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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!
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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!
सौ वर्ष बाद….
भाग 1
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मैं गया था आज नन्दभवन में ……नन्दराय से मुझे विशेष चर्चा करनी थी…….मैं प्रसन्न था …….हाँ कृष्णचन्द्र के गए आज सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं…….सौ वर्ष में क्या नही सहा इस वृन्दावन नें ……यहाँ के गोपों नें …..गोपिकाओं नें ……श्रीराधा नें , उनकी सखियों नें ।
सौ वर्ष इनके ऐसे ही नही कटे हैं………पल पल इनके वर्षों के समान गुजरते थे …….मुझ से देखा नही जाता था इन लोगों का दुःख ……..इसलिये मैने आना जाना बन्द कर दिया……..हाँ नन्दराय जी तो नित्य ही आजाते थे मेरी कुटिया में …….कभी कभी बरसानें के अधिपति बृषभान जी भी आते…….ग्वाल बाल आते तो थे …….पर अपना हाथ दिखानें…..और हाथ आगे करके पूछते…..महर्षि ! हमारा कन्हैया कब आएगा ? अब मैं इन भोले भाले ग्वालों से क्या कहता ।
हाँ बरसानें से चार बार ललिता सखी आईँ थीं …………
उन्होंने भी पूछा था ……..तो मैने उन्हें कहा ……सौ वर्ष का वियोग प्राप्त हुआ है बृज, गोप और गोपियों को ।
रोते हुए चली गयी थीं ललिता सखी ………..सिर चकरा रहा है सौ वर्ष की बात सुनकर महर्षि ! यही कहती गयी थीं ।
मैं शाण्डिल्य , आज प्रसन्न हूँ………….वियोग इस वृन्दावन को तो था ही ……पर मैं भी कैसे इस विरहाग्नि की लपटों से बच जाता ।
मैं कोई पुरोहित कृत्य करनें वाला पण्डित तो नही ही था ………
महर्षि शाण्डिल्य …………..मैं अपनें साधन – भजन में लीन रहनें वाला …एकान्तप्रिय व्यक्ति ………….हाँ भाव को ही मैने जीवन में महत्व दिया …….भाव है तो सब है …..भाव नही है हृदय में ….तो कुछ नही है ।
अब हे वज्रनाभ ! तुम ही विचार करो ……अत्यन्त भावुक हृदय वाला व्यक्ति भला कर्मकाण्ड जैसे नीरस विषय में जाएगा !
पर विधाता ब्रह्मा नें आज्ञा दी ……….”तुम्हे बृज के ग्वालों का पुरोहित बनना है”……..ये कार्य मुझे प्रिय नही था ……..पर मैं विधाता को मना भी कैसे करूँ ! और जब मैने कारण पूछा ……….तब उन्होंने जो बताया था , मैं तो उछल पड़ा ख़ुशी के मारे ।
इस वंश में परब्रह्म श्रीकृष्ण अवतरित हो रहे हैं ।
आहा ! इस सौभाग्य के लिये तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ ……….फिर ये तो पुरोहित की बात है ……….
इतना ही नही महर्षि शाण्डिल्य !
ब्रह्म की आल्हादिनी भी इस लीला में प्रकट होंगी ।
विधाता ब्रह्मा नें मुझे ये सौभाग्य प्रदान किया था ।
पर मात्र साढे ग्यारह वर्ष तक ही … परमानन्द की अनुभूति मिली …..कृष्ण इतनें वर्ष तक ही रहे वृन्दावन में ………इसके बाद तो एक विरह………दीर्घकालीन वियोग …..सौ वर्षों का वियोग ।
पर सौ वर्षों तक मैने भी अपनें इन भोले भाले यजमानों को कहाँ छोड़ा ?
इनके साथ मैं भी विरहातुर हो ………अश्रु बहाते रहा ।
संकट के समय पुरोहित अगर अपनें यजमान को छोड़कर चला जाता है तो वह पाप का भागी बनता है…….वैसे मैं तो वज्रनाभ ! इस श्रीधाम वृन्दावन की भूमि को अब त्याग ही नही सकूँगा ……..मेरे लिये सारे तीर्थ, धाम, पुरी यहीं वृन्दावन में ही हैं ।
इन्हीं सबका विचार करते हुए – नन्दभवन में पहुँचे थे महर्षि शाण्डिल्य ।
आप पधारे महर्षि ! मुझे बुलवा लिया होता ………..
