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July 31, 2025 9:37 am

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“दुःख अच्छे हैं “,श्रीसीताराम शरणम् मम (8-1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (161) & श्रीमद्भगवद्गीता (8) : नीरु आशरा

“दुःख अच्छे हैं “,श्रीसीताराम शरणम् मम (8-1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (161) & श्रीमद्भगवद्गीता (8) : नीरु आशरा

Niru Ashra: “दुःख अच्छे हैं “(8)


भागवत कहती है ….दुःख भगवत्कृपा है । जीवन में जब दुःख आता है तो वही कृपा है । ये बात अटपटी अवश्य है …किन्तु ये सच है …इसको आप नकार नही सकते । आपने कभी सोचा कृपा की अनुभूति कब होती है ? नाच रहे हैं , गा रहे हैं …..पोते पोती खिला रहे हैं …धन आ रहा है …..पार्टियों में लुटा रहे हैं …..क्या ऐसी स्थिति में कृपा का अनुभव होता है ? सच बताना क्या भगवान भी याद आते हैं ? सच्चाई ये है कि बिल्कुल याद नही आते । अच्छा ! याद कब आते हैं भगवान …..जब हम संसार के सुख में मत्त हैं ….धन का अहंकार सिर चढ़ कर बोल रहा है …नाती पोते की तोतली बोली सुनकर गदगद हैं …तभी समाचार आया कि …सगा भाई सड़क में दुर्घटनाग्रस्त हो गया है , हॉस्पिटल में गम्भीर हालत में पड़ा है …..सच बताना उस समय भगवान याद आते हैं या नही ? उस समय तुम ये कहते हुए भगवान के सामने माथा पटकते हो या नही कि ….हमने कभी कोई ग़लत काम नही किया फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ ? अच्छा सुनो – आप पार्टी मना रहे हो …सुरा भी चख रहे हो …बीच बीच में धूम्रपान भी कर रहे हो ….करोगे क्या धन अपार है …या कहें ….धन का सदुपयोग किया नही तो धन ऐसे ही जाएगा …..तभी तुम्हारे पास समाचार आता है कि फ़ैक्ट्री में आग लग गयी ….या कोई अन्य दुर्घटना ….इससे पहले तुम भगवान को याद कर रहे थे ? या भगवान की कृपा की अनुभूति हो रही थी ? नही ना ! अब याद आयी …क्यों ? क्यों की अब तुम्हारे हाथ में कुछ नही है …बेटा हॉस्पिटल में है डाक्टर ने कह दिया है ,भगवान से प्रार्थना करो …इस समय तुम्हारा धन काम नही आरहा …न तुम्हारा वर्चस्व । तुमने अपना माथा भगवान के सामने पीटना शुरू किया …बचा ले मेरे बेटे को ..हे भगवान ! अब तू ही है ।

हे साधकों ! आपको क्या लगता है …..जीवन में जो दुख आता है वो गलत है ? दुख न आए तो क्या हम कभी सावधान होंगे ? हमारा जीवन असावधानी से भरा हुआ नही रहेगा ? हमें वास्तविकता का बोध किसने दिया ? सुख ने या दुःख ने ? सुख तो हमें सुरा सुन्दरी में मग्न बना रहा था ….वहाँ सावधानी कहाँ ? किन्तु दुःख आया ….मुझे कहने दो …दुःख के रूप में भगवान आये और उन्होंने हमें झकझोरा …कहाँ झकझोरा ? जहाँ हमारा मोह है ….उस मोह के केन्द्र में झकझोरा …आपके मोह का केन्द्र बेटा है ….तो ठाकुर जी उसी में चोट करेंगे …आपके मोह का केन्द्र धन है तो ठाकुर जी उसी को चोट पहुँचायेंगे ।

क्यों ? ठाकुर जी करुणानिधान नही है क्या ?

