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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!
“तत् सुखे सुखित्वम्” – प्रेम की अद्भुत कहानी
भाग 1
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सुबह की वेला हुई ………स्नानादि से तो कब के निवृत्त हो गए थे द्वारिकाधीश…….बैठे थे ध्यान की मुद्रा में……..
किसका ध्यान ? वज्रनाभ नें आज प्रश्न किया ।
महर्षि शाण्डिल्य सहज भाव से बोले …..अपनी “आल्हादिनी” का ।
ध्यान बंटा कृष्ण चन्द्र जू का ……..बाहर रुक्मणी धीमी आवाज में अन्य रानियों को रात्रि की बात बता रही थीं ……..
आर्यपुत्र “राधा राधा राधा”….कर रहे थे ……. हे मित्रविन्दा ! बताओ ना ! ऐसा क्या है उस राधा में…….जो हम में नहीं ………हम तो राजघरानें की हैं ……और वो एक गोप कन्या ?
अच्छा ! पता है……..रात भर इनके रोम रोम से वही नाम – राधा राधा राधा ….निकल रहा था…….मुझ से तो सहन न हुआ .।
रुक्मणी मात्र मित्रविन्दा को ही नही बता रही थीं ………सब थीं वहाँ …..सारी कृष्णपत्नीयाँ वहीं उपस्थित थीं ….और सब सुन रही थीं ।
भीतर कृष्ण चन्द्र ध्यान में बैठे हैं………पर ध्यान टूट गया, ……..योगेश्वर का ध्यान टूटता ? पर “राधा” हैं ही ऐसी …….कि योगेश्वर का ध्यान ही तुड़वा दिया ।
और ये लीलाधारी तो हैं हीं………मुस्कुराते हुए शुरू कर दी लीला ।
हमसे कैसे श्रेष्ठ है राधा ! हो ही नही सकता ………..रुक्मणी ही ज्यादा मुखर थीं ……बोले जा रही थीं ।
ओह ! आह ! आह !
एकाएक कराह उठे थे द्वारिकाधीश ।
रुक्मणी नें सुना………वो दौड़ीं ………अन्य सब रानियाँ भी दौड़ीं ।
नाथ ! क्या हुआ ? बताइये ना ?
रुक्मणी ! असह्य पीड़ा हो रही है पेट में……..पेट को दवाकर बोल रहे थे द्वारिकाधीश ।
रानियों नें पकड़ा कृष्ण चन्द्र को ……..और कक्ष में ले गयीं ……..जाते ही लेट गए थे कृष्ण चन्द्र ।
राजवैद्य आये…….उदर छू कर देखा ……….खान पान के बारे में रुक्मणी से पूछा ……..रुक्मणी नें सब बताया ……………
औषध दी तो राजवैद्य नें ………..पर दो घड़ी बीत गए ……..उदर व्याधि जस की तस बनी हुयी है………बस कराह रहे हैं ।
वायु गति वाले अश्वों में सवार होकर ………कौडिन्यपुर से एक वैद्य रुक्मणी नें भी बुलवा लिया था………उसनें भी देखा …….औषध भी दी …..पर कुछ असर नही हुआ……..कहा था वैद्य नें मात्र कुछ क्षण में इन्हें आराम मिलेगा ……..पर नही ।
रुक्मणी ! क्या करूँ दर्द बढ़ता ही जा रहा है ……….
रुक्मणी भी घबडा गयीं…….अश्विनी कुमारों का आव्हान किया भगवती रुक्मणी नें……अब रुक्मणी जी बुलावें और अश्विनी कुमार अगर आगये तो आश्चर्य क्या ? लो आगये देवताओं के वैद्य ………उन्होंने नें भी उदर छूकर देखा …….और कुछ जड़ी बूटी दे दी ….और वे भी गए …….पर घड़ी भर बीतनें पर भी पीड़ा कम नही हुयी …….ये सबसे बड़ा आश्चर्य था…….अश्विनी कुमारों नें भी सुना – कि द्वारिकाधीश की उदर पीड़ा शान्त नही हुई……..वो तत्क्षण चल दिए थे……..
