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August 2, 2025 9:15 am

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!!”श्रीराधाचरितामृतम्”128 !! (3)+!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौरी !!+श्रीमद्भगवद्गीता+महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य)(080): Niru Ashra

!!”श्रीराधाचरितामृतम्”128 !! (3)+!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौरी !!+श्रीमद्भगवद्गीता+महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य)(080): Niru Ashra

Niru Ashra: 🌲🌲🌻🌲🌲

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!

अब अर्जुन बरसानें आये…
भाग 3

💕💕💕💕💕

चारों ओर सखियाँ बैठी हैं………और मध्य में एक ज्योतिपुञ्ज है ।

आँखों को मलकर देखना चाहते हैं अर्जुन……..पर उन तप्त काँचन गौरांगी श्रीराधा को वह देख नही पाते ।

उफ़ ! एकाएक पूरा वन प्रदेश रो उठा……..

हा श्याम ! हा श्याम !

वो गौरांगी श्रीराधा एकाएक उठकर दौड़ पडीं……….मेरे श्याम आगये …..मेरे प्राणप्रियतम आगये ! वो देखो श्याम ! वो रहे श्याम ! यही हैं मेरे श्याम !

उफ़ ! अन्धकार को आलिंगन करनें दौड़ पड़ती हैं श्रीराधा ……..श्याम सुन्दर लगता है उन्हें अन्धकार भी ।

अर्जुन की बुद्धि जबाब दे गयी थी ………..वो कुछ समझ या सोच ही नही पा रहे थे ………………….

पर ये क्या ?

“गहवर वन” एकाएक श्रीराधा के अट्हास से गूँज उठा था ।

द्वारिकाधीश ! हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा ।

सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ ………..और अनगिनत बालक ।

हा हा हा हा हा हा………….”मेरे” श्याम सुन्दर नें इतनें व्याह किये ।

नही …..नही…………….फिर गम्भीर हो उठी थीं श्रीराधारानी ।

नही …….”मेरे” श्याम सुन्दर नें नहीं ………मेरे श्याम सुन्दर तो मुझे छोड़कर कहीं जा ही नही सकते ……..वे तो मेरे पास हैं …….मेरे पास ………मेरे मैं ही……….वो वासुदेव हैं ……….जो द्वारिका गए …..मेरे श्याम सुन्दर इस वृन्दावन को छोड़कर कहीं नही जाते ……….

ये सच है………..यही सच है ……बाकी द्वारिकाधीश की बातों से मुझे क्या प्रयोजन ? उनसे क्या लेना देना मेरा ?

मेरे तो श्याम हैं……मेरे हैं श्याम …..और मैं सिर्फ अपनें श्याम सुन्दर की हूँ ……….हाँ मैं श्याम सुन्दर की हूँ ……….और वो ये रहे !

फिर दौड़ पड़ती हैं श्रीराधारानी ।

अर्जुन से आगे का दृश्य देखा नही गया …………..निकुञ्ज में विहार का जो दर्शन करके आये थे अर्जुन …………फिर यहाँ ऐसा विरह …..भीषण विरह …………….

अर्जुन के नेत्र बरस पड़े…………ललिता नें देख लिया ……..

नही देखा जाएगा ये सब मुझसे ………..हे ललिता सखी ! बस क्या मुझ पार्थ को श्रीराधिका जू के चरणों को छूनें का सौभाग्य मिलेगा ?

ललिता सखी नें देखा …….अर्जुन को वहीँ रोककर …..ललिता सखी श्रीजी के चरणों की रज ले आईँ …..और स्वयं ही अपनें हाथों अर्जुन के मस्तक में लगा दिया …………बस इसके बाद तो अर्जुन उन्मत्त हो उठे थे …..प्रेम का पागलपन सवार हो गया था ।

बस गीता के ये श्रोता रोये जा रहे हैं ……..और राधे ! राधे ! कहके चिल्ला रहे हैं ……….ललिता सखी नें सम्भाला अर्जुन को ।

हिलकियों से रो रहे थे अर्जुन ।

……..अब कितना समय और है इन दोनों के मिलन में ?

