Niru Ashra: 🍃🍁🍃🍁🍃
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 127 !!
निकुञ्ज का धर्म – आनन्द और उत्सव
भाग 3
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अर्जुन ! अर्जुन !
झँकझोरा ललिता सखी नें अर्जुन को ।
हाँ ….क्या हुआ ? पर अभी तो झूला झूल रहे थे युगलवर, आकाश में काले काले बादल छा गए थे , आहा ! कितना आनन्द आरहा था ।
ललिता सखी नें अर्जुन से कहा………….अब देखो ये फागुन ।
फागुन ? पर अभी तो श्रावण चल रहा था ……..झूला और मल्हार चल रहे थे …….।
ललिता सखी उन्मुक्त रूप से हँसीं ……….अर्जुन ! यहाँ कुछ जड़ नही है …….मैं तुम्हे कितनी बार ये बात बता चुकी हूँ ………..
यहाँ सब कुछ चैतन्य है …………और सब युगलमय है ।
हम इच्छा करती हैं ……….कि सावन के गीत गायें ……तो ऋतुएँ हाथ जोड़े तैयार हैं……..हम अभी होली खेलना चाहें तो फागुन उपस्थित है ……..लम्बी साँस ली ललिता सखी नें …….वैसे रहस्य ये है कि हम सबके पास तो कोई मन ही नही है …..”युगलवर” जो संकल्प करते हैं ……हम भी वही करती हैं ……उनमें ही हमारा मन समा गया है ।
युगलवर के संकल्प से ये निकुञ्ज लोक संचालित है …..ऋतुएँ भी उनकी सखियाँ ही हैं ………….हम सब उत्साहित होकर उनकी सेवा में लगी रहती हैं ………चलो ! देखो फागुन का उत्सव ।
बसन्त ऋतु……… पगला गयी निकुञ्ज में बसन्त भी ।
उफ़ ……..क्या मदमाती बसन्त की शुरुआत हो गयी थी एकाएक ।
अर्जुन कुछ बोल नही पा रहे हैं …………ये क्या विलक्षणता है !
अरे ! दोनों ओर सखियों की लाइन लग गयी …….कुञ्ज से युगलवर आये…….दोनों के हाथों में पिचकारी दी…….एक तरफ श्रीजी हैं …..उनकी तरफ से ललिता, रंगदेवी, सुदेवी तुंगभद्रा ……….
और इधर हैं श्याम सुन्दर…….विशाखा , चित्रा, इन्दुलेखा, ।
पिचकारी से रँग बरसा रहे हैं दोनों ……….महक उठा है निकुञ्ज ।
तभी यूथ यूथ की सखियाँ पता नही कहाँ से प्रकट हो गयी थीं ।
सब सखियाँ मीठे स्वर से “होली है”…..कहके चिल्ला रही थीं ।
अबीर उडा दिया था आकाश में……….ओह ! आकाश पूरा अबीर से लाल हो उठा था……..पर श्याम सुन्दर नें अचक से अबीर ली ……और अबीर के अन्धड़ में …….श्रीजी को जाकर पकड़ लिया …..और बड़े प्रेम से उनके कपोल में अबीर लगा दी ।
अर्जुन ! ऊपर देखो ! ललिता सखी जोर से बोलीं ।
ऊपर नित्य निकुञ्ज की ओर चल पड़े थे युगलवर ।
मैं भी जाऊँगा …….
…………ललिता सखी नें अर्जुन को अपनें साथ ही लिया और वह तेज़ चाल से चल पडीं थीं ।
“चन्द्र ग्रहण” का दर्शन करोगे ?
ये क्या पूछ लिया था ललिता सखी नें ।
यहाँ भी ग्रहण पड़ता है क्या ? अर्जुन नें पूछा ।
हँसते हुए ललिता सखी लेकर आईँ “निभृत निकुञ्ज” में ………
लता रन्ध्र से फिर देखनें लगीं और अर्जुन को दिखानें लगीं ।
ये ग्रहण है …..ये हमारे निकुञ्ज में पड़नें वाला ग्रहण है ……..ललिता कितनी आनन्द में मत्त हैं ………….
अर्जुन ! ये ऐसा ग्रहण है …..जिसका रहस्य तुम्हारा ज्योतिष नही जानता ……जिसे तुम्हारा वेद भी नही जानता………..
