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( इति श्रीराधाचरितामृतम् )
भाग 1
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ये है वृन्दावन ! वृन्दावन ! वृन्दावन ! वृन्दावन !
आनन्दित हो उठे थे ये बताते हुए महर्षि शाण्डिल्य वज्रनाभ को ।
और ये ? ओह ! क्या उन्मत्त प्रेमी बन गए थे महर्षि ……….चाल बदल गयी थी ……………ये गोपेश्वर महादेव ! यहीं ! भगवान प्रलयंकर महादेव ! यहाँ गोपी बन गए ! और वो रहे ! देखो वज्रनाभ ! महादेव !
और तभी साक्षात गोपीश्वर महादेव प्रकट हो गए थे ।
और वही महारास भी प्रकट हो गया था…..वज्रनाभ नें दर्शन किये !
कैसे गोपी बन गए थे वो जटाजूट धारी महादेव !
बस यहीं ! महर्षि शाण्डिल्य वहीं लेट गए ……..भावावेश में देह की सुध न रही उन्हें …..अचेत से पड़े महर्षि शाण्डिल्य……. महादेव ! गोपेश्वर ! यही पुकार रहे थे ।
वज्रनाभ नें देखा……….वहाँ की भूमि गीली है ……..पूर्ण चेतना समायी है ………. तभी वहीं से गोपेश्वर भगवान प्रकट होगये………..फिर विग्रह पिण्डी में ।
वहीं गोपेश्वर भगवान का मन्दिर बनवाया वज्रनाभ नें…………
ये कोतवाल हैं वृन्दावन धाम के……..हे वज्रनाभ ! हर तीर्थ-धाम का अपना एक कोतवाल होता है …………वृन्दावन धाम के कोतवाल हैं गोपेश्वर महादेव………..महर्षि शाण्डिल्य समझाते हैं ……स्थल बताते हैं …………वज्रनाभ हर स्थलों को जाग्रत करते हुए ……….बृज भूमि में भ्रमण कर हैं ।
क्रमशः ….
🌹 राधे राधे🌹
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (139)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
आत्मारामः- श्रीकृष्ण गोपियों के साथ विहार करते हुए भी अनात्मदर्शी नहीं है, जड़दर्शी नहीं हैं, विश्वदर्शी नहीं है, आत्मदर्शी हैं; और अरीरमत्- गोपियों को रस का दान कर रहे हैं, और स्वयं रस ले रहे हैं। भगवान किससे रस लें? जब इनसे कोई ज्यादा रसीला हो, तब ये इनसे रस लें। अब भगवान से ज्यादा रसीला तो कोई और है नहीं; अखिलरसामृतमूर्ति स्वयं भगवान हैं। इसलिए आत्मारामोऽप्यरीरमत् का अर्थ है कि जैसे चंद्रमा अपने अमृत को औषधि- वनस्पतियों में स्थापित करता है, जैसे देवतालोग अपने अमृत को स्वर्ग में स्थापित करते हैं, वैसे भगवान अपने अमृत को अपने भक्त में स्थापित करते हैं।
बाँसुरी बजाकर अपने अधरामृत को गोपियों में स्थापित करते हैं, अपने संकल्प से अपने आनन्द को गोपियों में साचिरत करते हैं, और फिर उसी को अपना भोग्य बनाते हैं। भक्ति तो बड़ी विलक्षण वस्तु है। कल आपको सुनाया था कि भक्ति कोई सत्त्वगुण की वृत्ति नहीं है, माया की वृत्ति नहीं है, योगदर्शन की अक्लिष्ट वृत्ति नहीं है। क्योंकि अक्लिष्ट वृत्ति का भी निरोध होता है, सात्त्विक वृत्ति से आत्मा का विवेक होता है, मायिक वृत्ति बाधिक होती है, भक्ति न तो बाधित होती है, न भक्ति का निरोध होता है और न भक्ति से आत्मा को विविक्त किया जाता है। यह तो रसरूपा है, आत्मरूपा है। यह वृत्ति नहीं है, भगवान की आह्लादिनी है, आह्लादिनी शक्ति नहीं है। आह्लादी आनन्दस्वरूप है, आनन्दस्वरूप नहीं है क्योंकि स्वरूप से कोई मोहित नहीं होता। यह आनन्दस्वरूप का भी सार-सार है। अपने स्वरूप के सार को जिसमें ‘सर्व’ पृथक् नहीं, जिससे सर्व पृथक् नहीं, जहाँ सत्-चित्-आनन्द पृथक्-पृथक् भाव नहीं है, वही जो अखण्ड सच्चिदानन्दघन, विज्ञानानन्दघन है वही कृष्ण है, वही गोपी है। इसलिए-
ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।
उदारहासद्विजकुन्ददीधितिर्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः ।।
प्यास का नाम प्रेम नहीं है, तृप्ति का नाम प्रेम है, पर ऐसी तृप्ति नहीं जिसमें इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे हो जाय- ऐसी तृप्ति का नाम प्रीति नहीं है। ऐसी तृप्ति जो क्षण-क्षण बढ़ती है।
प्रतिक्षणवर्धमानं गुणरहितं कामनारहितं ।
गुन धन यौवन रूप तन बिन स्वारथ हित जान ।
शुद्ध कामना से रहित प्रेम वहै रसखान ।।
ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः- अब तक जो भगवान की चेष्टा थी, वह अनुदार थी, लेकिन अब उनकी चेष्टा में उदारता आ गयी। उदारता क्या? उत् ऊर्ध्वं- आ पूर्णतः राति ददाति उत् आ राति=उदारता। +
- ऊर्ध्वं सत्त्वेन-* अपनी शक्ति से भी अधिक और पूरा का-पूरा दे देना, अपने पास कुछ बचाकर नहीं रखना, यह उदार का लक्षण है। भगवान उदार हैं, यह बात यहाँ नहीं कही जा रही; उनकी चेष्टा उदार है यह बात कही जा रही है। भगवान की लीला उदार है, भगवान का नाम उदार है, गुण उदार है, चेष्टा उदार है। तो कर्म में और चेष्टा में फर्क होता है, भला। क्रिया जो होती है वह अन्य द्रष्टा के संयोग से कर्म होती है, अपनी स्वीकृति से भी होती है और अन्य से भी होती है। परंतु लीला जो होती है वह केवल आनन्द के लिए होती है पर उसमें और की अपेक्षा होती है। और चेष्टा होती है जैसे अपनी आँख हिलाना, आँख की ओर हिलाना या ऐसे हाथ से नृत्य की मुद्रा करना, चिबुक हिलाना, शिर हिलाना; नृत्य में, अपने नेत्र की चेष्टा-ललितनेत्र, छलितनेत्र, वलितनेत्र, पलितनेत्र, दुष्टनेत्र, आर्तनेत्र, एक सौ छब्बीस प्रकार से नेत्रों की चेष्टाओं का वर्णन आता है। नाट्यशास्त्र का विषय है कि कैसे आँख बनावें तो उसमें- से क्या निकले?
आँख ही आँख से माँग लेना, आँख से ही दुःख प्रकट करना, आँख से हँस देना, आँख से मोल कर लेना, आँख से अभिमान प्रकट कर देना, आँख से डाँट देना, यह सब आँख ही आँख से होता है। तो चेष्टा में न तो कोई द्रष्टा है और न तो कोई क्रिया है, सिर्फ अपने शरीर में ही चेष्टा होती है। तो यहाँ उदारता क्या है? जैसे- एक नौकर मालिक का दान कर दे तो आप क्या सोचेंगे? और मालिक सचमुच नौकर के दान करने पर दिया हुआ हो जाय तो क्या बोलेंगे। मालिक ने कहा- हमारे नौकर ने हमको दान कर दिया तो सचमुच हमारा दान हो गया। भगवान का नाम उदार है। नाम क्यों उदार है? कि यह है तो भगवान का नौकर और दान मालिक का, भगवान का करता है।++
भगवान् का नाम नामी का दान कर देता है, भगवान् का गुण गुणी का दान कर देता है, भगवान् की लीला, लीलाधारी का दान कर देती है। यह जो भगवान् की चेष्टा है न; जैसे आँखों का चलाना, तिरछी चितवन, यह है तो आँख की चेष्टा लेकिन दान आँख वाले को कर देती है। भगवान् की मन्द मुस्कान है तो चेष्टा पर दान कर देती है मुखारविन्द वाले को। माने पूरे भगवान् ही आपके मन में आ जायेंगे।
शरीर की जरा सी चेष्टा- आँख से रहने वाली, होंठ में रहने वाली, ऊँगली में रहने वाली- यह दान किसका करती है कि पूरे शरीर का। तो उदारचेष्टितः का अर्थ है- भगवान् के एक एक अंग में ऐसी चेष्टा होने लगी जैसे- एक-एक गोपी को अपनी आँखों का दान कर रहे हों- उदारचेष्टितः।
ताभिस्समेताभिः अब गोपियाँ हिल-मिल गयीं कृष्ण से और कृष्ण हिल-मिल गये गोपियों से। गोपियों की क्या स्थिति हुई?