नन्दराय नें बड़े प्रेम से उच्च आसन में विराजमान कराकर, अर्घ्य पाद्यादि से चरण पूजन किया ।
कैसे मेरे ऊपर कृपा की आपनें ? नन्दराय हाथ जोड़ते हुए रो गए ।
वृद्ध हो गए हैं………कृष्ण जिन्हें “बाबा बाबा” कहते हुए थकता नही था …….आज उनको सुनाई कम देता है…….थोडा झुक गए हैं नन्दबाबा, ..मुखारविन्द में अब झूर्रियाँ ज्यादा ही दिखाई दे रही हैं नन्दबाबा के ।
हे नन्दराय जी ! मैं आपको एक अत्यन्त शुभ सूचना देनें आया हूँ ………आप ध्यान से सुनें ……..हे नन्दराय जी ! पुरोहित का एक ही कार्य है कि – जैसे भी हो पुण्यों के कार्यों को, यजमानों के हाथों कराते रहना चाहिये ……….
इसलिये मै आपके पास आया हूँ…….और मुझे विश्वास है कि आप मुझे भी अपनें साथ ले जायेंगें ……..ये बात सहजता में बोली थी महर्षि नें ।
उत्साह नही है अब नन्दराय में……..महर्षि की बातें सुनीं ……..प्रणाम किया ………और विनम्रता से बोले – महर्षि ! अब किन्हीं कार्यों में विशेष मन नही लगता…….लगता है ……..तुलसी की माला ही फेरता रहूँ ….या अपनें नारायण भगवान के ध्यान में ही डूबा रहूँ……बस ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🙇♂️ राधे राधे🙇♂️
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मैं गया था आज नन्दभवन में ……नन्दराय से मुझे विशेष चर्चा करनी थी…….मैं प्रसन्न था …….हाँ कृष्णचन्द्र के गए आज सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं…….सौ वर्ष में क्या नही सहा इस वृन्दावन नें ……यहाँ के गोपों नें …..गोपिकाओं नें ……श्रीराधा नें , उनकी सखियों नें ।
सौ वर्ष इनके ऐसे ही नही कटे हैं………पल पल इनके वर्षों के समान गुजरते थे …….मुझ से देखा नही जाता था इन लोगों का दुःख ……..इसलिये मैने आना जाना बन्द कर दिया……..हाँ नन्दराय जी तो नित्य ही आजाते थे मेरी कुटिया में …….कभी कभी बरसानें के अधिपति बृषभान जी भी आते…….ग्वाल बाल आते तो थे …….पर अपना हाथ दिखानें…..और हाथ आगे करके पूछते…..महर्षि ! हमारा कन्हैया कब आएगा ? अब मैं इन भोले भाले ग्वालों से क्या कहता ।
हाँ बरसानें से चार बार ललिता सखी आईँ थीं …………
उन्होंने भी पूछा था ……..तो मैने उन्हें कहा ……सौ वर्ष का वियोग प्राप्त हुआ है बृज, गोप और गोपियों को ।
रोते हुए चली गयी थीं ललिता सखी ………..सिर चकरा रहा है सौ वर्ष की बात सुनकर महर्षि ! यही कहती गयी थीं ।
मैं शाण्डिल्य , आज प्रसन्न हूँ………….वियोग इस वृन्दावन को तो था ही ……पर मैं भी कैसे इस विरहाग्नि की लपटों से बच जाता ।
मैं कोई पुरोहित कृत्य करनें वाला पण्डित तो नही ही था ………
महर्षि शाण्डिल्य …………..मैं अपनें साधन – भजन में लीन रहनें वाला …एकान्तप्रिय व्यक्ति ………….हाँ भाव को ही मैने जीवन में महत्व दिया …….भाव है तो सब है …..भाव नही है हृदय में ….तो कुछ नही है ।
अब हे वज्रनाभ ! तुम ही विचार करो ……अत्यन्त भावुक हृदय वाला व्यक्ति भला कर्मकाण्ड जैसे नीरस विषय में जाएगा !
