Niru Ashra: कृष्ण प्रेमगीता
( भाग ४ )
आत्माराम जब अपनी आत्मा में लीन हो तो समस्त सृष्टि इनमे समा जाती है…. कुछ समय बाद आंखे खोली तो सारी रानियो के ह्रदय में वही प्रेम की ज्योती उन्हें दिखाई दी…. मुस्कुराए कृष्ण फिर बोले अब क्या प्रश्र है???
जामवंती रानी ने पूछा , नाथ ! कृपा कर बताए कैसी है श्री राधा….??? इनके कोमल हृदय में तो राधा रानी पहले ही प्रकट हो चुकी थी… बड़े प्रेम से पूछा था श्री राधा कैसी है…??
कृष्ण के हृदय की धड़कने बढ़ गई थी इस प्रश्न से वो सीधे उस समय में पहुंच गए थे जब दोनो प्रेमी पहली बार एकदुसरे के सामने आए थे…. भगवान भी प्रेम की धारा में बहने से कहा बच पाए थे… खुद को संभाला अपनी धड़कनों को काबू किया…. फिर वही सवाल दोहराया…
राधा कैसी है….??
महारानी जामवंती, राधा हर एक रूप में उच्चतम है… जैसे उनकी देह की बात करो तो वो सूर्य पुत्री है… सबने अचंभे से देखा तो कृष्ण बोले … हा..! राधा के पिता वृषभान के रूप में स्वयम भगवान सूर्य नारायण है…. हजारों वर्षो की तपस्या करके उन्होंने श्री राधा को अपनी पुत्री के रूप में मांगा था… तो द्वापार युग में उनकी ये कमाना पूर्ण हुई है….
सूर्य पुत्री है तो राधा का तन सूर्य तेज से भरा है… उनका रंग सुनहरा गौर रंग है… उनके केश भी सुनहरे लंबे और बहुत सुंदर है… उनका चेहरा गोलाकार है …आंखे भूरी और बड़ी बड़ी है… जिन में अथाह प्रेम भरा है… चंचलता भी दिखती है… आंखे बोलती है उनकी… श्री राधा का वर्णन करते हुए कृष्ण के चेहरे के भाव बदल गए थे अब वो कृष्णचंद्र नही थे वो थे वृंदावन के कान्हा , कन्हैया…
बहुत सुन्दर है श्री राधा और उनसे भी सुन्दर है उनका हृदय जिसमे सब के लिए निष्काम निस्वार्थ प्रेम भरा है… सारे प्राणिमात्र से प्रेम करती है … वन के सारे प्राणी जैसे मोर, हिरण , गाए, बछड़े सब उनके पास जाते थे वो बड़े प्रेम से सहारती थी उनको… बदक, हंस, राज हंस इनको देखते ही आ जाते थे… वन के पंछी भी इनके पीछे पीछे ही उड़ते रहते थे… मानो उनसे बतियाते थे… उनको रिझाते थे… ऐसी प्रेम स्वरूपा है वो जो एक बार देख लेता बस इन्हिका हो जाता है… वो मुस्कुराती है तो मानो हजारों कमल एक साथ खिल उठते है… वो बोलती है तो जैसे वीना की मधुर झंकार बजती है कनोमे… उनके शब्द कानोमे पड़ते है तो लगता है मधुमे डुबोकर आए है…. इतनी मिठास है उनकी बातो में…. बस सुनते जाए सुनते जाए फिर भी क्षुधा तृप्त नहीं होगी…. वो जब चलती है तो उनके सुंदर चरण जहा पड़ते है वहा की धारा खुद को परम पावन समझती है… उनके चरणों की रज को तो ब्रह्म भी तरसता है…. भाव विश्व में खो गए है कान्हा उनको कुछ सुध नहीं है कहा है क्या कह रहे है और किसको सुना रहे है… ये परम प्रेमी है उच्च कोटि के प्रेमी है अपने प्रेम का वर्णन करेंगे तो होश कहा रहने वाला है…. राधा राधा कहते हुए ये खुद राधा बनते जा रहे है……
(शेष भाग कल )
कृष्ण की दिवानी कृष्णदासी
Niru Ashra: 🍃🍁🍃🍁🍃
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 127 !!
निकुञ्ज का धर्म – आनन्द और उत्सव
भाग 1
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आनन्द , जीव का सहज स्वभाव है ……..
