Niru Ashra: 🌲🌻🌲🌻🌲🌻🌲
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 129 !!
रुक्मणी ! मोहे “राधा” कि याद सतावे
भाग 1
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अर्जुन आगये हैं द्वारिका……अर्जुन कि अर्धांगिनी और कृष्ण की बहन सुभद्रा भी इन दिनों यहीं पर हैं ।
शाम को पहुँचे थे द्वारिका ……कृष्ण चन्द्र नें दौड़कर स्वागत किया ।
माथे पर ललिता सखी नें श्रीराधाचरण कि रज लगा दी थी ……कृष्ण नें उस रज को पहचान लिया था………रज लेकर अपनें माथे पर लगाते हुये गदगद् हो रहे थे स्वयं श्रीकृष्ण ।
एकान्त सागर किनारे लेगये अर्जुन को ……”अर्जुन ! क्या पाया ?’ इतना ही पूछा था कृष्ण नें कि, चरणों में ही बैठ गये अर्जुन , वहीं सागर की बालुका में ।
अरे ! ये क्या कर रहे हो अर्जुन ! उठो ………
“सबकुछ पा लिया……अब कुछ पाना शेष नही रहा”…..अर्जुन सजल नयन कह रहे थे ।
ओह ! वो दिव्य निकुञ्ज, नित्य निकुञ्ज , निभृत निकुञ्ज ……निकुञ्ज का नित्य विहार…….सखियाँ ……वहाँ की ऋतुएँ …..सब कुछ युग्म तत्व से भरा है वह निकुञ्ज तो ।
आपके लीलातत्व को भी समझ गया…….आपकी कृपा से हे नाथ ! ललिता सखी जू नें मुझे सारे रहस्य समझा दिए ………..मैं धन्य हो गया हूँ …….मैं कृतकृत्य हो गया हूँ ……..श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा ! देहभान भूल गये अर्जुन …………सामनें कृष्ण चन्द्र हैं यह भी भूल गये …….वो एकाएक उन्मत्त से हो उठे…….फिर हँसनें लगे ………
तुम अकेले ? श्रीराधारानी कहाँ है ?
तुम्हारी अकेले कोई शोभा नही है कृष्ण !……..जब तक तुम्हारे साथ तुम्हारी आल्हादिनी नही हैं……….वहाँ का प्रेम ! अलग ही है …..विशुद्ध प्रेम ………कोई कामना नही ……..बस तुम प्रसन्न रहो ….यही कामना है वहाँ की …………..पर तुम तो मीठे यमुना का किनारा छोड़ इस खारे समुद्र से घिरे द्वारिका में पड़े हो ………..
सुभद्रा वहीं आगयी थीं उसी समय …………अर्जुन की दशा देखी …..तो वह भी चकित हो गयीं ………….
बहन ! अर्जुन को ले जाओ……थका है ये ……विश्राम करनें दो इसे ।
पार्थ ! कल बतियाएंगे ! इतना ही बोले कृष्ण ……..महामन्त्री उद्धव जी साथ में हैं अब ……अर्जुन को भेज दिया है ।
आप आज ज्यादा ही भाव में डूबे जा रहे हैं……..क्या हुआ नाथ !
उद्धव नें भी पूछ लिया ।
कृष्ण चन्द्र नें लम्बी साँस ली ………उद्धव ! अर्जुन श्रीधाम वृन्दावन होकर आया है………इतना ही बोल पाये थे कृष्ण…….आँखें चढ़ गयीं ……साँसें रुक रुक के चलनें लगीं……देह भान ये भी भूल गए ….उद्धव नें सम्भाला…..और महल में रुक्मणी के कक्ष में ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
❤️ राधे राधे❤️
[] Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! अब रति केलि कल्लोल की वेला !!
