] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 7️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सहजविरागरूपमनुमोरा…….
📙( #रामचरितमानस )📙
#मैवैदेही ! ……………._
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रावण गया ……………..तब जाकर मेरे पिता और मेरे परिवार नें राहत की साँस ली थी ……वैसे रावण कुछ कर सकता नही ……..पर तनाव तो दे ही देता ………।
बाणासुर को जब ये पता चला था …………..कि रावण के कारण जनक परिवार दुःखी था ……..वो तुरन्त बोला ……गुरु भाई ! मुझे क्यों नही बताया आपनें ………….अरे ! रावण मेरे सामनें क्या है !
बाणासुर नें हृदय से गुरुभाई का नाता निभाया …………।
मेरे स्वयम्वर में बाणासुर स्वयं उपस्थित रहा था ।
हाँ……अब मै जो लिखनें जा रही हूँ……..सीता यहीं से शुरू होती है ।
शाम का समय था ………कार्तिक लगनें में बस दो दिन ही तो बचे थे ।
शरद पूर्णिमा आने वाली थी ……………नवरात्रि अभी गयी ही थी ।
दीया जलानें का क्रम राजमहल में दशमी से ही शुरू हो गया था ।
उस समय ………….मेरे पिता जनक जी आये …………..पर उनकी दशा विलक्षण थी ।
क्या हुआ बताइये ना !
मेरे पिता की दशा ऐसी थी ……जिसको देखकर मेरी माँ भी कुछ समझ नही पा रही थी कि इन्हें हो क्या गया है !
मै भी शान्ति से चली गई थी ……..अपनें पिता जी को देखनें ।
क्या हुआ ? आप तो गम्भीर थे ……….फिर ये आपको क्या हो गया ?
आप की मुस्कुराहट आपके चेहरे से जा ही नही रही ……..!
अरे ! अरे ! सम्भल के ………………………..
मेरी माँ सुनयना नें पिता जी को सम्भाला था ……………
आप तो ऐसे लड़खड़ा रहे हैं …….जैसे कोई प्रेम में डूब जाए ।
मेरी माँ नें पिता जी को उलाहना दिया था ।
विवाह का प्रसंग शुरू हो गया था ……जनकपुर में ।
इसलिये मेरी सखियों को नित्य उत्सुकता बनी ही रहती ……..
हम लोग शाम के समय …….पिता जी के कक्ष में चले जाते …..और किसी और बहानें से उनकी बातें सुनते……..आज भी मेरी सहेलियाँ मुझे ले गयीं ……..क्या पता किसी राजकुमार नें धनुष तोड़ दिया हो ।
मेरे पिता जी मुस्कुराये ………हाँ प्रेम हो गया है ……………
इस तरह की भाषा कभी बोलते नही थे मेरे पिता जी ।
उनके रूप से प्रेम …..उनके अलौकिक सौंदर्य से प्रेम…….आहा !
कितनें सुन्दर हैं ………वो राजकुमार !
राजकुमार ? मेरी माँ सुनयना नें चकित हो पूछा ।
हाँ अयोध्या के राजकुमार……………..बड़े ही सुन्दर हैं देवी !
मेरी माँ को बताते हुए ……… मेरे पिता जी नें कहा था ।
किसके साथ हैं वो राजकुमार ?
ऋषि विश्वामित्र के साथ ……………..और पता है देवी सुनयना ! उन छोटे से दीखनें वाले राजकुमार नें तड़का को मार गिराया ।
सुबाहु और मारीच, इन सबका भी उद्धार किया मेरे प्रभु नें ।
मेरे पिता जी हँसे थे ……खूब हँसे ………….फिर अपनें आपको सम्भालते हुए बोले ………महारानी ! इतनें सुन्दर राजकुमार मैनें तो नही देखे थे ।
बड़े भाई साँवले हैं ……..और छोटे भाई गौरवर्णी हैं ।
पर आपको वो मिले कहाँ ? माँ सुनयना नें पूछा ……।
मैने ऋषि शतानन्द जी के कहनें से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पास भी अपनी निमन्त्रण पत्रिका भिजवाई थी ………
देवी सुनयना ! मुझे सूचना मिली कि महर्षि विश्वामित्र आरहे हैं ।
मै तुरन्त चला ………पर मेरे साथ शतानन्द जी भी साथ हो लिए थे ।
देवी ! नगर के पास ही एक बगीचा है ना ! उसी बगीचे में ठहरे हैं विश्वामित्र जी …….मुझे तो यही सूचना थी ………मै वहाँ पर गया ।
सुचना सही थी …………….पुरानें बरगद वृक्ष के नीचे बैठे थे बाबा विश्वामित्र ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: !! मिथिला की ये अटपटी साधना !!