पर मार्ग में मिल गए उन्हें देवर्षि नारद ।
हे वज्रनाभ ! नारद जी भगवान के मनावतार हैं …..यानि भगवान के मन ही हैं नारद ।
तुमसे कुछ न होगा……..तुम लोग जाओ अपनें स्वर्ग में ……….मैं उपाय करता हूँ ……ये कहते हुए देवर्षि नारद द्वारिका में पहुँच गए थे ।
आप सभी रानियाँ कक्ष से बाहर जाएँ …….मैं भगवान वासुदेव से कुछ पूछना चाहता हूँ……तभी तो इनका उपचार होगा……नही तो देखो कैसे कराह रहे हैं……..देवर्षि नें महल में आते ही रानियों को पहले हटाया उस कक्ष से……..फिर धीरे से बोले …….क्या आज्ञा है लीलाधारी ! हँसे ये कहते हुए ।
उदर में पीड़ा बहुत हो रही है नारद ! पता नही क्यों ?
आपको पता नही ? नारद जी मुस्कुराये……….
चलिये ! अब यही बता दें कि इस रोग की दवा क्या है ?
क्यों की अश्विनी कुमार तक नही समझ सके इस रोग को ……तो उनसे बड़ा वैद्य तो मिलनें से रहा ……इसलिये बता ही दीजिये …मेरे कान बता दीजिये ……..कि इसकी औषध क्या है ?
कराहते हुए बोले कृष्ण चन्द्र – अब एक ही उपाय है ………मेरा कोई “प्रेमी” अगर अपनी चरण धूल मुझे दे दे …..और उसे मैं अपनें उदर में लगा लूँ ………तो ठीक हो जायेगी मेरी यह पीड़ा ।
तो प्रेमी !
नारद जी सोचनें लगे – और उस प्रेमीभक्त को अपनी पैर धूलि देनी है आपको ………यही ना ? नारद जी कुछ देर सोचते रहे …..फिर बोले …….प्रेम तो आपको यह रानियाँ भी करती हैं ……तो क्यों न इनसे ही माँग लूँ …….इनके पाँव की रज ।
कन्धा उचका दिया था कृष्ण नें ………….देख लो नारद ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🦚 राधे राधे🦚
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! सखी ! ये दोउ एक हैं !!
गतांक से आगे –
प्रेम वो है जिसमें मत्तता की उष्मा है , उसका माधुर्य स्वयं प्रकट होता रहता है । प्रेम रस है …किन्तु ये अनेक रसों में अपने आपको विभक्त भी कर लेता है ……ये है एक ही …किन्तु दो हो जाता है …फिर ये इन प्रयासों में लगता है कि ये दो एक हों । एक हो जाते हैं तो फिर दो होने की केलि ….ये केलि प्रेम ही करता है । एक प्रेम ही अनेक होकर भासित होरहा है ….फिर अपने को समेटना भी आरम्भ कर देता है । श्रीमहावाणी में इस बात को बड़ी स्पष्टता से बताया गया है कि …..जब निभृत निकुँज में प्रिया प्रियतम एक होने लगते हैं …तब ये समस्त सखियाँ भी कुँज रंध्र से देख देखकर इनमें ही समा जाती हैं …..तब निभृत निकुँज में कोई नही बचता ….न श्याम न श्यामा न सखी , बस प्रेम तत्व ही अकेला रह जाता है । ये उसी का ही विलास है ।
अब चलिये – विवाह के उपरान्त सुरत सेज में विराजे दुलहा दुलहन को थोड़ा निहारिये …….लाड़ कीजिए , कितने प्यारे हैं और अपने हैं , नहीं नहीं यही अपने हैं ।
॥ दोहा ॥
तिन तोरति गावति गुननि, प्रभा निरखि जोऊज ।
कहत प्रान के प्रान ए, रंगभीने दोऊज ॥
दोउ रसिक दोउ सरस सुख, दोउ रूप के धाम ।
दोउ दोउन के अँग अंग, भीने हो रँग स्याम ॥
॥ सोहिलौ ||
रंगभीने हो अँग अंग स्याम । दोऊ रसिक दोऊ रूपधाम ॥
दोऊ सरस दोउ सुख सहेलि। दोऊ प्रेम-आनंद-वेलि ॥
दोऊ दोउन के उरनि-हार। दोऊ दोउन के चिमतकार ॥
दोऊ दोउन के लड़े लाड़। दोऊ दोउन के चितैं-चाड़ ॥
दोऊ दोउन के रति मनोज । दोउ दोउन के चित के चोज ॥
दोउ दोउन के जीवन जीय। दोउ दोउन के प्यारी पीय ॥
दोऊ दोउन के कमलनैंन । दोऊ दोउन के चैंन ऐन ॥
दोऊ दोउन की बनी बाल। दोऊ दोउन के ललित लाल ॥
