] Niru Ashra: 🙏🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 6️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#नतोहम्रामबल्लभां ……_
📙#श्रीतुलसीदास जी📙
#मैवैदेही !……………_
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चारों ओर से हिरण , हिरणियाँ , वृक्षों में मोर …अन्य पक्षी ………..अरे! यहाँ तक की हिंसक प्राणी सिंह रीछ व्याल ये सब भी आगये थे …..पर ये भी कुमार के क्रन्दन को सुनकर आँसू बहा रहे थे ।
अब जाओ तुम कुमार ! मथुरा यहाँ से दूर है …………….जाओ !
मैने इतना कहकर कुमार को भेज दिया था ।
वो लड़खड़ाते हुए उठे ………..मुझे प्रणाम किया …………फिर अपनें रथ की और ………………….पर फिर एक बार मुड़कर मेरी ओर देखा था ………….
“मेरे प्राण कैसे हैं कुमार” ? ……ये बात मैने चिल्लाकर पूछी थी ।
इस प्रश्न नें अंदर तक झकझोर दिया था कुमार को …….
मै भी ये प्रश्न पहले ही पूछना चाह रही थी …………पर ।
इस दासी को याद तो करते हैं ना मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी ?
कुमार के हाथों से रक्त निकलनें लगा था ………….क्यों की मेरे इस प्रश्न को सुनकर रथ में रखे तलवार को अपनी हथेलियों से दवा दिया था कुमार नें ………….हाथों से रक्त और आँखों से आँसू ।
आप सच में सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं भाभी माँ !
आपको कोई शिकायत नही है …….किसी से कोई शिकायत नही है ! ओह ! ।
आप जैसी सहन शीलता इस विश्व व्रह्माण्ड में किसी के पास नही होगी ……….कुमार और भी बहुत कुछ बोलना चाहते थे …….पर मैने ही उन्हें भेज दिया ।
लौटकर अपनी कुटिया में आगयी …………………….
क्यों न हो कुमार मुझ में सहनशीलता ! मै भूमिजा जो हूँ ।
मेरी माँ भूमि है ………….मै भूमि की पुत्री हूँ ।
कितना करते हैं हम लोग भूमि के ऊपर ……….उसको खोदते हैं ……..उसपर मल विसर्जन करते हैं …….पर क्या कभी शिकायत की …मेरी माँ नें …………फिर पुत्री में वही गुण तो आयेगे ही ना …….
मैने मन ही मन कहा ………………..।
फिर बैठ गयी ………….ताल पत्र और लेखनी लेकर …………सिंदूर और अनार के लकड़ी की लेखनी और स्याही बनाई थी …..
उसी से फिर लिखनें लग गयी अपनी आत्मकथा ।
जनकपुर में राजाओं का आना शुरू हो गया था ………..पिनाक जो तोड़ेगा उसे सीता मिलेगी ……….बस इसी आस से युवा राजा ही नही प्रौढ़ राजा भी आरहे थे …….सब लोग आते ही धनुष को देखना चाहते थे । धनुष पिनाक ………हाँ ठीक कहा था देवर्षि नारद जी नें ये धनुष चिन्मय है ।
कितना भारी हो जाता था ! ……राजा ताल ठोक कर पिनाक के पास जाते थे ………….पर उठानें की बात तो दूर गयी वो धनुष को हिला भी नही पाते ।
इस तरह नित नए नए राजा आते गए ……………….एक दिन !
रावण और वाणासुर दोनों आगये थे ………………इनके आनें की सूचना मेरे पिता जी को दो दिन पहले ही मिल गयी …..तभी से मेरे पिता चिंतित दीख रहे थे ।
मैने सुनयना माँ से ये कहते सुना कि – महारानी ! बाणासुर तो मुझे अपना बड़ा भाई मानता है …………….मुझे गुरुभाई मानता है ………..इसलिये वो पिनाक उठानें की सोच भी नही सकता ………वो अवश्य मेरे कार्य में सहयोग करनें आरहा है ……..पर ये दशानन ! ये महादुष्ट है ………..चिन्ता मुझे यही है कि कहीं रावण पिनाक को तोड़नें के लिए आगे बढ़ा …….और उससे पिनाक टूट गया तो ? मेरी पुत्री राक्षस के यहाँ जायेगी !………..नही ।
तब मेरी माँ सुनयना नें मेरे पिता को समझाया था ………….अब ये बात पक्की हो गयी है कि पिनाक धनुष चिन्मय है ……….वह जड़ नही है ।
इसलिये रावण के हाथों ये स्वयं नही टूटेगा ………..आप देख लेना स्वामी ! मेरी माँ ने समझाया था ।
पर ये क्या रावण और बाणासुर तो दूसरे दिन ही आ धमके थे ।
मेरे पिता के चरण छूए बाणासुर नें ……..बड़े गुरुभाई कहकर …………….जय शंकर की ! अहंकार में भरा रावण यही बोला था मेरे पिता से ।
क्रमशः….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: !! दूधमति का तट और मौनी बाबा !!