आपको जाननी है मिथिला जनकपुर की अटपटी साधना ? तो चलिए आज आपको हम बता ही देते हैं …..इसे आप सरल कह सकते हैं …किन्तु सरल है नही ।
कैसी हो सहचरी ?
जनकपुर में आते ही मुझे एक सहचरी मिली …तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर पूछा वो शरमाई ….फिर बोली ….जीजा जी के होते साली को कोई कष्ट हो सकता ?
मैं निरुत्तर था । क्या कहता ।
अब आप समझ ही गए होंगे इसके जीजा कौन हैं ? अजी ! इसके जीजा हैं राम जी …जी, ठीक समझा आपनें , भगवान श्रीराम ….क्यों की सीता जी इनकी बहन हैं ।
ना ….कोई भजन नही …कोई माला जाप नही ….बस जीजा के रिश्ते की ठसक ..अगर ये ठसक आजाए तो आपको लगता है कुछ और करने की जरुरत है !
बड़े प्रेम से गाती है ये …”हम रा चाहिय पाहुन , धनुष और बाण यो”….सही तो बात है ससुराल में और सालियों के सामने जीजा धनुष बाण लेगा ? क्यों लेगा ? यहाँ मिथिला जनकपुर में कोई राक्षस थोड़े ही हैं ….जो धनुष बाण लोगे ! अब बताइये आप इसका क्या उत्तर देंगे ? अजी ! आप क्या उत्तर दोगे …इनका जीजा निरुत्तर हो जाता है यहाँ, फिर आप और हम क्या हैं ? पूछिए तो इन सहचरियों को ….कि धनुष बाण नही तो क्या चाहिए ? अब उत्तर भी सुन लीजिए ….”हम रा त चाही पाहुन मन्द मुस्कान यो” …..इन सालियों को बस अपने जीजा की मन्द मुस्कान चाहिए । आपको अब क्या लगता है …इन सबका जीजा क्या अपनी प्यारी इन सालियों से प्रसन्न नही होगा ? इनको प्यार नही करेगा । अजी ! खूब प्यार करेगा ….ख़्याल रखेगा ।
एक सहचरी थी ….हर समय सजी धजी ….उसके पति पधार गए ….किन्तु न चूड़ी तोड़ी न माथे की बिन्दी पोंछी ….कहती थी….जीजा को अच्छा नही लगेगा कि उसकी साली चूड़ी और बिन्दी पोंछ दे ……”शरीर कभी दुल्हन नही होती और आत्मा कभी विधवा नही होती” वाह ! ये उसका कहना था …ये मिथिला सहचरियाँ बातें ही मात्र नही बनातीं ….जीवन में जीती हैं ….सच्चे दिल से मानतीं हैं कि हमारे जीजा जी भगवान श्रीराम हैं …”भगवान” राम तो मैं कह रहा हूँ …ये कहाँ कहतीं हैं भगवान ! ये बस जीजा या पाहुन कहती हैं । मन्त्र आदि जपते हुए आप इन्हें पायेंगे नहीं …..न माला लेकर बैठे हुए ….कोई अपवाद हो तो बात अलग है । हाँ , ये सब रूप की उपासिका हैं ….इसलिए पद गातीं हैं ….और इनके पदों में गालियाँ हैं …..मीठी गालियाँ ….अब ये मत पूछिए कि इनका जीजा सुनता है ? सुनेगा नही ? तुम्हारी स्तुति , तुम्हारे स्तोत्र, तुम्हारे वेद मन्त्र एक बार वो नही भी सुन सकता है …किन्तु इतनी प्यारी सालियाँ गाली दें …उन्हें ये सुनेगा नही ?
कहते हैं ……राम जी घर जमाई बन कर जनकपुर में ही रह गए ?
