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December 3, 2024 5:38 pm

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दादरा नगर हवेली एवं दमन-दीव क्षेत्र भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रभारी श्री दुष्यन्त भाई पटेल एवं प्रदेश अध्यक्ष श्री दीपेश टंडेल जी के नेतृत्व में संगठन पर्व संगठन कार्यक्रम दादरा नगर हवेली के कार्य पाठशाला का आयोजन किया गया.

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!(1),Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!(1),Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

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!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 153 !!

“बृज की पुनर्स्थापना” – परीक्षित का प्रस्ताव
भाग 1

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ये क्या !

आनन्दित हो उठे थे उद्धव जी, वज्रनाभ, यमुना जी, और महर्षि शाण्डिल्य ।

सामनें से एक दिव्य रथ आरहा था ………….पहचान लिया, हस्तिनापुर नरेश परम भागवत परीक्षित आरहे थे ।

रथ को त्याग दिया था परीक्षित नें, दूर से ही साष्टांग प्रणाम करनें लगे ।

दौड़ कर वज्रनाभ नें हृदय से लगा लिया………उद्धव जी नें स्नेह के कर परीक्षित के मस्तक पर रखे …….महर्षि शाण्डिल्य, उन्होंने भी आशीष दिए ।

क्या वृन्दावन की पुनः स्थापना नही की जानी चाहिये ?

परीक्षित नें चरण वन्दन करते हुए महर्षि से ही पूछा ।

कुछ नही है अभी यहाँ ……..सब उजड़ गया है ……..हे महर्षि ! आप कृपा करके स्थलों का परिचय करा दें ……जहाँ जहाँ मेरे आराध्य नें लीला की है………हाँ महर्षि ! आपको तो पता ही है ………मेरा ये जीवन नन्दनन्दन का ही है …………मैं तो मर गया था ……..उद्धव जी ! आप तो जानते हैं ।

………..परीक्षित बृज की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं ………….क्यों की अवतार काल समाप्त हो चुका है………और वे दिव्य स्थल गुप्त हो गए हैं ……….उनको वापस प्रकाश में लाना है ………..नन्दगाँव, बरसाना, गोवर्धन ……और इन पावन स्थलों में भी नन्दनन्दन और बृषभान दुलारी की लीला स्थली …..विशेष स्थली ……..परीक्षित भावुक हो उठे हैं ।

हे वज्रनाभ ! मैं तुम्हे बृज में स्थापित करनें आया हूँ …….हस्तिनापुर दूर नही है………तुम्हे बृज को बसानें में जो सहायता मुझ से चाहिए …….मैं सहर्ष दूँगा…….फिर हँसनें लगे परीक्षित…….मैं दूँगा ? मेरा ये शरीर भी नन्द नन्दन के कारण है ……….मैं तो मर ही गया था …….मुझे जीवन दिया ……उन्हीं की प्रेरणा है ये सब ।

नेत्र सजल हैं परीक्षित के ।

बृज अभी जन शुन्य है ……..जन की भी आवश्यकता पड़ेगी बृज को वापस बसानें में……….मैं उसकी कमी भी पूरी करूँगा ……परीक्षित उत्साहित हैं…….महर्षि ने परीक्षित की बात का अनुमोदन किया ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-

🌺 राधे राधे🌺

Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 62 )

गतांक से आगे –

॥ दोहा ॥

कारनीक कारनहिं के, मंगल मंगल के जु।
अवतारी अवतार के, अंसी अंसन के जु ॥

॥ पद ॥

अंसन के अंसी अवतार अवतारी । कारन के कारनीक मंगल महारी ॥
स्वयं रूप सुद्ध सत्व इच्छा बिसतारी। जाकरि कें भयौ नाद ब्रह्म निर्विकारी ॥
ताकों सब ठाट पाट घाट अघटारी । असत सतादि परावर के प्रचारी ॥
बिबिधि बिसेषन बिचारि बकतारी । बरनत हैं बानी जाहि मति अनुसारी ॥
श्रीहरिप्रिया नित्यधाम बिलसत बिहारी । कोटि काम अभिराम बिचित्र-सोभारी ॥ ३४ ॥

