Niru Ashra: 🌷🌷🙏🌷🌷
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 126 !!
लीला रहस्य और सखीवृन्द
भाग 3
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अर्जुन ! हम सखियों के बिना लीला का विस्तार होता ही नही है ।
तो हे ललिता देवी ! हमें ये भी बता दीजिये कि…….सखियों का प्रकार कितना है ? आप तो यूथेश्वरी ललिता हैं…….प्रमुख हैं सखियों में ।
पर इनके अलावा अनन्त सखियाँ जो दिखाई देती हैं….वो सब क्या हैं ?
ललिता सखी नें कहा – हे अर्जुन ! श्रीनिकुंजेश्वरी श्रीराधारानी की सखियाँ पाँच प्रकार की हैं …….इसे ध्यान से सुनो –
सखी, नित्य सखी, प्राण सखी, प्रिय सखी और परम प्रेष्ठ सखी ।
हम श्रीप्रिया जू की “परम प्रेष्ठ” ‘ सखी हैं……..और हमारी संख्या मात्र आठ ही है……हमारा प्रवेश सर्वत्र है……सर्वकाल है ।
हम सब एक अवस्था की हैं ।
ललिता सखी स्वयं नाम भी बताती हैं – ललिता, विशाखा, रंगदेवी, सुदेवी, चित्रा, चम्पकलता, तुंग विद्या, इन्दुलेखा ।
ये हम परम प्रेष्ठ सखी हैं…….सबसे प्यारी सखियाँ हम ही हैं…….बड़ी ठसक थी ये कहते हुए ललिता सखी को ।
ऐसे ही अन्य सखियाँ भी हैं………कोई साधन साध्या हैं …….वो मात्र सखी बनकर निकुञ्ज की ही अधिकारिणी हैं ।
कोई प्रिय सखी भी हैं …….जो निकुञ्ज में सोहनी सेवा करती हैं ……यानि झाड़ू बुहारू करती हैं……….प्रिया लाल जू जब चलें तब उनके चरण में कंकण भी न गढ़ें………आहा ! ऐसे भाव से सब भावित हैं ……और हाँ अर्जुन ! इन सभी सखियों का एक ही लक्ष्य है ……युगल सरकार की प्रसन्नता , बस ।
श्रीराधाकृष्ण दोनों को ही ये अपना प्राण प्रिय मानती हैं ………
वो अलग बात है कि ….लीला रस के लिये ……कभी सखियाँ श्रीराधा जी का पक्ष लें…..और कभी श्याम सुन्दर का…..पर मूल रूप से सखियाँ, “युगल” दोनों को ही मानती हैं…….और दोनों की ही उपासना करती हैं ।
प्रेम का देदीप्यमान सूर्य सदैव उदित ही रहता है इन सखियों के हृदयाकाश में ……….हर समय ये उत्साहित और उत्सव में ही रहती हैं।
निकुञ्ज की उपासना उत्सव की उपासना है इस बात को समझना आवश्यक है……….उत्सव ही उत्सव ।
अर्जुन के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे….प्रेम से पूर्ण हृदय हो गया अर्जुन का ।
सम्भाला ललिता सखी नें…….अर्जुन भावातिरेक में डूबे जा रहे हैं ।
शेष चरित्र कल-
🌺 राधे राधे🌺
] Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! रँग महल की झाँकी !!