अर्जुन नें ललिता सखी से पूछा ।

लम्बी साँस लेकर ललिता सखी बोलीं ……….सौ वर्ष बीतनें में अब मात्र 5 वर्ष बचे हैं……….पर ये समय कैसे बीता अर्जुन ! ये हम भी नही बता पायेंगीं………ओह ! ललिता सखी अब अर्जुन को देख, वो भी रोनें लगी थीं ……………

मुझे प्रसन्नता हो रही है कि अब मात्र 5 वर्ष ही बचे हैं ………….

पर अब इनका मिलन कहाँ होगा ? अर्जुन नें ये भी पूछ लिया ।

कुरुक्षेत्र में……….ललिता सखी नें स्पष्ट बता दिया ।

क्या नन्दबाबा और मैया यशोदा से नही मिलोगे अर्जुन ?

नही ……मैं मिल नही पाउँगा …….मैं उन्हें देख भी नही पाउँगा ……..मैं नन्दबाबा और मैया यशोदा की दशा से परिचित हूँ ………..इसलिये कह रहा हूँ ……..रो रहे थे अर्जुन ये कहते हुए भी ।

मैं इन पूज्य नन्दबाबा और मैया से कुरुक्षेत्र में ही मिलूँगा ………..

ठीक है अर्जुन ! ललिता कुछ नही बोलीं ।

पर ये अच्छा नही है …..”श्रीजी” को इतना विरह में देखना असह्य है ।

अर्जुन ये बोलते रहे…………..

ललिता नें फिर कहा…….ये अवतार काल कि लीला है …..इसमें संयोग वियोग चलता ही रहेगा ।

साष्टांग लेट कर श्रीधामवृन्दावन को प्रणाम किया था अर्जुन नें ……..

और ललिता सखी को भी प्रणाम करके ……आँसुओं को आँखों से बरसाते हुए ……अर्जुन रथ में बैठकर द्वारिका के लिये चल पड़े ।

शेष चरित्र कल –

🌻 राधे

Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! सखियों द्वारा लाल जू का गुणगान !!

गतांक से आगे –

हे रसिकों ! नित्य निकुँज में सखियाँ ब्याहुला उत्सव मना रही हैं ….कहना होगा कि सारे रसों को अपने हृदय में समेटे ये सखियाँ नेत्रान्जलि में भर भरकर उस दिव्य रूपामृत का पान कर रही हैं । ये कभी वात्सल्य से भर जाती हैं …तो इन्हें चिन्ता होने लगती है कि बहुत देरी हो गयी इन दोउ नवल किशोर और किशोरी ने कुछ खाया नही है …इन्हें खिलाऊँ । सखी का हृदय वात्सल्य से भर जाता है । जब चरण चाँपती हैं तब इनके मन में आता है …आहा ! मैं तो इन परमोदार श्रीराधिका महारानी जू की दासी हूँ …और अपने को “राधा दासी” कहकर ये इतराती हैं ।

प्यारी जू ! यहाँ आपके कपोल में दंत क्षत हुआ है …तब सखी की बात सुनकर प्रिया जू शरमा जाती हैं …फिर सखी को लेकर एक कुँज में चली जाती हैं ….फिर अपनी बात बताती हैं …बताते बताते चल देती हैं …सखी साथ में ही हैं ….आहा ! गलवैयाँ देकर चल रही हैं सखी को प्रिया जी …तब गदगद होकर सखी के हृदय में सख्य भाव या कहो मैत्री भाव जागृत हो जाता है ।

हे रसिकों ! ये सखियाँ सामान्य नही हैं ….ये सर्व रसों से सम्पन्न होकर इन दम्पति किशोर-किशोरी को रिझाती रहती हैं । माधुर्य का सार सर्वस्व हैं युगल वर …तो ये सखियाँ गुण कलानिधि हैं ….ये सम्पूर्ण कला और गुण गण से भरी हुयी …प्रेम में आकंठ डूबी हुयी ..युगलवर की सेवा में अपने को लगा देती हैं । इनकी साधना , जप , तप जो कहो यही है ।