पर विधाता ब्रह्मा नें आज्ञा दी ……….”तुम्हे बृज के ग्वालों का पुरोहित बनना है”……..ये कार्य मुझे प्रिय नही था ……..पर मैं विधाता को मना भी कैसे करूँ ! और जब मैने कारण पूछा ……….तब उन्होंने जो बताया था , मैं तो उछल पड़ा ख़ुशी के मारे ।
इस वंश में परब्रह्म श्रीकृष्ण अवतरित हो रहे हैं ।
आहा ! इस सौभाग्य के लिये तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ ……….फिर ये तो पुरोहित की बात है ……….
इतना ही नही महर्षि शाण्डिल्य !
ब्रह्म की आल्हादिनी भी इस लीला में प्रकट होंगी ।
विधाता ब्रह्मा नें मुझे ये सौभाग्य प्रदान किया था ।
पर मात्र साढे ग्यारह वर्ष तक ही … परमानन्द की अनुभूति मिली …..कृष्ण इतनें वर्ष तक ही रहे वृन्दावन में ………इसके बाद तो एक विरह………दीर्घकालीन वियोग …..सौ वर्षों का वियोग ।
पर सौ वर्षों तक मैने भी अपनें इन भोले भाले यजमानों को कहाँ छोड़ा ?
इनके साथ मैं भी विरहातुर हो ………अश्रु बहाते रहा ।
संकट के समय पुरोहित अगर अपनें यजमान को छोड़कर चला जाता है तो वह पाप का भागी बनता है…….वैसे मैं तो वज्रनाभ ! इस श्रीधाम वृन्दावन की भूमि को अब त्याग ही नही सकूँगा ……..मेरे लिये सारे तीर्थ, धाम, पुरी यहीं वृन्दावन में ही हैं ।
इन्हीं सबका विचार करते हुए – नन्दभवन में पहुँचे थे महर्षि शाण्डिल्य ।
आप पधारे महर्षि ! मुझे बुलवा लिया होता ………..
नन्दराय नें बड़े प्रेम से उच्च आसन में विराजमान कराकर, अर्घ्य पाद्यादि से चरण पूजन किया ।
कैसे मेरे ऊपर कृपा की आपनें ? नन्दराय हाथ जोड़ते हुए रो गए ।
वृद्ध हो गए हैं………कृष्ण जिन्हें “बाबा बाबा” कहते हुए थकता नही था …….आज उनको सुनाई कम देता है…….थोडा झुक गए हैं नन्दबाबा, ..मुखारविन्द में अब झूर्रियाँ ज्यादा ही दिखाई दे रही हैं नन्दबाबा के ।
हे नन्दराय जी ! मैं आपको एक अत्यन्त शुभ सूचना देनें आया हूँ ………आप ध्यान से सुनें ……..हे नन्दराय जी ! पुरोहित का एक ही कार्य है कि – जैसे भी हो पुण्यों के कार्यों को, यजमानों के हाथों कराते रहना चाहिये ……….
इसलिये मै आपके पास आया हूँ…….और मुझे विश्वास है कि आप मुझे भी अपनें साथ ले जायेंगें ……..ये बात सहजता में बोली थी महर्षि नें ।
उत्साह नही है अब नन्दराय में……..महर्षि की बातें सुनीं ……..प्रणाम किया ………और विनम्रता से बोले – महर्षि ! अब किन्हीं कार्यों में विशेष मन नही लगता…….लगता है ……..तुलसी की माला ही फेरता रहूँ ….या अपनें नारायण भगवान के ध्यान में ही डूबा रहूँ……बस ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🙇♂️ राधे राधे🙇♂️
i: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
!! “सिद्धान्त सुख” – भूमिका !!
सुन री !