देखो देखो ! अर्जुन ! चन्द्रमा नें राहू को ग्रस लिया ।
निकुञ्ज में शहनाई बज उठी थी………शीतल वयार चलनें लगी थी ।
अर्जुन ! दर्शन करो ………..ललिता नें कहा ।
अर्जुन नें दर्शन किये ………..ललिता ताली बजाकर हँसती हुयी बोलीं ………तुमनें ग्रहण देखे होंगें जिसमें राहू, चन्द्रमा को ग्रस लेता है ….पर यहाँ चन्द्रमा नें राहू को ……….और देखो ! राहू तो दिखाई भी नही दे रहा ……….ये कहकर फिर हँसनें लगीं ललिता …….पीछे अन्य सात सखियाँ थीं वो भी खिलाखिलाकर आनन्दित हो रही थीं ।
हो गया बस !
अर्जुन इतनें दिव्य आनन्द को झेल नही पायेंगें ……ललिता समझ गयीं ……….उन्होंने सम्भाला अर्जुन को ……..अर्जुन बोलनें की स्थिति में नही थे …….उनकी स्थिति प्रेमोन्माद की होगयी थी ………..
ललिता सखी नें अर्जुन के कान में धीरे से कहा………….
अर्जुन ! अब चलो पृथ्वी में……..इतना क्या कहा ……..अर्जुन चिल्ला पड़े …….नही ……..मुझे इस आनन्द से वंचित मत करो ……..
मुझे यहीं रहना है ……मुझे यहीं रहना है ………….
पर तभी एक विद्युत सा कौंधा …..और सीधे अर्जुन इधर “मानसरोवर” से बाहर निकले ………..पर बाहर इस पृथ्वी में……”भौम वृन्दावन” में भी ……ललिता सखी ही खड़ी थीं………अर्जुन का सखी रूप अब नही रहा था ………अर्जुन नें मान सरोवर से बाहर आकर……..सबसे पहले ललिता सखी जू के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया ।
शेष चरित्र –
🌲 राधे राधे🌲
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
( प्यास भी वही और पानीय भी…)
गतांक से आगे –
ये निकुँज रस पान करने के लिए है ….इसे पीना है , इसे आप पीयोगे तो आपको प्यास और लगेगी , है ना आश्चर्य ! कि इससे प्यास बढ़ेगी तो बुझेगी कैसे ? इसी से …यही प्यास को बढ़ायेगी और यही प्यास को बुझाएगी । ये निकुँज रस आनन्द का सिन्धु अपने में लिए हुए है ….अगाध रस भरा है इसमें ….सखियाँ इसी रस का पान करती रहती हैं ….प्रिया प्रियतम भी इसी रस का पान करते हैं ….और समस्त निकुँज वासी भी । यहाँ केवल रस है …यहाँ केवल प्रेम सिन्धु लहराता है ….और यहाँ इसी का राज्य है । हमारे रसिकों ने कहा है …”प्रेम के खिलौना दोऊ , खेलत हैं प्रेम खेल” । ये दोनों प्रेम के खिलौना हैं …और प्रेम का ही खेल खेलते हैं …उस प्रेम खेल में जो जो आवश्यक वस्तुयें लाई जाती हैं वो वस्तु भी प्रेम है ….और लेकर आने वाली ये जो सखियाँ हैं ….वो पूर्ण रूप से प्रेम ही प्रकट हैं । प्रेम ही सखियों का आकार धारण करके यहाँ सेवा में लगा है । उत्साह-उत्सव सब कुछ प्रेम ही है । यहाँ की लताएँ प्रेम हैं , यहाँ पुष्प प्रेम हैं …यहाँ का गायन प्रेम है , यहाँ वादन प्रेम है …यानि प्रेम ही प्रेम का ये प्रेमपूर्ण उत्सव है ।
प्रेम तत्व ने ही चारों ओर अपना विस्तार किया है ।
श्रीमहावाणी में वर्णित ये जो ब्याहुला आदि उत्सव हैं …इसका उद्देश्य कोई घटना आदि बताना नही है …ध्यान है इन सबका लक्ष्य । आप आँखें बन्द कीजिए और इन पदों को गाइये ….झाँकी आपके हृदय में प्रकट हो जाएगी ….और जब रस से भरे ये युगलवर हमारे हृदय में प्रकट हो गये और वो भी दुलहा दुलहन के रूप में , तो क्या आपको कुछ और करना शेष रह जाएगा ….नही । यही है रस ही रस का विलास । और यही रसिकों की उच्च स्थिति है ।
॥ दोहा ॥
सरस निकुंज बिराजहीं, उपजत सुख के पुंज।
बना बनी रसरंग रँगे, गुंज करत निज कुंज ॥
कुंज बधाई गावहीं, गोरी सुभग सुजान ।
ललना लाल लड़ावहीं, गावैं सब सुखदान ॥
सुख श्रीराधा कृष्ण कौ, सेवैं सदा सुवेख।
ब्याह-बिनोदनि सँग लिये, गुन अगाध इँदुलेख ॥
|| पद ||
सखी इंदुलेखा अमित गुन अगाधा। सेवैं सुख सदा श्रीकृष्ण राधा ॥
संग सहचरि भरी रंग राजैं, तुंगभद्रा रसातुंग छाजैं।
