] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (159)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-2
यह फूल देखने का फलज्ञान हुआ। इसको बोलते हैं फलव्याप्ति। परंतु जब ब्रह्मज्ञान होता है तो ‘अहमेव ब्रह्म मैं ब्रह्म हूँ’ यह ज्ञान तो होता है। परंतु मैं ब्रह्म को जानता हूँ यह अभिमान उदय नहीं होता है। ब्रह्म घड़ी की तरह या फूल की तरह या किताब की तरह या आदमी की तरह ज्ञेय नहीं है। ब्रह्मज्ञान में अहं ब्रह्मज्ञानी इत्याकारक अभिमान नहीं होता, क्योंकि ब्रह्म घट-पटादि जड़ वस्तुओं के समान ज्ञेय नहीं है। अब चलो फिर वहीं चलें जहाँ ऐसा मालूम पड़ता है कि हम बड़े प्रेमी!
आप देखो, प्रेम की उल्टी रीति और विचित्र रीति! जब यह आपको मालूम पड़े कि सामने वाला हमको बहुत प्रेम करता है, हमारे लिए व्याकुल है, हमारे लिए मर रहा है, हमारे लिए दुःखी है, तो समझना कि अब हमारा प्रेम बढ़ेगा! जल देखे जल बाढ़ैला प्रेम को देख करके प्रेम बढ़ता है। और अगर तुमको यह ख्याल हो कि हमारा प्रेम बहुत है और उसका तो बहुत थोड़ा है तो समझना कि जितना-जितना उसका प्रेम कम मालूम पड़ेगा उतना-उतना तुम्हारा भी प्रेम कम होता है जायेगा। यदि उसका प्रेम ज्यादा मालूम पड़े और अपना कम मालूम पड़े तो अब तो अपना बढ़ेगा और उसका कम मालूम पड़े और अपना ज्यादा मालूम पड़े तो प्रेम घटेगा, क्योंकि जब प्रेम का अभिमान हो जाता है कि हम तो बड़ी सेवा करते हैं, बड़ा प्रेम करते हैं, तो अभिमान है कड़ी चीज, और प्रेम है और बड़ी रसीली चासनी; तो जैसे कोई कंकड़-पत्थर लेकर प्रेम की चासनी में डाल दे वैसे अपने प्रेमीपने का अभिमान जो है वह पत्थर होकरके प्रेम-रस में पड़ जाता है। श्रीराधारानी बोलती हैं-
नक्षोदीयानपि ममसखि प्रेमगन्धो मुकुन्दे
क्रन्दन्तीं मां निजसुगभता ख्यापनायप्रतीतिः।
अरी सखी! मेरे हृदय में प्रेम कहाँ? यह तो सूखा मरुस्थल है। क्या कभी वह सौभाग्य होगा हमारे जीवन में, जब हमारा हृदय प्रेम के अमृत-समुद्र से लबालब भर जायेगा? वह दिन कब होगा हमारे जीवन में? अरे, अभी तो मैं उनके देखे बिना जीती हूँ, उनको भुलाकर सोती हूँ, उनके बिना खाती हूँ, उनके बिना हँसती हूँ, उनके बिना मैं दूसरों को आँख से देखती हूँ, दूसरे की बात सुनती हूँ, मैं उनके बिना जी रही हूँ और मेरा नाम प्रेमी?+
एक चौथी बात प्रेम की बड़ी विलक्षण है। कहते हैं-
ग्वालिनी प्रगट्यो पूरन नेहु ।
दधिभाजन शिर पर लिय कहति गुपालहिं लेहु।
इसी में है कि हृदय एक मन्दिर हैं-
मंदिर ज्यों दीपक बरैं लखैं न बाहर कोय ।
तृण परसत परगट भयो अप गुपुत कौन विधि होय ।
जैसे मंदिर में भीतर दीपक जलता है पर बाहर से वह दिखायी नहीं पड़ता, वैसे हृदय एक मंदिर है और प्रेम उस हृदय-मंदिर की ज्योति है, अपने हृदय-मंदिर का प्रकाश है। वह बाहर जाहिर नहीं होना चाहिए। एक माता थी, एक से उनका बहुत प्रेम था। सचमुच था भला। गाँव को लोगों ने पूछा- तुम उनसे बहुत प्रेम करती हो? बोली- ना-ना, मेरे अंदर प्रेम कहाँ है? अब महाराज! गाँव के लोगों ने तो कहना शुरू किया कि इनका बहुत प्रेम है, और वह सिद्ध करने लगी कि ना-ना, मेरा प्रेम नहीं है। फिर जब ज्यादा कहा तो या तो बोले नहीं, और या प्रेमी की निन्दा करने लग जाय। कहती थी- प्रेम होता तो भला मैं निन्दा करती? अब लोगों ने उन दोनों प्रेमियों के बीच निन्दा को लेकर अन्तर डाल दिया। अन्तर कैसे पड़ा? यह अन्तर ऐसे पड़ा कि प्रेम जाहिर हो गया!