श्रीजनकपुरधाम श्रीकिशोरी जी का पावन धाम, यहाँ एक सिद्ध महात्मा रहते हैं, परम सिद्ध । उनको “मौनी बाबा”कहते हैं, वो बोलते नही हैं, किन्तु मुझ से तो बहुत बोले, बात बाहर से बोलने की नही हो रही है, उनको सुनने वाला चाहिए , हृदय से हृदय में संप्रेषित करते हैं वो बात को ।
दूधमती नदी का तट , किशोरी जी खेलती हैं यहाँ …अपनी सखियों के साथ । जी ! प्रत्यक्ष ! आप कहोगे आज भी ? तो मेरा कहना ये है कि किशोरी जी को आप इतिहास मानते हैं क्या ?
उसी दूधमति के तट पर ये बाबा रहते हैं …यहाँ के पक्षी भी “सिया सिया” बोलते हैं …..किन्तु आपको सुनाई तब देगा जब आप कुछ देर के लिए ठहर जाओ …हो जाओ शान्त । कुछ न करो …बस इस स्थान में बह जाओ …इस स्थान की ऊर्जा को आत्मसात् करो …..यही कहा था मुझ से मौनी बाबा ने …मेरे प्रति बहुत स्नेह है इनका….हाँ , मैंने अपने जीवन में यही कमाया है …कि सिद्ध महात्मा जन मुझ पर अपना वात्सल्य लुटाते हैं । कहा उन्होंने – कि कुछ देर ठहर जाओ इस स्थान में ….कुछ मत करो …हम कुछ करते हैं तो वही हमें रोकता है …कुछ मत करो …जाओ और दूधमति के तट में बैठ जाओ ….मेरे साथ कुछ साधिकाएँ थीं ….साधक थे …कम थे …जिन्हें बुलाया था मौनी बाबा ने वही गये थे …मैं दूधमति में जाकर बैठ गया था ….आँखें बन्द कर लीं …कुछ करना नही है …न करना ही ध्यान है ….वेला थी प्रातः की …चारों ओर हरियाली ….केले के वृक्ष बड़े बड़े थे ….पक्षियों का मधुर कलरव । क्या कहें ! तभी…..
अत्यन्त गौर वरण …सुवर्ण के समान श्रीकिशोरी जी …उनकी हंसीं गूंज रही थी ….एक अद्भुत दिव्य खिलखिलाहट ….बारह वर्ष की कन्या …उनका तेज फैल रहा था पूरे उस दूधमति के तट में ….उनके साथ उनकी सखियाँ थीं …..वो भी एक से एक सुन्दर ….सबकी आयु लगभग वही थी …..कंदुक लिए खेल रहीं थीं सब ….कंदुक क्रीड़ा चल रही थी ….जिसके पास में कंदुक जाता वो दूसरे को देतीं कंदुक जब कोई सखी पकड़ नही पातीं तो किशोरी जी ताली बजाकर हंसतीं …..उनकी वो ताजी खिलखिलाहट …..उनकी खिलखिलाहट से दूधमति के कमल खिल रहे थे …….ओह ! क्या प्रेम बरस रहा था …तभी …..एक सखी के हाथों कंदुक दूधमति में गिर गया …..किशोरी जी उदास हो गयीं …..उनको उदास देख …सारी सखियाँ दूधमति के जल में उतर गयीं …..पर कंदुक नही मिला …किशोरी जी दूधमति में देख रहीं हैं …झुक कर देख रहीं हैं …..कितना सुन्दर खेल चल रहा था …..पक्षी भी इस खेल को देखकर चहक रहे थे …..वन प्रान्त प्रमुदित था …पर कंदुक खो गया ….कपोल में हाथ रखकर झुक कर किशोरी जी दूधमति में देख रहीं हैं ….सखियाँ खोज रहीं हैं ……तभी …कंदुक मिल गया ….सखियों में उत्साह भर गया ….सब आनंदित होकर उछलने लगीं ….किन्तु ! अब क्या हुआ ? किशोरी जी का नथ गिर गया था दूधमति में …..ये दूसरी परेशानी खड़ी हो गयी थी सखियों के लिए …..अब सबको खोजनी थी किशोरी जी की नथ ….किशोरी जी कह रहीं थीं ….रहने दो ….कंदुक खेलते हैं …..उसी में आनन्द आएगा …किन्तु सखियों की जिम्मेदारी है …..नही तो डाँट पड़ेगी सुनयना मैया से ……डाँट भले न पड़े ..पर डरना तो स्वाभाविक है ….कल से अगर किशोरी को मैया ने नही भेजा तो । अब क्या ? सब खोज रही हैं …..समय बीत रहा है ….क्या करें ! किशोरी जी का मुखचन्द्र मुरझा गया है ….उनका कहना कोई मान नही रहा ….उनका कहना है ..छोड़ो ना ..कंदुक ही खेलती हैं …पर कोई नही मान रहीं …..
