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August 2, 2025 9:17 am

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!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!भाग 2,!! +दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!+महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (079)+ श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!भाग 2,!! +दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!+महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (079)+ श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!

अब अर्जुन बरसानें आये…
भाग 2

💕💕💕💕💕

शरणागति……….

फल शरणागति, भार शरणागति, और स्वरूप शरणागति ।

फिर कुछ देर बाद ललिता सखी बोलीं……….

हे अर्जुन ! “फल शरणागति” उसे कहते हैं….जो ऐश्वर्य चाहता है ….कैवल्य मोक्ष चाहता है…..वह यथा क्रम से स्वर्ग के भोगों को भोग कर …..उच्च पद लाभ जनित सुख, और आत्मसुख की कामना करता है ……..किन्तु जो भगवान की शरणागति ले चुका है…….वह ये बात अच्छे से समझ जाता है कि ……..भगवान अंशी हैं …..और मैं उनका अंश हूँ ……वो अंगी हैं मैं उनका अंग हूँ……….ये बात शरणागति ले चुके साधक के समझ में आजाता है कि …….अंशी को प्रसन्न करना ही अंश का लक्ष्य है…….अंगी को सुख प्रदान करना ही अंग का ध्येय है…..आत्मसुख पाना ध्येय नही है…….भगवान को सुख मिले हमारे द्वारा ……..और यही चिन्तन धीरे धीरे साधक के मन से फल की आकांक्षा मिटा देता है ……..कुछ और पानें की कामना खतम होती चली जाती है ……अपना कर्तृत्व, ममत्व, एवम् स्वार्थ लिप्सा छोड़ देता है वह साधक ……इसे ही कहते हैं …..”फल शरणागति” । ललिता सखी नें समझाया ।

फिर इसके बाद में आता है ……”भार शरणागति” ।

भार शरणागति – उसे कहते हैं……..अपने आत्म रक्षा का दायित्व अब मैने अपनें भगवान को दे दिया है…….ये है भार शरणागति …….अब मेरे स्वामी या सखा जो भी हैं ……वही हैं……..मेरी रक्षा कैसे करनी है …….वही जानें…..क्यों की मेरे चाहनें से मेरी रक्षा नही होगी …..उनके चाहनें से ही सब कुछ होगा……..साधक ऐसा सोचकर अपना सारा भार भगवत्चरणों में अर्पित कर देता है ……इसे कहते हैं “भार शरणागति” ।

पर हे अर्जुन ! सबसे बड़ी शरणागति है ……”स्वरूप शरणागति’ ।

ललिता सखी बड़े प्रेम से अर्जुन को समझा रही थीं ।

ये शरणागति सबसे बड़ी और उत्तम है ………..

साधक अब समझ जाता है ……..कि भगवान ही वस्तुतः आत्मा के स्वामी हैं………हाँ व्यवहार जगत में भले ही “जीव” की स्वतन्त्र सत्ता हो ……..पर वास्तव में बात ये है कि – भगवान ही आत्मा के रूप में समस्त जीवों में निवास कर रहे हैं…….और जीव की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नही है……..जब ये बात समझ में आजाती है साधक के ….तब वह जीव , अपनें स्वरूप अहंकार का भी त्याग करके “स्वरूप शरणागति” ले लेता है……..ये शरणागति है अपनें अहंकार यानि “मैं” को ही युगल चरणों में चढ़ा देना …….ये अंतिम शरणागति है, हे अर्जुन ! ।

ललिता सखी ये कहते हुए उठीं ……….और बोलीं ……चलो “गहवर वन” में ……..श्रीजी के दर्शन कराऊँ तुम्हे ….चलो अर्जुन ! ललिता सखी ये कहते हुये आगे चल दीं ।

दिव्य वन है ये बरसानें का ……….अर्जुन देख रहे हैं एक एक वृक्ष को …लताओं को……पक्षी शान्त हैं …….मोर एक टक देख रहे हैं ……..

चारों ओर सखियाँ बैठी हैं………और मध्य में एक ज्योतिपुञ्ज है ।

आँखों को मलकर देखना चाहते हैं अर्जुन……..पर उन तप्त काँचन गौरांगी श्रीराधा को वह देख नही पाते ।

उफ़ ! एकाएक पूरा वन प्रदेश रो उठा……..