इसलिये तो माया व काल के राज्य में आनें के बाद भी जीव आनन्द की ही खोज में लगा रहता है ……यह सनातन सत्य है ।
पर विचित्र बात है….खोजता है आनन्द, पर पाता है दुःख ।
ऐसा क्यों होता है ?
ऐसा इसलिये होता है कि, स्वस्वरूप की विस्मृति…….अपनें स्वरूप का बोध न होनें के कारण ।
…हम स्वयं ही आनन्दरूप हैं ………
हाँ , उस आनन्द के कई रूप हैं……..उन रूपों में आपका रूप ?
रुकिए पहले ! ……आत्मा निराकार है ………पर यहाँ मैं आत्मा के निराकार पर समीक्षा करनें नही बैठा ……..मैं तो साकार आत्मा की बात कर रहा हूँ ….जीव साकार है…….उसका अपना आकार है ……हाँ वह अत्यन्त सूक्ष्म है …….उसका अपना स्वरूप भी है ……..बस उसी स्वरूप को जानना है ……..और मैं कहाँ कह रहा हूँ ……उपनिषद् कहते हैं …….!! आनन्दम् ब्रह्म !! आनन्द ही है ब्रह्म ।
तो हमारा स्वरूप है आनन्द……..अच्छा ! बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त आनन्द की तलाश में ही लगा रहता है………
बचपन में खिलौनें में खोजता है आनन्द………फिर थोडा बड़ा होता है ….तो माँ के आँचल में खोजता है आनन्द ……..फिर थोडा बड़ा होता है ….तो स्त्री में खोजना शुरू करता है आनन्द, या स्त्री, पुरुष में ।
बस ऐसे ही खोजते खोजते वह काल के गाल में समा जाता है ……फिर जन्मांतरों की दुःखप्रद यात्रा………….
किन्तु आनन्द तो मिला नही…….और दुःख कम होनें के बजाय बढ़ता ही गया ……और बढ़ता ही जा रहा है ।
हमें जिस दिशा की ओर बढ़ना चाहिए था …….उसके विपरीत चलनें लगे ……बस यही कारण है कि हम लोग दुःखी हैं ।
गति अपनें भीतर की ओर होनी चाहिये थी………..पर हमारी गति बाहर की ओर है यानि संसार की ओर ……यही है हमारे दुःख का कारण ।
आत्मा नित्य है ……….संसार अनित्य है ।
गौर वर्णी, कृश कटी , चंचल नेत्रों वाली ललिता सखी अर्जुन को निकुञ्ज के रहस्यों के बारे में बता रही हैं…………..
अपनें स्वरूप का ज्ञान जीव को होना आवश्यक है ……….क्यों की हे अर्जुन ! ये भी रहस्य ही है कि हर जीव का अपना अपना स्वरूप होता है ……..यही आत्मा है ।
पर सिद्ध मुक्त जीव भी इन दिव्य धामों से नीचे क्यों उतरता है ?
अर्जुन के प्रश्न का उत्तर ललिता सखी नें ऐसे दिया –
रहस्य है ये कि, कारण तो अनेक हैं ………….पर मूल बात यही है “युगल की इच्छा” ।……….उनकी इच्छा से ही दिव्य लोक वासी भी पृथ्वी में अवतरित होते हैं ।
हे ललिता देवी ! जीव को, माया और काल के बन्धन में बांध कर दिव्य लोक से पृथ्वी में भेजते हैं ……क्या ये अन्याय नही है ?
इतनें आनन्द में रहा ……वो फिर उसी जगह …..दुःखालय में क्यों ?
ये अर्जुन का प्रश्न ।
दुःख इसलिये देते हैं जीव को युगल ……..कि जब तक दुःख का अनुभव जीव को नही होगा …..तब तक आनन्द सिन्धु में नित्य स्नान करनें के बाद भी आनन्द का अनुभव होता नही है ………
और नित्य धाम के इन जीवों को पृथ्वी में भेजनें का अर्थ भी यही है ……कि निकुञ्ज की प्रेम माधुरी का कुछ पता उन विषयी जीवों को भी चले ।
और उन विषयी जीवों का ध्यान इस तरफ भी पड़े……..ललचा उठें वो पामर जीव भी ……इस आनन्दमय लोकों की बातें सुनकर …..और फिर कुछ जीव ये समझनें लगते हैं कि ……हम तो आनन्द स्वरूप थे …..फिर कहाँ फंस गए………हमारा लोक तो आनन्द था …….हमारा धर्म तो उत्सव था ……..फिर किस विषाद के शिकार हो गए ।
क्रमशः….