मुझ से रहा नही गया ……मैं देख रहा हूँ …..मैं कूद पड़ा दूधमती में ….एक कमल में गिर गयी थी नथ मैंने उस कमल को ही तोड़कर उनकी सखियों के हाथों में दिया ….मेरी ओर देखकर सखियाँ आपस में हंसने लगीं ….किशोरी जी को नथ पहना दिया था सखियों ने ……एक बार कृपा दृष्टि मेरी ओर भी किशोरी जी ने की …..और सब चली गयीं खेलते हुए कंदुक । मैं देखता रहा ….देखता रहा ……आनन्द रस में डूब गया था मैं ….अब क्या कहूँ ।
जनकपुर का ये क्षेत्र पावन है ….नही नही …पूरा जनकपुर ही पावन हैं किन्तु ये दूधमति का क्षेत्र, पावन भी यहाँ पावन होता है ….कोई जनकपुर आए तो यहाँ अवश्य आएँ …आकर ठहर जाएँ ….बैठें ….यहाँ किशोरी जी खेलती हैं …..आज भी …उनकी चहक सुनाई देती है ……..मौनी बाबा सिद्ध हैं , अभी सशरीर हैं ….इनके पास बैठिए …इधर उधर भटकिये मत ……..
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (156)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-1
गोपियाँ तो चाहती नहीं है कि श्रीकृष्ण को छोड़कर जायँ। गोपियो को तो- केशान् दुकूलं कुचपट्टिकां वा- अपने बालका ख्याल नहीं, अपने कपड़े का ख्याल नहीं, छाती पर जो कपड़ा बाँधते हैं, इसका भी गोपियों को ख्याल नहीं। नूपुर का ख्याल नहीं, कंगन का ख्याल नहीं, केश का ख्याल नहीं, अपने शरीर का ख्याल नहीं, सब कुछ भूल गयीं गोपियाँ और श्रीकृष्ण को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं- अनिच्छन्त्यो ययुः पर अनिच्छा होने पर भी घर वापस गयीं। कैसे गयीं? तो भगवत् प्रेम में जो वैराग्य है उसका स्वरूप दूसरा है और संन्यासियों के निर्गुण ब्रह्म में जो वैराग्य रहता है उसका स्वरूप दूसरा है। भगवान ने कहा- तुमको सगुण साकार ब्रह्म में जैसा वैराग्य रहता है वैसा रहना चाहिए; प्रेम करो हमसे, और रहो घर में, ठीक ठिकाने से। गोपियाँ घर जाना थोड़े ही चाहती थीं, ‘अनिच्छन्त्यः’ जाना नहीं चाहती थीं। परंतु श्रीकृष्ण ने भेज दिया। यह गोपियों को घर भेजना, यह श्रीकृष्ण का समग्र वैराग्य है। और हमेशा के लिए उनका ऋणी होना यह उनका प्रेम है- तो-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
*ज्ञानवैराग्ययोश्चेव षण्णां भग इतीरणा ।।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम में अपने ब्रह्मत्व को, अपने गोलोक को, अपने वैकुण्ठ को, अपने ईश्वरत्व को, और अपने धर्मार्थकाममोक्ष को भी, अपनी भगवत्ता को भी निछावर करके तब गोपी से प्रेम करते हैं। इसी से बोलते हैं कि प्रेम का राजा श्रीकृष्ण और प्रेम की रानी गोपी। आपको इसका दूसरा पक्ष कल सुनावेंगे।+
रासलीला का अन्तरंग-2
(गोपी-प्रेम की विशेषता)
प्रेमी कृष्ण हैं, और प्रेयसी प्रियतमा गोपियाँ! और श्रीकृष्ण कितना प्रेम करते हैं कि अपना समग्र भगवत्व, अपनी समूची सारी भगवत्ता, गोपियों को अपने से मिलाने से खर्च करते हैं। अपना सारा ऐश्वर्य, सारा धर्म, सारा यश, सारी श्रीः सारा ज्ञान और सारा वैराग्य- अपनी सारी भगवत्ता दाँव पर लगाकर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों को अपनी ओर आकृष्ट किया- यह बात आपको कल सुनायी थी। ध्वनि के द्वारा बुला लेना, वाक् के द्वारा मना करना, और मना करने पर उनके न मानने का उनके अंदर सामर्थ्य उत्पन्न कर देना, उनके मुख