अरे, आप लोग इस निकुँज रस को सामान्य समझे हो क्या ? यहाँ तो कोटि कोटि रतियाँ अपने को निछावर करती रहती हैं , उज्वलता निकुँज का मार्जन करती है …स्वच्छता शय्या रचती है ..और ये सब देखकर चतुरता अजी ! लजा जाती है, अब क्या कहोगे उस निकुँज के विषय में ।

चलिए …कहना क्या है ….दर्शन ही कर लीजिए …साक्षात् ।

॥ दोहा ।।

चकचौंधी नैंनन लगी, देखत दुलहनि रूप।
अब दूलह देखौ सखी, सुंदर अतिहिं ॥
अति सुंदर तन सोहने, मनमोहन अभिराम ।
बरनत बैंन बनें न सखि, कमलनैंन घनस्याम ॥

|| पद ||

घनस्याम बरन तन कमलनैंन वर बरनत बैंन बनैं न सखी।
अति सुंदर सोहन मन मोहन मूरति मंगलमैंन सखी ॥
सुही पाग सिरपेच सुनहरी छोंगा अति छबि देत सखी।
लहलह मुक्त लरनि सँग बिलगी किलँगी हिय हर लेत सखी ॥
तिलक भाल तिरछौंहीं भौंही बिहसौंही चखि लोल सखी।
अलक रलक श्रुति कुंडल सोंमिलि झलकत ललित कपोल सखी ॥
नासा अग्रमुक्ता मंजुल की दुति रहि दमकि सखी।
अधर अरुन रस भीनी रसना रदचौका रह्यौ चमकि सखी ॥
सुखदेंनी रससनी मनोहर मृदु मुख हँसनि रँगीली सखी।
चिबुक दिठौनी अति लौनी की रहिछबि छाय छबीली सखी ॥
कंठी कंठ कसिब कंचुक पर बर मुक्ता मनि-माल सखी।
सह आभरन अंस अवतंसी अद्भुत बाहु बिसाल सखी ॥
कटि तट पटुका हरित जरी अति लसि अतलस निज बसन सखी।
पटी पुरट सुघटी जटि जतननि निर्मित रतननि रसनि सखी ॥
चरन चारु आभूषन भूषित नख पदतर अरुनई सखी।
श्रीहरिप्रिया प्रान की सोभा पर मैं बलि बलि गई सखी ॥ १६९ ॥

*सुन्दर “रस निकुँज” में फूलों के सिंहासन में विराजमान दुलहा और दुलहन का रूप सौन्दर्य देख देखकर सखियाँ बलि बलि जा रही हैं …पहले प्रिया जी …जो दुलहन के भेष में विराजी हैं …उनके रूप-गुण का सखियों ने गान किया …जय जयकार किया । किन्तु हमारे दुलहा सरकार …अब इनका भी तो गुणगान होना चाहिए ना , ये बात सखियाँ समझ गयीं …छोटे से किशोर अवस्था के श्यामसुन्दर और छोटी किशोर वय की ही हमारी श्रीकिशोरी जी । दोनों छोटे छोटे हैं । अरी सखियों ! देखो तो सही हमारे लाल जू ने कैसे कंदुक की तरह अपना मुँह फुला लिया है ….हरिप्रिया सखी जू से सखियाँ पूछती हैं …क्यों ? हरिप्रिया लालन की ओर देखकर तृण तोड़कर फेंक देती है …और कहती ये रिसाय गये हैं …क्यों ? हरिप्रिया सखी कहती हैं …क्यों की हमने प्रिया जी के ही गुण को गाया …इनके नही । ये सुनते ही पूरा सखी समाज खिलखिलाकर हंस पड़ता है ।

देखो …प्रिया जी के रूप का दर्शन करके तो हमारी आँखें चुधियाँ गयीं हैं …अब थोड़ा श्याम वरण इन लालन को भी देख लो …ये बात श्रीरंगदेवि सखी जू ने पूरे सखी समाज को कहा था ।