शेष चरित्र –
🌲 राधे राधे🌲
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! रतिरूप दम्पति की रतिमती सखियाँ !!
गतांक से आगे –
निकुँज में सखियों की प्रधानता है , कहना होगा कि ये सखियाँ इन दम्पति किशोर की छाया हैं ।
ये शुद्ध प्रेममयी हैं , काम यानि किसी भी इच्छा ने इनका स्पर्श नही किया है …पूर्व में कई बार कहा जा चुका है कि ….जो भी इच्छा इनके मन में उठती है ….वो इच्छा दम्पति की ही है …ये तो इच्छा शून्य और प्रेमपूर्ण हैं । रति रूप ये श्यामाश्याम हैं तो रतिमती ये सखियाँ हैं …इसे ऐसे समझिये कि ….दिन और रात की सन्निधि में जो सन्ध्या है …ये मिलाती है दोनों को …तो श्यामा श्याम भी दिन और रात की तरह हैं ये सखियाँ मध्य में सन्ध्या हैं ….दोनों सन्धि कराने यानि मिलन कराने में महती भूमिका निभाती है । इसलिए निकुँज उपासना वाले रसिक-साधक सखियों को नज़रअन्दाज़ नही कर सकते । यही मुख्य हैं …यही दोनों को रति विलास में उतारती हैं ।
अहो , आश्चर्य ! नित्य मुक्त परब्रह्म इन सखियों के हाथों नाचता है …..ये कहती हैं …प्रिया जी के साथ बैठो तो ये बैठते हैं ….ये कहती हैं ….पुष्प तोड़कर प्रिया जू का शृंगार करो , ये कहते हैं …रूठ जाती हैं प्रिया जी तो इनको ये सिखाती हैं कि कैसे मनाना है । ये सेज सजाती हैं …उनमें पुष्प बिछाती हैं ….दोनों को मिलाने का प्रबन्ध यही तो करती हैं । इसलिए इन सखियों को प्रणाम कीजिए ….और युगलवर का रंगमहल में दर्शन कीजिए ।
॥ दोहा ॥
जोरी सलोनी महल में राजत रंगभरी।
गान-कला निर्तत अली, रिझवत रसनि ररी ॥
रिझवत श्रीहरिप्रिया कों, रति रस घात जनाय ।
सब बातनि में चतुर अति, चित्रा सखी सुहाय ।।
॥ पद ॥
चित्रासखी चतुर सब बातनि। जानति अति रति रस की घातनि ।।
तिलकनि सौर सुगंधिक बैंनी कामिलका गुनभरी रसाला ।
कामनागरी नागरबेली सुसोभना मृगनैंनि बिसाला ॥
जया जयंती बिजया बिरजा बीना बालमती बन बेली।
बिधु वदनी सुखसदनी स्यामा रम्या रदनी अँग अलबेली ॥
सजे सिंगार सिंगार सुंदरी रचि आभरन जथारुचि के।
रायबेलि-माला पहिरावत लाय प्रसून सुमन सुचि के ॥
दरपन लै दिखरावति दरपा कंदरपा किये तिलक सँवारि ।
अछित लगाय लड़ाय ललन कौं पीवत पानी वारि निहारि ।।
कोउ सखी रति मंगल गावति चोंप लगावति उरन उमाहि।
कोउ सखी सैननि समुझावति अति सोहन मोहन तनचाहि ॥
रीझि रीझि भींजत दोउ प्यारे देखि देखि रस-बरषा-पुंज ।
महाप्रेम रसमत्त श्रीहरिप्रिया कीनौ आय प्रवेस निकुंज ॥ १६५ ॥
अनन्त सखियाँ उस रँगमहल में प्रेम रस से मत्त होकर नृत्य कर रही हैं …इस नृत्य को आरम्भ किया था हरिप्रिया सखी ने …उन्हीं की उन्मत्तता देख सब नाचने लग गयीं थीं । तभी पीछे से हंसती खिलखिलाती श्रीचित्रा सखी जू आगे आयीं …..गौर वरण हैं इनका …काव्यात्मक बोलती हैं ….इनकी मुस्कुराहट अत्यन्त मधुर है ….आज इन्होंने पीली साड़ी पहनी है जो इन पर जँच भी रही है । सबसे पहले श्याम सुन्दर के पास जाकर ये धीरे से बोलीं …प्यारे ! लाड़ली के अंगों में अमृत है …..इसका पान करना …..फिर आप जीवित रहोगे । ये सुनते ही प्रिया जी चित्रा सखी की ओर देखकर शरमा सी जाती हैं । प्यारी ! आप सुधाधर हो …आप अमृत का पान उन्मुक्त रूप से प्यारे को कराना …नही तो आपकी रूप राशि के सिन्धु में ये डूब गये तो जीवित बच नही पायेंगे ।