हा श्याम ! हा श्याम !

वो गौरांगी श्रीराधा एकाएक उठकर दौड़ पडीं……….मेरे श्याम आगये …..मेरे प्राणप्रियतम आगये ! वो देखो श्याम ! वो रहे श्याम ! यही हैं मेरे श्याम !

उफ़ ! अन्धकार को आलिंगन करनें दौड़ पड़ती हैं श्रीराधा ……..श्याम सुन्दर लगता है उन्हें अन्धकार भी ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –

🌻 राधे राधे🌻

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! सखियों द्वारा प्रिया जू का गुणगान !!

गतांक से आगे –

॥ पद ॥

विद्युतबरनी हो मृगनैनी । रूप अनूपम सब सुखदैनी ॥
चंद्रवदन नैंना अनियारे, रतनारे मधि चंचल तारे।
अंजन मनरंजन रेखा-जुत गंजन कंजन खंजन गारे ॥
भौंह बनी नासा नकबेसरि अधर दसन रसना अरुनाई।
ठोड़ी गाड़ कपोल अलक अरु करन कुसुम कानन छबि छाई ।।
बरबेंदी बेंना अरु बेंनी मनहरि लैनी माँग सुहाई।
मोतिन-लर सोभासुन्दर सखि लखि लखि लोचन रहत लुभाई ॥
कंठाभरन उतंग कुचन पर कसी कंचुकी अतलस गाढ़ी।
बाजूबंध चूरी कंकन गजरा करपान सुछबि अति बाढ़ी ॥
अँगुरिन में मुंदरी मनि-मंडित नखन-पाँति करतली सुरंग।
उदर सुदेस सुबेस नाभि-सर बरनत अति मति होत जु पंग ॥
कटि किंकिनि लहँगा लहकारी सारी तनसुख जेहरि पायन।
पायल बिछिया नखन महावर अनवट गजगति चलत अदायन ।।
खाये पान मुसक्यात मनोहर जगमगाति नवजोवन जोति ।
अमित अनूप रूप श्रीहरिप्रिया चितै चखनि चकचौंधी होति ॥ १६८ ॥

हे रसिकों ! इस महोत्सव में आप भी सम्मिलित होईये । अपने को यहीं कहीं निकुँज में खोजिए …अपने को निकुँज की वीथिन में खोने दीजिए । होईये उन्मत्त और गाइये प्रिया जू के गुणगान को । बोलिए श्रीराधा …और बाक़ी सब भूल जाइये ।

देखिए ! हरिप्रिया आदि सखियाँ कैसे दुलहन के भेष में विराजमान प्रिया जू को निहार रही हैं ….अष्ट सखियाँ भी इस आनन्द में इतनी माती हो गयीं कि वो सब आगे आकर ….घेरा बनाकर अपनी प्रिया जू के गुणगान में मग्न हो जाती हैं ।

हे विद्युत के समान वर्ण वाली , मृग नयनी , अनुपम रूप लावण्य से युक्त , सुख प्रदायनी प्रिया जू आपकी जय हो , जय हो जय हो । अष्ट सखियों ने पुष्प उछालते हुए वर्तुल में घूमकर जब अपनी स्वामिनी की जय जयकार की ….तब तो पूरा निकुँज ही जयजयकार करने लगा था ।

हे चंद्रमुखी ! एवम रतनारी ! ( लालिमा लिया मुख ) चंचल पुतरियों से युक्त तीखे नयन वाली हमारी स्वामिनी ! आपकी जय हो जय हो । अद्भुत दृश्य था वो तो …सब जयजयकार कर रहे थे …सब आनन्द में उल्लसित हो गये थे ।

हे सुख दायिनी ! खंजन नयन , और कज्जल नयन वाली ….सुन्दर भँवो वाली , और ये शुक के समान नासिका में नक बेसर पहन कर अपने प्रीतम को रिझाने वाली हमारी प्राणधन राधिके !, आपकी जय हो , जय हो ।

बारी बारी से सारी सखियाँ अपनी स्वामिनी के प्रति प्रेम-भाव व्यक्त कर रही हैं …और करते हुए अत्यंत स्नेह युक्त हैं ये सब ।

