतर गया। यह भाव की जो प्रतिक्रिया है वह स्त्री-शरीर पर ज्यादा होती है, खासकर प्रेमी शरीर पर ज्यादा होती है। तुरन्त मुँह लाल हो जाय, तुरन्त आँख से पानी गिरने लगे, तुरन्त मुँह लटक जाय! तो उसको यह नहीं समझना कि हमेशा कि लिए हो गया। वह तो थोड़ी देर के लिए होताहै। मैंने एक स्त्री को देखा तो एक साथ ही आँख से आँसू गिरे और मुँह से हँसे। तो देखा कि गोपियों का मुँह लटक गया, तो भगवान ने कहा- ‘समझ गया गोपयों’, मालूम पड़ता है हमको गाँव से बाहर समझकर कंस का भेजा हुआ कोई असुर आ गया गाँव में! क्या कहीं आग लग गयी?
कहीं कोई उपद्रव हो गया तो क्या उसीसे दुःखी हो रही हो तुम लोग? क्या हमको बुलाने के लिए आयी हो तुम लोग? ‘व्रजस्यानामयं कश्चिद्’ व्रज मंगल तो है न? अनामय अर्थात् कुशल तो है न?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 5
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यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते |
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति || ५ ||
यत् – जो; सांख्यैः – सांख्य दर्शन के द्वारा; प्राप्यते – प्राप्त किया जाता है; स्थानम् – स्थान; तत् – वही; योगैः – भक्ति द्वारा; अपि – भी; गम्यते – प्राप्त कर सकता है; एकम् – एक; सांख्यम् – विश्लेषात्मक अध्ययन को; च – तथा; योगम् – भक्तिमय कर्म को; च – तथा; यः – जो; पश्यति – देखता है; सः – वह; पश्यति – वास्तव में देखता है |
भावार्थ
जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है |
तात्पर्य
दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है | चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अतः इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है | सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जिव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है | फलतः जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सराकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्र्वर से सम्बद्ध होने चाहिए | जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है | सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे से एक विधि में विरक्ति दीखती है और दुसरे में आसक्ति है | जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है |


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