!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 68 )
गतांक से आगे –
भारी सोभित किंकिनी है कनक चित्रांगनि अली।
गोपुरा नामनि सहेली है सुनूपुर पद-रली ॥
जेहरी है रही हरि अभिलाषिनी अनुचारिनी ।
श्रीसुसदनावति सखी बिछिया स्वरूप सुधारिनी ॥
जोतिप्रकासनि अनवट ओपति । भई पद पत्र अमित आभावति ॥
बसन रूप बेलावलि केली । इहिं प्रकार सेवति अलबेली ॥
बेलि अलि सेवति सदा अँग संग सहचरि श्रीमती ।
सुनहु प्रीतम की जु अब अँग-संगनी जो रसरती ॥
भुवन मोहनि बंसिका है चतुर कंचन कंकना।
रत्नमुख्या मुद्रिका कल झंकरा किंकिनिझना ॥
हंस मदहि गंजन मनरंजनि । है मंजीर रहति पद कंजनि ॥
तड़ित प्रभावति है मनिमाला। निगम सुभावति बसन रसाला ॥
रसाल बसन सु निगम सोभा हृदय मोदा सहचरी ।
चौकि है सेवति सदा पिय हियहिं अति आनंदभरी ॥
रति सुरंगावलि सहेली करन कुंडल बनि रही।
रत्नपत्रावलि किरीट सुरागवल्लरि गुंजही ॥
इष्ट मोहनी अति ही सोंहनि । है छवि तिलक रही फबि भोंहनि ॥
अब सुनि अंतरंगा अँग संगनि। समझि हियें धरि भरहु उमँगनि ॥
उमंगनि भरि धरहु हिय में प्रेम प्रनय पुरावली ।
सरसरागा सहचरी है प्रीति सेवति रसरली।
अमित उर उलहनि सुरुचि है चाह चारु अनंतिनी ।
चिमतकारावलि सखी है चौंप हिय हुलसंतिनी ॥
हे रसिकों ! एक बात अच्छे से समझनी होगी कि जिस मार्ग की चर्चा हम कर रहे है वो नवधा भक्ति के अन्तर्गत नही आती ये “प्रेम” है …..ये नवधा भक्ति से परे का मार्ग है । अब दूसरी बात “श्रद्धा” की आवश्यकता नही है “राग” की आवश्यकता है इस मार्ग में । श्रद्धा के बिना प्रेम हो सकता है …किन्तु राग के बिना प्रेम सम्भव नही है ….ये बात कल मैंने गौरांगी से भी कही थी …..कल वो मेरी कुटिया में आयी ….अपने साथ एक साधिका को भी लाई थी ….मुझ से कहा कुछ कहो …..तो मैंने यही कहा ….प्रेम मार्ग में राग आवश्यक है । वो बोली – श्रद्धा भी तो आवश्यक है ? मैंने कहा …पुत्र के प्रति श्रद्धा न हो तो चलेगा , अपने प्रेमी के प्रति श्रद्धा न हो तो भी चलेगा ….किन्तु राग न हो तो ? आसक्ति न हो तो ? आसक्ति के बिना क्या प्रेम सम्भव है ? आसक्ति के बिना क्या आपको लगता है प्रेम हो सकता है ? ये मार्ग विशुद्ध प्रेम का मार्ग है …इसमें आरम्भ भले ही आप श्रद्धा से करें ….किन्तु बाद में श्रद्धा कहाँ जाती है पता नही चलता …रह जाता है राग ….प्रगाढ़ राग । मैं उस बात को दोहराऊँगा नही , वैधी और रागानुगा मैं वैधी की अपेक्षा राग प्रधान भक्ति को ही श्रेष्ठ कहा है समस्त रसिकों ने । पूजा पाठ आदि श्रद्धा के रूप हैं ….किन्तु हृदय में टीस उठे , उस प्यारे की याद में हमारा हृदय तड़फने लगे ….वो है राग का रूप । वो है रागानुगा रति । इस मार्ग में इसी राग की आवश्यकता है …वैसा राग जैसा तुम्हारे पुत्र के प्रति है , वैसा राग जैसा अपने प्रिय या प्रेयसी के प्रति है …वही राग यहाँ अपेक्षित है । सखियों का राग है युगल सरकार के प्रति । प्रगाढ़ राग ।
श्रीहरिप्रिया जी आनन्द मग्न होकर इस झाँकी का वर्णन करके बता रही हैं …परमकृपा है उनकी जो हम जैसे जीवों को निकुँज रस ही नही आज तो “नित्य निभृत निकुँज” की चर्चा या झाँकी का दर्शन हम जैसों को करा रहीं थीं …मैं उन्हें मन ही मन प्रणाम कर रहा था ।
श्रीहरिप्रिया जी ने अब नेत्र खोले …..वो मुस्कुराती हुई बोलीं ….सखियाँ एक क्षण के लिए युगल वर से दूर नही रह सकतीं ….फिर इस रति केलि की लीला में वो कैसे दूर रहें । हरिप्रिया जी कहती हैं ….किन्तु रति केलि में दो के सिवा कोई भी तीसरा असह्य है ….तो सखियाँ यहाँ आभूषण बन जाती हैं ….कुण्डल , हार , नूपुर , भाल की बिन्दिया आदि आदि बन कर युगल की इस रसमयी केलि में युगल को और सुख प्रदान करती हैं ।