हे सौन्दर्य की देवि ! हंसते हुए आपके कपोल में जो गड्डे पड़ जाते हैं ….जिसे देखकर हमारे सरकार मोहित हो उठते हैं ….घुंघराले आपके केश जिसमें मन मोहन का मन ही अटक जाता है ..ऐसी हमारी प्राण प्रिये ! आपकी जय हो जय हो ।

हे माधुर्य का साकार रूप ! आपकी वेणी , जिसे देखकर श्याम सुन्दर अपने हृदय को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं …..आपके हृदय में पड़ी मोतियों की माला को देख देखकर हम सखियाँ फूली नही समाती हैं …ऐसी हमारी सर्वेश्वरी ! आपकी जय हो जय हो ।

श्याम सुन्दर ने देखा सब सखियाँ प्रिया जी के ऊपर पुष्प डाल रही हैं …और जयजयकार कर रही हैं …तो हमारे दुलहा सरकार को भी इतना आनन्द आया कि वो भी पुष्प लेकर अपनी नयी नवेली दुल्हन के ऊपर डालने लगे ।

हे कंचन वर्णी ! आपके वक्षस्थल में जो कसी हुई कंचुकी है …उसमें से झांक रहा आपका कंचन वदन ….जिसे देख देखकर काम को मोहित करने वाले स्वयं मोहित हो रहे हैं ….बाहों में बाजूबंद , हाथों चूड़ियाँ , आहा ! बालों में गजरा ….और आपकी पतली और लम्बी उँगलियों में अंगूठी आपकी शोभा को और बढ़ा रही है ….हे रतिरस वर्धिनि ! आपकी जय हो जय हो ।

हे रसिक रसीली ! आपका कृश उदर , और उसमें गम्भीर नाभि …..यही नाभि तो है जिस की गहराई स्वयं श्याम सुन्दर नही पा पा रहे । उनका मन मीन बनकर आपके नाभि सर में भ्रमण करता रहता है …अनादि काल से कर रहा है …किन्तु अभी तक थाह पाया नही है । हे छैल छबीली ! आपकी जय हो जय हो ।

हे गुण गर्विली ! आपके सौन्दर्य का बखान और कौन कर सकता है ….आपकी सुन्दर नीली साड़ी ….स्वर्ण समान अंग में कितनी शोभा दे रही है । हे श्यामा प्यारी ! आपकी नीली साड़ी देखकर तो ऐसा लगता है ….मानों आपने नील मणि श्याम सुन्दर को ही अपने अंगों में लपेट लिए है …ऐसी हे श्रीकृष्ण प्रिये ! आपकी जय हो जय हो ।

तभी हरिप्रिया सखी आनन्द मग्न होकर प्रिया जी के चरणों में बैठ जाती हैं और बोलीं …हे सखियों की हृदय स्वामिनी ! आपके ये चरण जो अत्यन्त सुकोमल हैं ….आहा ! बिछुआ , पायल , और लाल लाल महावर , ऐसे चरण हम सब सखियों के प्राण बनकर हृदय में बसे रहें । ये कहते हुए हरिप्रिया सखी उठकर एक पान प्रिया जू को खिलाती हैं ….सभी सखियाँ जयजयकार कर उठी हैं …श्याम सुन्दर ललचा रहे हैं …ये देखकर प्रिया के मुख से चर्वित पान लेकर लाल जू के मुख में डाल दिया हरिप्रिया ने । बस अब तो सब सखियाँ उछल कर आनन्दोन्मत्त हो उठीं ।

हे सखियों के जीवन धन युगलवर ! आपकी जय हो , जय हो , जय हो ।

पूरा निकुँज आनन्द सरिता में डूब गया था ।

क्रमशः…


] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (079)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन

हम तुम्हारा अभिनन्दन करते हैं। लेकिन गोपियों, इस तरह प्रेम के पराधीन हो जाना ठीक नहीं है। जरा सोचो तो, इस प्रेम की पराधीनता में कही तुम अपना धर्म न खो बैठो। अब तुम तो भूल गयीं प्रेम के पराधीन होकर, हम तो प्रेम के पराधीन हुए नहीं, क्योंकि हमारे प्रेमी तो हजारों हैं- सभी जन्तु हमसे प्रेम करते हैं। हम तो भँवरे को प्रेम करते देखते हैं, गाय, बैल, हरिन भी प्रेम करते देखते हैं। अब तुम तो अपना धर्म भूल गयीं। अगर हम भी तुम्हारा धर्म भूल जायँ, तब तो अनर्थ ही होगा। वेद का वचन तुमने छोड़ दिया, मनुस्मृति तुमने नहीं मानी, बाप-दादों की बात नहीं मानी, तो मैं तुम्हारा प्रियतम तुम्हें धर्म का उपदेश करता हूँ। अब तो मानकर लौट जाओ।

