“जनकपुर से चलते साधकों से हुई वार्ता…”
हमें मधुबनी जाना था …इसलिए मैंने कह दिया कि दोपहर को बारह बजे हम निकल जायेंगे ….किन्तु गाड़ी नेपाल बॉर्डर में फंस गयी …जिसके कारण विलम्ब हो गया …..साधक लोग सब मेरे साथ बैठे थे ….विलम्ब जानकर वो सब प्रसन्न हुए …सच कहूँ प्रसन्नता मुझे पहले हुई …चलो ! इसी विलम्ब का लाभ लिया जाये ….प्रथम – एक साधिका ने मुझ से प्रश्न किया ….आपने दो दिन पहले के “आज के विचार” में लिखा था कि “प्लीज़ ! अपने ऊपर कृपा कीजिए”…इसका अर्थ क्या है समझाइये ! यहाँ के लोग देखने में सामान्य लगते हैं किन्तु कहना ही होगा …महा ज्ञानी विदेह की धरती के हैं ये लोग …गीत गाते हैं …प्रेम करते हैं ..आनन्द उत्सव मनाते हैं किन्तु उनका प्रेम ठोस ज्ञान की भूमि में खिला फूल है …इसलिए अद्भुत है ।
मैंने कहा …इसका अर्थ ये है कि …दूसरे का ही सोचते हो …कभी अपना भी सोचो ….क्या होगा तुम्हारा ? क्या क्षण का भरोसा है ? कल को कुछ हुआ तो ? क्या किया तुमने अपने लिए ?
तो क्या करें ? कैसे करें अपने ऊपर कृपा ? ये भी उसी साधिका का प्रश्न था ।
अपने को शान्त रखकर ! तुम अशान्त होकर अपने ऊपर क्रूरता करते हो ।
कैसे ? ये दूसरे साधक ने पूछा था ।
क्या तुम्हें नही लगता कि तुम अपने इतने सुन्दर हृदय को बिगाड़ रहे हों ? कितनी सुन्दर वस्तु भगवान ने हमें दी है ये हृदय ….किन्तु तुम क्या कर रहे हो ….क्रोध से , लोभ से, काम से अशान्त बना कर रख दिया है हृदय को ……मत करो , अपने हृदय को बचाओ ।
महाराज जी ! कभी कभी हृदय दूषित हो जाता है , या अपनी भाषा में कहूँ तो मूड ख़राब हो जाता है फिर पूरा दिन ख़राब , उपाय क्या है इसका ? ये भी एक साधिका ने ही पूछा था ।
मैंने कहा …..कमी है “समझ” की …..ये समझ जाग्रत हो जाए ना ….तो अभी की अभी समाधान हो जाए ….और जीवन भगवत् प्रवाह में आनन्द के साथ रमण करने लगे …बस समझ जगाने की आवश्यकता है ।
तभी मेरी दीदी के पास फोन आया कि गाड़ी को जनकपुर पहुँचने में अभी एक घण्टे और लगेंगे …..ये सुनते ही सारे साधक आनंदित हो उठे ….सच कहूँ आनन्द तो मुझे हुआ …श्री जनकपुर धाम छोड़कर जाते हुए किसे प्रसन्नता होगी ?
हाँ , आप कह रहे थे महाराज जी ! “समझ” जागे …..इसको स्पष्ट कीजिए ना । ये तीसरी साधिका थी ।
तनाव सब को होता है ….मान अपमान सबको व्यथित करते हैं ..हानि लाभ से सब दुखी होते ही हैं …कोई कितना भी बड़ा साधक हो ।
मैंने उन सबको बताया । किन्तु संसारी में और साधक में यही भेद है …..संसारी का मान अपमान होगा तो वो सामने वाले को दोष देगा …..और उसी बातों को अपने मन में खिलाता रहेगा …उसे तो तुम्हें व्यथित करना था वो सफल हो गया और गया खर्राटे मार कर सो रहा है किन्तु तुम ? तुम उसे दोष दे रहे हो ….तुम उसे गाली दे रहे हो ….तुम उस बात को तूल दे रहे हो …की उसने ठीक नही किया …उसने गलत किया …और परिणाम ? परिणाम यही कि तुम दुखी हो रहे हो …तुम परेशान हो गए हो ….और अब क्या कर रहे हो ….तुम उसी बात को मन में लेकर तनाव से भरे हो …..ये क्या बात हुई ? अच्छा , साधक क्या करेगा….साधक भी दुखी होगा …वो कोई पत्थर का थोड़े ही है जो अपमान या मान का उस पर प्रभाव न पड़े ….किन्तु उसमें “समझ” जाग गयी है ….वो दूसरे को दोष देगा ही नही ….जो दूसरे को गाली देने में अपना समय बर्बाद करेगा …वो समझ गया है कि …..दुखी होने से कोई लाभ नही है …..नुक़सान ही नुक़सान है ….इसलिए वो तुरन्त अपना मन ठीक कर लेगा ….अपने को समझाएगा ….कि कोई लाभ नही है दुखी होने से ….मन ख़राब करने से ….तुरन्त अपना मन ठीक कीजिए …मूड ठीक कीजिए ….दूसरे का नही अपना ।
ये प्रयोग मैंने किया है ….जब भी कोई बात हो …मन दुखी हो …तो अपने मन को समझाओ …कहो कि लाभ नही है दुखी होने से …इस तरह मूड ख़राब करने से ….तू हंस , तू खिलखिला ….क्यों दुखी है यार ? ये बात पहले अपने समझ में आनी चाहिए …और याद रखो …ये समझ नही आयी ….तो वर्षों तक साधना करते रहो …क्या होगा ? अरे ! जन्मों तक करते रहो …कुछ नही होने वाला ….होगा कल नही ..आज , अभी । और याद रहे …अभी नही तो कभी नही । मैंने उन सबको एक दोहा सुनाया ……
“बिगरी जन्म अनेक की , सुधरे अबहीं आज”
तुम अगर सोच रहे हो …लाख लाख माला जपनी पड़ेगी तब जाकर कुछ आगे बढ़ पाएँगे …नही ..आज , अभी , होना है तो आज होगा , अभी होगा …नही तो होगा ही नही । बस ये समझ बना लो की …दुखी होने से कोई लाभ नही है …किसी की बातों को मन में रखने से कोई लाभ नही है …ये बात दिमाग़ में “क्लिक” होनी चाहिए ….तभी घटना घट जाएगी…..हो गया ।
मैं यही करता हूँ ….अपने साधकों से मैंने अपनी बात भी शेयर की …मैं विचलित नही होता ऐसा नही है ..मुझे मानापमान या हानि लाभ विचलित नही करते ऐसा नही है …किन्तु जैसे ही मन दुखी होता है ..मैं सोच लेता हूँ …क्या लाभ ? जैसे ही कोई ऐसी बात होती है …मन ख़राब या मूड ख़राब होने लगता है …मैं उसी समय सोच लेता हूँ ….इससे बहुत हानि है …दोनों की हानि शारीरिक भी और आध्यात्मिक तो है ही । इसलिए इस समझ को विकसित करो ….इसी समझ को आध्यात्मिक भाषा में विवेक कहते हैं ……इसके बिना कुछ नही है ।
सम्भालो अपने आपको ……मैंने हाथ जोड़कर कहा ……….
गाड़ी आगयी थी मधुबनी से , अश्रुपूरित विदाई लेनी पड़ी मुझे श्रीजनकपुर धाम से ।
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