प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः- प्रियस्य यत् ईक्षणं, प्रियकर्तृकईक्षणं प्रियकर्मकं च ईंक्षणं, प्यारे का देखना और प्यारे को देखना ये प्रियस्य ईक्षणं में दोनों आवेगा। माने श्यामसुन्दर देख रहे हैं गोपियों की ओर, और गोपियाँ देख रही हैं प्यारे की ओर। यह जो दों ओर से आँख मिली, तो उत्फुल्लमुखीभिः- उनका मुखकमल खिल गया कि प्यारे हमारी ओर देख रहे हैं और हम प्यारे की ओर देख रहे हैं। आँख मिली- नयनप्रीति प्रथमं, आँखें रँग गयीं एक दूसरे के रंग में और मुखकमल खिल गया।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 65 )
गतांक से आगे –
!! दोहा !!
सुनत गुनत सुख होत अति, मन पावत उपराम ।
सहचरि जुगलकिसोर की, अँग संगनि के नाम ॥
॥ पद ॥
प्रथमहि जुगल चरन चित लाऊँ। जिहि बल सकल मनोरथ पाऊँ ॥
निज उरके अभिलाख पुराऊँ। अँग संगनि जस बरनि सुनाऊँ ॥
सुनाऊँ जस अँग संग सहचरि चतुर्बिधि संकर्तिनी ।
प्रिया प्रीतम की सदा अंतरंगिनी समवर्तिनी ॥
दंपति रिझावें सहज सेवा सुरत उत्सव सजि सदा।
परम प्यारी काहु विधि करि न्यारी होत नहीं कदा ॥
समरयंत्रिनी तिलक रूप धरि । बाल भाल पर रही रंग भरि ॥
हरि मन हरनी हार हिये परि। सदा बिराजत कुचन बीच ररि ॥
ररि कुचन बिचि रुचिर रोचनि श्रवन ताटंका बनी।
सिंगार छत्रनि सीसफूल स्वरूप है सिर पर तनी ॥
गंजना उड़ मुक्तमँगा पंच सारनि पच सिरी।
मंडला मनि है हमेल सुरेलि रस हिय पर ढरी ॥
चंद्रकांतिका सहचरि सरसी। है उरबसी सदा उर परसी ॥
रुचिर सुमनिका पोति सुहाई। प्रभाकरा बेसरि छबि छाई ॥
छाइ छबि महा मदन मंजरि पदिक रूप रसालिनी ।
संखचूड़ा सहचरी सीमंतमनि गुनजालिनी ।।
चटक रावा है सुकंकन केयुरामनि कर्बुरा।
बूंद बलयावलि सु चूरी लसति बाहुन चित चुरा ॥
है करपत्र रत्न वैधाना। सेवति प्रिया सुकर सुख साना ॥
बिपछ मर्दनी मदसहचारी। होय मुद्रिका सोभित भारी ॥
***हे रसिकों ! श्रीमहावाणी जी के “सिद्धान्त सुख” में, अन्तिम में सखियों का वर्णन किया गया है ….और वर्णन भी अद्भुत है ….जड़ चेतन का जो भेद मिटा दिया है ….ये सुनने जैसा है …..सेवा भाव में पगी ये सखियाँ सेवा के लिए कुछ भी बन जाती हैं ….और सेवा करती हैं …सेवा का उद्देश्य भी “सुख देना है” …सुख लेने की कामना तो दूर दूर तक नही है । ये प्रिया जी के भाल में बिन्दी बनकर चमक उठती हैं ….तो कभी माँग की सिन्दूर बनकर लाल जी का मन मोह लेती हैं …..आदि आदि । मुझे ये लिखते हुए आज सन्त प्रवर श्रीप्रिया जी का वो कवित्त स्मरण में आ रहा है …जिसमें उन्होंने वर्णन किया है कि ….जीव सखी भाव को धारण करे …..इसके लिए वो सर्वप्रथम श्रद्धा रूपी फुलेल लगावे , और कथा श्रवण के उबटन द्वारा अभिमान रूपी मैल को छुड़ावे , फिर कथा श्रवण का मनन करे …मनन को श्रीप्रिया दास जी ने शीतल जल की उपमा दी है …मनन के शीतल जल से नहाये …और दया रूपी अँगोछा से अपने देह को पोंछकर नम्रता के वस्त्रों से सुसज्जित हो …..और प्रण रूपी सुगन्धित इत्र लगाए ….अब आभूषण की वारी है ….तो हरिनाम जाप रूपी आभूषण , हरि और हरिभक्तों की सेवा रूपी कानों के कुण्डल पहने ….