भगवान् ऐसा क्यं बोलते हैं? तो आपने कभी मोट चलते देखा होगा। खेत की सिंचाई करने के लिए चाम के बड़े-बड़े मोटे चरस बनाते हैं। बैल उसको लेकर जब एक किनारे चले जाते हैं तब वह कुएँ से बाहर निकल आता है। जब वह ऊपर निकलता है, तो किसान उसको ऐसे पकड़कर खींचते नहीं है, खींचे तो कुएँ में चले जायँ, तो एक बार उस चरसे को यूँ धक्का देते हैं कुएँ की तरफ; तो कुएँ में चले जायँ, तो एक बार उस चरसे को यूँ धक्का देते हैं, कुएँ की तरफ; तो कुएँ की तरफ जाकर वह झूलकर फिर किसान की तरफ चला आता है। तब झट पकड़कर महाराज उसको वहीं गिरा देते हैं, पानी गिरा लेते हैं। अक एक बार उसको धक्का न दें तो वह पूरी तरह से पास न आवे और उसका पानी न मिले। इसी प्रकार ये प्रेमी लोग जो हैं, अगर आते ही, इनको कह दिया जाए कि हाँ-हां आइये, हम तो आपके लिए व्याकुल थे, तब तो महाराज ये ले जायँ कुएँ में। इनको एक बार धक्का देना चाहिए कि लौट जाओ। जब एक बार धक्का दिया तब फिर पूरे वेग से आये। अरे! कृष्ण तो किसान ही हैं ना, वह तो किसानों की सब रीति जानता है। उसका जो यह त्याग है वह चरसिया त्याग है। एक बार अपने से दूर इसलिए हटाया कि गोपी और पास आ जायँ। क्या धर्म का उपदेश करते हैं। तुम वेद, शास्त्र, पुराण, मनुस्मृति- पराशर स्मृति नहीं मानते हो तो हमारी बात मानो। कहा- अच्छा महाराज, आप क्या बताते हैं? कहा- हम यह बताते हैं कि

भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।
तद् बन्धूनां च कल्याण्यः प्रजानां चानुपोषणम् ।।
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो लोकेप्सुभिरपात की।।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपात की ।। +

स्त्री का सबसे बड़ा धर्म क्या है? भर्तुः शुश्रूषणम्- अपने पति की शुश्रूषा सबसे बड़ा धर्म है। बोले- सेवा में कोई शर्त है? कहा- हाँ, एक शर्त है। कपट नहीं जोड़ना- अमायया। धर्म में तो अधिकारी पुरुष, श्रद्धा से, विधिपूर्वक, धर्म का अनुष्ठान करे, तो वह फलप्रद होता है। और यदि अधिकारी न हो तो भी धर्म गया, और श्रद्धा न हो तो भी गया और अधिकारी हो, श्रद्धा हो, और विधि न हो, तो नारायण। अपने मन में फल की उत्पत्ति नहीं होती। यह जिसको सनातन धर्म कहते हैं; वह स्वर्गप्राप्तक धर्म है। माने उसके फल के रूप में यह वर्णन आता है कि यह धर्म करो तो तुमको स्वर्ग की प्राप्ति होगी। अच्छा, स्वर्गप्राप्ति के साधन भूत जो धर्म है उसका अनुष्ठान कौन करे? तो कहा- ‘अर्थी समर्थी विद्वान शास्त्रेणा-पर्युदस्तः’ शबरस्वामी पूर्वमीमांसादर्शन भाष्य प्रारब्ध करते समय लिखते हैं- ‘अर्थी’ होवे माने स्वर्ग चाहता होवे; और लंगड़ा लूला, अंधा, यज्ञ करने में असमर्थ न हो, अर्थात् समर्थ होवे; और शास्त्र में सके लिए उस धर्म का अनुष्ठान निषिद्ध न होवे, तब धर्म करे। अब महाराज! जो स्वर्ग न चाहता हो, उससे कहो कि तुम स्वर्ग प्राप्त करने के लिए धर्म करो, तो यह क्या वह धर्म करेगा? नहीं, करेगा, क्योंकि वह अर्थी नहीं है। अर्थी न होने से माने स्वर्ग का इच्छुक न होने से वह धर्म का अनधिकारी हो गया। यह जो श्रीकृष्ण का धर्मोपदेश है यह भी जो स्वर्ग का अर्थी हो, उसके लिए स्वर्ग का प्रापक धर्म है। उसमें क्या चाहिए? तो, उसमें श्रद्धा चाहिए ‘अमायया’। और पति के जो भाई-बन्धु हों, जिनकी सेवा से पति की प्रसन्नता हो, उनकी भी सेवा करे।

