🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम
🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 9️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#तातजनकतनयायहसोई………….
📙( रामचरितमानस )📙
#मैवैदेही ! ……………._
पता नही क्यों मेरी नींद दो तीन दिन से उड़ ही गयी थी ……..
मै जनकपुर में उन दिनों कहाँ सोती थी ………….
झरोखे से चन्द्रमा की चाँदनी छिटक रही थी…..मै वहीं लेटी हुयी थी ।
अजीब स्थिति थी मेरी उन दिनों ……………आँखें खोलूं तो आकाश चन्द्र दिखाई देता …..और बन्द करूँ तो श्रीरामचन्द्र ।
सखियों नें मुझे जो जो बताया …….उसी के आधार पर मेरा मन श्री राम के स्वरूप को गढ़ रहा था ………….श्री राम ! आहा !
( एक लम्बी साँस लेती हैं ….सीता जी )
पता नही इस नाम में ऐसी क्या शक्ति है …………..लगता तो ऐसा है कि ये कोई साधारण नाम न होकर ……………कोई सिद्ध मन्त्र है ।
वो अयोध्या के राजकुमार ……………………..
क्या है ऐसा इन राजकुमार में……..जो मै केवल नाम मात्र सुनकर उनका वर्णन सुनकर – अपना हृदय दे बैठी हूँ …………।
अब रही राजकुमार की बात …….तो जब से मेरे पिता जनक जी ने प्रतिज्ञा की है …………कि जो पिनाक की प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा ….उसे ही मै अपनी बेटी दूँगा ।
देश विदेश के राजा , राजकुमार …..सब तो आरहे हैं मेरे पिता की प्रतिज्ञा सुनकर ……………
पर राजकुमार आएं गयें ………..सीता को क्या परवाह !
हाँ “बेचारा” जरूर मेरे मुख से निकलता था ……………….
और मन में उन राजकुमारों के प्रति …………दया भी आजाती थी ये सोचकर कि बेचारे पिनाक को तोड़ नही पाये ।
अकारण मुस्कुराना , अकारण आँसुओं का आजाना ………..ये सब प्रेम के ही तो लक्षण हैं …………….क्या मुझे प्रेम हो गया ? सीता जी डरती हैं ………..नही नही ………
ये चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है ……….मेरे राम भी ऐसे ही होंगें ।
ऐसा चिन्तन चलता ही रहा सुबह के 4 बजे तक ……………..
फिर तो उठना ही था ……..सो मै उठ गयी …..और स्नानादि से निवृत्त होकर ……….अपनें माता पिता के पास आई ।
मेरी लाड़ली ! अब तुम बगीचे में जाओ …..पुष्प वाटिका में ।
वहाँ जाकर गौरी मन्दिर में भगवती का पूजन करना …….
और हाँ ……………जो चाहिये माँग लेना ………….आज तुम्हारी इच्छा पूरी होगी ही ……………….
मैने सिर झुकाकर बात मान ली…….पुष्प वाटिका मै चलनें के लिए ।
मेरी पुष्प वाटिका ………………बहुत सुन्दर वाटिका है ।
उस बाग़ के बीचों बीच ……एक सुन्दर सरोवर है ……….
उसी में जाकर मेरी बहनें ……….उर्मिला, माण्डवी, श्रुतकीर्ति, मेरी सखियां पद्मा , चारुशीला, चन्द्रकला इत्यादि सबनें जल का सेचन किया था ………फिर गयीं गौरी भगवती का पूजन करनें ।
बड़े अनुराग से पूजन किया था गिरिजा भगवती का …………….अपनी आराध्या को भोग भी लगाया था ………..फिर आरती की ।
सिया जू ! देखिये ना ! वो सखी कैसी दौड़ी दौड़ी आरही है ।
मैने दूर से देखा था उस सखी को ……..उसकी साँसें फूली हुयी थीं ….वो लड़खड़ा भी रही थी ……वो कहाँ गिर पड़ेगी ये भी पता नही ।
अब जैसे तैसे हमारे पास आगयी थी ………………
उसकी दशा ! विचित्र दशा बना ली थी उस सखी नें ।
उसके नेत्रों से आँसू बह रहे थे …………उसका शरीर काँप रहा था …….लाल मुख मण्डल हो गया था उसका ……पर मुस्कुरा रही थी ।
अरे ! तेरी ये दशा कैसे हुयी ? सखी क्या हुआ ?