गतांक से आगे –
॥ दोहा ॥
आनँद में उमगाय कें, भरी सबै सुख रंग।
लै आईं अलि महल में, फूली सब अँग अंग ॥
अँग अंगनि रस रँग रँगी, आनँद अवधि परी जु।
लाड़ लड़ावै चंपलता, चित में चोंप भरी जु॥
|| पद ॥
चंपलता चित चोंप भरी। अँग अंगनि रस रंग ररी ॥
मृगलोचनि सुभचरिता चंद्रा चंद्रलत्तिका प्रिय सहचरी।
मनिकुंडला मंडली कंदुकनैनि सुमंदिरा मनमंजरी ॥
मनिमाला मेधा मधुमालती मदनमंजरी मनोरमा ।
महाबिचित्रा मित्रामोदा अनुरागिनि अनोपमा ॥
आनंदलता अद्भुता आभा अमितप्रभा आनंदभरा।
लाड़लड़न को लाड़ लड़ावत लाड़ लड़ी सब लाड़ परा ॥
मधुरा मधुर मृदंग बजावत गरबीली गावत गुन गीत।
चंदमुखी मुखचंग बीनवर बाला सुरसाला जु पुनीत ॥
रंग रह्यौ कछु कह्यौ परत नहिं उमह्यौ आनंदसिंधु अपार ।
तन मन मगन भये सबहिन के अति रसलीन रही न सँभार ॥
बना बनी बैठे बनि बानिक राजत छबि छाजति अनहोनी।
श्रीहरिप्रिया किसोर किसोरी जोरी गोरी स्याम सलोनी ॥ १६४॥
श्रीहरिप्रिया सखी ने अपने हृदय के भावों को व्यक्त किया था ….अष्ट सखियों ने अनुभव किया कि दम्पति सुख के लिए अब इनको रँगमहल में ले जाया जाए …..तभी अष्टसखियों में से श्रीचम्पकलता जू ने दम्पति मुख चन्द्र को निहारा । उनकी अब मधु मिलन की इच्छा है । ये जानते ही चम्पकलता जू तुरन्त रँगमहल में गयीं …वहाँ की सजावट सुन्दर हो , और इन युगल के अनुकूल हो । वैसे रँगमहल सज गया है ….और सुखद पर्यंक की बिछा है , चारों ओर कमल के पुष्प हैं , जिनकी सुगन्ध से महल महक रहा है । ये सब देखकर चम्पकलता जू को बहुत अच्छा लगा । वो महल के द्वार पर खड़ी हो गयीं ….दो कलश जल से भरकर रख दिए …उनके ऊपर आम्र और पीपल के पल्लव । संकेत किया श्रीरँगदेवि जू को …कि अब दम्पति को रँगमहल में लाया जाये ।
बस फिर क्या था ! सखियों ने वाद्य बजाने शुरू कर दिए ….जै जै जै के शब्द सुनाई पड़ रहे हैं निकुंज में , आगे आगे सखियाँ नृत्य करने लगीं । अष्ट सखियों ने युगल सरकार को निवेदन किया कि ….अब आप रँगमहल में पधारें । ये सुनते ही श्याम सुन्दर तो उछल पड़े और प्रसन्नता से बोले ….चलो , शीघ्र चलो । श्याम सुन्दर को इस तरह आतुर देख सखियाँ तो हंस पड़ीं ….प्रिया जू शरमा रही हैं , वो बस नीचे देखकर मंद मंद मुस्कुरा रही हैं । हरिप्रिया पाँवड़े बिछाती हुई आयी …और स्नेह से भरकर बोली ….हे रसिक शेखर ! आपको जितनी शीघ्रता रस में उतरने की है उससे ज़्यादा हमें रसिक शेखर को रस में डूबते हुए देखने की है …प्यारे ! अब समय है गयो है …आप अपनी प्रिया जू के संग रंग महल में पधारो । बस इसके बाद तो शहनाई गूंज उठी थी …पुष्प बरस रहे थे युगल के ऊपर । रँगदेवि जू और सुदेवी जू चँवर ढुराते हुये चल दीं थीं । युगल सरकार दुलहा और दुलहन के भेष में सबका मन मोह रहे हैं । जयजयकार हो रहे हैं ….ललिता जू , विशाखा जू ये गीत गाती हुयी चल रही हैं । इस प्रकार रँगमहल में इन नव दम्पति ने प्रवेश किया ।
ना , ऐसे प्रवेश नही पाओगे ……लो जी ! ये हरिप्रिया आगयीं , जिसे नेग लेना है ।
द्वार रोक लिया …..और कहा …..नेग तो लेके ही रहूँगी ।