प्रेमाद्वयोरसिकयोरपिदीपएव हृद्वेश्मभासयति निश्चलमेष भाति ।
हृदय के मंदिर में यह प्रेम का दीपक प्रज्वलित होता है, परंतु – द्वारादयं वदनतश्चबहिर्गतश्चेत्- यदि यह मुँह के दरवाजे से निकला तो निर्याति-शान्तिमथवातनुतामुपैति- तो जैसे-दिये को आँचल से दबाकर भी चलो न, अगर बाहर की हवा लगेगी तो डाँवाडोल हो जायेगा, बुझ जायेगा! प्रेम को जितना जाहिर करना चाहता है वह भीतर उतना ही ठन-ठनपाल हो जाता है; और जो जितना भीतर गुप्त रखना चाहता है, उसके कण-कण में, उसके रोम-रोम में, उसके तन में, उसके शरीर में प्रकट होता है। गोपी में जो प्रेम है, नारायण उसको गोपी अपने हृदय में छिपाकर रखती है- गोपनात गोपी।++
एक प्रेम होता है, एकांगी-गोस्वामी तुलसीदास जी ने चातक के प्रेम की बड़ी भारी महिमा सुनायी है। लेकिन एक प्रेम होता है- समरथ-व्रजवासियों ने इस प्रेम की चर्चा की है। श्रीहितहरिवंशजी एक पद में कहते है कि चकवी और चकवा- चक्रवाक और चक्रवाती के बारे में यह प्रसिद्ध मर्यादा है कि वे दिनभर तो साथ-साथ रहते हैं, पर रात को अलग हो जाते हैं, नदी के उस पार का चकवा चिल्लाता है, रोता है, और इस पार चकवी रोती है। सारी रात दोनों रो-रोकर चिल्लाते हैं। तो उन्होंने कहा कि क्या चक्रवाक और चक्रवाकी का प्रेम सच्चा है? तो बोले कि नहीं, जिस प्रेम में संयोग का सुख ही उदय नहीं हुआ, उस प्रेम में अभी पूर्णता कहाँ?
प्रेम तो सच्चा है लेकिन प्रेम पूर्ण नहीं है। फिर बोले कि अच्छा यह बताओ कि सारस-दम्पती जिंदगी भर साथ-साथ रहते हैं, एक ही सरोवर में दोनों हँसते हैं खेलते हैं, झूमते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सैर करते है, क्रीड़ा करते हैं, दिन-रात साथ-साथ रहते हैं तो क्या सारस का प्रेम पूर्ण है?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 7️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सहजविरागरूपमनुमोरा…….
📙( #रामचरितमानस )📙
#मैवैदेही ! ……………._
🙏🙏👇🏼🙏🙏
देवी ! नगर के पास ही एक बगीचा है ना ! उसी बगीचे में ठहरे हैं विश्वामित्र जी …….मुझे तो यही सूचना थी ………मै वहाँ पर गया ।
सुचना सही थी …………….पुरानें बरगद वृक्ष के नीचे बैठे थे बाबा विश्वामित्र ।
ये सारी बातें मै अपनी सहेलियों के साथ सुन रही थी ।
आप कैसे हैं ? यात्रा सकुशल हुयी ना ? आपनें मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया हे भगवन् ! मै धन्य हो गया …..बस यही बातें मै कह ही रहा था कि ………………….
की ? क्या हुआ फिर महाराज !
देवी सुनयना ! तभी मेरे सामनें अखिल सौंदर्य निलय ..मानों सौंदर्य ही आकार लेकर प्रकट हो गया हो …………..