चित्रा सखी रतिमती है ….इसलिए इसकी बातें “रस घात” करती हैं ।
प्रेम की रीत को ये अच्छे से जानती हैं ……तो चित्रा सखी अपनी प्रिया जू के पीछे जाकर बैठ गयीं …..और अपनी सखियों से संकेत करके बोलीं ….शृंगार सामग्री लाओ ….थोड़ा और सजा दूँ ताकि इनकी मधुयामिनी और मधुर हो जाए । ऐसा कहकर श्रीजी के केशों को चित्रा सखी ने खोल दिया …..और जब वो केश खुले तो उसमें से सुगन्ध निकला जिसे श्याम सुन्दर ने अनुभव किया …तो उनकी आँखें बन्द हो गयीं …वो अपनी प्रिया के केशों के सुगन्ध में ही कुछ देर के लिए खो गये थे । सखियों ने चित्रा जू को सुन्दर पुष्पों का एक डलिया लाकर दिया …..अब तो चित्रा सखी श्रीजी की वेणी गूँथने लगीं ……उस समय श्याम सुन्दर ललचा रहे थे कि ….ये सेवा मुझे मिलनी चाहिए पर चित्रा चतुर है …मुझ से मेरी सेवा छीन ली । चित्रा सखी वेणी में सुन्दर सुन्दर फूलों को गूँथ कर ….सजा रही है ……श्यामा जू के नयन इस समय प्रेम से भरे लग रहे हैं ….उसमें काजल लगाकर उन्हें और कटिले बना रही हैं । कृश कटि वाली श्रीराधिका जू आज अत्यन्त सुन्दर लग रही हैं ….ये कोमल लतिका के समान प्रतीत हो रही हैं …इन्हें देखकर श्याम सुन्दर मोहित हो गये हैं ….वो बस त्राटक ही लगा बैठे हैं । “नज़र लग जाएगी”…कहकर श्याम सुन्दर को दूसरी ओर देखने को कहती हैं चित्रा सखी , उस समय सब सखियाँ हंस पड़ती हैं ।
किन्तु ये क्या ? देखते ही देखते सौन्दर्य का सागर ही मानौं उस रँगमहल में उमड़ पड़ा था ….कुछ सखियाँ वहाँ आगयीं थीं …..वो बहुत सुंदर थीं ….इनके हाथों में आभूषण थे ….जो इन्हें प्रिया जू को लगाने थे । इनके नाम हरिप्रिया सखी सबको बताती हैं ……जया , जयन्ती , विजया , वीणा , बालमती …ये प्रिया जी को आभूषण पहनाती हैं ….हाथों में कंगन हैं , हृदय में सुन्दर सा हार है …कानों में करनफूल हैं । नही नही , अब सखियाँ पुष्प भी लेकर आयी हैं ….ये बड़ा सुखद लग रहा है अन्य सखियों को । राय बेली की माला एक सखी लाई और प्रिया जू को धारण कराया ….कमल के पुष्प चरणों में चढ़ा दिए । मस्तक में रोरी का तिलक लगा दिया ….माँग मोतियों से भर दी । तभी एक सखी जिसका नाम है …दर्पा जू ….ये दर्पण दिखा रही हैं प्रिया जी को ….और एक सखी है जिसका नाम है ….कंदर्पा जू ….जो माथे का तिलक ठीक कर रही हैं ।
फिर ये सब दूर चली जाती हैं ……क्यों ? क्यों की रूप दर्शन अच्छे से करने हैं तो वो अत्यन्त निकट से सम्भव नही है …उचित दूरी से ही रूप माधुरी का दर्शन होता है । वहाँ से ये सब सखियाँ दर्शन करती हैं ….सखियों को दर्शन करते हुए जब देखा तो लाल जू भी ललचा गए …वो भी उठकर कुछ दूर जाकर अपनी प्यारी को देखते हैं …..हरिप्रिया हंसते हुए कहती हैं …ये आपकी ही हैं ….अब देखते रहना , जितना देखना हो …अभी तो जाओ और दाहिनी ओर चुपचाप बैठ जाओ । लाल जू झेंप जाते हैं …और जाकर दाहिनी ओर श्रीजी के बैठ जाते हैं ।