ये प्रश्न आप कर सकते हो …किन्तु विचार करो ..ठाकुर जी करुणानिधान हैं तभी वो ऐसा करते हैं ….वो चाहते हैं कि मिथ्यात्व से तुम बाहर आओ ….सत्य की दिशा में बढ़ो …ठाकुर जी चाहते हैं ….तुम उनकी ओर बढ़ो …..सत्य तो वहीं हैं ना ? फिर दुःख का आना गलत कैसे हुआ ?


उस रात निमाई बहुत रोये …अपनी प्रिया विष्णुप्रिया को हृदय से लगाकर रोए और बोले ….हे प्रिया ! इतने दिनों में आज मैंने कलियुग के इन लोगों के उद्धार का उपाय खोज लिया । विष्णुप्रिया कुछ कहतीं उससे पहले ही निमाई ने कहा …..मैं वर्षों से परेशान था कि इन कलियुग के लोगों का उद्धार कैसे होगा ? कैसे कल्याण होगा ? वेद ये लोग पढ़ नही सकते …वैदिक मार्ग में ये लोग चल नही सकते …वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन इनसे होगा नही …फिर इनका उद्धार कैसे होगा ? मैं बहुत सोचता रहता था ..मैंने वेद वेदान्त सम्पूर्ण शास्त्र खंगाल डाले किन्तु कुछ नही हुआ ….तब मेरे एक बात समझ में आयी ….कि दुःख में मनुष्य का हृदय कोमल हो जाता है …..दुःख मनुष्य को विनम्र बना देता है …..इसलिए जब दुःख आए उसका मनुष्य उपयोग कर ले …तो कल्याण हो जाएगा । कैसे नाथ ? विष्णुप्रिया ने पूछा । निमाई बोले ….दुःख में मनुष्य को लगता है वो अकेला है ..उसका कोई नही है …बस ….विष्णुप्रिया ! वो दुःख को हटाने का प्रयास न करे वो उस दुःख की गहराई में जाए …अपने को और अकेला कर ले …कृत्रिम प्रकाश खोजता है मनुष्य उस दुःख के अन्धकार में यही गलती करता है ….कृत्रिम प्रकाश ..कोई मित्र खोज लेगा वो फिर उसके साथ हो लेगा , कृत्रिम प्रकाश ..कोई प्रेयसी या प्रेमी खोज लेगा फिर उसके साथ हो लेगा ….ऐसे तो कुछ होने वाला नही है …क्यों न स्वीकार करे मनुष्य उस घुप्प अन्धकार को …उसी में बैठ जाए ….और देखे कि क्या कोई है जिसे अपना कहा जा सके ? नही , कोई नही है …उसी अन्धकार में बैठे बैठे रोये ….खूब रोये ….कृष्ण कहे , गोविन्द कहे , माधव कहे , और रोये …..तब हे विष्णुप्रिया ! उसी अन्धकार से श्रीकृष्ण प्रकट होगा ….वो अंधेरी रात में ही प्रकट होता है …कृष्ण पक्ष की रात और आधी रात में …इससे चित्त कृष्णाकार बन जाएगा …तब जीवन में कृत्रिम प्रकाश नही …उसी दुःख के घुप्प अन्धकार से अच्छा प्रकाश प्रकट होगा ….यही उपाय है मनुष्य के कल्याण का । निमाई ये कहते हुए आनन्दाश्रु बहा रहे थे ।


दुःख अच्छे हैं …..दुःख कृपा है….दुःख , कृपा की अनुभूति कराने का मार्ग है …सच में दुःख का प्रयोग किया जाये तो ये वो साधना का रूप ले सकती है …जिससे तत्क्षण भगवान की प्राप्ति हो जाए…मनुष्य का कल्याण हो जाए ….जितने महापुरुष हुए वो सब दुःख का रूपान्तर करके ही भगवान को प्राप्त किए …वो चाहे श्रीतुलसीदास जी हों या सूरदास जी या मीराबाई …….

इसलिए दुःख अच्छे हैं …

Niru Ashra: 🙏🥰 श्रीसीताराम शरणम् मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 8️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#हियहरषहिंबरसहिंसुमन ………._
📙( #रामचरितमानस )📙

#मैवैदेही ! ……………._

🙏🙏👇🏼🙏🙏

श्री राघवेन्द्र के जनकपुर में आये हुए आज दो दिन होनें को आये ……..