से यश-श्रवण करना रूप-रमण में गर्व आना, यद्यपि गोपी गर्व लेकर आयी हैं तथापि उनको स्वीकार कर लेना, गर्व देखकर के अन्तर्धान हो जाना, अन्तर्धान होने पर भी सुखी रहना, और रूपरमण के स्थान पर नामरमण, यशोरमण, कीर्तिरमण, करवाना- पूजा करो, पाठ करो, माला फेरो- गोपीगीत के रूप में ज्ञान का वर्णन करवाना, पूजा करो, पाठ करो, माला फेरो- गोपीगीत के रूप में ज्ञान का वर्णन करवाना, आविर्भाव के रूप में अपनी श्री, सौन्दर्य प्रकट करना, प्रेम-प्राकट्य के रूप में गोपियों के प्रेम के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, गोपियों के न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं- और उनके सामने अपनी भगवत्ता का आविर्भाव- पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः- अनेक रूप होना, उनके हृदय में होना, गोपियों का तन्मय हो जाना, और अन्त में कह देना कि लो तुम घर जाओ- यह नहीं कि रास करने से भगवान के वैराग्य में या अपनी असंगता में रत्ती भर कमी आयी हो! गोपी जाना नहीं चाहती थीं, पर चली गयीं। अनिच्छन्त्यो ययुः।
श्रीमद्भगावत में जो श्रीकृष्ण का रूप है। वह जरा प्रेमी रूप है। श्रीमद्भागवत् पर जैसे श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज के निबन्ध आदि अनेक ग्रंथ हैं; सम्प्रदाय के भी हैं, लेख हैं, महाप्रभु के हैं, विट्ठल प्रभु के हैं, गोकुलराय के हैं, हरीराय के हैं; वैसे चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय में भी सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रूप गोस्वामी, विश्वनाथ चक्रवर्ती, बलदेव विद्याभूषण अनेक महात्मा लिखते हैं। श्रीवल्लभ-सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण के प्रेम को मुख्य मानते हैं। इतना प्रेम है श्रीकृष्ण में कि गोपियों के अयोग्य होने पर भी उनको योग्य बनाने के लिए अपनी समूची भगवत्ता का जोर लगाकर के उनको अपने विहार के योग्य बना लेते हैं। श्रीरूप गोस्वामी ‘संदर्भ’ में कहते हैं श्रीमद्भागवत् के श्रीकृष्ण तो प्रेमी हैं, कैसे उनको कुरुक्षेत्र में जब यशोदा नन्द मिल गये तो अपना सिर उनकी गोद में रख दिया और रोने लग गये; यह रोने वाला भगवान! मइया लेती है हाथ में साँटी और वे डरते हैं। कहते हैं- मइया, मैंने अपराध नहीं किया।++
मइया बाँधती है ऊखल में, तो बँध जाते हैं। मइया की गोद में सिर रखकर रोने लगते हैं। सुदामा जी आते हैं तो उनको हृदय से लगा लेते हैं, प्रीतो व्यमुञ्चत् अब्बिन्दूनू नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः- टपाटप आँखों से आँसू गिरते हैं-
पानी परात को हाँथ छुओ नहिं, नयनन के जल सों पग धोये ।।
भला बताओ, जिसको आँख से आँसू गिरे प्रेम में वह भगवान? स्वयं भगवान अपने भक्त के प्रेम में रो रहे हैं। उधर कुण्डनपुर से चिट्ठी आयी तो बोलते हैं कि ब्राह्मणदेव, हमको तो नींद ही नहीं आती। तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि। हमारा ऐसा मन लग गया है वैदर्भि में कि हमको तो रात-रात नींद ही नहीं आती। चिन्ता अनिद्रा, रोदन, सब तो है श्रीकृष्ण में! बोले भाई- ऐसे प्रभु से, ऐसे भगवान से जो इतना बड़ा हो करके अपने प्रेमी से, अपने भक्त से, इतना प्रेम करता है, यदि कोई प्रेम न करे, तो उससे बढ़कर के बुद्धिहीन और कौन होगा!