दोऊ दोउन के कवन अंग। दोऊ दोउन के सहज संग ॥
दोउ श्रीहरिप्रिया एक प्रान। दोऊ दोउन के सहज त्रान ॥१७३ ॥
हरिप्रिया सखी जो अति मदमत्त हैं …..अभी ब्याहुला सुसम्पन्न हुआ ही है …..सुरत सेज पर सखियों ने इन्हें विराजमान किया है ….अष्ट सखियाँ सब सेवा में जुटी हैं …कोई चँवर ढुरा रही हैं तो कोई बीरी बनाकर युगलवर को दे रही हैं तो कोई वीणा बजा कर दम्पति किशोर को रिझा रही हैं ….मृदंग की थाप पर अन्य सखियाँ सब नृत्य कर रही हैं …..कोई पुष्प उछाल रहा है …तो कोई इत्र की फुहार चला रहा है ……इस वेला में हरिप्रिया अति मदमत्त हैं ।
हरिप्रिया सखी एक गीत पूरी होती नही कि अवनी से एक तिनका उठाती हैं और दम्पति के ऊपर घुमा तोड़ कर फेंक देती हैं …यही कर रही हैं आज । और अपनी सखियों से कुछ न कुछ बोलती ही जा रही हैं …..अति मत्तता में व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही बोलने लग जाता है …..अब ये सखी हैं ….कोई ऋषि या मुनि तो नहीं कि मौन होकर अपने में ही खो जायें …ना जी! ये तो निकुँज में करना ही नही है ।
ये दोनों एक दूसरे के प्राण हैं …और प्रेम रँग में रँगे ही रहते हैं …अरी सखियों ! देखो तो इनके अंग प्रत्यंग …कैसे रोमांचित हो रहे हैं ….ये मिलना चाहते हैं ….मिले ही हैं …किन्तु अब एक होना चाह रहे हैं …ओह ! कैसे प्रेम रँग में पूरी तरह से रँग गए हैं ….सखी ! गीत गाओ …इन्हें रिझाओ ।
हरिप्रिया उन्मत्त होकर कहती हैं ।
ये दो देख रही हो ना सखी ! ये दोनों ही रसिक हैं ….यानि रस से भरे हैं ….और रूप-सौन्दर्य के धाम है …..दोनों रस से ही बने हैं ….इनके अंग प्रत्यंग रस से ही निर्मित हैं । प्रेम और आनंद की बेलि हैं ….इनके निकट जो रहेगा वो प्रेम पाएगा और आनंद मग्न रहेगा । दोनों एक दूसरे के हृदय हार हैं …..एक के बिना एक का अस्तित्व ही नही है । दोनों प्राण के प्राण हैं …और जीवन के जीवन हैं । हरिप्रिया बोलती जाती हैं ….और बोलते बोलते इतनी मग्न हो जाती हैं कि अब गीत बन्द हो गये ….सब सखियाँ हरिप्रिया को सुन रही हैं ….किन्तु हरिप्रिया को भान ही नही है ।
हे सखियों ! ये दोनों एक दूसरे के चित्त को चुराते हैं ….दोनों एक दूसरे के लाड़-लड़ैते हैं ….दोनों के सौन्दर्य को देख कर नही लगता कि …कामदेव और रति यही हैं । फिर हरिप्रिया कहती हैं …कोई उपमा है नही इसलिए ये उपमा मैंने दी । नही तो कोटि कोटि कामदेव और रति इनके चरणों में लोटते रहते हैं । ये दोनों एक दूसरे के लिए प्राण-प्यारे ….ये दोनों कमल नयन ..आहा ! आज दुलहा दुलहन बने हैं …..ये जोरी तो विश्व ब्रह्माण्ड में अनूठी है सखी ! हरिप्रिया उन्मादी बन कर बोलती जाती हैं …उसकी बातों से सारी सखियाँ गदगद हो उठी हैं । तुम्हें पता है सखियों ! ये दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं ….यानि एक दूसरे को सुख देने के लिए ये बने हैं ….यही सच्चे जीवन साथी हैं …..कहना ही होगा कि ये दोनों – एक प्राण दो देह हैं ।
ये कहते ही हरिप्रिया का रोम रोम पुलकित हो उठा था । वो बस अपने नयनों से निहारे जा रही थी और उसका हाथ अपनी छाती में था …वो Niru Ashral
महर्षि शाण्डिल्य सहज भाव से बोले …..अपनी “आल्हादिनी” का ।
ध्यान बंटा कृष्ण चन्द्र जू का ……..बाहर रुक्मणी धीमी आवाज में अन्य रानियों को रात्रि की बात बता रही थीं ……..