सखियाँ निहार रही हैं अपनी स्वामिनी जू को ….और पानी वार कर पी रही हैं …ताकि इन्हें कोई नज़र ना लगे । अब तो रस बढ़ने लगा रंगमहल में …..सखियाँ उन्मत्त हो गयीं इन युगल को देख देखकर ….सब गीत गाने लगीं ….बजाने लगीं ….नृत्य की उन्मत्त प्रस्तुति देने लगीं । जब अष्ट सखियों ने देखा की रंगमहल रस में डूबने लगा है ….तो उन सबने अब हरिप्रिया से कहा कि …दम्पति को निकुँज में ले चलो । तब हरिप्रिया ने प्रार्थना की …और युगलवर को निकुँज में ले जाने की तैयारियाँ होने लगीं थीं ।
क्रमशः…
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (076)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण
मैंने आक्षेप किया, आप तो प्रकृति की शोभा देखने के लिए, सौन्दर्य देखने-निरीक्षण करने के लिए यहाँ पधारी थीं तो ‘तद् यात’ अब लौट जाओ-
तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान्, पाययत दुह्यत ।।
तद् यात मा चिरं जल्दी जाओ देर मत करो। कहाँ जायँ? बोले-गोष्ठं गोष्ठ में जाओ। वहाँ जाकर क्या करें? पतीन् शुश्रूषध्वं- अपने पतियों की सेवा करो। बोली- हम तो महाराज उनको छोड़कर आयी हैं। हे नन्दन, हे श्याम सुन्दर, ते दास्याः हम तो तुम्हारी दासी हैं, और उनको छोड़कर आयी हैं। बोले- राम-राम-राम, गोपियों! ऐसी अधर्म की बात अपनी जबान पर कभी नहीं लाना। पतियों को छोड़कर आयी हैं? सीताराम-सीताराम, नारायण का नाम लो। ‘शुश्रूषध्वं पतीन्’ जाओ पतियों की सेवा करो। बोलीं- हमारी तो रुचि बिलकुल नहीं है। तो कहा- सती ‘शुश्रूषध्वं’ अरे तुम्हारे गाँव में कोई सती है कि नहीं? इह सन्तो न वासन्ति सतो वा स्नान वर्तते।
क्या तुम्हारे गाँव में कोई सती नहीं है? अरे, सती हो तो जाओ, उसके चरण की धूलि लेकर अपने शिर पर लगाओ कि हे सती माता। हमसे गलती हो गयी, हम अपने पतियों को छोड़कर उस नन्द के छोरा के पास बाँसुरी सुनने के लिए चली गयीं जाओ, जाओ, सतियों के चरणों की धूल लेकर-लेकर अपने शिर पर लगाओ। उनकी सेवा-शुश्रूषा करो कि तुम्हारे हृदय के पाप मिट जायँ। पतियों के धर्म को छोड़कर यहाँ आयी हो? राम-राम, भ्रष्ट हो जाओगी, नरक में जाओगी। राम-राम, लौट जाओ- शुश्रूषध्वं पतीत् सतीः।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान्, पाययत दुह्यत ।।
अरे, तुम्हारे हृदय में दया-ममता नहीं है, अरी ओर कठोर गोपियो। ‘क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च’ उधर गाय के बछड़े पाँव में बँधे-बँधे डकरा रहे हैं, बिना दूध के बच्चे रो रहे हैं। जाओ-जाओ! बछड़ों को छोड़ो, गाय दुहो, बच्चों को दूध पिलाओ, तुम यहाँ क्या करने आयी हो? यहाँ अपने धर्म, कर्म, कर्तव्य छोड़कर, घर-द्वार छोड़कर यहाँ आयी हो? इसी को विषवर्षण कहते हैं। +
अब आपको फिर एक बार लौटा देते हैं। भगवान जानते हैं कि गोपियों में दो तरह की थीं। दो ही नहीं, बहुत तरह की थीं- एक तो जानी-पहचानी, गोलोक से आयी हुई और कृष्ण की नस-नस की पहचानने वाली, उनके रोम-रोम से वाकिफ। और जो नयी-नयी आयी थीं, कात्यायनी की पूजा करके, अज्ञातयौवन, मुग्धा, बड़ी भोली। इन विचारियों के आँख से आँसू गिरने लगा। जो समझदार थीं वे मुस्कुराने लगीं। इसमें क्या बात है? इसमें बात यह है कि स्वागतं भो महाभागाः गोपियों। तुम सचमुच महाभाग्यवती हो, सौभाग्यवती हो, आज तुम्हारा सौभाग्य जग गया। तुम भले आयीं, मैंने बाँसुरी बजायी, कितना तुम्हारा प्रेम