मेरी सखियों नें ये प्रश्न एक साथ कर दिए थे ………..।
राजकुमार आये हैं ? वही राजकुमार जिन्होनें नगर में हल्ला मचा रखा है ……..वही अयोध्या के राजकुमार …………जिनका नाम है राम ….और छोटे का नाम है लक्ष्मण …………..।
ओह ! मेरा हृदय धक्क कर गया ………………उस सखी की जो दशा थी वो तो थी ही …..पर अब मेरी दशा बिगड़नें वाली थी ।
मैने तुरन्त अपनी प्रिय सखी चन्द्रकला को आगे किया …………
क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: बृज दर्शन – 2
अच्छा ! तो ये बरसाना है…
“चारों वेदों में ऋग्वेद का अपना स्थान है …कहते हैं ऋग्वेद प्रथम है चारों वेदों में , और हाँ , ऋग्वेद में ही श्रीराधा नाम सात बार आया है…और सातों विभक्तियों में आया है” ये कहना था इन युवा साधु का …जो मुझे “संकेत वन” से अपनी मोटर साइकिल में लेकर बरसाना जा रहे थे । मैं कह ही चुका हूँ कि मैं अपने में था नही …बस “बरसाना” नाम सुना तो श्रीवृन्दावन से टेम्पो में बैठ गया …पैसे भी नही थे …अजी ! अपना ही ख़्याल नही था । नन्दगाँव के दर्शन हो गये तो नन्दलाला को प्रणाम करके चल दिया भरी धूप में बरसाना के लिए ….किसे धूप की परवाह थी । एक मस्ती थी …एक अलग आनन्द था …जिह्वा युगल नाम लिए जा रही थी ….अब बरसाना ! मेरी श्रीकिशोरी जी । मन उमंग से भरा था । ओह ! चलते चलते जहाँ प्यास लगती वहीं किसी बृजवासी के घर में जल माँग लेता और ओप लगाकर पी लेता । संकेत वन पहुँचा …..तभी पीछे से एक मोटर साइकिल आकर रुकी ….कहाँ धूप में जा रहे हो …बरसाना जाना है ? मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक युवा साधु ….मोटर साइकिल में …..मैंने हाँ कहा ….और बैठ गया । वाराणसी से हूँ लेकिन अब वास कर रहा हूँ बरसाना में । पूज्य श्रीरमेश बाबा की आज्ञा से शोध कार्य करता हूँ श्रीराधा तत्व पर । उस युवा साधु ने कहा । मैंने ऐसे ही उससे पूछ लिया …आर्यसमाजी कहते हैं ….श्रीराधा नाम वैदिक नही है …पौराणिक भी नही है …ये तो पाँच सौ वर्ष या सात सौ वर्ष पहले की कवि कल्पना है ? वो युवा साधु हंसा ….बोला …आर्य समाजी क्या जानें श्रीराधा तत्व को ? चारों वेदों में ऋग्वेद को प्राचीन माना है आधुनिक लेखकों ने भी , उसमें श्रीराधानाम एक बार नही सात बार आया है ….और सातों विभक्तियों में आया है …..उपनिषदों में श्रीराधा नाम आया है ….वो बोलते गये ….मैं बरसाने के प्रेम पूर्ण वातावरण में प्रवेश कर चुका था । मैं कितनी बार बरसाना आया होऊँगा …मैं पन्द्रह दिन रहा भी हूँ बरसाना । किन्तु आज बरसाना कुछ अलग ही था ….धाम धामी से अभिन्न है …बरसाना बरसाने वारी से अभिन्न है …..मुझे लगा …..अच्छा ! तो ये है बरसाना !
मुझे बरसाना की परिक्रमा में ही उन युवा साधु ने छोड़ दिया था …….