गतांक से आगे –
इस दिव्य ब्याहुला महोत्सव को समस्त सखियों ने हर्षोल्लास के साथ सुसम्पन्न किया ।
अब सखियाँ युगल सरकार को “रँग निकुँज” में ले आती हैं ….जहाँ सुन्दर शैया बिछी है ….सीधे शैया में ही विराजमान कर देती हैं …..दोनों बिराजे हैं …..इनकी शोभा कोटि कोटि काम को दमन करने वाली है …..कमल की सुगन्ध प्रिया जी के श्रीअंगों से प्रकट हो रही है ….फिर प्रिया जी के अंग की अपनी सुगन्ध भी तो है ….कमल जैसी सुगन्ध ! कोई उपमा नही है ..इसलिए यही कहना पड़ा । आप अगर कमल की गंध लेंगे तो ये कह सकते हैं कि हमारी श्रीकिशोरी जू के अंग की सुगन्ध कुछ कुछ ऐसी ही है …..पर कमल गंध से कहीं ज़्यादा मादक है ….अरे ! दर्शन कीजिए …सुरत शैया में विराजे इन दोउ लालन का । और देखिए ….कैसे खिसक रहे हैं अपनी प्यारी दुलहन के निकट …निकट में ही हैं ….किन्तु इनको तो और निकटता चाहिए …..प्रिया जी के श्रीअंग से निकलने वाली सुगन्ध ने इन्हें मद माता बना दिया है । इन्हीं छोटी छोटी झाँकी का दर्शन बड़ी सूक्ष्मता से सखियाँ करती हैं और अपने भाग को मनाती हैं ।
अनन्त सखियाँ जब इनकी केलि कल्लोल की भावना को समझ जाती हैं …तब अपनी छाती में हाथ रखकर भाव सिन्धु में डूब जाती हैं …..श्याम सुन्दर प्रिया जी की ओर खिसकते हैं …फिर रुक जाते हैं …ताकि कोई सखी ये समझे नही कि ये मिलने को बेचैन हैं । इस तरह सरकते हुए प्रिया जी से ये सट गए हैं , प्रेमियों को लगता है उन्हें कोई देख नही रहा….पर सबकी निगाह उन्हीं पर होती है ….यहाँ भी यही है । अब धीरे से अपने कर प्रिया जी के सुकोमल कर के ऊपर रख दिया है …और कर रखते ही …लाल जू ने अपने नेत्रों को बन्द कर लिया ….प्रिया जी ने तुरंत अपना हाथ हटा लिया क्यों की सखियाँ देख रही थीं …प्रिया जी शरमा गयीं । तुरन्त लाल जू ने अपने नेत्र खोले …और प्रिया जी की ओर प्रश्न वाचक दृष्टि से देखा …तो प्रिया जी ने भी नयनों के संकेत से सखियों को दिखाया , ये बातें इनके नयनों से ही हो रहे हैं । सखियाँ समझ गयीं और पूरा निकुँज हंस पड़ा । प्रिया जी अब मुस्कुराकर नीचे देख रही हैं …नीचे देखते हुए वो धीरे से लाल जू की ओर देखती हैं फिर नयन झुका लेती हैं । आहा ! सखियाँ बलैयाँ ले रही हैं ….