है। धन्य हो। मेरी आवाज धन्य हो, बाँसुरी की आवाज सुनते ही तुम आ गयीं। सचमुच हम तुम्हारे प्रेम के ऋणी हैं- प्रियं किं करवाणिवः- अब आप बताओ तुम्हारा क्या प्रिय है? पाँव दबा दें? कहो तो तुम्हारा बाल श्रृंगार कर दें? कहो तुम्हारा अञ्जन ठीक लगा दें? कहो- वेणी गूँथ दें? कहो- कपड़े ठीक कर दें? अच्छा, तुम जो राग कहो, वह राग गाकर सुना दें? जिस ताल पर कहो नाच दें? बोलो- अरे! बाबा जो कहो सब कर दें। मन तुम्हारा और तन हमारा, जो तुम्हारे मन में आवे सो हमारा तन वही नाच नाचने के लिए तैयार है। अब जो गोपी मुस्कुरा रही थी, वह बोली कि ठहरो-ठहरो, ऐसी बात मत करो। हम लोग यहाँ देर तक रह जाएँ और व्रज में कोई नयी घटना घट जाये- तुम्हारे सिवाय हमारे भी घर है, द्वार है, पूज्य हैं, नाते-रिश्तेदार हैं। हम सायंकार व्रज से बाहर हो जायँ तो वहाँ अनर्थ हो जाए। तुम हमको यहाँ रोकते हो, बात नहीं करते।
तो कृष्ण भगवान बोलें- व्रजस्यानाममयं कच्चित् ब्रूतागमनकारणम्- क्या तुम कल्पना करती हो, व्रज का कोई अमंगल हो सकता है। मैं मौजूद हूँ, मेरे रहते क्या व्रज में किसी को कोई कष्ट हो सकता है। फिकर मत करो, बिलकुल भूल जाओ-जाओ, नाचो, गाओ, बजाओ, हमसे खेलो- व्रजस्यानामयं कच्चित्। गोपी ने मुँह फेर लिया। तो कृष्ण बोले- ब्रूत- अरे गोपियों! एक बार तो अपने मुँह से फुल झरने दो। ब्रूता-* हम तुम्हारे प्यारे हुए और तुम हमारी प्रेयसी, आओ बातचीत करें। गीत-गोविन्द में आया है- एक बार राधारानी रूठीं, और श्रीकृष्ण लगे मनाने। तो बोले कि तुमको हमारे ऊपर गुस्सा ही आया है तो गुस्सा आने पर मालूम है कि क्या किया जाता है? बोले- आदमी को जिस पर गुस्सा आता है जिसको बाँधता है- घटै भुजबन्धनम्। अरे, बाँधो तो! हमको बाँध लो। और फिर जिसके ऊपर गुस्सा आता है, आदमी उसको काटता है- रदखण्डनम्। ++
यदि तुमको हम पर गुस्सा है तो तुम बोलो ना, गाली दो, अरे, तुमको मजा आवे, बाबा वही तुम कर लो, लेकिन खुश हो जाओ। जैसे तुम को सुख हो जाय, वही करो। कुमरगरलखण्डनं मन शिरसि मण्डनं, देहि पदपल्लवमुरारिम् । हमारे हृदय में जो मिलन की आकांङ्क्षा है उसको आँख से बुझाओ। हमारे शिर पर जो मुकुट है, उसमें मोरपंख तो रहता ही है, जंगली वृक्षों के पत्ते भी लगाते हैं। ये तो हम अपने चरणपल्लव को अपने मुकुट का आभूषण बना रहे हैं- देहि पदपल्लवमुरारिम्। हे प्रिय चारुशीले। मुञ्च मयि मानमनिदानं बिना कारण के तुमने मान किया है। रोग होता है तो उसका कोई कारण होता है, निदान होता है और तुमको कुछ मान का रोग हो गया वह तो- बिना कारण के ही हो गया।
ब्रूत- तो गोपी महाराज, मुँह खोल लें, और वे बोले कि ब्रूत बोलो। एक ने पूछा- महाराज बोलें क्या? कहा- ‘आगमनकारणम्’ ये जो आयी होना, इसमें जो सुख का हिस्सा भरा हुआ है सो बोलें। आयी तो हो सुख के लिए और मौन होकर दुःख की सृष्टि कर रही हो? तो आने का जो सुख है उसको बोलो। गोपी ऊपर देखने लगी। कहा- देख लो- सचमुच देख लो। एक ने आँख बन्द कर ली, एक ने अपनी आँख नीची कर ली। समझती हैं। बोले-
रजन्येषा घोररूप घोरसत्त्वनिषेविता ।
प्रतियात व्रजं ने स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ।।