श्याम सुन्दर तो सदा ही श्रीराधा के अधीन हैं , क्यों ? इसलिए कि श्रीराधा कृष्ण की चित्त को अपनी ओर खींचने वाली हैं यानि चित्ताकर्षिणी हैं ….मैंने कहा ।
क्यों ?
यमुना की तरंगों को निहारते हुए कुनकुनी धूप में बैठकर युगलघाट में आज गौरांगी मुझ से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थी ।
मैंने कहा …इसलिए कि श्रीराधा कृष्ण की प्राण जीवन जरी हैं ।
क्यों ? हंसते हुए फिर गौरांगी ने ।
मैंने कहा – पागल है क्या ! इसलिए कि श्रीराधा कृष्ण की सर्वस्व धन हैं ।
ये सुनते ही गौरांगी के नेत्र सजल हो गये ……और उसी क्षण उसने मुझे महावाणी जी का ये पद सुना दिया …..
“मेरे सर्वस धन स्वामिनी , मोहे कछु ओर न सुहावै री”
हरि जी ! क्या कहूँ ….श्याम सुन्दर की सर्वस्व हैं ये श्रीराधा । स्वयं आह भरते हुए श्याम सुन्दर कह रहे हैं ….मुझे और कुछ अच्छा नही लगता …बस अपनी श्रीराधा । ये बात वो सखियों से कहते हैं ….कि मुझे और कुछ सुहाता ही नही है …बस …मेरी श्रीराधा , राधा …ये कहते हुये श्याम सुन्दर लम्बी स्वाँस लेते हैं ।
गौरांगी मुझे बता रही है ….बताते बताते वो इस रस में डूब जाती है ….मैं जब उसे देखता हूँ तो वो मुझे निकुँज की ही कोई सखी लगती है ……”तुम भी सखी हो”…..वो मेरे मनोभाव को जानकर ही बोल उठी थी । मैं कहाँ देहासक्ति में बंधा एक जीव । किन्तु उसने मेरी बात का उत्तर न देते हुए आगे कहना जारी रखा था ।
ये दोनों एक दूसरे से बंधे हैं ….आसक्त हैं ….ओह ! हरि जी ! क्या अद्भुत और विलक्षण ये रस है ….कि “आनन्द अपने आह्लाद” पर मुग्ध है ! आनन्द अपने आह्लाद को देखकर अपने को भी विस्मृत कर देता है …आनन्द कौन है ? अजी ! श्याम सुन्दर । और आल्हाद ? श्रीराधिका जू । ये दोनों परस्पर आसक्त हैं ….एक दूसरे के बिना रह नही सकते । गौरांगी का मुखमण्डल दमक रहा था ये सब कहते हुए । हरि जी ! श्याम सुन्दर ही आसक्त हैं श्रीराधा के प्रति ऐसा भी नही है ….महावाणी के अनुसार तो दोनों ही एक दूसरे में आसक्त हैं ….तभी उन्मुक्त रस केलि होगी ….केवल श्याम सुन्दर ही पीछे पड़े हैं …..ऐसा नही है ।
थोड़ा सुनिये हरि जी ! निकुँज में सखियों के मध्य बैठीं श्रीप्रिया जी क्या कह रही हैं !
ब्याह हो गया …..सुरत सेज में विहार भी हो गया ।
सखियाँ आयीं हैं प्रिया जी के पास …..श्याम सुन्दर गए हैं पुष्प चुनने तब अकेली प्रिया जी सखियों को अपने हृदय की बात बताती हैं …….
सहेली ! मैं क्या कहूँ …..मुझ पर अपने प्राण वार दिये हैं प्रियतम ने । मैं जो कहती हूँ वो वहीं कहते हैं …मैं कहूँ रात तो वो रात कहते हैं …और मैं कहूँ दिन तो वो दिन कहते हैं । मेरी ओर ही मुख करके बैठे रहते हैं ….मुझे कहते हैं ….मेरे ये नयन अभी प्यासे हैं ….इन्हें तृप्त हो जाने दो ….और वो बस मुझे देखते रहते हैं …..अरी मेरी सहेली ! उनका प्रेम तो देखने जैसा है ….मुझे देखते देखते त्राटक लग जाती है उनकी ….जैसे कोई ऋषि मुनि हों ….उनकी स्वाँस भी रुक जाती है ….मैंने कहा भी उनसे कि प्यारे ! आप स्वाँस क्यों नही ले रहे तो आह भरते हुए वो बोले ….प्यारी ! स्वाँस लेता हूँ तो तिहारे दर्शन में विघ्न पड़ता है …..ओह ! सहेली ! मैं तो उनकी इस प्रीति पर बलिहारी जाऊँ ….कितना प्रेम करते हैं वो मुझ से ।
क्या आप नही करतीं ? सखी ने पूछा श्रीराधिका जू से ।
तो उत्तर दिया श्रीराधारानी ने ……….