॥ दोहा ॥
बलि-बलि गई सखी सबै, देखि दुहुनि को हेज।
सबै चार करि ब्याह के, बैठाये सुखसेज ॥
ब्याहि बिराजे सेज पर, श्रीहरिप्रिया’ लियें संग ।
हुलसि हुलसि हियें …, बाढ्यौ अति रतिरंग ॥
॥ पद ॥
सेज पर बाढ्यौ अति रति रंग ।
दूलह दुलहनि अलकलडीले अलबेले अँग अंग ॥
नित्यनवीन किसोर लाल दोउ नित्य नवीन अभंग ।
बिलसत बिबिध बिलास बितन के श्रीहरिप्रियाजू के संग ॥ १७० ॥
किन्तु रति रंग में डूबे लाल जू को क्या परवाह कि सखियाँ देख रही हैं ….रति रंग इन्हीं पर चढ़ा है ….इसलिए ये अभी भी प्रिया जू को छूने का प्रयास कर रहे हैं …पर प्रिया जी मना कर रही हैं उनके हाथों को हटाकर ।
हरिप्रिया अपनी सखियों को कहती हैं …अरी ! देखो तो सही कैसे प्रेम में डूबे मत्त लग रहे हैं हमारे श्याम सुन्दर , सखी ! स्पर्श से ही ये देह सुध भूल रहे हैं …जब पूर्ण मिलन होगा तब इनकी क्या दशा होगी । हरिप्रिया के साथ अनन्त सखियाँ बस मुस्कुराकर अपलक इन दोनों को निहार ही रही हैं । तभी लाल जू ने प्रिया जी के हृदय में पड़ी मोती की माला ठीक करी …अब प्रिया जी को रोमांच हुआ …..मोती माला के बहाने हृदय को जो छू लिया था लाल जू ने ।
हरिप्रिया इस झाँकी को निहारकर कहती हैं ..सखी ! ये ब्याहुला आज हुआ है ऐसा नही है …ये तो इनके ब्याहुला की वर्षगाँठ है …किन्तु वर्षगाँठ भी तभी आजाती है जब हम सब सखियों को इनके ब्याहुला मनाने की इच्छा हो । हरिप्रिया आज कम बोल रहीं हैं वो बस इन दोनों को ऐसे ही निहारते रहना चाहती हैं …ये नित्य नवीन हैं …ये दुलहा दुलहन नवीन दम्पति हैं …हैं सनातन जोरी …ये मिले ही रहते हैं ….इनकी लीला भी नवीन रहती हैं …और कभी भंग नही होती है ।
स्वयं सुषमा जिनकी सेवा में है…उनके माधुर्य का कौन वर्णन कर सकता है ।
हरिप्रिया कहती है – ये ऐसे नही लग रहे ….जैसे – अत्यन्त गाढ़ , एवम गूढ़ प्रेम-मोह की शैया पर स्वयं सौन्दर्य और आनन्द साकार होकर विलसने को तैयार हो….अरी सखी ! ये मिले हैं ..मिले रहते हैं ..कभी इनका वियोग हुआ नही , हो सकता नही । फिर भी इनके मन में जो मिलन की लालसा है …वो अत्यंत तीव्र है । अभी तो इनकी शोभा खिली कहाँ है ! हरिप्रिया ने मंद मुस्कुराते हुए कहा । वस्त्र आभूषणों ने इनके माधुर्य पूर्ण अंगों की सुन्दरता को ढँक जो दिया है ……सुन्दरता क्या है , माधुर्य क्या है ….ये तो आज दिखाई देगी सखी !
हरिप्रिया के मुख से ये सुनते ही सखियाँ उन्मद हो उठी थीं ।
क्रमशः….
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (081)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन
जो सौन्दर्य से प्रेम करेगा, जो मीठी वाणी से प्रेम करेगा, जो सुगन्ध से प्रेम करेगा, उसका प्रेम एक दिन टूट जाएगा। कभी सुगंध की जगह शरीर में दुर्गन्ध निकले, कभी मीठी वाणी की जगह कड़वी वाणी निकले, कभी आँख प्रेमभरी होने की जगह कड़वी निकल आयी, तो कभी उदारता की जगह कंजूसी निकल आये, तो क्या प्रेम छूट जावेगा?-
दोषेण क्षयतां गुणेन गुरुतां कामप्यनातन्वति-
दोष से प्रेम घटता नहीं और गुण देखकर प्रेम बढ़ता नहीं, जैसे ज्ञान एकरस होता है वैसे प्रेम भी एकरस होता है।
एष नित्यो महिमा ब्रह्मणस्य न कर्मणा वर्धतं…………..।