मेरी सखियाँ बहुत चतुर थीं…………जहाँ रुके हैं श्री राम वहीं पर कुछ सेविकाएँ और सेवक जो थे….उन्हीं से जानकारी ले लेती थीं ।

सिया जू ! पता है आज राजकुमार नगर भ्रमण के लिए निकल रहे हैं !

मेरी प्रिय सखी चारुशीला नें मुझे बताया था ………ये सखी मेरी चतुर है और बुद्धिमान भी है ।

उसी नें मुझे बताया था ……….कि श्री राम नगर भ्रमण के लिए निकल रहे हैं ।

कैसे हैं ? मै इतना ही पूछ पाई ।

देख लेना ……………..चारुशीला नें मटकते हुए कहा ।

सुन्दर हैं ?

  हूं ...........पर आपसे  कम ही हैं   ...........ये बात  भी  चारुशीला नें ही कही थी   ।

देखो ! किशोरी जी !……नगर भ्रमण में जब राजकुमार निकलेंगें ना …तब हम सभी सखियाँ उनको देखनें के लिए जायेंगी ………

मै नही जाऊँगी !………………ये बात मैने इसलिये कही थी ताकि मेरी सखियाँ ये कहें कि अरे ! आप नही जाओगी तो कैसे होगा ?

पर दुष्ट हैं मेरी सखियाँ ………कहनें लगीं …………..आप कहती तब भी हम आपको न ले जाते …………..

फिर हमारी किशोरी जी कहाँ देखेंगीं श्री राम को ? ये बात चन्द्रकला नें पूछा था ……………..।

देखो ! हमारी किशोरी जी श्री राम को देखेंगी पुष्पवाटिका में ।

क्या वो आयेंगें पुष्प वाटिका ? ये प्रश्न अब मैनें किया था ।

हाँ आयेंगें ……….क्यों की मैने सुना था ………..कि सुबह पूजा के लिए गुरु विश्वामित्र जी को पुष्प चाहिए …………अपनें गुरु की सेवा के लिए पुष्प तो वाटिका में ही मिलेंगें ……..तब आप देख लेना ।

पर सखी ! मुझे नगर की हर बात बताना ………..कि उन्हें देखकर लोग क्या कह रहे हैं ……………और जनकपुर को देखकर राजकुमार क्या कह रहे हैं ? सीता जी नें कहा ।

वो जिस मार्ग से गुजरेंगें हम सब उन मार्ग में पड़नें वाले झरोखे में खड़ी रहेंगीं …………अच्छे से दर्शन हो जायेंगें….फिर आपको उनके बारे में विस्तार से बता भी देंगीं ।

मेरी सखी पद्मा नें ये बात कही थी ।

मैने इतना ही कहा ……………ठीक है ।


दो राजकुमार आ रहे हैं ……………..बहुत सुन्दर है …………..सुन्दर कहना भी कम लग रहा है ……….

ये सारी बातें मुझे चारुशीला नें बाद में बताया था ।

नगर को बड़े ध्यान से देख रहे थे वे दोनों ………….कितना सजा धजा नगर है ना ये लखन ? छोटे भाई से बीच बीच में पूछ भी रहे थे ।

छोटे छोटे बालक बड़े राजकुमार के पास में गए थे

……आप को हम नगर घुमा दें …….?

यहाँ के महल को देखेंगें आप ?

यहाँ पिनाक धनुष भी है…….आप जैसे क्षत्रिय ही उसे देख सकते हैं ।

बालकों नें हाथ पकड़ ही लिया था ……..बड़े राजकुमार का ।

जवान लोग थोड़े दूर खड़े हैं ……..और वृद्ध लोग उनसे भी दूर हैं …पर सबकी नजर राजकुमारों पर ही थी ।

भीड़ लग गयी थी जनकपुर में ……………..

सब लोग दौड़ रहे थे उन अयोध्या के राजकुमारों को देखनें …………

जो जहाँ था वही से दौड़ा था …………….