अब थोड़ी सी दृष्टि गोपी के प्रेम पर नारायण!
उत्तम्भयन रतिपतिं रमयाञ्चकार- एक बात आप देखो कि पढ़ते तो हैं रोज, पर बात सूझती है कभी-कभी। आप नारायण देखो, गोपियों के बारे में शुकदेवजी की गवाही यह है- तदर्थ विनिवर्तित-सर्वकामाः- श्रीकृष्ण के लिए उन्होंने काम को भगा दिया है, लौटा दिया है कि जाओ तुम मनुष्यलोक में जाओ, पाताललोक में जाओ, स्वर्ग में जाओ, हमारे पास मत आओ। गोपियाँ स्यवं कहती हैं- सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तवपादमूलंभक्ताः सब विषयों का परित्याग करके हम तुम्हारे चरणारविद की प्रेमिका हैं। बोले- फिर गोपियों में यह काम आया कहाँ से?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 16
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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || १६ ||
आ-ब्रह्म-भुवनात् – ब्रह्मलोक तक; लोकाः – सारे लोक; पुनः – फिर; आवर्तिनः – लौटने वाले; अर्जुन – हे अर्जुन; माम् – मुझको; उपेत्य – पाकर; तु – लेकिन; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; पुनःजन्म – पुनर्जन्म; न – कभी नहीं; विद्यते – होता है |
भावार्थ
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इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है | किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता |
तात्पर्य
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समस्त योगियों को चाहें वे कर्मयोगी हों, ज्ञानयोगी या हठयोगी – अन्ततः भक्तियोग या कृष्णभावनामृत में भक्ति की सिद्धि प्राप्त करनी होती है, तभी वे कृष्ण के दिव्य धाम को जा सकते हैं, जहाँ से वे फिर वापस नहीं आते | किन्तु जो सर्वोच्च भौतिक लोकों अर्थात् देवलोकों को प्राप्त होता है, उसका पुनर्जन्म होते रहता है | जिस प्रकार इस पृथ्वी के लोग उच्चलोकों को जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोक जैसे उच्चतर लोकों से लोग पृथ्वी पर गिरते रहते हैं | छान्दोग्य उपनिषद् में जिस पंचाग्नि विद्या का विधान है, उससे मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है, किन्तु यदि ब्रह्मलोक में वह कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं करता, तो उसे पृथ्वी पर फिर से लौटना पड़ता है | जो उच्चतर लोकों में कृष्णभावनामृत में प्रगति करते हैं, वे क्रमशः और ऊपर जाते रहते हैं और प्रलय के समय वे नित्य परमधाम को भेज दिये जाते हैं | श्रीधर स्वामी ने अपने भगवद्गीता भाष्य में यह श्लोक उद्धृत किया है –
ब्रह्मणा सह ते सर्वे सम्प्राप्ते प्रतिसञ्चरे |
परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम् ||
“जब इस भौतिक ब्रह्माण्ड का प्रलय होता है, तो ब्रह्मा तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर प्रवृत्त उनके भक्त अपनी इच्छानुसार आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड को तथा विशिष्ट वैकुण्ठ लोकों को भेज दिये जाते हैं |”
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877