चित्रलेखा चित्रांगी सुसंगा, रंगवाटी उसँग अंग अंगा ॥
मोहनी मोदनी मैंनकारी, सुंदरी सोहनी सोभना री।
रागरंगी रंगीली रँगावलि, रसिक रंजनि रसीली रसावलि ॥
अपनि अपनी लियें सौंज ठाढ़ी, रूपसागर तें मथि मनहुँ काढ़ी।
लागि रहि सबनि कें एक डोरी, जुगल-मुख-चंद्रमा की चकोरी ॥
जगर जगमगि रही जोति लोनी, फैलि मनु विपिन सुखमा सलोनी ।
श्रीहरिप्रिया कुंज सुख-पुंज सोहैं, कोटि कंदरप की कला मोहैं।॥ १६७॥
कीजिए ध्यान । ब्याहुला उत्सव का ध्यान ।
सुंदरतम सरस निकुँज में सखियाँ लेकर आयीं हैं इन युगलवर को । उस परम सुन्दर निकुँज में , लताएँ लिपटी हुयी हैं वृक्षों से , लताओं की डालियाँ पुष्पों से लदी हुयी हैं ….किन्तु वृक्ष उन्हें सम्भाले हुए है …कृश लता झूल रही हैं पुष्पों के अति भार से …उसमें भी भ्रमरों का झुण्ड ।
सखियाँ सौन्दर्य की धनी हैं …..वो चहकी हुई , प्रफुल्लित युगल की सेवा में ही लगी हैं ।
पुष्पों का सिंहासन है ….दिव्य सिंहासन है …उसी में विराजे हैं दुलहा दुलहिन ।
इन्हीं युगलवर को देखकर तो ये सब जीवित हैं ….इन सबका आहार ही ये दर्शन है ।
तभी कुछ गौर वर्ण की सखियाँ जिसका रूप दर्पण के समान था ..इतनी गोरी थीं ..वो आगे , युगलवर के सामने आकर बैठ गयीं हैं ..हरिप्रिया सहचरी ने ही इनके बैठने की व्यवस्था बनाई थी ।
इन्होंने मृदंग मँगवाया ,हरिप्रिया अपनी सखियों से मृदंग मँगवाती हैं और इन्हें देती हैं …बस फिर क्या था, अद्भुत मृदंग बज उठता है, और ये गोरी सखियाँ सब विवाह के गीत गाने लग जाती हैं ।
गाते गाते सब उन्मत्त हो गयी हैं ….कुछ सखियाँ तो उठ गयीं और अपने युगलवर को नृत्य दिखाने लगीं । मुस्कुराते हुए युगलवर बड़े ही प्रसन्न लग रहे हैं । अष्टसखियों में एक सखी हैं “इन्दुलेखा जू”। इन्हें बड़ा आनन्द आया …ये झूमने लगीं हैं ….सारी सखियाँ अब इन इन्दुलेखा को देख रही हैं …..ये अमित गुणों की खान हैं …..इसलिए प्रियाप्रियतम इसे प्रेम करते हैं …प्रेम तो प्रिया प्रियतम सबको करते हैं …क्यों की प्रेम के सिवा यहाँ और कुछ है ही नही …किन्तु इन्दुलेखा जू उत्सव आदि की बड़ी उपासिका हैं …और उत्सव में भी ब्याहुला उत्सव ! ये तो इनका प्रिय उत्सव है ….ये झूम रही हैं …..इनकी मत्तता देखते ही बनती है । तभी प्रिया जू ने अपने पीछे देखा तो इन्दुलेखा भाव में डूब गयीं हैं …और उनके अंग अंग में थिरकन हो रही है …ये देखकर प्रिया जू मुस्कुराते हुए संकेत करती हैं ….कि आगे आकर आप नृत्य दिखाइये । बड़ा संकोच होता इन्हें ……किन्तु इनकी जो सखियाँ हैं ( रसिकों ! प्रत्येक सखियों की अपनी आठ आठ सखियाँ हैं , जिन्हें मंजरी भी कहते हैं ) इन्दुलेखा जू की अष्ट सखियों में जो प्रमुख हैं ….जिनका नाम है तुंगभद्रा जू …वो आगे आने के लिए कहती हैं ….ये सखी इन्दुलेखा जू थोड़ी संकोची हैं ….संकोच के साथ ही ये आगे आजाती हैं …प्रिया जू उनको देखकर मुस्कुराती हैं …फिर संकेत करके कहती हैं …नृत्य दिखाओ । अब तो इन्दुलेखा …लाल जू की ओर देखती हैं ….लालन भी संकेत करते हैं ….कि नृत्य दिखाओ । बस फिर क्या था ….तुंगभद्रा सखी जो इन इन्दुलेखा जू की सखी हैं …वो कहती हैं …नव दम्पति की आज्ञा मानी ही ज़ानी चाहिए । सखी जू ! आप नृत्य कीजिए …ऐसा अवसर अब कहाँ आयेगा ….इसलिए । अब तो इन्दुलेखा जू का मुखमण्डल पूर्ण अरुण हो गया है …..वो प्रिया जू के चरणों में देखती हैं ….मन ही मन प्रणाम करती हैं ….फिर नृत्य ! आहा ! ये गौर वर्ण वाली इन्दुलेखा जब नाचती हैं ….तब इनके अंगों में जो थिरकन हो रही है उससे शोभा और बढ़ रही है ….इन्दुलेखा जू के गौर भाल पर पसीने की बूँदे झलक रही हैं ….उससे इनका सौन्दर्य और बढ़ गया है …..