“तनिक हूं छिन न परे री , बिन देखे पिय मोहि ।
तू मेरी हितू सहचरी , तातैं कहति हौं तोहि” ।( महावाणी )
हे मेरी हितू सहेली ! तू मेरी है इसलिए मैं तुझे कहती हूँ ….सच ये है कि प्रियतम के बिना मेरा एक पल भी मन नही लगता । इतना प्रेम है उनका मेरे प्रति उसको देख देखकर मैं रीझ जाती हूँ …अपने आप को प्रियतम के ऊपर वार देती हूँ ..वो मेरे प्राण हैं …ये कहते हुए श्रीराधारानी अपने नयनों को मूँद लेती हैं और अपने वक्षस्थल में हाथ रखकर ….आह भरती हैं ।
हरि जी ! आप श्रीमहावाणी के “सिद्धांत सुख” पर क्यों नही लिखते ?
अब चलना है हमें …साँझ होने को आयी है …सर्द हवा भी चलने लगी है युगल घाट में ,
धूप भी चली गयी ।
क्यों ? मैं भी गौरांगी से पूछने लगा ।
क्यों कि निकुँज उपासना के विषय में कम ही लोग जानते हैं ….और इस उपासना को सिद्धांत के रूप में महावाणी में बड़ी सुन्दरता से समझाया गया है ….मैंने पाठ किया है …गौरांगी कहने लगी…..फिर उसने मुझ से ही पूछा …आपने पढ़ी है ? मैंने ..हाँ कहा ….क्यों की मैंने इसका आद्योपांत पाठ किया है । वाह ! फिर तो आनन्द आजाएगा …..”निकुँज उपासना” एक विलक्षण रस मार्ग है …..सखी भाव से भावित होकर ही इसमें चलना पड़ता है ….और और और …..वो बोलती गयी गौरांगी , मैं सुनता रहा …..सच में महावाणी के सिद्धांत सुख के आधार पर कोई चले तो निकुँज के द्वार उसके लिए खुले हैं, सखियाँ खड़ी हैं उसके स्वागत के लिए ।
इस सिद्धांत सुख को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए ……फिर ये कहते हुए गौरांगी चंचला बन , उठ गयी …और बोली …मैं जा रही हूँ अभी ….किन्तु मुझे इंतज़ार रहेगा कि आप “निकुँजोंपासना का सिद्धान्त” इस नाम से महावाणी के सिद्धांत सुख पर लिखेंगे । लो , नाम भी बताती चली गयी वो । लिखेंगे ना हरि जी ? पीछे मुड़कर देखा मुझे , फिर पूछा ।
मैंने “हाँ” कहा ।
वो पगली जाते जाते “सिद्धांत सुख” का प्रथम और द्वितीय श्लोक भी गाती हुई चली गयी ।
इस श्लोक से महावाणी का “सिद्धांत सुख” आरम्भ होता है ।
रसिक समाज मुझे क्षमा करेगें , मेरी इस धृष्टता पर ।
“राधाकृष्णौ महारम्यौ , रंगदेव्यादि सेवितौ ।
परमौ नियमप्रेम्णो: किशोरौ रसिकेश्वरौ । 1 ।
निकुँजस्थौ परागम्यौ परात्परतमावुभौ ।
सर्वेषां प्रेरकौ दिव्यौ सदा वन्दे कलात्मकौ ।2 | ( महावाणी , सिद्धांत सुख )
“सच में , इस सिद्धांत सुख को जो समझ लेगा , जी लेगा उसके लिए निकुँज अत्यन्त निकट होगा” , यvही विचार करते ह…
महर्षि शाण्डिल्य …………..मैं अपनें साधन – भजन में लीन रहनें वाला …एकान्तप्रिय व्यक्ति ………….हाँ भाव को ही मैने जीवन में महत्व दिया …….भाव है तो सब है …..भाव नही है हृदय में ….तो कुछ नही है ।
अब हे वज्रनाभ ! तुम ही विचार करो ……अत्यन्त भावुक हृदय वाला व्यक्ति भला कर्मकाण्ड जैसे नीरस विषय में जाएगा !