तब अग्रवर्ति सखी हरिप्रिया ने कहा …हाँ , हाँ …..यही ठीक रहेगा ।

“तो गाओ”……हए ! प्यारे से श्याम सुन्दर ताव में बोले थे ।

बस फिर क्या था बलैयाँ लेते हुए ….सखियों ने गायन शुरू किया …प्रमुख तो हरिप्रिया ही हैं …ये तो कहने की बात ही नही है ।

सखियाँ अब लाल जू को निहार रही हैं ….आहा ! श्याम रंग का ऐसा जाल है ये कि कोई भी फंस जाए इसमें तो । कितने सुन्दर लग रहे हैं हमारे छैल छबीले नागर। अरी सखियों ! इनके इस सौन्दर्य सिंधु का वर्णन कैसे करें ! हमारी तो वाणी ही मौन हो रही है , हे कमल नयन घनश्याम ! आपकी जय हो जय हो ।

अब श्याम सुन्दर प्रसन्न हुए और बड़े तन कर प्रिया जी से सट कर बैठ गये हैं ।

नव दुलहन को निहार लिया अब इन नवल दुलहा को भी निहार लो ….ये घनश्याम हैं …घन , मेघ के समान इनका वरण है …और नयन इनके कमल के समान हैं । हे सौन्दर्य के अधिपति ! आपके गुण गन हम क्या सुनायें ….बस आपकी बलैयाँ लेती हैं , ये सखियों ने कहा …तो प्रिया जी ने अपने प्रियतम की बलैयाँ ली …इस बात से तो लाल जू और फूल गये थे ।

सखियाँ लाल जू के रूप पर मोहित हो उठी हैं …..

हे अलबेले रसिक ! आपकी रूप राशि को जो कोई भी देख लेता है …उसका मन बलात् आप चुरा लेते हो …और तो और स्वयं मन के मालिक मनोज यानि कामदेव के भी मन को चुराने वाले आप हो …आपकी जय हो , जय हो ।

हे सौन्दर्य सिन्धु ! आपके सिर में जो शाही पगड़ी है ना , ये बहुत सुंदर लग रही है , इससे आप और भी सुन्दर दीख रहे हो…और पगड़ी में लगा सुनहरे रंग का सिर पेंच , ओह ! इसमें तो हम सभी सखियाँ का मन फंस गया है ..अब क्या करें ! हे रूप के धनी ! आपकी तो सदा हीं जय जय हो ।

ये कहते हुए सखियाँ भाव विभोर हैं ।

और प्यारे ! इतना ही कहाँ …आपकी पगड़ी में लगी हुई मोतियों की लड़ी तो और अद्भुत है ….कैसे लहलहा रही है ….और पगड़ी के ऊपर खिली हुई कलंगी , ये तो ऐसी प्रतीत हो रही है मानौं -सौन्दर्य-सार ने अपनी ध्वजा फहरा कर ये बता दिया हो …कि इनके समान कोई नही है सौन्दर्य और माधुर्य में । हे सौन्दर्य-माधुर्य के सार ! आपकी जय हो , जय हो ।

सखियाँ ने अब फूलों से भरे डलिए अपने पास रखवा लिए …और झूमती नाचती …लाल जू के ऊपर वो फूल बरसाती हैं ।

हे नवल किशोर जू ! आपके माथे का तिलक तो आपके मुख चन्द्र और को दिव्य बना रहा है …तिरछी भौंहें , उस पर नयन की चंचलता ! उफ़ ! हम सखियाँ तो आप पर मर ही गयीं हैं …हे रूप रसाला ! अब इन नयनों से करुणा बरसा कर हमें जीवन प्रदान करो ।

हे श्याम घन ! आपकी ये घुंघराली अलकें ….हम सब को फाँस रही हैं …..और उस पर कानों में कुण्डल ….वो जब आपके कपोल को छूते हैं तब तो ऐसा लगता है …भाग्यशाली हैं । हे परम कृपाला ! कुण्डल को भी अपने कपोल छूने दे रहे हो …आप से बड़ा कृपालु और कौन होगा !