अभी भी हैं यहाँ राम जी ? ये प्रश्न आप कर रहे हैं …तो आप क्या भगवान श्रीराम को अशोक सम्राट की तरह ऐतिहासिक पात्र मानते हैं ? ये इतिहास के पात्र थोड़े ही हैं ….ये तो सर्वत्र हैं और सर्वदा हैं ….अवतार काल से पहले ये नही थे क्या ? थे । आप इन्हें अपना मानों तो ….ये तो तुम से हर रिश्ता जोड़ने को तैयार ही हैं ….रावण ने शत्रु माना तो इन्होंने कितने प्यार से उस शत्रुता को निभाया । फिर कोई उसे जीजा कहे …और प्यार करे ….अपनी प्राणप्रिय बहन के पति को दुलार करे । सोचो ये कितना प्यार लुटाएगा अपने साले और सालियों में ।
ये साधना है ? आप पूछ सकते हैं ।
तो मैं यही कहूँगा कि ये समस्त साधनाओं में सर्वोच्च साधना है …..फिर पुरुष के लिए ये साधना कैसे होगी ? क्यों आप अपने आपको साला नही मान सकते भगवान श्रीराम का । सिया सुकुमारी को आप अपनी बहन मान सकते हैं …..तो श्रीराम जी आपके जीजा हुए ना ! ये बात मैं आपको जनकपुर धाम की बता रहा हूँ …यहाँ की इस अनूठी साधना का उल्लेख कर रहा हूँ ।
सुनिए एक और सहचरी थी जनकपुर में , उसका देह अब छूट गया है …..वो हर समय सज धज के ही रहतीं थीं …..श्रीसीता राम जी विवाह के पद बड़े सुन्दर गाती थी ….काठमाण्डू में उसका इलाज चला ……किन्तु वो ..मुझे मेरे जीजा जी के पास ले जाओ ..यही कहती रही ….मुझे बहन और बहनोई के सामने मरना है ….वो एक प्रकार से भाग कर ही अपने जनकपुर में आगयी और यहाँ अपने प्राण उसने त्याग दिए । प्राण त्यागते समय उसको संतुष्टि थी कि मेरा जीजा मुझे देख तो रहा है …अब बताइए – वो साली की दुर्गति अब होने देगा ?
ऐसी एक दो सहचरी नहीं हैं जनकपुर धाम में अनेक हैं …..और सबकी सब उच्च स्थिति की हैं ….किन्तु सहज हैं ।
एक सहचरी तो मेरे पास ही अधिकतर जनकपुर में रहती है ….85 वर्ष की जवान है ….मैं उसे जवान कहता हूँ …..इसलिए कि वो अपने आपको सुन्दर साली कहती है राम जी की …..मैं उसे “सुन्दर लग रही है”….कह देता हूँ तो शरमा जाती है …….उसके सामने कोई महामन्त्र या युगल मन्त्र गाये …तो झुँझला उठती है ……कहती है क्या “हरे कृष्ण राधे श्याम” करते हो ….जीजा जी को कोई सुन्दर सा पद सुनाओ …कोई भजन सुनाओ । किन्तु सहचरी ! नाम जाप से हमें लाभ होगा …आध्यात्मिक लाभ ….तो इस बात पर वो हंस देगी , कहेगी …अपना ही लाभ देखो …एक घण्टे से हरे कृष्ण राधे श्याम सुनकर कितने बोर हो रहे होंगे जीजा जी । उनका ख़्याल नही है तुम्हें ? अब क्या कहोगे ? शास्त्र की बातें बताओगे ? यहाँ की सहचरियाँ अपने ठेंगें में रखती हैं तुम्हारे शास्त्रों को ….तुम्हारे वेद के नियमों को ।
स्थिति की बात अब कर लो ….बड़ी ऊँची स्थिति है उसकी तो ….वो सहचरी तो “आप कब आए कब गये सब बता देगी” मेरे विषय में बता दिया …बड़ी भोली सी सहचरी है ….मैं उनकी स्थिति देखकर दंग था …मैं उनके घर गया तो बड़े प्रेम से मेरी बलैयाँ ले रहीं थीं ।
और एक की निष्ठा तो ऐसी कि बोली ….चाहे आप भी कहो कि “उनको भी मानों” तो भी हम नही मानेगे ….हम तो आपकी हैं …आपको ही मानेगे । वो किसी और के सामने सिर भी झुकाए तो उसे सिर दूखने लगता है ……….
ये है मिथिला कि अनूठी साधना ……….अरे सुनो ! सुनो !
एक सहचरी कल गा रही थी मस्ती में …….उसकी मस्ती को पाने के लिए बड़े बड़े सिद्ध भी लालायित होंगे …..जी ! वो गा रही थी ……..
“ललन तुमको मिथिला में रहना पड़ेगा , सरस मीठी गाली को सहना पड़ेगा”
क्या आप इस साधना को कर सकते हैं ? सरल तो लगती है किन्तु बड़ी दुष्कर है ये । कर सको तो निहाल हो जाओगे ।
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (158)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-2
माला फेरते हैं तो भगवान की याद नहीं आती, बेटे-बहू की याद आती है, दुश्मन की याद आती है, तो ये कैसे मिटे? और गोपी?