श्याम सुन्दर ने अपने हृदय से मोतियों की एक माला उतारी और हरिप्रिया को दे दी ….प्रिया जू ने भी अपने हृदय से मोती की ही माला उतार कर हरिप्रिया को प्रदान कर दी । बस फिर क्या था …हरिप्रिया ने आनन्दमग्न होकर प्रिया जू की माला श्याम सुन्दर को और श्याम सुन्दर की माला प्रिया जी को पहनाई ….और नृत्य करने लगीं ।
अब प्रवेश भी तो करने दो ……थक गए हैं दोनों । ऐसा कहकर युगल दम्पति को चम्पकलता जू ने प्रवेश कराया …और उस दिव्य अद्भुत महल में ….उस महल के एक आसन में पहले दोनों को विराजमान कराया । और फिर अपने उमंगित चित्त से प्रिया प्रियतम को लाड़ लड़ाने लगीं थीं ।
उस रंगमहल में युगलवर मात्र भी आते हैं , और आने के लिए तो अनन्त सखियाँ भी उसमें समा जाती हैं …..आज अनन्त सखियाँ उस महल में उपस्थित हैं । रँगमहल के दिव्य आसन में दम्पति विराजमान हैं । अब हरिप्रिया कहती हैं – सखियों ! देखो तो हमारी ये चम्पकलता सखी जू …कितने उमंगित चित्त से प्रिया लाल को लाड़ कर रही हैं । प्रेम रँग से इनका अंग अंग कैसे सराबोर हो उठा है । आप सहज विराजिये ….चम्पकलता कहती हैं । “आप अपने चरण ऊपर रख लीजिए ..आपको अच्छा लगेगा”, कितनी भाव पूर्ण हैं ये । तभी सब सखियों ने देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर , मृगनयनी , सुन्दर चरित्र वाली …एक सखी वहाँ आगयीं …हरिप्रिया ने बताया इनका नाम है ….चन्द्रलता सखी ….नही नही , ये अकेली नही आयीं हैं यहाँ , इनके साथ और भी हैं ….इन्हीं के समान कंदुक जैसे नयन वाली …सुन्दर अंगों वाली …”मणिमंजरी सखी जू” ये नाम भी हरिप्रिया ने ही बताया था । एक सखी तो बहुत सुन्दर थी ..इनका नाम था ….”मदन मंजरी जू” । ये सब सेवा में लग गयी हैं ….सबमें प्रेम रस भरपूर है …और दिव्य आभा से ये प्रकाशित हो रही हैं । एक सखी और हैं ….जिनका नाम है …”मधुरा सखी” ये मधुर गीत गाती हैं इसलिए इनका नाम मधुरा है …हरिप्रिया ने बताया …और ये भी बताया कि ये मृदंग भी बजाती हैं । तभी सबके सामने देखते ही देखते हरिप्रिया ने ही मृदंग लाकर रख दिया गया …..युगल चरणों में प्रणाम करते हुए मधुरा सखी जू ने गीत गाना और मृदंग बजाना आरम्भ कर दिया था । किन्तु ये क्या ! तभी वीणा बजाती हुयी एक सखी और आगयीं और आकर दम्पति को प्रणाम करते हुए बैठ गयीं ….उनकी उँगलियाँ वीणा के तारों में नृत्य कर रहीं थीं । इनका नाम है “चन्द्रमुखी जू “ ये कहते हुए अब हरिप्रिया ने नाचना शुरू कर दिया, हरिप्रिया को नृत्य करते देख अन्य सखियाँ भी नाचने लगीं, रस रंग बरस पड़ा । दम्पति किशोर ये सब देखकर स्वयं ही रस रँग में भींग गये थे ।
जय जय हो दुलहा दुलहन सरकार की । पूरा निकुँज जयजयकार करने लगा था ।
क्रमशः…
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (074)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण
जैसे साँप टेढ़ी चाल से चलता है वैसे प्रेम भी टेढ़ी चाल से चलता है। टेढ़ी चाल से चलना भी क्या है इसमें रस बढ़ाना है। इसलिए इसमें प्रत्येक क्रिया रस बढ़ाने वाली होनी चाहिए, दुःख बढ़ाने वाली होनी चाहिए, दुःख बढ़ाने वाली नहीं चाहिए। रस कैसे बढ़े? तो रस थोड़ा खींचा-खींची में बढ़ता है। पर यह बात मालूम पड़े कि यह खींचा-खींची रस- वृद्धि के लिए है। हृदय में एक साथ ही प्रेम भी रहे, और द्वेष भी रहे ऐसा नहीं हो सकता।