महाराज! एक आदमी के घर में बहू आयी। पति से तो बहुत प्रेम करे; पति ने कहा कि हमारी माताजी के पाँव छूकर आओ। तो बोली कि देखो- हमारा ब्याह तुम्हारे साथ हुआ। तुम कहो- हम तुम्हारे पाँव पर शिर रगड़ने को तैयार हैं, लेकिन माताजी-पिताजी को हम नहीं जानते हैं। पति बेचारे ने शिर पीट लिया। भाई, जैसे पति सुख से घर में रह सके, उसकी माता अनुकूल हो, पिता अनुकूल हो, भाई अनुकूल हों, पति के सुख की दृष्टि से वातावरण को भी तो ठीक बनाना पड़ता है न! तो जैसे पित की सेवा धर्म है, इसी प्रकार जैसे पति के जीवनयापन में सुविधा हो, उसके अनुकूल वातावरण बने, माता आशीर्वाद दे कि बेटा, ऐसी बहू आयी कि हमको बड़ी शान्ति मिली, बड़ा सुख मिला, इसको ईश्वर हमेशा सौभाग्यवती बनावें। आशीर्वाद देते हैं। ++

भाई कहें कि भाभी घर में आ गयी जैसे हमारे घर में दूसरी माँ आ गयी, ऐसा उसको अनुभव हो रहा है। तो ये स्त्री के धर्म के अंतर्गत हैं-

भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।
तद् बन्धूनां च कल्याण्यः प्रजानां चानुपोषणम् ।।

श्रीकृष्ण ने कहा- तुम कल्याण-सन्तान का पालन करना, पति के भाई बन्धुओं को सुखी रखना, पति से किसी प्रकार का कपट मत रखना- और उसकी सेवा करना। यह स्त्री का धर्म है। तब भी गोपियों के मन में रुचि नही हुई पति-सेवा के लिए। तो भगवान् ने कहा- अरे! तुम्हारे पतियों में कोई दोष है क्या? मारते-पीटते होंगे मालूम पड़ता है- दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो- एक की ओर देखकर कहा- अहो, तुम्हारा पति तुमको मारता है, समझ गया। दूसरी की ओर देखकर कहा- अच्छा, तुम्हारा पति पैसा नहीं लाता है क्या? अभागा है! तभी तुम उससे नाराज हो। तीसरी की ओर देखा- अब बुढ़ऊ मिल गये क्या? तुम बेवकूफ बनाकर आयी हो? बोले- जड़ो-रोगि अधनोऽपि वा- क्या बेहोश पड़ा है और छोड़कर चली आयी हो? अरे बाबा देखो, पति कैसा भी हो, तब भी पत्नी का धर्म है कि अपने शील-स्वभाव से बुरे, अभागे, बुड्ढे, मूर्ख रोगी और निर्धन पति का भी त्याग न करे। यह स्त्री का धर्म है। तुम लोग भाई पहचान लो तुम्हारे कैसे पति हैं? क्या ऐसे पतियों को छोड़कर तुम आयी हो? देखो, तुम अगर अपना लोक-परलोक बनाना चाहती हो तो पति मत छोड़ो।