लाल जी का ध्यान कटि में ही था …वो अत्यन्त क्षीण कटि ….जिसमें करधनी बनकर सखी लग गयी है …..बज रही है वो करधनी , जब प्रिया जी इधर उधर चंचला हो उठती हैं तब । उस बजती करधनी के मधुर रव को सुनकर लाल जी का मन अब पूर्ण वश में हो गया है प्रिया जी के ।
तभी अपने चरणों को फैलाया प्रिया जी ने …..बस उसी समय लाल जी का ध्यान फिर गया, चरणों में बिछिया कितनी सुन्दर पहनी है ….ये सखी ही बिछिया बनकर प्रियाचरण अंगुलियों की शोभा और बढ़ा रही हैं ….या कहूँ लाल जी का मन मोह रही हैं । लाल जी किसी योगी की भाँति प्रिया जी के चरण अंगुलियों को निहार रहे थे कि एक सखी बाहर कुँज रंध्र से देखते हुए हंसीं …दूसरी ने पूछा ..अरी ! तू क्यों हँस रही है …..अब तू भी कुछ बनेगी क्या ? वो सखी मुस्कुराते हुए महावर बन गयी और प्रिया जी के चरणों में जाकर लग गयी ….उफ़ ! क्या कहें ….गौरचरणों में लाल महावर ! मानों अनुराग ही प्रिया चरणों से लिपट गयी हो ।
हरिप्रिया जी यहाँ रुक जाती हैं …..वो भाव सिन्धु में अवगाहन कर रही हैं ।
कुछ समय के बाद हरिप्रिया जी मुस्कुराते हुये कहती हैं ….एक सखी तो नीली साड़ी ही बनकर प्रिया जी के श्रीअंगों से लिपट जाती है….तपते सुवर्ण की तरह गौर वदनी प्रिया जी के अंग में वो नीली साड़ी ! उस साड़ी से प्रिया जी के श्रीअंग का प्रकाश फैल रहा है ….जिससे पूरा निकुँज जगमग हो रहा है …इस रूप माधुरी का दर्शन करके लाल जी आह भरते हुए मूर्च्छित हो गये हैं ।
शेष
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (142)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
‘प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ताभिः’- ये गोपियाँ जिन्हें श्रीकृष्ण ने स्वीकृति दी, माने जिनके हृदय में पूर्वराग उत्पन्न हुआ, जिन्होंने वंशी-ध्वनि सुनी, जिन्होंने कात्यायनी-व्रत किया, जिन्होंने चीरहरण करने पर भी श्रीकृष्ण में दोषदृष्टि नहीं की- भागवत में यह बात बिलकुल स्पष्ट है- तानाभ्यसूयन् प्रियसंगनिर्वृताः- चीरहरण करने पर भी श्रीकृष्ण के प्रति दोषवृत्ति किसी गोपी की नहीं हुई- जिसके लिए गोपियों ने धर्म का, अर्थ का, काम का, मोक्ष का परित्याग किया; और तो और, श्रीकृष्ण के कहने पर भी कि तुम घर लौट जाओ और अपने धर्म का पालन करो, घर नहीं लौटीं और गुरुजी का उपदेश नहीं सुना, जिनके गुरु भी श्रीकृष्ण और गति भी श्रीकृष्ण।
कृष्ण के लिए, गोपियों के गुरु इस अर्थ में भागवत में प्रयोग है-
अध्यात्मशिक्षया गोप्यः एवं कृष्णेन शिक्षिताः ।
अपना सर्वस्व लेकर जो श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित हैं लेकिन श्रीकृष्ण ने जिनकी तरफ देखा ही नहीं; उन गोपियों ने अब देखा कृष्ण की उदार चेष्टा को तो उनका मुखकमल खिल गया। प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ‘प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिः’- प्रेमी का प्रसाद कहाँ है? प्रेमी की प्रसन्नता कहाँ है? प्रेमी का प्रसाद वस्त्र में, आभूषण में, भोजन में, भज कलदारम्-भजकलदारम् में नहीं होता। वह तो प्यारे की आँखों में है। प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिः ।
प्यारी जी, तिहारी आँखिन में माधव जैसे अपनव देखत ।
तैसे तुम देखति हौ, किधौ नाँही ?