कोई कोई तो ऐसे भाग रहे थे ……जैसे कोई खजाना लुट रहा हो ।

इतनें सुन्दर राजकुमार !


मेरी तीन सखियाँ एक झरोखे में जाकर खड़ी हो गयी थीं ………

चारुशीला, पद्मा और चन्द्रकला……….वहाँ पहले से ही कई युवतियाँ थीं …….जो आरहे राजकुमार को देखनें के लिए उत्सुक थीं ।

बड़ा हल्ला हो रहा है कि कोई राजकुमार आरहे हैं ?

अब कुछ तो बोलना ही था …………..इसलिये मेरी एक सखी वहाँ खड़ी अन्य युवतियों से पूछ रही थीं ।

हाँ सुना है …..बड़े सुन्दर हैं ………दो भाई हैं …………बड़े भाई सांवले रँग के हैं …….और दूसरे भाई गौर वर्ण के हैं ।

तभी ………..अरे ! देखो ! देखो ! वो आगये …………वो आगये ।

सब सखियाँ देखनें लगीं थीं …………

एक सखी तो ऊपर से नीचे देखनें में इतनी तन्मय हो गई कि गिर ही पड़ती ……………पर अन्य युवतियों नें उसे सम्भाला ।

ओह ! ये तो यहाँ से दिखाई दे नही रहे ……………

क्यों की ऊपर से तो श्री राम का शीश ही दिखाई दे रहा था ।

अब क्या करें ? सारी सखियां चिंतित हो उठी थीं ………

चलो ! नीचे चलती हैं ………….पर दूसरी सखी नें कहा …….जब तक हम नीचे जायेंगी ……तब तक तो ये राजकुमार आगे बढ़ जायेंगें ……..!

तभी ! एक युवती जो मालिन थी ………..उसी के घर के छज्जे में हम लोग खड़ी थीं …………वो फूलों की टोकरी लेकर जा रही थी …..बाजार …………फूल बेचनें ।

हम सब सखियाँ खुश हो गयीं ………….

नही ……नही ……मै नही दूंगी ये फूल ………..वो मालिन चिल्लाई ।

अरी चुप ! तू जितना कमाएगी …उससे कई गुना ज्यादा हम देंगी इसका मोल ……….

बस फिर क्या था मालिन खुश हो गई …………..चार पाँच डलिया फूलों की थीं उसके पास ………….हम नें सब ले लीं ………

और उन राजकुमारों के ऊपर डालनें लगीं…….ये उपाय था सिया जू ! हम लोगों का ….ताकि हम उन राजकुमारो को देख सकें ।

मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं …………हम लोगों नें फूल गिरानें शुरू किये ……….तो उन दो राजकुमारों नें ऊपर की ओर देखा ……..बस हमेँ तो उनके दर्शन हो गए ………..इतनें सुन्दर कि सुन्दरता की सीमा !

उनके वो नशीले नयन ………..कटीले नयन …………..जो देखे वो मर ही जाए ……ऐसे सुन्दर ……सिया जू !

हम फूल बरसाती जा रही थीं …………………वो हमारी और देखते जाते थे ….और मुस्कुराते जाते ।

सिया जू ! क्या कहें उनकी हँसी तो और मादक थी ।

तभी उस घर की दो तीन बूढी माताएं आगयी ……………….

ये कौन हैं …….? बड़े सुन्दर राजकुमार लग रहे हैं ?

एक बूढी माता नें दूसरी से पूछा …………..।

ये बाबा विश्वामित्र के साथ आये हैं ……………..राम नाम है इन बड़े का ….और लखन है छोटे का ………राजा दशरथ के पुत्र हैं ये दोनों ।

अरी हमारी तो प्रार्थना है विधाता से …..कि इनके ही साथ हमारी जानकी का विवाह हो जाए ।

हमारे सबरे पुण्य इनको ही मिल जाएँ …………………

ये बताते हुए मेरी सखी पद्मा कितनी हँस रही थी ………..