और मानसी सेवा रूपी सुन्दर नथ धारण करे ….सत्संग रूपी काजल अपने आँखों में लगाये ….इस प्रकार अपने हृदय में बैठी भक्ति का शृंगार कीजिए । आप लोग कहाँ पुरुष देह में स्त्री की साड़ी पहनकर सखी का स्वाँग कर रहे हो …..इससे क्या होने वाला है ! इस तुच्छ देह को सजाने से क्या होगा ? अपनी भावना का शृंगार कीजिए । सखी ….भाव है । सखी कोई देह को सजाने का नाम नही है । यह श्रीमहावाणी एक परमहंस ने लिखी है …जिनका नाम श्रीहरिव्यास देव जी है ….यही श्रीहरिव्यास देव निकुँज में “हरिप्रिया सखी” के नाम से सेवा रत हैं ….कहना न होगा कि …जैसे भगवान के अवतार होते हैं वैसे ही भक्तों और आचार्यों के भी अवतार होते हैं …ये बात भक्तमाल से भी सिद्ध होती है । आचार्यचरण श्रीहरिव्यास देव जू ने ये श्रीमहावाणी हम सब भावुक समाज को प्रदान कर अतीव उपकार किया है । रसोपासना का ये आदि काव्य है …मैं इसे अगर रसोपनिषद कहूँ तो अतिशयोक्ति नही होगी ….ये रस का ही उपनिषद हैं …..आदि काव्य है । इससे पूर्व रस पर इतने विस्तार से किसी ने नही लिखा …क्षमा करेंगे ।
इसमें पाँच सुखों में अलग अलग सुखों की चर्चा की गयी है …..जीव का शाश्वत सुख क्या है ? उस आनन्द और आल्हादिनी की सेवा । किन्तु सेवा वही है जिसमें अहंकार गलित हो जाए …अहंकार गलित होते हो तो पुरुष भाव निकल जाता है …फिर जो रहता है …वही सखी भाव है …..वही आप हैं …सजाइए ….संवारिये अपने आपको ….श्रद्धा आदि से , सत्संग और दया से , नम्रता रखिए ….विनम्र बनिए….हरिनाम रूपी आभूषण धारण कीजिए …इस तरह सखी बनिये ।
हे रसिकों ! ये मार्ग सरल है तो अत्यन्त कठिन भी है ….”खड़ी खड्ग की धार” श्रीमहावाणी के रचयिता कहते हैं ….तलवार की धार है ये मार्ग …इसलिए सावधान होकर चलिए ।
श्रीहरिप्रिया जी अब सखियों का वर्णन करने लगीं थीं ….ये सखियाँ युगल सरकार की अंगसंगिनी सखियाँ हैं ….सेवा परायण हैं …सेवा ही इनकी साधना है । युगल को सेवा से रिझाना यही इनका उद्देश्य-ध्येय है । ये कहते हुए हरिप्रिया अपने नेत्र बन्द कर लेती हैं …फिर युगल सरकार का ध्यान करती हैं ….कहती हैं …जो इन सखियों की सेवा और उनके नाम को सुन भी लेगा वो भौतिक जगत से ऊपर उठकर परम प्रेम को प्राप्त कर लेगा । ये कहते हुए फिर युगलसरकार को हरिप्रिया जी प्रणाम करती हैं । मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या बात है ….अभी तक किसी प्रसंग में युगल सरकार को प्रणाम करके इन्होंने अपनी चर्चा आरम्भ नही की थी …अब ऐसा क्या सुनाने जा रहीं हैं ! किन्तु मन में प्रसन्नता भी छा गयी कि …अब अवश्य किसी रहस्य का उद्घाटन होने जा रहा है । हरिप्रिया जी अभी भी नेत्रों को बन्दकर के युगल चरणों में प्रार्थना ही कर रही हैं …..हे युगलवर ! आपकी सखियों का वर्णन करके आपके ही रसिक समाज को सुनाने जा रही हूँ ….आप मेरी इस मनोरथ को पूर्ण कीजिए । ये कहकर हरिप्रिया जी प्रणाम करती हैं और आगे अब वर्णन करना आरम्भ कर देती हैं ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 26
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वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्र्चन || २६ ||