ऐसे सुन्दर दो राजकुमार आये …………मै यन्त्रवत् उन्हें देखते ही उठ खड़ा हो गया ………..मुझे खड़ा देख शतानन्द जी खड़े हो गए ।
हम सब को खड़ा देख…….वैसे ही यन्त्रवत् ऋषि विश्वामित्र जी भी खड़े हुए…….पर बाबा विश्वामित्र नें तुरन्त कहा……ओह ! ये ? ये तो विदेह राज ! मेरे शिष्य हैं ।
ये आपके पुत्र हैं ऋषि ? ये प्रश्न उचित नही था मेरा ……..पर मै अपनें वश में कहा था ………मै तो उन राजकुमारों को ही देखकर मन्त्रमुग्ध हो गया था ।
ये क्या कह रहे हैं आप विदेह राज ?
हम बाबाओं के कोई पुत्र होता है क्या ?
मैने मुस्कुराके कहा ……..नही ! आप तब भी तो बाबा थे ……जब आपकी शकुन्तला हुयी थी …………।
देवी ! मै अपनें आपमें ही नही था …………………
फिर मैने विश्वामित्र जी से पूछा ………………ऋषि ! ये बालक फिर कौन है ? किसी राजा के पुत्र हैं ?
इसका भी उत्तर उनसे न लेकर मै तीसरा ही प्रश्न करनें लगा था ।
ओह ! कहीं निराकार ही साकार रूप लेकर तो नही आया ?
वेद जिसका वर्णन करते करते थक जाते हैं …………..वही ब्रह्म तो रूप धारण करके नही आया ?
मै उन्हें देखता जा रहा था ……………अपलक नेत्रों से ………..देवी ! वो राजकुमार असीम सौंदर्य के धनी थे ।
ऋषि विश्वामित्र ! मै आपको विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ ………मै ज्ञानी हूँ ……..मै परिपक्व ज्ञानी हूँ …………नाम, रूप ये सब मुझे प्रभावित नही कर सकते ……….पर आज मेरे साथ ये क्या हो रहा है ।
मन तो मिथ्या है …….मै तो “अमना” स्थिति में पहुँचा हुआ ज्ञानी हूँ ।
पर आज मुझे मेरा मन ही विचलित कर रहा है …………पता नही कैसे ?
मेरा मन बार बार इनके रूप माधुरी का पान करना चाहता है ……….
देवी ! वो साँवले हैं ………………..
मेरी सखी नें मुझे इधर छेड़ा ……किशोरी जी ! वो सांवले हैं ।
फिर मेरे पिता बोले ……….सुनयना रानी ! उनकी घुंघराली लेटें ……..उनके मुख मण्डल पर बार बार आरही थी …………..ऐसा लग रहा था …………भौरें फूलों पर मंडरा रहे हैं ।
राम ! इनका नाम है राम ………………सुनयना मैया नें भी अपनें मुँह से कहा ………राम ! सखियों नें भी जब नाम सुना तो उन्होंने भी कहा …….आहा ! राम ! ……..मै तो राम राम की रट अपनें हृदय में लगा ही रही थीं ………..
देवर्षि नारद जी नें इसी नाम के बारे में बताया था ना !
देवी सुनयना ! ऋषि विश्वामित्र नें मुझसे कहा …………….
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 20
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परस्तस्मात्तु भावोSन्योSव्यक्तोSव्यक्तात्सनातनः |
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति || २० ||
परः – परम; तस्मात् – उस; तु – लेकिन; भावः – प्रकृति; अन्यः – दूसरी; अव्यक्तः – अव्यक्त; अव्यक्तात् – अव्यक्त से; सनातनः – शाश्र्वत; यः सः – वह जो;सर्वेषु – समस्त; भूतेषु – जीवों के; नश्यत्सु – नाश होने पर; न – कभी नहीं; विनश्यति – विनष्ट होती है |
भावार्थ
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इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता |
तात्पर्य
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कृष्ण की पराशक्ति दिव्य और शाश्र्वत है | यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है, जो ब्रह्मा के दिन के समय व्यक्त और रात्रि के समय विनष्ट होती रहती है | कृष्ण की पराशक्ति भौतिक प्रकृति के गुण से सर्वथा विपरीत है | परा तथा अपरा प्रकृति की व्याख्या सातवें अध्याय में हुई है |


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