*मैंने पूर्व में कहा है …..श्यामा श्याम आनन्दमयी सुरत केलि में मग्न थे …..उस समय स्वामिनी श्रीराधा के नूपुर से नाद प्रकट हुआ ….और देखते ही देखते वो ओमकार नाद बनकर शब्द ब्रह्म के रूप में प्रकट था …उसी शब्द ब्रह्म से परम पुरुष का प्राकट्य समझ में आता है ….हरिप्रिया जी मुझे श्रीवैभव बिहारी लाल जू का वैभव समझा रहीं थीं , और अब उसी परम पुरुष से प्रकृति और पुरुष का प्रकटीकरण होता है …अब इन्हीं से फिर श्रीनारायण प्रभु प्रकटते हैं ….हरिप्रिया जी कहती हैं – नारायण भगवान की नाभि से फिर ब्रह्मा का प्राकट्य ..फिर उनसे सृष्टि का क्रम ।

इसका अभिप्राय ये हुआ कि सबके मूल में यही श्यामा श्याम हैं …..मैंने प्रसन्न चित्त से ये बात कही थी । हाँ , सबके मूल में एक ही तत्व है वो है “रस”, इस बात को नही भूलना चाहिए । कोई कुछ भी करता है एक सामान्य जीव भी तो उसके मूल में रस की प्राप्ति ही होती है ना ! यही सत्य है ….हमारे श्यामा श्याम ‘रस’ हैं ….इसलिए सबके मूल में यहीं हैं । ये मंगल के मंगल हैं ….हरिप्रिया जी गदगद होकर कह रही हैं …सभी अवतारों के ये अवतारी हैं …..ये याद रहे कि भगवत्तत्व के जितने विभाजन हैं …वो परम पुरुष से लेकर भगवान विष्णु तक ….इन सबके मूल में एक मात्र हमारे ये निकुँज बिहारी ही हैं ….ये शुद्ध प्रेम रूप हैं …..पूर्ण निर्गुण हैं …निर्गुण का अभिप्राय प्राकृतिक गुणों से रहित हैं ….विष्णु जहाँ सत्वगुण के प्रतीक , ब्रह्मा जहाँ रजोगुण के प्रतीक बताये गये हैं …तम के प्रतीक महारुद्र हैं …..किन्तु हमारे युगल सरकार इन सब गुणों से परे , शुद्ध प्रेममय …शुद्ध सत्यमय शुद्ध रस सार सिन्धु यही तो हैं । हरिप्रिया जी कहती हैं …..श्रीराधा और कृष्ण तत्वतः एक ‘रस’ के दो रूप हैं ….वैसे बहु रूप ये रसतत्व ही बनकर अपनी विलास को और दिव्य बनाते हैं….एक रस ही दो रूपों में श्रीराधा कृष्ण बनते हैं , फिर अति उल्लसित होकर वो रस ही बहु रूपों में सखी बनकर सेवा में जुट जाते है । वो रस ही यमुना बनकर बहता है ..वृक्ष बनकर तना रहता है …लता बनकर वृक्ष से आलिंगित हो जाता है …पुष्प बनकर खिलता है ….फिर भ्रमर बनकर उस अपने ही रस को पीता है ….यही एक और मूल सत्ता है ….”रस”। हरिप्रिया जी आगे कहती हैं ….ये समस्त अस्तित्व ही रस का विस्तार है …और रस हमारे श्यामा श्याम ही हैं …इसलिए कहना न होगा कि …..सब के मूल में रस है …नामों में तो तुम उलझे रहो ….ब्रह्मा रुद्र , विष्णु, महाविष्णु आदि आदि ….हरिप्रिया जी कहती हैं …..विद्वानों ने अपनी अपनी बुद्धि अनुसार शास्त्रों में अनेक बातें कहीं ….कहते रहते हैं …..किन्तु इतनी सी बात उनके समझ में नही आती कि ….सब कुछ आनन्द के लिए है …सब कुछ रस के लिए है ….मनुष्य का लक्ष्य भी और भगवद् रूपों के विलास का लक्ष्य भी है एक मात्र आनन्द और रस की प्राप्ति ….अरे ! वही आनन्द तो विमोहनकारी विस्मयकारी सुषमारत अपने दिव्य धाम जो सर्वोच्च है ….ऐसे निकुँज में वो सदा सनातन एक रस होकर विराजमान हैं….हरिप्रिया जी कहती हैं ….सब आनन्द के लिए लीला कर रहे हैं ….लेकिन वही आनन्द अपने आल्हाद के लिए अतृप्त दिखाई देता है …यही आनन्द और आल्हाद की अतृप्ति ही निकुँज में रास विलास कहलाती है ….जिससे समस्त ब्रह्माण्ड को , भगवदरूपों को , रस आनन्द का वितरण यहीं से होता रहता है । हरिप्रिया जी बोलीं थीं ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 23
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अन्तवत्तुफलंतेषांतद्भवत्यल्पमेधसाम् |
देवान्देवयजोमद्भक्तायान्तिमामपि || २३ ||