बोले- रजन्येषा- रजनी है रजनी, रजनी माने रञ्जनी, जिसमें लोग मनोरञ्जन करते हैं। यह मजदूरी करने का समय नहीं है, यह तो मनोरंञ्जन करने का समय है। ‘रञ्जनात् रजनी’ जो रञ्जन करें उसको रजनी कहते हैं। रजनी एषा- अरे, ये देखो रात है। क्यों आँख बन्द करती हो? आँख नीचे काहे को करती हो? यह तो रचनी है। देखो न, रात्रि की तरफ! कैसी चाँदनी छिटकी है, अघोररूपा और अघोरसत्त्वनिषेविता यहाँ न कोई साँप, न बिच्छू न जानवर, यह तो वृन्दावन पृथ्वी का हृदय है, कोमल। प्रतियात व्रजं न- व्रज में नहीं जाना, अभ कभी मत जाना, लौटकर मत जाना, गाँव में मत जाना। आओ, हमलोग आजीवन इस वृन्दावन में ही रहेंगे और नाचेंगे और नाचेंगे, गायेंगे, हँसेंगे, फूल से श्रृंगार करेंगे, केले के पत्ते पहन लेंगे और पल खा लेंगे और यमुना-जल पी लेंगे और दिनभर रातभर वृन्दावन के कुञ्जों में विहार करेंगे। व्रजं न प्रतियात- अब गाँव में मत जाओ। बोलो- क्यों? इह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः अरी। ओ सुन्दरी गोपियों! गोपियों के लिए यह जगह है, वह जगह नहीं है। वह पतियों के बीच में, माताओं के बीच में वह जगह नहीं है गोपियों के लिए, गोपियों के लिए तो यह जगह है। ये देखो दूसरा भाव है ‘वाचः पेशेर्विमोहयन्’ शब्द बोलते हैं- एक और बेचारी भोली-भाली समझती है कि मना कर रहे हैं। और जो समझदार हैं, चतुर हैं, वे समझती हैं कि प्रार्थना कर रहे हैं, हमको मना कर रहे हैं कि यहीं रह जाओ।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 11
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि |
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मश्रुद्धये || ११ ||
कायेन – शरीर से; मनसा – मन से; बद्धया – बुद्धि से; केवलैः – शुद्ध; इन्द्रियैः – इन्द्रियों से; अपि – भी; योगिनः – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म – कर्म; कुर्वन्ति – करते हैं; सङ्गं – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्याग कर; आत्म- आत्मा की; शुद्धये – शुद्धि के लिए |
भावार्थ
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
तात्पर्य
जब कोई कृष्णभावनामृत में कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता | अतः सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किये जा सकते है | श्रील रूप गोस्वामी में भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.१८७) इसका वर्णन इस प्रकार किया है –
ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा |
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते ||
“अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे |” उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह इसमें विश्र्वास नहीं रखता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है | वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है | वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारन मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूँ | यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है |


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