कर्म से ज्ञान बढ़ता नहीं, और कर्म से ज्ञान घटता नहीं। गुण से प्रेम बढ़ता नहीं और अवगुण से प्रेम घटता नहीं। प्रेम्नः स्वारसिकस्य प्रेम स्वरस है, आत्म-रस है, आत्मानन्द है। जैसे सूर्य प्रकाश फेंकता है, जैसे चंद्रमा चाँदनी फेंकता है, जैसे गुलाब के फूल में से सुगन्ध निकलती है, वैसे प्रेमी के हृदय में से प्रेम की वर्षा होती है, प्रेम की सुगंध निकलती है, प्रेम का रस निकलता है। प्रेमी के हृदय में से, प्रियतम के हृदय में से नहीं। प्रेमी के हृदय में से प्रेम का सौरभ, प्रेम का सौरस्य, प्रेम का सौन्दर्य, प्रेम का सौकुमार्य, प्रेम का सौहृद्य, प्रेमी के हृदय में से निकलता है और प्रियतम पर छा जाता है। प्रेमी के हृदय में प्रेमानन्द का प्रकाश होता है और वह संपूर्ण प्रपञ्च को अपने प्रकाश से घेर लेता है। तो नारायण, गुण देखकर, रूप देखकर, यौवन देखकर, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए, प्रेम नहीं होता। प्रेम तो निर्गुण को सगुण बनाने की प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही जैसे ज्ञान सगुण को निर्गुण बनाने की प्रक्रिया है। ज्ञान माने सगुण को निर्गुण बनाने की प्रक्रिया, और प्रेम माने निर्गुण को सगुण बनाने की प्रक्रिया। तो महाराज। वस्तुप्रधान ज्ञान होता है और कर्तृप्रधान प्रेम होता है। प्रेम करने वाले के हृदय में रहता है और निर्गुणता उसमें रहती है जिसका ज्ञान होता है। +
‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन
इति विप्रियमाकर्ण्य,………संरम्भगद्दगिरोब्रुवतानुरक्ताः
श्रीशुक उवाच
इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम् ।
विषण्णा भग्नसंकल्पाश्चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ।।
कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्-
बिम्बाधराणि चरणेन भुवं लिखन्त्यः ।
अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुकुंमानि
तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ।।
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं
नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किंचित्-
संरम्भगद्गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ।।
अब अपने मन को फिर एक बार वहाँ ले चलो जहाँ हैं श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी, नन्दनन्दन और चाँदनी रात में शीतल मंद सुगन्धित वायु बह रही है और मन्द-मन्थर गति से सुन्दर यमुनाजी बह रही हैं। बालू का ज्योतिर्मय सुन्दर यमुना-पुलिन है, हरा-भरा वन है और गोपियाँ चारों ओर से श्रीकृष्ण को घेरे हुए हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- हाँ गोपियों। समझ गया तुम बड़े भाव से आयी हो, ईश्वर करे तुम्हारा भाव बढ़ता रहे। भक्त का भाव कैसे बढ़े? भगवान् ने कहा कि इसमें शारीरिक मिलन की कोई जरूरत नहीं है। गोपियों! लौट जाओ अपने घर और वहाँ जाकर सब मिलकर एक पंडित अपने घर में बुलाओ और हमारी कथा का श्रवण प्रारंभ कर दो। देखने को बहुत मन हो तो अपने घर में तस्वीर रख लो, भाव बढ़ जावेगा, ध्यान में दर्शन कर लो, भाव बढ़ जावेगा। और कहो कि ध्यान-वान हमारे नहीं लगता, ऐसी बला हमको नहीं चाहिए, तो अच्छा, बाबा! कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण हमारे नाम का कीर्तन करो, तुम्हारा भाव बढ़ जावेगा। ++
अब गोपियों से यह कहना कि अब वे हमारे पास न रहें, घर में जाकर भजन करें, कीर्तन करें, दर्शन करें, श्रवण करें- यह तो दूरके लोगों के लिए बात है, निकट के लोगों के लिए नहीं है। श्रवण करने से भगवान् मिलते हैं, सो तो ठीक है परंतु जिनको भगवान् नहीं मिले हैं, वे श्रवण करें। गोपी तो भगवान् से ऐसी मिली हुई हैं कि एक गोपी श्रीकृष्ण से अपनी सखी की प्रेमदशा का वर्णन करती हुई कहती हैं-
दूरादप्यनुसंगतः श्रुतिमिते त्वन्नामधेयाक्षरे ।
बालेयं मदिरेक्षमा धत्ते मुहुर्वेपथुम् ।।