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप- प्रेंखेंखेनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्योःधन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ।।
या दोहने- गोपी कहती हैं कि गाय दुहते समय बड़ी गलती हुई? क्या हुआ? कि हमारे बगल में आकर कृष्ण बछड़े की तरह मुँह करके कहता है कि हमारे मुँह में दूध दो! तो हमने तो ऐसा समझकर कि आज सारा दूध कृष्ण के मुँह में दुह रही हूँ दूध दुहा, तो बर्तन तो रह गया खाली, और दूध सारा बह गया माटी में जब सावधान होकर देखती हूँ तो वहाँ कृष्ण था ही नहीं। देखा, उल्टा हुआ न! एक आदमी कहता है कि माले फेरते हैं और घर की याद आती है और गोपी कहती है हम घर का काम करती हैं और मन कृष्ण में चला जाता है।
एक दिन की बात है- एक गोपी यमुनाजी गयी थी, पानी भरने; पर पानी नहीं भरा गया तो यमुनाजी से थोड़ी दूर पर, बालू पर लगाया सिद्धासन और पीठ की रीढ़ सीधी की, और सिर सिधा किया, और आँख अधखुली करके और हाध दोनों गोद में रखकर बैठ गयी। थोड़ा प्राणायाम किया, और समाधिस्थ होने लगी। नारदजी आ गये।
कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण, श्रीकृष्णःशरणं मम, श्रीकृष्णः शरणं मम। गोपी झट सावधान हुई और बोली- बाबा ठहरो, उसका नाम मत लो। नारद जी ने कहा- एक बात सुनो गोपी, तुम यह कर क्या रही थी? क्या कृष्ण का ध्यान कर रही थी? क्या कृष्ण की मानसी सेवा कर रही थी? बोली- बाबा! उसका नाम मत लो। आज सबेरे उठी, गाय दुहने गयीं, तो धोखे में रही, न कृष्ण के मुँह में दूध गया, न बाल्टी में आया, सारा माटी में गया। घर लीपने गयी तो ऐसे लगे कि आगे-आगे मैं घर लीपती हूँ और पीछे-पीछे वह नाच-नाचकर लीपा हुआ बिगाड़ देता है, तो फिर दुबारा लीपा, फिर तिबारा लीपा, पर वहाँ कृष्ण तो आया नहीं था! वह हमारे मन का भ्रम था।
धान कूटने गयी चावल निकालने के लिए, तो आकर मालूम पड़े कि मूसल पकड़ लेता है। लेकिन वहाँ तो कुछ नहीं था। बाबा-कृष्ण का कोई दोष नहीं है, दोष तो मेरे मन का है जो मालूम पड़ता है कि उसने मूसल पकड़ लिया।+
दही मथने गयी तो मालूम हुआ कि आकर कहता है कि हमें माखन दे दो अब सारा। माखन निकला और धरती में गया, क्योंकि वहाँ कृष्ण तो था नहीं, बस हमको ऐसा मालूम पड़ता था। एक काम घर का नहीं हुआ, सबेरे से पानी भरने आयी, यमुनाजी में घड़ा डुबाया तो मालूम पड़ा कि पकड़ लिया उसने, मैं इधर खींचूँ और वह उधर खींचे; यमुना-जल में खींचाखींची हुई। गौर से देखा तो वहाँ कृष्ण कहीं नहीं है, वह मेरे मन का भ्रम था। तो बाबा, मैंने सोचा, कृष्ण का कोई दोष नहीं है, यह मेरे मन का दोष है। तो आओ, योगशास्त्र की रीति से आसन साधकर-शरीर सीधा करके, आँख अधखुली करके, प्राणायाम करके अपने मन को अपने वश में करें। हम मन वश में कर रही हैं, इसलिए नहीं कि कृष्ण में लगे, हम मन वश में कर रही हैं, इसलिए कि हम इसको काबू में रखें, कृष्ण से अपने मन को हटावें। कृष्ण में मन सटाने के लिए ध्यान उपासना, कोई समाधि नहीं लगा रहे हैं। कृष्ण से मन हटाने के लिए हम समाधि लगा रही हैं-
प्रत्याहृत्य मुनिः क्षणं विषयतो यस्मिन् मनोधित्स ते,
बालेयं विषयेषुधित्सतितत प्रत्याहरन्ती मनः ।
यस्यस्फूर्तिलवायहन्त हृदये योगी समत्कण्ठते,
मुग्धेयं किल तस्य पश्य हृदयात् निष्कान्तिमाकांक्षति ।।
ग्वालिनी प्रगट्यो पूरन नेहु ।
दधिभाजन शिर पर धरे कहति गुपालहिं लेहु ।।
ग्वालिन के सिर पर दही का बर्तन है और गाँव में पुकारती हैं- कोई गोपाल लेगा, गोपाल! उसके शिर का दही उसके लिए गोपाल हो गया है, भला!