मोको तो भावती ठौर प्यारे प्यारी जू के नैनन में ।
प्यारे के नयनन में प्यारे भये चाहें मेरे नयनन के तारे ।।
राधारानी से पूछा- प्यारी जू! तुमको अपने को कहाँ देखकर खुशी होती है? क्या शीशे में देखकर कि हमारी बिन्दी बहुत अच्छी लगी या बाल बहुत अच्छे सँवरे हैं या साड़ी बहुत अच्छी लगती हैं, या बड़ा सुन्दर श्रृंगार है? क्या शीशे में देखते हैं तब खुशी होती है?+
राधिकारानी कहती हैं- नहीं-
मोको तो भावती ठौर प्यारे के नैनन में ।
मैं शीशे में अपने को देखकर खुशी नहीं होती हूँ, अपने प्यारे की आँखों के शीशे में जब अपने को देखती हूँ, माने जब इतना निकट होती हूँ कि उनके नेत्र में मैं अपनी परछाईं देख सकूँ, तब प्रसन्न होती हूँ। मुझको तो बस यही भाता है, मुझको तो बस वहीं रहना अच्छा लगता है- मैं प्यारे की आँखों में रहूँ, और
प्यारो भयो चाहे मेरे नयनन के तारे ।
ये महाराज, व्रज के जो रसिक हैं, उनका भाव बड़ा विलक्षण है। कृष्ण चाहते हैं कि प्रियाजी की आँख में जो काला तिल है वह मैं बनकर रहूँ, और प्रियाजी चाहती हैं कि प्यारे की आँख में तिल बनकर मैं रहूँ!
प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखी- ‘प्रियेक्षण’ का दो अर्थ होगा। प्रियस्य ईक्षणम् प्रियेक्षणम्। इसमें ‘प्रियस्य’ में जो षष्ठी है वह कर्म में भी और कर्ता में भी, दोनों में चलती है। इसलिए प्रिय का देखना और प्रिय को देखना- दोनों अर्थ प्रियक्षण का है। ‘प्रियकर्तृकं यत्र ईक्षणं’ अथवा प्रियकर्मकं यत्र ईक्षणं हम देखें प्यारे को, और प्यारे देखें हमको। प्रिय शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है- तृप्ति, प्रिय तर्पण से। जिसके दर्शन तृप्ति हो वह है प्रिय। गोपियों का मुख है कमल और प्रिय के दर्शनमात्र से ही वह मुख-कमल उत्फुल्ल हो गया। जब तक श्रीकृष्ण ने गोपियों की ओर नहीं देखा था, तब तक उदास, अनुत्फुल्ल, कुम्हलायी हुई थीं और जहाँ श्रीकृष्ण ने देखा वहीं उत्फुल्ल। कहते हैं कि-
उनको देखकर जो चेहरे पर आ जाती है रौनक ।
वे समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
हँसते तो हैं उनको देखकर, पर वे समझते हैं कि पहले से ही वह हँस रहा है। माने हमारी बीमारी तो कभी उनकी समझ में आती नहीं, यह प्रेमियों का हमेशा से ही उलाहना है। धर्म की दृष्टि से, मीमांसा की दृष्टि से, दर्शनशास्त्र की दृष्टि से, ब्रह्म और धर्म के निर्णय की दृष्टि से, संस्कृतभाषा हमेशा से परिपूर्ण रही है। लेकिन संस्कृतभाषा में प्रेम की बहुत सी बातें मुसलमानी जमाने के बाद आयी हैं।++
जैसे सनातन गोस्वामी और रूप गोस्वामी श्रीचैतन्य महाप्रभु के पास आने से पहले नवाबों के यहाँ दीवान थे तो वे उर्दू-पारसी के बड़े भारी जानकार थे जिसमें प्रेम-साहित्य का विपुल भण्डार था। उससे प्रेरित होकर भी उन्होंने संस्कृत भाषा में प्रेम का इतना साहित्य लिखा है। कि देखकर आश्चर्य हो जाता है। हमारा यह मतलब नहीं है कि उनका सारा प्रेम साहित्य उर्दू-फारसी से आया है। हमारा अभिप्राय यह है कि सब साहित्य पर समय का प्रभाव अवश्य पड़ता है, समय की एक माँग होती है जो साहित्य में परिलक्षित होती है। जैसे मध्यकालीन हमारे कितने सन्त हुए- तुलसीदास, सूरदास और सभी वृन्दावनी सन्त हैं उन सबके साहित्य में तात्कालिक परिस्थितियों का प्रभाव दिखायी देता है। तेरी याद ने जो दिल में दर्द दिया। कुछ ऐसा मजा मैंने उसका लिया ।। न करूँ न करूँ न करूँ मैं दवा। मैंने खाई है अब तो दवा की कसम ।।