प्रेम और दुःख तो एक साथ हृदय में रह सकते हैं क्योंकि दुःख प्रेम का विरोधी नहीं है, कभी-कभी हम अपने प्रियतम को सुख पहुँचाने के लिए भी बहुत दुःखी हो जाते हैं। उसमें भी यह नहीं कि हमारे हाथ का बनाया नहीं खाया, यह प्रेम का लक्षण नहीं है; प्रेम का लक्षण यह है कि हमारे हाथ के भोजन के बिना उनको स्वाद नहीं आता, आज वह भूके रह गये होंगे। हमारे हाथ का भोजन उन्होंने नहीं किया- इसमें अहंभाव आया, और उनको तृप्ति नहीं हुई, इसमें उनके सुख का ख्याल हुआ। प्रेम में तो उनके सुख का ख्याल ही होता है। प्रेम-स्थिति बड़ी विचित्र है। प्रेम में सेवा का अभिमान नहीं होता, प्रेम में अपनी तृप्ति पर ध्यान नहीं होता, प्रेम में अपने प्रियतम की तृप्ति पर ध्यान होता है। इसमें प्रेमी को गरमागरम भोजन देना भी प्रेम है और साथ में फ्रिज का ठंडा पानी देना भी प्रेम है।
नारायण! तो श्रीकृष्ण ने बाँसुरी बजायी, और ऐसा अमृत का लोभ दिया गोपियों को कि आओ। हम तुम्हारे बिना दुःखी हैं, तुम्हारे बिना प्राण तड़फड़ा रहे हैं, तुम्हारे बिना क्षण-क्षण काटते हैं। और जब गोपियाँ आ गयीं तो बोले-अच्छा अब थोड़ा ठंडा लिया तो थोड़ा गरमा भी लो। अवद्द वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन्। शुकदेवजी कहते हैं कि श्रीकृष्ण बाँसुरी भर ही बजाने में निपुण नहीं है- वदतां श्रेष्ठो बोलने वाले जितने हैं व्यास, पराशरादि, उनमें भी श्रेष्ठ हैं। तो कैसी वाणी बोले? प्रेम की वाणी भी बोले और रूक्षता की भी। बचपन में एक पत्रिका पढ़ते थे उसका नाम था ‘मतवाला’। कलकत्ते से निकलती थी। उस पर लिखा रहता था- ‘अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग विराग भरा प्याला, पीते हैं जो साधक उनको प्यारा है मतवाला’। ये दोहरे रस जिसमें भरे-अमृत भी विष भी, राग भी, विराग भी, चंद्रामृत भी और सूर्य-ताप भी-ऐसा है यह मतवाला पत्र।+
ऐसी वाणी बोले श्रीकृष्ण-अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन्। उनकी वाणी में ऐसे अवयव हैं, ऐसे हिस्से हैं कि उनको सुनकर के आदमी मोह में पड़ जाय। आपको पहली बात सुनायी। मोह क्या? स्वागतं वो महाभागाः- आइये-आइये महाभाग्यवती गोपियों पधारिये, तुम्हारे दर्शन से हम धन्य-धन्य हो गये! भला कैसे पधारीं? भला माने बिना निमंत्रण के पधारीं, बीना बुलाये ही कैसे पधारीं? माने कहाँ से टपक पड़ी? प्रियं किं करवाणि वः आपकी क्या सेवा करें? नही कि क्या सेवा करने के लिए बुलाया है? नाचने के लिए बुलाया, गाने के लिए बुलाया, बजाने के लिए बुलाया, चाँदनी का आनन्द लेने के लिए, बुलाया, अब पूछते हैं कि क्या सेवा करूँ। अरे भाई, बहुत सीनारियों के बीच में एक नट को जो सेवा करनी चाहिए सो सेवा करो, रासलीला करो।
व्रजस्यानामयं कश्चिद् ब्रूतागमनकारणम्।