पर विधाता ब्रह्मा नें आज्ञा दी ……….”तुम्हे बृज के ग्वालों का पुरोहित बनना है”……..ये कार्य मुझे प्रिय नही था ……..पर मैं विधाता को मना भी कैसे करूँ ! और जब मैने कारण पूछा ……….तब उन्होंने जो बताया था , मैं तो उछल पड़ा ख़ुशी के मारे ।
इस वंश में परब्रह्म श्रीकृष्ण अवतरित हो रहे हैं ।
आहा ! इस सौभाग्य के लिये तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ ……….फिर ये तो पुरोहित की बात है ……….
इतना ही नही महर्षि शाण्डिल्य !
ब्रह्म की आल्हादिनी भी इस लीला में प्रकट होंगी ।
विधाता ब्रह्मा नें मुझे ये सौभाग्य प्रदान किया था ।
पर मात्र साढे ग्यारह वर्ष तक ही … परमानन्द की अनुभूति मिली …..कृष्ण इतनें वर्ष तक ही रहे वृन्दावन में ………इसके बाद तो एक विरह………दीर्घकालीन वियोग …..सौ वर्षों का वियोग ।
पर सौ वर्षों तक मैने भी अपनें इन भोले भाले यजमानों को कहाँ छोड़ा ?
इनके साथ मैं भी विरहातुर हो ………अश्रु बहाते रहा ।
संकट के समय पुरोहित अगर अपनें यजमान को छोड़कर चला जाता है तो वह पाप का भागी बनता है…….वैसे मैं तो वज्रनाभ ! इस श्रीधाम वृन्दावन की भूमि को अब त्याग ही नही सकूँगा ……..मेरे लिये सारे तीर्थ, धाम, पुरी यहीं वृन्दावन में ही हैं ।
इन्हीं सबका विचार करते हुए – नन्दभवन में पहुँचे थे महर्षि शाण्डिल्य ।
आप पधारे महर्षि ! मुझे बुलवा लिया होता ………..
नन्दराय नें बड़े प्रेम से उच्च आसन में विराजमान कराकर, अर्घ्य पाद्यादि से चरण पूजन किया ।
कैसे मेरे ऊपर कृपा की आपनें ? नन्दराय हाथ जोड़ते हुए रो गए ।
वृद्ध हो गए हैं………कृष्ण जिन्हें “बाबा बाबा” कहते हुए थकता नही था …….आज उनको सुनाई कम देता है…….थोडा झुक गए हैं नन्दबाबा, ..मुखारविन्द में अब झूर्रियाँ ज्यादा ही दिखाई दे रही हैं नन्दबाबा के ।
हे नन्दराय जी ! मैं आपको एक अत्यन्त शुभ सूचना देनें आया हूँ ………आप ध्यान से सुनें ……..हे नन्दराय जी ! पुरोहित का एक ही कार्य है कि – जैसे भी हो पुण्यों के कार्यों को, यजमानों के हाथों कराते रहना चाहिये ……….