सिया जू ! तब दूसरी माता नें कहा …….पर पिनाक ये तोड़ पायेंगें ? इतनें कोमल हैं ये राजकुमार …….और पिनाक धनुष तो बड़ा ही कठोर और भारी है …….ये नही तोड़ पायेंगें ……….

तब दूसरी कहती …………..क्या पता इनको देखकर हमारे राजा जनक अपनी प्रतिज्ञा ही तोड़ दें ………..!

नही ………..हमारे राजा, बात के तो पक्के हैं ……….वो अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ेंगें ……….

क्रमशः …
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (161)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-3

अब दुनिया में तो लोगों के- स्त्री के, पुरुष के- काम तो जगा ही रहता है! ऐसा कौन पशु, पक्षी, प्राणी, मनुष्य है जिसके हृदय में काम न हो? जो लोग कहते हैं कि मैं पूर्ण निष्काम हूँ, मैं उनकी निन्दा नहीं करता हूँ, लेकिन उनके बारे मे दो बातें कहता हूँ- या तो लोग समझते नहीं कि काम का स्वरूप क्या है अर्थात् उनमें काम रहता तो है पर पहचानते नहीं है। और या वे जान-बूझकर ऐसा बोलते हैं कि हमें कोई इच्छा नहीं है अथवा कि मैं निष्काम हूँ। अथवा यह भी हो सकता है कि इच्छा तो है उनके अंतःकरण में, पर अपने को ब्रह्म मानकर बोलते हैं कि मैं निष्काम हूँ, क्योंकि जब तक अंतःकरण है तब तक अंतःकरण तो काम तो उपादान से बना हुआ है ही, उसका मसाला ही काम है। तो उसमें या तो न पहचानने के कारण निष्कामता होती है या तो पहचान करके दम्भ किया जाता है या तो उनका काम ब्रह्मज्ञान से दग्द हो गया है।

दग्ध अंतःकरण को निष्काम बोलते हैं- दग्ध माने भस्मीभूत। शंकरजी ने जैसे काम को जला तो दिया था, परंतु जलने पर भी उसका शरीर ही जला, उसकी आत्मा नहीं जली, यह तो आप जानते ही हैं। तो ये भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के हृदय में जो काम उद्दीप्त कर रहे, इसका क्या अभिप्राय है- यह हम अब इस प्रसंग में लेते हैं। प्रेमनगरी के उल्टे चौंसठ कानूनों में से एक कानून है कि-

यत्र निष्कामत्वमेव सकामत्वं, यत्र सकामत्वमेव निष्कामत्वम्

प्रेम की नगरी में निष्काम रहना ही कामी रहना है, निन्दित होना है; और सकाम होना निष्काम होने से सौ-गुना श्रेष्ठ होना है। यह वृन्दावन का कानून है, वृन्दावनधाम, भगवत्धाम का कानून है। भला कोई वृन्दावन में रहे और वह श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए व्याकुल न हो, श्रीकृष्ण की वंशी सुनने के लिए व्याकुल न हो, श्रीकृष्ण के स्पर्श के लिए उसके मन में व्याकुलता न हो, तो वह वृन्दावन का वासी अभागा है।+

जो भगवान से प्रेम नहीं करता वह दुनिया में किसी न किसी से प्रेम जरूर करेगा, उसको फँसना पडेगा, भला! प्रेम तो वह करेगा, बच्चे से करेगा, स्त्री से करेगा, पुरुष से करेगा, धन से करेगा, स्त्री की त्वचा के स्पर्श के लिए तो व्याकुल है परंतु भगवान के स्पर्श के लिए व्याकुल नहीं है- आश्चर्य है- यत्र सकामत्वमेव निष्कामत्वम्- आप देखें इस कानून का रहस्य! भगवान के स्पर्श के लिए यदि मन में कामना हो तो दुनिया को छूना फीका हो जायेगा।

जो मोहि राम लागते नीके।
तौ षट रस, नवरस, अमरस, रस, हो जावे सब फीके ।।
जो मोहि राम लागते नीके ।।