आर्यपुत्र “राधा राधा राधा”….कर रहे थे ……. हे मित्रविन्दा ! बताओ ना ! ऐसा क्या है उस राधा में…….जो हम में नहीं ………हम तो राजघरानें की हैं ……और वो एक गोप कन्या ?
अच्छा ! पता है……..रात भर इनके रोम रोम से वही नाम – राधा राधा राधा ….निकल रहा था…….मुझ से तो सहन न हुआ .।
रुक्मणी मात्र मित्रविन्दा को ही नही बता रही थीं ………सब थीं वहाँ …..सारी कृष्णपत्नीयाँ वहीं उपस्थित थीं ….और सब सुन रही थीं ।
रुक्मणी ! क्या करूँ दर्द बढ़ता ही जा रहा है ……….
🦚 राधे राधे🦚
] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (084)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन
गोपियाँ घर से निकलीं तो एक-एक कर निकलीं, आज कोई सलाह तो की नहीं और एक दूसरे को छिपा-छिपाकर ही आयीं और यहाँ सब घर से भागती-भागती श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयीं। तब तक उनको मालूम नहीं था कि यहाँ सभी मौजूद हैं। यह ख्याल था कि यहाँ अकेली आयी हैं, दूसरी कोई आयी नहीं है। श्रीकृष्ण ने जब झुण्ड का झुण्ड देखा तो बोले- ‘स्वागतम्वो महाभागाः महाभाग्यवानों, आपका स्वागत है। गोपी ने कहा अरे, यहाँ तो मेरे सिवाय और बहुत सारी आयी हैं; तो एक दूसरे को देखकर तुरंत हमारा मुँह लटक गया है कि सखी, हमने तुमने छिपाया, सखी, हमने छिपाया; सखी, हमने तुमसे छिपाया। किसी-किसी को यह ख्याल हुआ कि ये हमारे होंठ जो हैं वे पके बिम्बाफल के समान लाल हैं, तो कहीं हमारा बिम्बाफल देखकर इनकी बुद्धि शायद बिगड़ गयी हो, तो जरा मुँह को लटका लें सखी, इनकी आँख के सामने न जायँ तो ठीक है।
किसी ने कहा कि हमारे मुख चंद्रमा हैं और इनका मुख कमल है। तो चंद्रमा के उदित होने से कमल संकुचित हो जाता है। हम लोग चंद्रमुख यहाँ पर आ गयीं। इसी से इनका मुखकमल शायद संकुचित हो गया है, इसलिए हम अपना मुँह नीचे लटका लें, तो कमल फिर खिल जाएगा। इस तरह से गोपियाँ तरह-तरह की बात अपने मन में सोचने लगीं।’
‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’- जब आदमी को चिन्ता होती है तब बायें पाँव के अँगूठे से धरती खुरचने लगता है, यह स्वभाव है। मनुष्य के मन में जब खुशी आती है तब उसके चेहरे पर दूसरे लक्षण दिखने लगते हैं और जब दुःख आता है तब दूसरे लक्षण होते हैं। जब चिन्ता आती है तब दूसरे लक्षण होते हैं। मनुजी कहते हैं कि आकार, इशारे, गति, चेष्टा, भाषण, नेत्र और वाणी के विकारों को देखने से मालूम पड़ जाता है कि मनुष्य का अंतर्मन कैसा है।
आकारैः इंगितैः गत्या चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ।।
गोपियों के मन में इस समय क्या है? बोले- दुःख का अनुभव प्रकट हो रहा है। कैसे?– ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ वे अपने पाँवों से धरती खोद रही हैं मानो कहती हैं कि धरती! तू फट जा! तेरे अंदर समा जायँ। यदि कृष्ण ने हमें स्वीकार नहीं किया तो धरती पर हम रहकर क्या करेंगी?-
‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ चरण से चिह्न बना रही हैं। बोली- हे कृष्ण। हम तो मर जावेंगी, लेकिन कल जब लोग आवेंगे तो जो हम पाँव से धरती पर लिख रहे हं इसको देखेंगे- ‘लिखित्वा साक्षते’ फिर यह सुनहले अक्षरों में लिखा जावेगा कि श्रीकृष्ण की प्रेमिका गोपियाँ श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल हो कर मर गयीं। इतिहास की सामग्री हो जावेगी और बड़ी बदनामी होगी तुम्हारी? ये तो भाई देखो श्रीकृष्ण और गोपी एक दूसरे से मिले हुए हैं। ये तो मिलीभगत है उनकी। ये कहें कि लौट जाओ वह भी मिलीभगत है और इनका रोना-धोना जो है वह भी मिली-भगत है।
कहते हैं कि – ‘हम तुम एक कुञ्ज के सखा रूठे नाहि है बनत।’ हम- तुम तो एक कुञ्ज के सखा हैं, रूठने से नहीं बनता है। ये जो करते हैं, लीला करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि संसार में जो दूसरे लोग होंगे उनके हृदय में भी वियोग का भाव उदय हो, श्रीकृष्ण के प्रति रसमयी वृत्ति का उदय हो, भक्ति ऐसी करनी चाहिए लोग यह बात समझें। इसलिए गोपियों की कृष्ण की मिली भगत हैं, यह संयोग-वियोग की लीला।