नृत्य की भाव भंगिमा से इनके हृदय में विराजित हार जब उछलते हैं तब तो ऐसा लगता है मानों क्षीर सिन्धु में ज्वार आगया हो । ये नृत्य उल्लास कुछ समय तक चलता रहा …..अब तो सबके देखते ही देखते …..कुछ सुंदरियाँ सामने से आ रही हैं ये सबने देखा …ये बहुत सुन्दरी थीं …..हरिप्रिया सखी ने बताया …..चित्रलेखा , चित्रांगी , सुसंगा , मोहनी , मोदनी , मैंनकारी , सुन्दरी , सोहनी , शोभना , रागरँगी , रसिक , रसीली , रसावलि आदि आदि । ये सब सखियाँ दुलहा दुलहन के पीछे जाकर खड़ी हो गयीं हैं ….अब ये जैसे खड़ी हैं ….इनके हाथों में सेवा की सामग्रियाँ हैं । जो भी इनको देख रहा है …. युगल सरकार के पीछे सखियाँ और सौंज हाथ में लिये …..अद्भुत झाँकी थी ये । ये सखियाँ ऐसी लग रही थीं जैसे “रूप सागर से इन्हें मथकर निकाला गया हो”। इस झाँकी का दर्शन करते हुये ये सखी इन्दुलेखा जू और और उन्मत्त होकर नृत्य करने लगीं थीं । धीरे धीरे सखियाँ चकोरी बन गयीं ….इनकी आँखें चकोरी बन गयीं …और युगल चन्द्र । ये सब सखियाँ सरस निकुँज में विराजे इन रसिक दम्पति को देख कर देह सुध भूल गयी हैं ।चारों ओर रस ही रस का विस्तार है । और युगल दम्पति की शोभा तो इतनी बढ़ गयी है कि ….करोड़ों काम देव भी इनके आगे तुच्छ हैं ।
अब आगे क्या कहें ? जब रस सिन्धु में सभी डूब गए हैं ।
जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे ।
पूरा निकुँज जयघोष कर उठा था ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 13
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सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||
सर्व – समस्त; कर्माणि – कर्मों को; मनसा – मन से; संन्यस्य – त्यागकर; आस्ते – रहता है; सुखम् – सुख में; वशी – संयमी; नव-द्वारे – नौ द्वारों वाले; पुरे – नगर में; देही – देहवान् आत्मा; न – नहीं;एव – निश्चय ही; कुर्वन् – करता हुआ; न – नहीं; कारयन् – कराता हुआ |
भावार्थ
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जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
तात्पर्य
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देहधारी जीवात्मा नौ द्वारों वाले नगर में वास करता है | शरीर अथवा नगर रूपी शरीर के कार्य प्राकृतिक गुणों द्वारा स्वतः सम्पन्न होते हैं | शरीर की परिस्थितियों के अनुसार रहते हुए भी जीव इच्छानुसार इन परिस्थितियों के परे भी हो सकता है | अपनी परा प्रकृति को विस्मृत करने के ही कारण वह अपने को शरीर समझ बैठता है और इसीलिए कष्ट पाता है | कृष्णभावनामृत के द्वारा वह अपनी वास्तविक स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकता है और इस देह-बन्धन से मुक्त हो सकता है | अतः ज्योंही कोई कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है तुरन्त ही वह शारीरिक कार्यों से सर्वथा विलग हो जाता है | ऐसे संयमित जीवन में, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन आ जाता है, वह नौ द्वारों वाले नगर में सुखपूर्वक निवास करता है | ये नौ द्वार इस प्रकार हैं –
नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायते बहिः |
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ||
“जीव के शरीर के भीतर वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं | यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है |” (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.१८) अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक दोनों कर्मों से मुक्त रहता है |


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