यदि हमारे मन में भवगत्- प्राप्ति की कामना होती, हम उनके हृदय से लगाना चाहते; तो दुनिया में किसी के हृदय से लगने की इच्छा नहीं रहती। यदि दुनिया के हृदय से लगने की इच्छा होती है, और भगवान के हृदय से लगने की इच्छा नहीं होती, और यदि इसी स्थिति को कोई उत्तम स्थिति समझता है, तो यह मन की उत्तम स्थिति नहीं है। इसलिए भगवान के प्रति सकाम होना भी निष्कामता से चौगुना श्रेष्ठ है। भगवान के प्रति कामना होने से संसार की निष्कामता तो पीछे-पीछे घूमती है कि हमको वरण करो, इसको वरण करो। संसार में आँख एक ओर जाती है, त्वचा दूसरी ओर ले जाती है, नाक तीसरी ओर ले जाती है, जीभ चौथी ओर ले जाती है, कान पाँचवीं ओर ले जाते हैं, संसार की कामना से तो अंतःकरण भरा हुआ है। और इससे छुड़ाने का जो सीधा-सरल वैज्ञानिक उपाय है कि भगवान को परमसुन्दर रूप है, उनकी जो परमसुन्दर-परममधुर दिव्य गन्ध है, उनका जो दिव्यरस, दिव्यस्पर्श है, उनकी जो दिव्यसद् ध्वनि है, वह सब हमारी इंद्रियों का विषय होवे।

यत्र सकामत्वमेव संसारो निष्कामत्वम् । ++

अगर कोई अभागा भगवान से प्रेम नहीं करता है, भगवान को नहीं चाहता है, तो वह संसार के प्रति सकाम है क्योंकि दिल और इन्द्रियाँ तो अपना काम करेंगे। कृष्ण को देखना चाहोगे तो दुनिया का रूप नहीं भावेगा। श्रीकृष्ण की कामा होना सच्ची निष्कामता है, क्योंकि इस कामना से संसार की कामना फीकी हो जाती है। तो संसार की कामना को मिटाने का यही उपाय है, कि कृष्ण के प्रति हृदय में कामना का उदय होवे।

इसी से महात्मा लोग कैसे बोलते हैं यह बताते हैं। पहले श्रीउड़ियाबाबाजी की बात सुनाते हैं, फिर दूसरे महात्मा की सुनावेंगे। श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज गेरुआ कपड़े का बहुत ख्याल नहीं रखते थे; कोई काला ओढ़ा दे तो काला ओढ़ लिया, कोई लाल ओढ़ा दे तो लाल ओढ़ लिया, पीला ओढ़ा दे तो पीला और खादी ओढ़ा दे तो खादी ओढ़ लेते थे। वे जब विरक्त होकर विचरण करते थे तब लाल ही कपड़ा शरीर पर रहे, इसका आग्रह वह नहीं करते थे। जब पहले-पहल वृन्दावन में आये तो महात्मा रामकृष्णदासजी ने देखा। सफेद कपड़ा देखकर उनको ख्याल हुआ कि कोई वैष्णव हैं, तो झट अपना दुशाला लाकर बिछा दिया।

बोले-महात्मा बड़े अच्छे दिखते हो, भजन करते हो, यह बताओ कि भगवान की प्राप्ति भगवान की कृपा से होती है कि अपने पुरुषार्थ होती है? अब रामकृष्णदासजी थे वृन्दावनी और बाबा थे गंगा-किनारे, तो उन्होंने कहा कि अरे, बल से साधन करो, जप करो; ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निधिथ्यासितव्यः’- श्रुति है; तभी परमात्मा की प्राप्ति होती है। तब रामकृष्णदासजी पास आ गये और बड़े गौर से देखा, बोले- तू गंगा-किनारे से आया है क्या? बोले- हाँ। उपनिषद् पढ़ता है क्या? बोले- हाँ। तो महात्मा ने कहा कि तुम अभी लौट जाओ, तुम अभी वृन्दावन में रहने के हकदार नहीं हो! लौटा दिया बाबा को।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻u🌹
[

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 22
🌹🌹🌹🌹

पुरुषः स परः पार्थ भक्तया लभ्यस्त्वनन्यया |
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् || २२ ||