सखियाँ नृत्य कर रही हैं , गीत गा रही हैं ….रस निकुँज आज अत्यधिक प्रफुल्लित है ।

हे लाल बिहारी ! आपकी जय हो …..आपके अधरों की लाली , जो सहज लाल हैं ….ऐसे लग रहे हैं जैसे रस से भरे हैं ….और आपकी जिह्वा वो भी लाल …और इन सबमें जो दंतपंक्ति हैं …वो तो धवल श्वेत , हे प्यारे ! आप जब खुल कर हंसते हो न , तो उस समय इन सबके दर्शन होते हैं ….बस फिर तो लगता है …अधरों की लाली देखूँ या अधरों की लाली से लाल हुई जिह्वा देखूँ या इन लाल ही लाल में बत्तीस जो उज्ज्वल मोती बनकर बैठे हैं ….उन दंतपंक्ति को निहारूँ ….ओह ! हे हम सबके प्राण जीवन ! आपकी जय हो जय हो ।

हरिप्रिया अब पुष्प उछालती हैं ….सखियाँ भी लाल जू के ऊपर पुष्प डाल रही हैं …ये मस्त बैठे हुए हैं….श्रीरंगदेवि जू ने प्रिया जी के मनोभाव को जान लिया और पुष्पों का एक डलिया प्रिया जी के सामने रख दिया …अब तो प्रिया जी पुष्प लेकर लाल जू के ऊपर डालती हैं …उन घुंघराली अलकों में फूल ही फूल हो गये हैं जिससे श्याम सुन्दर की शोभा और बढ़ गयी है ।

हे प्यारे ! आपके तो प्रत्येक अंग अंग में टोना है ….आपका विशाल वक्षस्थल , आपके आजानबाहु …इतना ही नही …..कटि के नीचे पीला पटुका , ऊपर चमचमाती पीताम्बर …उस पीताम्बर में सुवर्ण के सितारे , ओह ! सखी ! देख तो …मेघ श्याम के अंग में ये पीताम्बर कितना सुन्दर लग रहा है …ऐसा लग रहा है जैसे सूर्य का प्रकाश इसी पीताम्बर ने पी लिया हो ।

अब तो निकुँज में बाजे गाजे बजने लगे …बज तो रहे ही थे …किन्तु अब ज़ोर शोर से ..

तभी हरिप्रिया सखी लाल जू के चरणों में गिर जाती हैं …..और उन चरणों को देखकर कहतीं हैं ….कितने सुन्दर चरण हैं ना आपके ….चमक तो चरणों के नख में है …हे नयनाभिराम श्याम ! आपके चरणों के नख से ज्योति प्रस्फुटित हो रही है …जिससे समस्त में जग मग हो रहा है ।

हे हमारी प्रिया जी के दुलहा सरकार ! आपके गुणगन को हम क्या गायें ! बस ये अपने प्राण , हम सब सखियाँ आपके श्रीचरणों में चढ़ाती हैं …और प्यारे ! बलि बलि जाती हैं । इतना कहकर हरिप्रिया साष्टांग श्याम सुन्दर के चरणों में लेट जाती हैं ।

जय हो , जय हो , लाल जू की जय हो, सदाहीं जय हो ।

सब सखियाँ प्रेम स्वरूप ही हो गयीं हैं । इसलिए ये सब प्रेमपूर्ण कोलाहल करती हैं ….जिससे लाल जू बहुत बहुत प्रमुदित हो उठते हैं ।

क्रमशः….
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 16
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ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः |
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् || १६ ||

ज्ञानेन – ज्ञान से; तु – लेकिन; तत् – वह; अज्ञानम् – अविद्या; येषाम् –
जिनका; नाशिताम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः – जीव का; तेषाम् – उनके; आदित्य-वत् – उदीयमान सूर्य के समान; ज्ञानम् – ज्ञान को; प्रकाशयति – प्रकट करता है; तत् परम् – कृष्णभावनामृत को |

भावार्थ
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किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं |

तात्पर्य
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जो लोग कृष्ण को भूल गये हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त होते हैं, किन्तु जो कृष्णभावनाभावित हैं वे नहीं होते | भगवद्गीता में कहा गया है – सर्वं ज्ञानप्लवेन, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि तथा न हि ज्ञानेन सदृशम् | ज्ञान सदैव सम्माननीय है | और वह ज्ञान क्या है? श्रीकृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त होता है, जैसा कि गीता में (७.१९) ही कहा गया है – बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते | अनेकानेक जन्म बीत जाने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त करके मनुष्य कृष्ण की शरण में जाता है अथवा जब उसे कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है तो उसे सब कुछ प्रकट होने लगता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर सारी वस्तुएँ दिखने लगती हैं | जीव नाना प्रकार से मोहग्रस्त होता है | उदाहरणार्थ, जब वह अपने को ईश्र्वर मानने लगता है, तो वह अविद्या के पाश में जा गिरता है | यदि जीव ईश्र्वर है तो वह अविद्या से कैसे मोहग्रस्त हो सकता है? क्या ईश्र्वर अविद्या से मोहग्रस्त होता है? यदि ऐसा हो सकता है, तो फिर अविद्या या शैतान ईश्र्वर से बड़ा है | वास्तविक ज्ञान उसी से प्राप्त हो सकता है जो पूर्णतः कृष्णभावनाभावित है | अतः ऐसे ही प्रामाणिक गुरु की खोज करनी होती है और उसी से सीखना होता है कि कृष्णभावनामृत क्या है, क्योंकि कृष्णभावनामृत से सारी अविद्या उसी प्रकार दूर हो जाती है, जिस प्रकार सूर्य से अंधकार दूर होता है | भले ही किसी व्यक्ति को इसका पुरा ज्ञान हो कि वह शरीर नहीं अपितु इससे परे है, तो भी हो सकता है कि वह आत्मा तथा परमात्मा में अन्तर न कर पाए | किन्तु यदि वह पूर्ण प्रामाणिक कृष्णभावनाभावित गुरु की शरण ग्रहण करता है तो वह सब कुछ जान सकता है | ईश्र्वर के प्रतिनिधि से भेंट होने पर ही ईश्र्वर तथा ईश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध को सही-सही जाना जा सकता है | ईश्र्वर का प्रतिनिधि कभी भी अपने आपको ईश्र्वर नहीं कहता, यद्यपि उसका सम्मान ईश्र्वर की ही भाँति किया जाता है, क्योंकि उसे ईश्र्वर का ज्ञान होता है | मनुष्य को ईश्र्वर और जीव के अन्तर को समझना होता है | अतएव भगवान् कृष्ण ने द्वितीय अध्याय में (२.१२) यह कहा है कि प्रत्येक जीव व्यष्टि है और भगवान् भी व्यष्टि हैं | ये सब भूतकाल में व्यष्टि थे, सम्प्रति भी व्यष्टि हैं और भविष्य में मुक्त होने पर भी व्यष्टि बने रहेंगे | रात्रि के समय अंधकार में हमें प्रत्येक वस्तु एकसी दिखती है, किन्तु दिन में सूर्य के उदय पर सारी वस्तुएँ अपने-अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती हैं | आध्यात्मिक जीवन में व्यष्टि की पहचान ही वास्तविक ज्ञान है |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (080)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन

पति ब्राह्मण मारकर आवे या चोरी करके आवे और पत्नी पुलिस से पकड़वावे, यह उचित नहीं है। यदि पति ब्रह्मघाती भी हो, शराबी भी हो, चोर भी होवे, तो स्त्री को अपने पति की सेवा तो करनी चाहिए। माने उसको भोजन देना चाहिए, उसको जल देना चाहिए, उसको सुलाना चाहिए, उसको दवा देनी चाहिए, उसको सम्हालना चाहिए, पत्नी को तो अपने धर्म का पालन करन चाहिए; लेकिन आगे सन्तान भी वैसी न होवे, पतित सन्तान उत्पन्न न होवे- ब्रह्मघाती से, शराबी से, चोर से संन्तान उत्पन्न न होवे- इसके लिए उसको ब्रह्मचर्य से रहकर अपने पति की सेवा करनी चाहिए, उससे सन्तानोत्पादन नहीं करवाना चाहिए, ये इसके संबंध में प्राचीन शास्त्र का निर्णय है। इसलिए भगवान ने कहा-

पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यः स्त्री को अपने पति का परित्याग नहीं करना चाहिए। किसी हालत में भी- यदि वह अपात की होय, पापी न हो, तो और यदि वह पापी हो, तो तलाक नहीं देना चाहिए। वैदिक धर्म में मंत्रोच्चारणपूर्वक धार्मिक विधि से जो संस्कार होता है उसमें परित्याग का विधान नहीं है। पति की सेवा तो करनी चाहिए परंतु उससे शारीरिक संबंध नहीं होना चाहिए। अन्यथा उसका पातकपना संतान में संक्रमित हो जाएगा। परंपरा ही पतित हो जायगी। विवाह धर्म की रक्षा के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए होता है, धर्म के नाश के लिए विवाह नहीं होता-

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो, लोकेप्सुभिरपातकी ।।
अस्वर्गमयशस्यं च फल्गु कृच्छूं भायवहम् ।
जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियाः ।।

यदि स्त्री दूसरे पुरुष के साथ संबंध रखे तो वह स्वर्ग से और यश से वंचित हो जाती है; उसको तुच्छ सुख की प्राप्ति है और नारायण। कष्ट मिलता है, भय मिलता है, निन्दा होती है। इसलिए स्त्री को इस संबंध में बहुत सावधान रहना चाहिए।
गोपियों ने कहा- महाराज! यह धर्म की बात जहाँ मनु का शासन हो, वहाँ करना; हम तो वेणु के शासन में आ गयी हैं, और यह जो तुम्हारा वेणु है, यह राजा वेन का अवतार है, और हम तुम्हारे प्रति प्रेमभाव में मगन होकर के आयी हैं। इसलिए अब अपने मुँह से लौट जाने के लिए मत कहो। +

भगवान ने कहा- ठीक है। गोपियों, तुम्हें हमारे अन्दर भाव ही तो चाहिए ना। तो लो, हम भाव देते हं, भाव का साधन बताते हैं। क्या तुम्हारे गाँव में कोई कथा वार्ता सत्संग होता है कि नहीं? ये तो भगवान विनोद में बोल रहे हैं ना। वे चाहते हैं कि गोपियों के दिल में छिपा जो प्रेम है वह दुनिया के लिए जाहिर हो जाए। जो उस सत्संग में हमारे बारे में, हमारी लीला सुनो, हमारी कथा सुनो, हमारे गुण सुनो।

गोपी बोलीं- हमने तुम्हारी लीला देखी है- माखन-चोरी करते हमने देखा है। अब सुनें क्या? तुम्हारी लीला तो हमलोगों ने अपनी आँखों से देखी है; और तुम्हारी सुन्दरता भी हम लोगों को मालूम है कि काले-काले हो; और तुम्हारे गुण भी हमने देखे हैं। हमारे कपड़े ही चुरा लिए- तो गुण भी बहुत देखे हैं। क्या यही सब सुनने के लिए हम गाँव जायँ? अरे बाबा! हमको तुम्हारे आन्दर कोई गुण, कोई लीला, कोई चीज अच्छी नहीं दिखती। हमको तुम्हारी कोई चीज अच्छी नहीं दिखती। हम तो अपने दिल से बेबस होकर आयी हैं, नहीं तो तुम हमको क्या खींच सकते? अरे तुम्हारे सब लक्षण हमको मालूम हैं, लेकिन फिर भी हमारा दिल नहीं मानता।