*प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं *
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव……मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसेन शुष्यद् बिम्बाधराणि चरणेन भुवं लिखन्त्यः ।
अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुंकुमानि तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ।।
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभषमाणं कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।
नेत्रे विमृज्य रुदितो पहते स्म किञ्चित्संगरम्भगद्नदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ।।
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तवपादमूलम् ।
बचपन में हमको एक महात्मा ने योग सिखाया था। इसका नाम उन्होंने राजयोग बताया था। उन्होंन कागज पर एक छोटा सा घेरा बनाया और उसके भीतर एक बिन्दी बना दी; और उसके बाद के घेरे में छोटे-छोटे हजारों-सैकड़ों बिन्दु बना दिए। फिर उन्होंने उन छोटे-छोटे बिन्दुओं से एक रेखा खींची जो बाहर को जा रही थी। बोले-देखो, यह बड़ा बिन्दु तो अहम् है और ये जो छोटे-छोटे बिन्दु हैं ये वृत्तियाँ हैं; और यह जो बाहर को जाना है यह इन वृत्तियों का विषयों की ओर जाना है। इसके बाद एक दूसरी तस्वीर बनायी। उसमें बीच में बिन्दु बड़ा और उसके चारों ओर छोटे-छोटे सैकड़ों बिन्दु वैसे ही थे, परंतु वह जो रेखा पहले बाहर की ओर निकलती थी उसको बाहर न ले जाकर भीतर की ओर, बड़े बिन्दु की ओर खींची गयी थी। तो बोले- देखो, जो यह बड़ा बिन्दु है वह तो अहं है और ये जो वृत्तियाँ हैं वे सब की सब चलकर अहं की ओर जा रही हैं। तो उन्होंने बताया कि यह ध्यान करना कि बड़े केंद्र के बीच में अहं बिन्दु के रूप में मैं बैठा हूँ और सारी वृत्तियाँ मेरी ओर दौड़ रही हैं। अब वृत्तियाँ जब मुझको विषय करने के लिए आयीं तो संसार की ओर तो उनकी पीठ हो गयी और हमारी ओर उनका मुँह हो गया। लेकिन अब यह सोचो कि मैं उनको विषय कर रहा हूँ कि वे मुझको विषय कर रही हैं?
नारायण, तो ये सब वृत्तियाँ मुझको विषय नहीं कर सकतीं, न एक-एक करके अलग-अलग विषय कर सकती हैं और न सब मिलकर विषय कर सकती हैं। एक अन्धा जिस चीज को नहीं देख सकता, सौ अन्धे भी मिलकर उस चीज को नहीं देख सकते। तो इसका नाम है अध्यात्म।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 22
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ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||
ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य |
भावार्थ
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बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |
तात्पर्य
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भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है | मुक्तात्मा किसी नाशवान वास्तु में रूचि नहीं रखता | दिव्या आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि |
इति राम पदे नासौ परं ब्रह्मा भिधीयते ||
“योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है |”
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये |
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ||
“हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है | ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है | इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में ताप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको |”
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं | वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं..


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