छोटी छोटी बच्चियाँ खेल रही हैं ….खेलने में ही मग्न हैं …..आगे पहाड़ी है ….पहाड़ी दोनों ओर हैं , मध्य में पतली गैल है ….इसी को बरसाना में कहते हैं “सांकरी खोर”…..यहाँ कन्हैया श्रीराधा रानी से दान माँगते थे ….रोक देते …दही बेचने जब श्रीराधा जातीं …तब रोक देते ।
“अब दान दो “…..उस छोटी बच्ची ने अपना हाथ मेरे सामने फैलाया ….मैं देखता रह गया …गौर वर्ण था उसका …नीली आँखें थीं …आवाज़ में अद्भुत मिठास थी …वो खेल रही थी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ …मुझे देखा था तो उठकर मेरे सामने आगयी …तुनक कर बोली …यहाँ दान माँगा जाता है …अब दान दो ! चार वर्ष की वो बालिका ……माँगती नहीं हूँ मैं सबसे …तू वृन्दावन ते आयो है ना ? मैंने सिर हिला कर “हाँ” कहा । दे दे दान । दान ? मेरे मन ने पूछा । हाँ दान । प्रेम नगरी में प्रवेश का दान । ऐसे कैसे प्रवेश कर सकते हो प्रेम राज्य में …देना तो पड़ेगा ना ।
क्या नाम है तुम्हारा ? ललिता । उस बच्ची ने कहा । ये नाम सुनते ही मुझे रोमांच हुआ ….और वो विशाखा …उस बालिका ने मुझे अपनी एक और सहेली को दिखाते हुए कहा …फिर श्रीराधारानी कहाँ हैं ? वो ? वो तो शाम को आती हैं ..धूप है ना ? मैं अपलक देखता रहा उस बालिका को । वो वहाँ से चली गयी …..खिलखिलाती , चहकती ।
उसी सांकरी खोर के पहाड़ी में मैं ध्यान मग्न हो गया था ।
मैया ! मैं दही बेचने जाऊँगी ……मुझे जाने दो ना । बरसाने की राजदुलारी अब दही बेचने जाएगी ? नही , और तुम्हें क्यों दही बेचने जाना है ? क्यों की मेरी सारी सखियाँ जा रहीं हैं …इसलिए मैं भी जाऊँगी । महारानी कीर्ति से इनकी लाड़ली आज जिद्द पर उतर आयी थी ।
अच्छा ठीक है …..चली जाना । कीर्ति महारानी ने कह दिया तो ये लाड़ली कितनी ख़ुशी से उछल पड़ी थी …बाहर जाकर अपनी सखियों को बताया था कि मैं भी दही बेचने जाऊँगी ।
दही बेचना तो बहाना है ….इन्हें अपने प्रिय को देखना है ……दही की मटकी लेकर चली थी ये ….इनके साथ इनकी अष्ट सखियाँ …..सब छोटी छोटी तो हैं । बस सांकरी खोर में आते ही आगया वो नन्द किशोर ….अपनी लकुट लेकर …अड़ा दिया सामने । यही तो चाहतीं थीं ये सखियाँ ……विशेष – ये भानु की लली । अब तो दान दो । दान ? काहे को दान ? यही ललिता अड़ गयी ….बरसानौं हमारो , गैल हमारी …फिर दान तुमकूँ क्यों ? ओह ! तो बरसाने की राजदुलारी ये हैं ? बड़ी सुन्दर हैं । कन्हैया भी गए पास में ….श्रीराधा शरमा गयीं …कुछ नही बोलीं ….उनके हृदय में गुदगुदी हो रही है । दूर खड़े रहो …ललिता फिर तुनक के बोली ….क्यों ? मेरे पास में आवे तो तुम्हारी राज दुलारी को गोरो रंग कारो है जाएगो ? और क्या ? ये भी तो हो सकता है की …मेरा काला रंग गोरा हो जाये । ये सुनकर श्रीराधा रानी हंस पड़ीं ….तो कन्हैया और पास में गये श्रीराधा के । ललिता बोली …दूर रहो …मैंने कहा ना …दूर रहो ….कन्हैया बोले …ललिते ! सच बता …सोने का रंग कसौटी पर चढ़ता है कि कसौटी का रंग सोने पर चढ़ता है ? ललिता कुछ नही बोली …बस मंद मंद मुस्कुरा दी ….मैं कसौटी हूँ और तुम्हारी राज दुलारी सोना है …सोने का रंग ही कसौटी पर चढ़ता है । ये कहते हुए गोरी भोरी राधिका के कोमल कपोलों को कन्हैया ने चूम लिया था और वो आनन्द में उछलते हुए भाग गए थे …..जय जय हो ….सारे मोर बोल उठे थे ।
मेरा ध्यान खुला तो मेरे चारों ओर मोरों का झुण्ड था …..और वही छोटी छोटी बच्चियाँ ….मुझे संकोच हुआ ….मेरे पास देने के लिए कुछ नही है …..