इसलिये मै आपके पास आया हूँ…….और मुझे विश्वास है कि आप मुझे भी अपनें साथ ले जायेंगें ……..ये बात सहजता में बोली थी महर्षि नें ।
उत्साह नही है अब नन्दराय में……..महर्षि की बातें सुनीं ……..प्रणाम किया ………और विनम्रता से बोले – महर्षि ! अब किन्हीं कार्यों में विशेष मन नही लगता…….लगता है ……..तुलसी की माला ही फेरता रहूँ ….या अपनें नारायण भगवान के ध्यान में ही डूबा रहूँ……बस ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
रोते हुए चली गयी थीं ललिता सखी ………..सिर चकरा रहा है सौ वर्ष की बात सुनकर महर्षि ! यही कहती गयी थीं ।
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 29
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भोक्तारं यज्ञतपसा सर्वलोकमहेश्र्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||
भोक्तारम् – भोगने वाला, भोक्ता; यज्ञ – यज्ञ; तपसाम् – तपस्या का; सर्वलोक – सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का; महा-ईश्र्वरम् – परमेश्र्वर; सुहृदम् – उपकारी; सर्व – समस्त; भूतानाम् – जीवों का; ज्ञात्वा – इस प्रकार जानकर; माम् – मुझ (कृष्ण) को; शान्तिम् – भौतिक यातना से मुक्ति; ऋच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
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मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |
तात्पर्य
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माया से वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं | किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शान्ति के सूत्र को वे नहीं जानते | शान्ति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं | मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वास्तु भगवान् की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं | उनसे बड़ा कोई नहीं है | वे बड़े बड़े देवता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं | वेदों में (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ६.७) भगवान् को तमीश्र्वराणां परमं महेश्र्वरम् कहा गया है | माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यः है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभुत्व है | भगवान् प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत हैं | जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समष्टि रूप से शान्ति प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है | कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है | भगवान् कृष्ण परमेश्र्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं | पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त की जा सकती है |
यह पाँचवा अध्याय कृष्णभावनामृत की, जिसे सामान्यतया कर्मयोग कहते हैं, व्यावहारिक व्याख्या है | यहाँ पर इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि कर्मयोग से मुक्ति किस तरह प्राप्त होती है | कृष्णभावनामृत में कार्य करने का अर्थ है परमेश्र्वर के रूप में भगवान् के पूर्णज्ञान के साथ कर्म करना | ऐसा कर्म दिव्यज्ञान से भिन्न नहीं होता | प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत भक्तियोग है और ज्ञानयोग वह पथ है जिससे भक्तियोग प्राप्त किया जाता है | कृष्णभावनामृत का अर्थ है – परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का पूर्णज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूर्णता का अर्थ है – कृष्ण या श्रीभगवान् का पूर्णज्ञान | शुद्ध जीव भगवान् के अंश रूप में ईश्र्वर का शाश्र्वत दास है | वह माया पर प्रभुत्व जताने की इच्छा से हि माया के सम्पर्क में आता है और यही उसके कष्टों का मूल कारण है | जब तक वह पदार्थ के सम्पर्क में रहता है उसे भौतिक आवश्यकताओं के लिए कर्म कर्म करना पड़ता है | किन्तु कृष्णभावनामृत उसे पदार्थ की परिधि में स्थित होते हुए भी आध्यात्मिक जीवन में ले आता है क्योंकि भौतिक जगत् में भक्ति का अभ्यास करने पर जीव का दिव्य स्वरूप पुनः प्रकट होता है | जो मनुष्य जितना ही प्रगत है वह उतना ही पदार्थ के बन्धन से मुक्त रहता है | भगवान् किसी का पक्षपात नहीं करते | यह तो कृष्णभावनामृत के लिए व्यक्तिगत व्यावहारिक कर्तव्यपालन पर निर्भर करता है जिससे मनुष्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त करके इच्छा तथा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है | और जो कोई उपर्युक्त कामेच्छाओं को वश में करके कृष्णभावनामृत में दृढ़ रहता है वह ब्रह्मनिर्वाण या दिव्य अवस्था को प्राप्त करता होता है | कृष्णभावनामृत में अष्टांगयोग पद्धति का स्वयमेव अभ्यास होता है क्योंकि इससे अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति होती है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे प्रगति हो सकती है | किन्तु भक्तियोग में तो ये प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को पूर्णशान्ति प्राप्त हो सकती है | यही जीवन की परम सिद्धि है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पंचम अध्याय
“कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877