अन्त-वत् – नाशवान; तु – लेकिन; फलम् – फल; तेषाम् – उनका; भवति – होता है; अल्प-मेधसाम् – अल्पज्ञों का; देवान् – देवताओं के पास; देव-यजः – देवताओं को पूजने वाले; यान्ति – जाते हैं; मत् – मेरे; भक्ताः – भक्तगण; यान्ति – जाते हैं; माम् – मेरे पास; अपि – भी |

भावार्थ
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अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं |

तात्पर्य
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भगवद्गीता के कुछ भाष्यकार कहते हैं कि देवता की पूजा करने वाला व्यक्ति परमेश्र्वर के पास पहुँच सकता है, किन्तु यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि देवताओं के उपासक भिन्न लोक को जाते हैं, जहाँ विभिन्न देवता स्थित हैं – ठीक उसी प्रकार जिस तरह सूर्य की उपासना करने वाला सूर्य को या चन्द्रमा का उपासक चन्द्रमा को प्राप्त होता है | इसी प्रकार यदि कोई इन्द्र जैसे देवता की पूजा करना चाहता है, तो उसे पूजे जाने वाले उसी देवता का लोक प्राप्त होगा | ऐसा नहीं है कि किसी भी देवता की पूजा करने से भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है | यहाँ पर इसका निषेध किया गया है, क्योंकि यह स्पष्ट कहा गया है कि देवताओं के उपासक भौतिक जगत् के अन्य लोकों को जाते हैं, किन्तु भगवान् का भक्त भगवान् के परमधाम को जाता है |

यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि विभिन्न देवता परमेश्र्वर के शरीर के विभिन्न अंग हैं, तो उन सबकी पूजा करने से एक ही जैसा फल मिलना चाहिए | किन्तु देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, क्योंकि वे यह नहीं जानते कि शरीर के किस अंग को भोजन दिया जाय | उनमें से कुछ इतने मुर्ख होते हैं कि वह यह दावा करते हैं कि अंग अनेक हैं, अतः भोजन देने के ढंग अनेक हैं | किन्तु यह बहुत उचित नहीं है | क्या कोई कानों या आँखों से शरीर को भोजन पहुँचा सकता है? वे यह नहीं जानते कि ये देवता भगवान् के विराट शरीर के विभिन्न अंग हैं और वे अपने अज्ञानवश यह विश्र्वास कर बैठते हैं कि प्रत्येक देवता पृथक् ईश्र्वर है और परमेश्र्वर का प्रतियोगी है |

न केवल देवता, अपितु सामान्य जीव भी परमेश्र्वर के अंग (अंश) हैं | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ब्राह्मण परमेश्र्वर के सर हैं, क्षत्रिय उनकी बाहें हैं, वैश्य उनकी कटि तथा शुद्र उनके पाँव हैं, और इन सबके अलग-अलग कार्य हैं | यदि कोई देवताओं को तथा अपने आपको परमेश्र्वर का अंश मानता है तो उसका ज्ञान पूर्ण है | किन्तु यदि वह इसे नहीं समझता तो उसे भिन्न लोकों की प्राप्ति होती अहि, जहाँ देवतागण निवास करते हैं | यह वह गन्तव्य नहीं है, जहाँ भक्तगण जाते हैं |
देवताओं से प्राप्त वस् नाशवान होते हैं, क्योंकि इस भौतिक जगत् के भीतर सारे लोक, सारे देवता तथा उनके सारे उपासक नाशवान हैं | अतः इस लश्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि ऐसे देवताओं की उपासना से प्राप्त होने वाले सारे फल नाशवान होते हैं, अतः ऐसी पूजा केवल अल्पज्ञों द्वारा की जाती है | चूँकि परमेश्र्वर की भक्ति में कृष्णभावनामृत में संलग्न व्यक्ति ज्ञान से पूर्ण दिव्य आनन्दमय लोक की प्राप्ति करता है अतः उसकी तथा देवताओं के सामान्य उपासक की उपलब्धियाँ पृथक्-पृथक् होती हैं | परमेश्र्वर असीम हैं, उनका अनुग्रह अनन्त है, उनकी दया भी अनन्त है | अतः परमेश्र्वर की अपने शुद्धभक्तों पर कृपा भी असीम होती है |

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