अरे बाबा! व्रज में कुशल-मंगल तो है न? किसी संकट में पड़कर तो नहीं आयी हो? आने का कारण बताओ। इसका भी अर्थ बदल देते हैं पर उसको पीछे सुनावेंगे। रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? गाँव में तो सब अच्छा है? समझ में नहीं आता रात के समय क्यों आयीं आप लोग?
श्रीकृष्ण सोचते थे कि गोपी तो सब कुछ छोड़कर आ गयीं, अब श्रीकृष्ण यदि तुरन्त उनसे मिल जाएँ और दुनिया में अगर रासलीला गायी जाए, लिखी जाय, तो यही लिखा जावेगा कि गोपियाँ घर छोड़कर आयीं और कृष्ण उनके साथ ता-ता-ताई, ता-थेई-थेई नृत्य करने लगे। इससे यह कैसे मालूम पड़ेगा कि गोपियों के हृदय में कृष्ण के प्रति कितना प्रेम है? और असल रासलीला तो इसलिए प्रकट की गई। जैसे सीताजी को त्याग देने पर भी सीता का प्रेम राम के प्रति तनिक भी कम नहीं हुआ, जैसे जुआ में दाँव पर लगा देने पर भी द्रौपदी का प्रेम पाण्डवों के प्रति नहीं छूटा, जैसे नलद्वार दमयन्ती को छोड़ देने पर भी दमयन्ती के मन में कुछ कड़वा भाव नहीं आया, माने अपमान के समय, त्याग के समय, संकट के समय, दुःख सहकर भी, जो प्रेम बढ़ता है उस प्रेम में वेग है, उस प्रेम में शक्ति है और जो प्रेम उनकी अनुकूलता प्राप्त करके बढ़ता है और मन की प्रतिकूलता होने पर घट जाता है वह प्रेम ही नहीं है; उसी प्रकार प्रकार श्रीकृष्ण को यह जाहिर करना था कि देख लो, गोपियाँ हमसे कितना प्रेम करती हैं। कैसे भी गोपियों का प्रेम संसार में प्रकट होना चाहिए? यही रास के प्रसंग में श्रीकृष्ण की कड़वी वाणी और करनी का रहस्य है। हम बाँसुरी बजाते हैं, वे आ जाती हैं, सब कुछ छोड़कर आ जाती हैं। ये नहीं, उनके हृदय में क्या है, कितना प्रेम है, इसको दिखाने की बात है। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा- न पारयेऽहं निरवद्य संयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः। ++
यदि हम जीवन से, ब्रह्म अविनाशी जीवन से तुम्हारी सेवा करें तो भी तुम्हारी सेवा से उऋण नहीं हो सकते। लेकिन और तो नहीं जानते हैं ना कि श्रीकृष्ण गोपियों के ऋणी हैं। श्रीकृष्ण चाहते हैं कि सब जानें कि कितना प्रेम होने पर गोपियों के वे ऋणी हो गये, गोपियों का प्रेम धरती पर प्रकट हो, इसके लिए वे बोले- अरी गोपियों। यह तुम्हारा आगमन तो अस्थानीय है, माने अयुक्त है, ठीक मौके पर नहीं आयीं। अस्थाने क्यों? तो बोले-
रजन्येषा घोररूप घोरसत्त्वनिषेविता ।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ।।
एक तो रात्रि है और वह भी भयंकर है। एषा रजनी तत्रापि घोररूपा- बड़ी घोर- सत्त्वनिषेविता और इसमें जो घोर प्राणी है- भूत, प्रेत, शंकरजी के गण, सर्प, बिच्छू, भेड़िये, गीदड़ ये सब जो दिनभर छिपे रहते हैं वह सबके सब रात में निकल आते हैं, इसलिए तुम अपने घर लौट जाओ। ‘प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः’ स्त्रियों को रात के समय जंगल में नहीं रहना चाहिए वो भी तुमलोग कोई साधारण स्त्री नहीं हो- ‘सुमध्यमाः’ बड़ी सुन्दरी हो, तुम्हारा मध्यभाग बड़ा सुन्दर है। मध्यभाग के सौन्दर्य का अभिप्राय है सर्वांगसौन्दर्य। जैसे किसी को कहें कि तुम्हारी आँखें सुन्दर हैं तो उसका मतलब है कि वह पूर्ण सुन्दर है।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ।