और आपात की तुम्हारे पति ने कोई पाप-वाप कर दिया है क्या? देखो- इसके संबंध में शास्त्र का निर्णय है कि यदि पति ब्रह्महत्या करे, शराब पिये, चोरी करे और गुरु-पत्नी से गमन करे, और ऐसे कुकर्मी लोगों के साथ बैठे, खाये-पिये, मिले-जुले-पाँच महापाप हो गया।

ब्रह्महा च सुरापायी स्तेयी च गुरुतल्पगः ।
महान्ति पातकानयाहुः तत् संसर्गी च पञ्चमः ।।

तो स्त्री ऐसी स्थिति में क्या करें?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
🍇🍇🍇🍇🍇🍇
श्लोक 5 . 15
🍉🍉🍉🍉
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: |
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः || १५ ||

न – कभी नहीं; आदत्ते – स्वीकार करता है; कस्यचित् – किसी की; पापम् – पाप; न – न तो; च – भी; एव – निश्चय ही; सु-कृतम् – पुण्य को; विभुः – परमेश्र्वर; अज्ञानेन – अज्ञान से; आवृतम् – आच्छादित; ज्ञानम् – ज्ञान; तेन – उससे; मुह्यन्ति – मोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः – जीवगण |

भावार्थ
🍉🍉
परमेश्र्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है , न पुण्यों को | किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है |

तात्पर्य
🍒🍒
विभु का अर्थ है, परमेश्र्वर जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्दर्य तथा त्याग से युक्त है | वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है | वह किसी भी जीव के लिए विशिष्ट परिस्थिति नहीं उत्पन्न करता, अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन के लिए विशिष्ट परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की शृंखला आरम्भ होती है | जीव परा प्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है | तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है | भगवान् सर्वशक्तिमान् है, किन्तु जीव नहीं है | भगवान् विभु अर्थात् सर्वज्ञ है, किन्तु जीव अणु है | जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान भगवान् द्वारा ही की जाती है | अतः जब जीव अपनी इच्छाओं से मोहग्रस्त हो जाता है तो भगवान् उसे अपनी इच्छापूर्ति करने देते हैं, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिए उत्तरदायी नहीं होते | अतएव मोहग्रस्त होने से देहधारी जीव अपने को परिस्थितिजन्य शरीर मान लेता है और जीवन के क्षणिक दुख तथा सुख को भोगता है | भगवान् परमात्मा रूप में जीव के चिरसंगी रहते हैं, फलतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओं को उसी तरह समझते हैं जिस तरह फूल के निकट रहने वाला फूल की सुगन्ध को | इच्छा जीव को बद्ध करने के लिए सूक्ष्म बन्धन है | भगवान् मनुष्य की योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा का पुरा करते हैं – आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल | अतः व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पुरा करने में सर्वशक्तिमान नहीं होता | किन्तु भगवान् इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं | वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते | किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान् उसकी विशेष चिन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे | अतएव वैदिक मन्त्र पुकार कर कहते हैं – एष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते | एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीषते – “भगवान् जीव को शुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे | भगवान् उसे अशुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह नरक जाए |”
(कौषीतकी उपनिषद् ३.८) |

अज्ञो जन्तुरनीशोSयमात्मनः सुखदुःखयोः |
ईश्र्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वाश्र्वभ्रमेव च ||

“जीव अपने सुख-दुःख में पूर्णतया आश्रित है | परमेश्र्वर की इच्छा से वह स्वर्ग या नरक जाता है, जिस तरह वायु के द्वारा प्रेरित बादल”

अतः देहधारी जीव कृष्ण भावना मृत की उपेक्षा करने की अपनी अनादि प्रवृत्ति के कारण अपने लिए मोह उत्पन्न करता है | फलस्वरूप स्वभावतः सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी वह अपने अस्तित्व की लघुता के कारन भगवान् के प्रति सेवा करने की अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल जाता है और इस तरह वह अविद्या द्वारा बन्दी बना लिया जाता है | अज्ञानवश जीव यह कहता है कि उसके भवबन्धन के लिए भगवान् उत्तरदायी हैं | इसकी पुष्टि वेदान्त-सूत्र (२.१.३४) भी करते हैं – वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति – “भगवान् न तो किसी के प्रति घृणा करते हैं, न किसी को चाहते हैं, यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है |”

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