प्रेम में जो दर्द होता है वह भी मीठा लगता है इसलिए अब इसकी भी दवा नहीं करेंगे। लेकिन लौकिक प्रेम का वर्णन करना दूसरी बात है और यह जो आत्मप्रीति है, ईश्वर का प्रेम है, वह दूसरी चीज है। और महाराज, यह दुनियादारी का जो प्रेम है, यह तो बहुत मामूली चीज है। एक दिन मैंने दुनिया का प्रेम देखा नारायण! वृन्दावन में थे तो हमारे ये प्रेमीलोग जो हमारे साथ रहते हैं, इन लोगों ने रसगुल्ला खाया और रसगुल्ला खाकर उसके रस का दोना नीचे फेंक दिया। अब छोटे-छोटे पिल्ले थे, उन्होंने आकर के दोना चांटा। चाटने के बाद उनके मुँह में भी रस लग गया। तब उन्होंने क्या किया कि एक दूसरे का मुँह चाटना शुरू किया। अपनी जीभ तो अपने मुँह पर वहाँ तक पहुँचे नहीं जहाँ तक रस लगा था, इसलिए वे अपना-अपना मुँह एक दूसरे से चटावें। तो नारायण! इसको बोलते हैं संसारी प्रेम कि तुम अपना मुँह हमको चटाओ और हम अपना मुँह तुमको चटावें। इसी को समझते हैं कि बड़ा भारी प्रेम है। अरे! यह प्रेम तो पशुओं में भी होता है, इसका नाम प्रेम नहीं है। प्रेम मुँह के बाहर रहने वाली चीज नहीं है, प्रेम दिल के भीतर रहने वाली चीज है, हृदय में रहने वाली चीज है, वह हार्दिक वस्तु है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 29
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जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये |
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् || २९ ||
जरा – वृद्धावस्था से; मरण – तथा मृत्यु से; मोक्षाय – मुक्ति के लिए; माम् – मुझको, मेरे; आश्रित्य – आश्रय बनकर, शरण लेकर; यतन्ति – प्रयत्न करते हैं; ये – जो; ते – ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म – ब्रह्म; तत् – वास्तव में उस; विदुः – वे जानते हैं; कृत्स्नम् – सब कुछ; अध्यात्मम् – दिव्य; कर्म – कर्म; च – भी; आखिलम् – पूर्णतया |
भावार्थ
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जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं | वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं |
तात्पर्य
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जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग इस भौतिक शरीर को सताते हैं, आध्यात्मिक शरीर को नहीं | आध्यात्मिक शरीर के लिए न जन्म है, न मृत्यु, न जरा, न रोग | अतः जिसे आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो जाता है वह भगवान् का पार्षद बन जाता है और नित्य भक्ति करता है | वही मुक्त है | अहं ब्रह्मास्मि – मैं आत्मा हूँ | कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह यह समझे कि मैं ब्रह्म या आत्मा हूँ | शुद्धभक्त ब्रह्म पद पर आसीन होते हैं और वे दिव्य कर्मों के विषय में सब कुछ जानते रहते हैं |
भगवान् की दिव्यसेवा में रत रहने वाले चार प्रकार के अशुद्ध भक्त हैं जो अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं और भगवत्कृपा से जब वे पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं, तो परमेश्र्वर की संगति का लाभ उठाते हैं | किन्तु देवताओं के उपासक कभी भी भगवद्धाम नहीं पहुँच पाते | यहाँ तक कि अल्पज्ञ ब्रह्मभूत व्यक्ति भी कृष्ण के परमधाम, गोलोक वृन्दावन को प्राप्त नहीं कर पाते | केवल ऐसे व्यक्ति जो कृष्णभावनामृत में कर्म करते हैं (माम् आश्रित्य) वे ही ब्रह्म कहलाने के अधिकारी होते हैं, क्योंकि वे सचमुच ही कृष्णधाम पहुँचने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं | ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण के विषय में कोई भ्रान्ति नहीं रहती और वे सचमुच ब्रह्म हैं |
जो लोग भगवान् के अर्चा (स्वरूप) की पूजा करने में लगे रहते हैं या भवबन्धन से मुक्ति पाने के लिए निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ब्रह्म अधिभूत आदि के तात्पर्य को समझते हैं, जैसा कि भगवान् ने अगले अध्याय में बताया है |


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