हे समुध्यमा। आप तो बड़ी सुन्दर हो, रात्रि में यहाँ क्यों?
मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः ।
विचन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम् ।।
तुमको मालूम नहीं, तुम्हारे भाई ढूँढ़ रहे हैं, तुम्हारे पिता ढूँढ़ रहे हैं, तुम्हारे पुत्र ढूँढ़ रहे हैं, तुम्हारी माताएँ ढूँढ़ रही हैं, तुम्हारे पति तुमको ढूँढ़ रहे हैं।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (075)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण
विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्- अपने भाई बन्धुओं को दुःख पहुँचाना- यह तो आवश्यक नहीं है। अब देखो, पहले श्लोक में तो कहा कि गोपियों के आने की हमारी कोई जानकारी नहीं है। माने पहले यह प्रगट किया कि तुम हमारी जानकारी में नहीं आयी हो अर्थात् पहले तो अपना प्रणय-निमंत्रण वापस ले लिया और फिर उनको डराया कि रात में क्यों निकली- भूत हैं, प्रेत हैं, पिशाच हैं, चोर हैं, सर्प हैं- तुम्हारे लिए बहुत भय है। और तीसरी बात यह कही, कि तुम्हारे घर के जो लोग हैं वे व्याकुल हो रहे हैं।
विचिन्वन्ति ह्यश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्-* तुम्हारे घर में ना देखकर वे ढूढ़ रहे हैं, मैं देख रहा हूँ भला। हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँचती है, तुम लोगों को तो पाँव के नीचे-तक का नहीं सूझता है। और हमको तो वहाँ तक सूझता है कि तुम्हारे घरवाले, डर-डरके कि हाय-हाय, बड़ी बदनामी हो जाएगी, हमारे घर की बहू बेटी कहाँ चली गयीं, घर में तुम्हें रात में नहीं देखकर ढूँढ़ रहे हैं। इधर-उधर भगवान् क्यों तुम उनके चित्त में भय उत्पन् कर रही हो? अपने भाई-बन्धुओं का ख्याल करो।
दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम् ।
यमुनानिललीलैजतरुपल्लवशोभितम् ।।
तद्यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ।।
अब गोपियों को सामने देखा न जाय। आमंत्रण तो गया, अलग आमंत्रण की जानकारी भी नहीं है, और शरीर का भय दिखा रहे हैं। क्या गोपियों में श्रीकृष्ण का प्रेम नहीं है? बिना प्रेम के ही उनके पास आयी है?+
अरे, उनका विश्वास तो यह है कि हम तो श्रीकृष्ण से कम प्रेम करती हैं, वह ही हमसे ज्यादा प्रेम करते हैं। प्रेम में मन में जब यह कल्पना हो जाय कि हमारा प्रेम तो बहुत ज्यादा है उनका कम है, तो यह प्रेम का उल्टा मार्ग है; और प्रेम का सीधा मार्ग यह है कि उनका प्रेम बहुत ज्यादा है, तुम्हारा कम है। जब उनके प्रेम पर विश्वास होता है तब अपना प्रेम बढ़ता है। और जब अपने प्रेम का अभिमान होता है और उनके प्रेम पर अविश्वास होता तो प्रेम घट जाता है क्योंकि प्रेम में अपने प्रेम की निरभिमानता और सामने वाले के प्रेम पर विश्वास, ये दोनों प्रेम की जड़ हैं। विश्वास प्रेम का बाप है और अभिमान प्रेम का शत्रु है। तो प्रणय-निमंत्रण ही वापस ले लिया श्रीकृष्ण ने! माने गोपियों के हृदय में जो उनके प्रति विश्वास था उस पर एक ठोकर लगायी। और श्रीकृष्ण के लिए गोपियों के हृदय में जो त्याग था- अपने शरीर तक का त्याग, खाना छोड़कर आयीं, अंजन त्यागकर आयीं, शरीर की परवाह छोड़कर आयीं- अब उसकी याद दिलाते हैं कि अंधेरी रात में तकलीफ होगी तुमको। इस प्रकार उनके त्याग पर चोट की। और तीसरे देखो माता, पिता, भाई, बन्धु सब उनको रोक रहे थे, उन सबके ऊपर पाँव रखकर आयीं-
ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभर्भ्रातृबन्धुभिः ।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ।।
उनको पता ही नहीं लगा कि हमारे पाँव के नीचे कौन पड़ा है? उल्लंघन करके आयीं, अपने घर के संबंधियों को लाँघ-लाँघकर आयीं, अब उनको उन्हीं संबंधियों की याद फिर से दिला रहा है कि उनके लिए तुम लौट जाओ। ये तो उनके अभूतपूर्व त्याग, अभूतपूर्व वैराग्य, अभूतपूर्व संसार के प्रति निर्भयता और केवल कृष्ण के प्रति जो ममता, उस ममता पर ही आक्षेप हुआ न। अब तो गोपी देख नहीं सके उनकी ओर! क्या मन में समझकर आयी थीं? सोचकर आयी थीं कि पीने को मिलेगा अमृत, और यहाँ तो विष वर्षण प्रारंभ हो गया! विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इसको विष-वर्षण कहा है। ऐसा विष बरसा, ऐसा विष बरसा महाराज, कि सिवाय गोपियों के इसको कोई दूसरा सहन नहीं कर सकता था। ++
यह गोपियों का अद्भुत प्रेम है श्रीकृष्ण के प्रति। ऐसी विष-वर्षा करने पर भी वे जीवित रह गयीं। उनका सामने देखने का मन ही न हो, अपना मुँह घुमा दिया, दूर देखने लगीं। श्रीकृष्ण भी समझ गये, इसलिए बोले-
दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम् ।
यमुनानिललीलैजतरुपल्लव शोभितम् ।।
तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान्, पाययत दुह्यत ।।
ओहो! गोपियों! गलती हुई, गलती हुई, माफ करना! मैं समझ गया तुमलोग क्यों आयी हो? देखो, शरद ऋतु है, चाँदनी रात है और यह हरा-भरा वन, पुष्पों से लदा हुआ, फलों के भार से झुका हुआ, और चंद्रमा की किरणों ने इनके ऊपर पच्चीकारी की है- रंग दिया है ‘दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम्’ वन का जो राजा है, औषधियों-वनस्पतियों का जो राजा है राकेश, चंद्रमा, उसने अपने कर अर्थात् किरणों से स्वयं इस वन को रंग दिया है। मान गया, तुमलोग प्रकृतिप्रेमी हो, इस वन की झाँकी करने के लिए आयी हो! सचमुच बड़ा सुन्दर है- ‘यमुनानिललीलैजतरुपल्लवशोभितम्’ यमुना में स्नान करके, शीतल होकर वायु भी धीरे-धीरे मंद-मन्द मन्थर गति से यहाँ चलकर आता है और यहाँ लताओं को गुदगुदाता है। क्या शोभा है।
‘यमुनानिल’ माने यमुनाजल में स्नान करके आया है वायु; लीलै माने शीतलं मंद सुगन्ध वायु चल रही है- लीलापूर्वक चल रही है; तरुपल्लवशोभितम् माने लता है और वृक्षों के पल्लवों को वह वायु हिला रही है। ‘दृष्टं’ अच्छा, तुम ये देखने के लिए आयी हो, मैं समझ गया, बाँसुरी सुनकर नहीं आयी हो, मुझे देखने के लिए नहीं आयी हो! समझ गया, समझ गया कि तुम वृन्दावन की शोभा देखने के लिए आयी हो। अथवा-
दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम् ।
यमुनानिललीलैजतरुपल्लव शोभितम् ।।