श्यामसुन्दर! हमारी सखी का क्या हाल है, क्या दशा है कि कहीं कोई कृष्ण कमल, कृष्ण भ्रमर, कृष्ण मेघ, कृष्ण जल दिख जाता है या दूर से कृष्ण शब्द कान में पड़ जाता है तो कृष्ण शब्द का एक अक्षर ‘कृ’ सुनते ही वह बड़े जोर से चिल्लाने लगती हैं और शरीर में कंपन होने लगता है, शरीर में रोमांच होने लगता है।
श्यां कंचनकाञ्चनोज्ज्वलपटं, संदर्श्य निद्राक्षणम् ।
मामाजन्म सखि विमुच्य चलिता रुष्टैव नावर्तते ।।
श्यामसुन्दर! हमारी सखी को एक क्षण के लिए नींद आयी, और नींद में उसको एक पीताम्बरधारी, साँवरे-साँवरे, किशोर का दर्शन हुआ; और फिर हमेशा के लिए वह नींद दूर हो गयी। यदि तुम चाहते हो कि हमारी सखी का हित हो, तो ऐसी कोशिश करो कि उसको वही नींद फिर आवे, और वही सपना फिर हो, और सपने में वही चोर फिर मिले। यदि वही नींद उसको फिर नहीं आवेगी तो उसे अब कोई लौटा नहीं सकता।
मान्यः स्वात्मिकतस्करोपहरणे सक्तोजनस्तां विना ।
श्रीशुकदेवजी महाराज कहते हैं- ‘इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम्’ गोपियों ने गोविन्द की विप्रियवाणी सुनी, सुनकर के विषादग्रस्त हो गयीं, उनका संकल्प टूट गया और दुरत्यय चिनता-संताप का उनके हृदय में प्रदाह होने लगा।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 18
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विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
श्रुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || १८ ||
विद्या – शिक्षण; विनय – तथा विनम्रता से; सम्पन्ने – युक्त; ब्राह्मणे – ब्राह्मण में; गवि – गाय में; हस्तिनि – हाथी में; शुनि – कुत्ते में; च – तथा; एव – निश्चय ही; श्र्वपाके – कुत्ताभक्षी (चाण्डाल) में; च – क्रमशः; पण्डिताः – ज्ञानी; सम-दर्शिनः – समान दृष्टि से देखने वाले |
भावार्थ
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विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं |
तात्पर्य
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कृष्णभावनाभावित व्यक्ति योनि या जाति में भेद नहीं मानता | सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मण तथा चाण्डाल भिन्न-भिन्न हो सकते हैं अथवा योनि के अनुसार कुत्ता, गाय तथा हाथी भिन्न हो सकते हैं, किन्तु विद्वान् योगी की दृष्टि में ये शरीरगत भेद अर्थहीन होते हैं | इसका कारण परमेश्र्वर से उनका सम्बन्ध है और परमेश्र्वर परमात्मा रूप में हर एक के हृदय में स्थित हैं | परमसत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक (यथार्थ) ज्ञान है | जहाँ तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों में शरीर का सम्बन्ध है, भगवान् सबों पर समान रूप से दयालु हैं क्योंकि वे प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं फिर भी जीवों की समस्त परिस्थितियों में वे अपना परमात्मा स्वरूप बनाये रखते हैं | परमात्मा रूप में भगवान् चाण्डाल तथा ब्राह्मण दोनों में उपस्थित रहते हैं, यद्यपि इन दोनों के शरीर एक से नहीं होते | शरीर तो प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न हुए हैं, किन्तु शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं | परन्तु आत्मा तथा परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होता है, किन्तु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान् तथा समदर्शी होता है | आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्र्वत तथा आनन्दमय हैं | किन्तु अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है | परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है |


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