पुरुषः – परमपुरुष; सः – वह; परः – परं, जिनसे बढ़कर कोई नहीं है; पार्थ – हे पृथापुत्र; भक्त्या – भक्ति के द्वारा; लभ्यः – प्राप्त किया जा सकता है; तु – लेकिन; अनन्यया – अनन्य, अविचल; यस्य – जिसके; अन्तः-स्थानि – भीतर; भूतानि – यह सारा जगत; येन – जिनके द्वारा; सर्वम् – समस्त; इदम् – जो कुछ हम देख सकते हैं; ततम् – व्याप्त है |

भावार्थ
🌹🌹🌹
भगवान्, जो सबसे महान हैं. अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं | यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है |

तात्पर्य
🌹🌹🌹

यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि जिस परमधाम से फिर लौटना नहीं होता, वह परमपुरुष कृष्ण का धाम है | ब्रह्मसंहिता में इस परमधाम को आनन्दचिन्मय रस कहा गया है जो ऐसा स्थान है जहाँ सभी वस्तुएँ परं आनन्द से पूर्ण हैं | जितनी भी विविधता प्रकट होती है वह सब इसी परमानन्द का गुण है – वहाँ कुछ भी भौतिक नहीं है | यह विविधता भगवान् के विस्तार के साथ हो विस्तृत होती जाती है, क्योंकि वहाँ की सारी अभिव्यक्ति पराशक्ति के कारण है, जैसा कि सातवें अध्याय में बताया गया है | जहाँ तक इस भौतिक जगत् का प्रश्न है, यद्यपि भगवान् अपने धाम में ही सदैव रहते हैं, तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति ?(माया) द्वारा सर्वव्याप्त हैं | इस प्रकार वे अपनी परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वत्र – भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ब्रह्माण्डों में – उपस्थित रहते हैं | यस्यान्तःस्थानि का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु उनमें या उनकी परा या अपरा शाकी में निहित है | इन्हीं दोनों शक्तियों के द्वारा भगवान् सर्वव्यापी हैं |

कृष्ण के परमधाम में या असंख्य वैकुण्ठ लोकों में भक्ति के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है, जैसा कि भक्त्या शब्द द्वारा सूचित होता है | किसी अन्य विधि से परमधाम की प्राप्ति सम्भव नहीं है | वेदों में (गोपाल-तापनी उपनिषद् ३.२) भी परमधाम तथा भगवान् का वर्णन मिलता है | एको वशी सर्वगः कृष्णः | उस धाम में केवल एक भगवान् रहता है, जिसका नाम कृष्ण है | वह अत्यन्त दयालु विग्रह है और एक रूप में स्थित होकर भी वह अपने को लाखों स्वांशों में विस्तृत करता रहता है | वेदों में भगवान् की उपमा उस शान्त वृक्ष से दी गई है, जिसमें नाना प्रकार के फूल तथा फल लगे हैं और जिसकी पत्तियाँ निरन्तर बदलती रहती हैं | वैकुण्ठ लोक की अध्यक्षता करने वाले भगवान् के स्वांश चतुर्भुजी हैं और विभिन्न नामों से विख्यात है – पुरुषोत्तम, त्रिविक्रम, केशव, माधव, अनिरुद्ध, हृषीकेश, संकर्षण, प्रद्युम्न, श्रीधर, दामोदर, जनार्दन, नारायण, वामन, पद्मनाभ आदि |

ब्रह्मसंहिता में (५.३७) भी पुष्टि हुई है कि यद्यपि भगवान् निरन्तर परमधाम गोलोक वृन्दावन में रहते हैं, किन्तु वे सर्वव्यापी हैं ताकि सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहे (गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः) | वेदों में (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ६.८) कहा गया है – परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते | स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च – उनकी शक्तियाँ इतनी व्यापक हैं कि परमेश्र्वर के दूरस्थ होते हुए भी दृश्यजगत में बिना किसी त्रुटि के सब कुछ सुचारू रूप से संचालित करती रहती हैं |

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