यमुनायां अनिललीलैजत्- यमुनाजी में चाँदनी छिटकी हुई है और तरंगें बहुत शांत हैं, तो मन्द-मन्द वायु से जब वृक्ष और लता के जो अग्रभाग हैं वे काँपते हैं तो चाँदनी रात में जब पूर्व से चंद्रोदय हुआ और वृक्ष की छाया पड़ी, तो ऐसा मालूम पड़े कि और वृक्ष, लता सब नृत्य कर रहे हैं, रास हो रहा है। तो भगवान ने देखा यमुना जी में वह रासलीला हो रही है, वृक्ष नाच रहे हैं, ये लताएँ नाच रही हैं, ये फूल नाच रहे हैं, ये पत्ते नाच रहे हैं। यही देखने के लिए आयी थीं ना। ठीक है- ठीक है। गलती हुई।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 10
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ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः |
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा || १० ||
ब्रह्मणि – भगवान् में; आधाय – समर्पित करके; कर्माणि – सारे कार्यों को; सङ्गम् – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्यागकर; करोति – करता है; यः – जो; लिप्यते – प्रभावित होता है; न – कभी नहीं; सः – वह; पापेन – पाप से; पद्म-पत्रम् – कमल पत्र; इव – के सदृश; अम्भसा – जल के द्वारा |
भावार्थ
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जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्र्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है |
तात्पर्य
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यहाँ पर ब्रह्मणि का अर्थ “कृष्णभावनामृत में” है | यह भौतिक जगत् प्रकृति के तीन गुणों की समग्र अभिव्यक्ति है जिसे प्रधान की संज्ञा दी जाती है | वेदमन्त्र सर्वं ह्येतद्ब्रह्म (माण् डूक्य उपनिषद् २), तस्माद् एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मुण्डक उपनिषद् १.२.१०) तथा भगवद्गीता में (१४.३) मम योनिर्महद्ब्रह्म से प्रकट है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और यद्यपि कार्य भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु तो भी वे कारन से अभिन्न हैं | इशोपनिषद् में कहा गया है कि सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृष्ण से सम्बन्धित हैं, अतएव वे केवल उन्हीं की हैं | जो यह भलीभाँति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं अतः प्रत्येक वस्तु भगवान् की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावतः शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता | यहाँ तक कि विशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के लिए भगवान् द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा कर्मों को मुझे (कृष्ण को) समर्पित करो | तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत-विहीन पुरुष शरीर एवं इन्द्रियों को अपना स्वरूप समझ कर कर्म करता है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यः समझ कर कर्म करता है कि वह देह कृष्ण की सम्पत्ति है, अतः इसे कृष्ण की इसे में प्रवृत्त होने चाहिए |

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