वेद – जानता हूँ; अहम् – मैं; समतीतानि – भूतकाल को; वर्तमानानि – वर्तमान को; च – तथा; अर्जुन – हे अर्जुन; भविष्याणि – भविष्य को; च – भी; भूतानि – सारे जीवों को; माम् – मुझको; तु – लेकिन; वेद – जानता है; न – नहीं; कश्र्चन – कोई |
भावार्थ
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हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता |
तात्पर्य
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यहाँ पर साकारता तथा निराकारता का स्पष्ट उल्लेख है | यदि भगवान् कृष्ण का स्वरूप माया होता, जैसा कि मायावादी मानते हैं, तो उन्हें भी जीवात्मा की भाँति अपना शरीर बदलना पड़ता और विगत जीवन के विषय में सब कुछ विस्मरण हो जाता | कोई भी भौतिक देहधारी अपने विगत जीवन की स्मृति बनाये नहीं रख पाता, न ही वह भावी जीवन के विषय में या वर्तमान जीवन की उपलब्धि के विषय में भविष्यवाणी कर सकता है | अतः वह यह नहीं जानता कि भूत, वर्तमान तथा भविष्य में क्या घट रहा है | भौतिक कल्मष से मुक्त हुए बिना वह ऐसा नहीं कर सकता |
सामान्य मनुष्यों से भिन्न, भगवान् कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि वे यह भलीभाँति जानते हैं कि भूतकाल में क्या घटा, वर्तमान में क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होने वाला है लेकिन सामान्य मनुष्य ऐसा नहीं जानते हैं | चतुर्थ अध्याय में हम देख चुके हैं कि लाखों वर्ष पूर्व उन्होंने सूर्यदेव विवस्वान को जो उपदेश दिया था वह उन्हें स्मरण है | कृष्ण प्रत्येक जीव को जानते हैं क्योंकि वे सबों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं | किन्तु अल्पज्ञानी प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित होने तथा श्रीभगवान् के रूप में उपस्थित रहने पर भी श्रीकृष्ण को परमपुरुष के रूप में नहीं जान पाते, भले ही वे निर्विशेष ब्रह्म को क्यों न समझ लेते हों | निस्सन्देह श्रीकृष्ण का दिव्य शरीर अनश्र्वर है | वे सूर्य के समान हैं और माया बादल के समान है | भौतिक जगत में हम सूर्य को देखते हैं, बादलों को देखते हैं और विभिन्न नक्षत्र तथा ग्रहों को देखते हैं | आकाश में बादल इन सबों को अल्पकाल के लिए ढक सकता है, किन्तु यह आवरण हमारी दृष्टि तक ही सीमित होता है | सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे सचमुच ढके नहीं होते | इसी प्रकार माया परमेश्र्वर को आच्छादित नहीं कर सकती | वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अल्पज्ञों को दृश्य नहीं होते | जैसा कि इस अध्याय के तृतीय श्लोक में कहा गया है कि करोड़ों पुरुषों में से कुछ ही सिद्ध बनने का प्रयत्न करते हैं और सहस्त्रों ऐसे सिद्ध पुरुषों में से कोई एक भगवान् कृष्ण को समझ पाता है | भले ही कोई निराकार ब्रह्म या अन्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति के कारण सिद्ध हो ले, किन्तु कृष्णभावनामृत के बिना वह भगवान् श्रीकृष्ण को समझ ही नहीं सकता |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877