तन्मनस्काः तदालापास्तद्विचेष्टाः तदात्मिकाः ।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरुः ।।
गोपी के हृदय में इतनी तन्मयता इतनी तन्यमता, तन्मनस्का स एवं मनो याषां- गोपी का मन क्या है? कभी गोपी ने अपनी आँख मोड़ी, देखें भीतर क्या है?
हमारा मन क्या कर रहा है? देखा तो मन मिला ही नहीं। वहाँ क्या है? वहाँ तो कृष्ण है, मन तो है ही नहीं-
तेरी गली में आकर खोये गये हैं दोनों ।
दिल तुमको ढूँढ़ता है, मैं दिल को ढूँढ़ता हूँ।
अपने दिल को ढूँढ़ने के लिए अंतर्मुख हुए तो वहाँ दिल नहीं मिला। कौन मिला? वहाँ तो कृष्ण मिला। यह है तन्मनस्काः गोपी की बातचीत में कृष्ण- तदालायाः। गोपी की चेष्टा भी श्रीकृष्ण के लिए- तद् विचेष्टाः तदात्मिकाः गोपी की आत्मा भी श्रीकृष्ण उन्हीं का गुणगान। यह बात कृष्ण ने मानी-
ता मन्मनस्काः मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः ।
मामेव दयितं प्रेष्ठं आत्मानं मनसा गताः ।।
ऐसी तन्मयता गोपियों के प्रेम में, ऐसी तन्मयता, कि गयी थी दही बेचने के लिए- परंतु- ‘आपहि गई बिकाय’। नारायण, दही तो बेच नहीं सकी, खुद ही बिक गयी। और गोपी की बात आपको सुनावें। यह आपको थोड़ी सी वेदान्त की बात, केवल लखाने के लिए। वेदान्ती ऐसा मानते हैं कि जैसे समझो फूल का ज्ञान हो, तो वहाँ दो ज्ञान होते हैं- इंदं पुष्पं तथा अहं पुष्पं जानामि- यह फूल है इदं पुष्पम् इसको बोलते हैं वृत्ति व्याप्ति, हमारी वृत्ति फूल में व्याप्त हो गयी, पुष्पाकार हो गयी और अहं पुष्पं जानामि- मैं फूल को जानता हूँ।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 18 – 19
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अव्यक्ताद्वयक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे |
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके || १८ ||
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते |
रात्र्यागमेSवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे || १९ |
अव्यक्तात् – अव्यक्त से; व्यक्तयः – जीव; सर्वाः – सारे; प्रभवन्ति – प्रकट होते हैं; अहः-आगमे – दिन होने पर; रात्रि-आगमे – रात्रि आने पर; प्रलीयन्ते – विनष्ट हो जाते हैं; तत्र – उसमें; एव – निश्चय ही; अव्यक्त – अप्रकट; संज्ञके – नामक, कहे जाने वाले |
भूत-ग्रामः – समस्त जीवों का समूह; सः – वही; एव – निश्चय ही; अयम् – यह; भूत्वा भूत्वा – बारम्बार जन्म लेकर; प्रलीयते – विनष्ट हो जाता है; रात्रि – रात्रि के; आगमे – आने पर; अवशः – स्वतः; पार्थ – हे पृथापुत्र; प्रभवति – प्रकट होता है; अहः – दिन; आगमे – आने पर |
भावार्थ
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ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं |
जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं |
तात्पर्य
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अल्पज्ञानी पुरुष, जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उन्हें पुनः इस धरालोक पर आना होता है | वे ब्रह्मा का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं, किन्तु ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं | दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं | वे पुनः ब्रह्मा का दिन आने पर प्रकट होते हैं | भूत्वा-भूत्वा प्रलीयते – दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुनः विनष्ट हो जाते हैं | अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा का जीवन समाप्त होता है, तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ो वर्षों तक अप्रकट रहते हैं | अन्य कल्प में ब्रह्मा का पुनर्जन्म होने पर वे पुनः प्रकट होते हैं | इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं | किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति कृष्णभावनामृत स्वीकार करते हैं, वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में तथा हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन में विताते हैं | इस प्रकार वे इस जीवन में कृष्णलोक को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत आनन्द का अनुभव करते हैं |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877