देखो, प्रेम की एक यह भी रीति है। आपको इशारे में बताता हूँ। जैसे ये वेदान्ती लोग हैं ना, वे ब्रह्म को निर्गुण कहते हैं, और उसको जानने की कोशिश करते हैं। तो निर्गुण कहना और जानने की कोशिश करना। तो उसको कैसे जानोगे- या तो गुणाधिष्ठान के रूप में जानोगे और या गुणाभाव से उपलक्षित के रूप में जानोगे? गुणी के रूप में ब्रह्म को जानोगे क्या? तो जैसे ब्रह्म के ज्ञान के लिए ब्रह्म का गुण गुणीभाव में होना आवश्यक नहीं है वैसे ही जब प्रेम अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचेगा, तब उसमें प्रियतम में गुण-गुणीभाव का होना आवश्यक नहीं है। भगवान् बड़े दयालु हैं भाई-प्रेम करो। बड़े सुन्दर हैं- प्रेम करो तो जरा चाट लेंगे। कुछ न कुछ स्वार्थ होगा। ++

बिन गुन, यौवन, रूप, धन, बिनु स्वारथ, हित जान।
शुद्ध कामना से रहित प्रेम विशुद्ध महान ।।

बोले- रूप देखकर प्रेम तो आँखों को स्वाद चाहिए, गुन देखकर प्रेम किया, तो मन को स्वाद चाहिए; जवानी देखकर प्रेम किया तो काम है; धन देखकर प्रेम किया, तो लोभ है; कहीं न कहीं स्वार्थ अटक जावेगा, और जब स्वार्थ अटकेगा तो शुद्ध प्रेम नहीं होगा।

गुणरहितं, कामनारहितं- नारदजी ने बताया कि गुण देखकर प्रेम नहीं होता, कामना की पूर्ति के लिए प्रेम नहीं होता। प्रतिक्षणववर्धमानम्- घटता हुआ प्रेम नहीं होता। प्रेम में स्थूलता नहीं होती, प्रेम में द्रष्टा- दृष्यभाव भी नहीं होता, प्रेम अनुभवरूप होता है। तो आप देखो। ज्ञान के लिए जैसा शुद्ध ब्रह्म चाहिए- निर्गुण-निराकार, निर्विशेष, निर्द्वन्द्व- प्रेम के लिए भी प्रियतम वैसा ही चाहिए। प्रेम जिससे होता है उसमें प्रेमगुण की सृष्टि कर देता है। असल में ब्रह्म-ज्ञान में ब्रह्म में ज्ञेयत्व उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर ज्ञेयत्व बाधित हो जाता है। क्षणभर के लिए ज्ञेयत्व उत्पन्न हुआ, वृत्ति-ज्ञान हुआ और अगल क्षण ही मिटा। तो यह जो निर्गुण ब्रह्म की प्रणाली है वही प्रणाली प्रेम की है। प्रेमास्पद स्वरूप से निर्गुण ही है परंतु प्रेम उसमें क्षण-क्षण नये-नये गुणों की दृष्टि करता रहता है और आनन्द का हेतु बनता है-

स्तोत्रं यत्र तटस्थतां प्रकटयच्चित्तस्य धत्ते व्यथां,
निन्दातिप्रमदं प्रयच्छति परिहासश्रियं बिभ्रति ।
दोषेण क्षयतां गुणेन गुरुतां कामप्यनातन्वति,
प्रेम्णः स्वारसिकस्य कस्यचिदियं विक्रीडति प्रक्रिया ।।

प्रेम स्वारसिक है। अरे, यह लोहा जो है वह चुम्बक को खींचता है तो क्या स्वार्थ से खीचता है? और लोहा सोना बन जाएगा क्या इसलिए वह चुम्बक की ओर जाता है? लोहे का स्वभाव है कि वह चुम्बक की ओर खिंचता है। प्रेम का प्रारंभ प्रशंसा से भले होता हो, लेकिन प्रेम के परिपाक में तारीफ का होना जरूरी प्रारंभ प्रशंसा से भले होता हो, लेकिन प्रेम के परिपाक में तारीफ का होना जरूरी नहीं है। अपने प्रियतम की निन्दा सुनकर यदि प्रेम हट जाता है तो तुमने प्रियतम से प्रेम किया है कि उसके गुण से प्रेम किया है?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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