ये पैसा ले लें ? उसी छोटी बालिका ललिता ने मुझ से पूछा था ।
मेरे पास कहाँ है पैसा ? ये …उसने दिखाया …मेरे सामने एक सौ रुपए और एक बीस रुपए का नोट पड़ा था ….मुझे पता नही किसने दिया …शायद कोई यात्री चढ़ा गया था ….मैंने कहा …हाँ , तुम्हारा ही है …नही , बस बीस रुपए । बीस रुपए उठाये और वो जैसे ही जाने लगी ….मुझे से बोली …वो आरही हमारी सखी राधा …देख । मैंने मुड़कर देखा तो एक पाँच वर्ष की बालिका …अत्यन्त गोरी , मंद मुस्कुराती हुयी …पैरों में उसके नूपुर थे …जो बज रहे थे ….दो चोटी की हुयी थी ….वो बच्ची ललिता उसके पास गयी ….कान में कुछ कहा …..वो शरमाई ….सच्ची ! ललिता ने कहा ….तभी एक सांवला सा लड़का ….घुंघराले केश छ वर्ष का ….अद्भुत आकर्षण लिए हुए ….और मेरे देखते ही देखते ….ये सब कहाँ गये …किस ओर गये पता ही नही चला । कहूँ तो सांकरी खोर में अन्तर्ध्यान ही हो गये थे । मुझे रोमांच हो रहा था …यहाँ के परमाणु में ही प्रेम था …प्रेम व्याप्त था । अच्छा , तो ये बरसाना है । मेरा मन कह रहा था । शाम होने को आयी थी …पाँच बजे मन्दिर खुलता है …मैं धीरे धीरे मन्दिर की ओर बढ़ चला था ।
शेष कल –
[Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 25
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धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् |
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते || २५ ||
धूमः – धुआँ; रात्रिः – रात; तथा – और; कृष्णः – कृष्णपक्ष; षट्-मासाः – छह मॉस की अवधि; दक्षिण-अयणम् – जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है; तत्र – वहाँ; चान्द्र-मसम् – चन्द्रलोक को; ज्योतिः – प्रकाश; योगी – योगी; प्राप्य – प्राप्त करके; निवर्तते – वापस आता है |
भावार्थ
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जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है |
तात्पर्य
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भागवत के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि उल्लेख करते हैं कि जो लोग कर्मकाण्ड तथा यज्ञकाण्ड में निपुण हैं, वे मृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं | ये महान आत्माएँ चन्द्रमा पर लगभग १० हजार वर्षों तक (देवों की गणना से) रहती हैं और सोमरस का पान करते हुए जीवन का आनन्द भोगती हैं | अन्ततोगत्वा वे पृथ्वी पर लौट आती हैं | इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा में उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं, भले ही हम अपनी स्थूल इन्द्रियों से उन्हें देख न सकें |
[
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (163)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रासलीला का अन्तरंग-3
मैं अपने को इंद्रियवाला क्यों मानता हूँ? बोले- भोक्ता का भाव जब तक है तब तक मैं इंद्रियवाला हूँ, अपने में परिच्छिन्नपने की भ्रांति है, और तब तक मुझमें कामना भी रहेगी। अपने को जाने तो भोक्ता और कहे कि मैं निष्काम हूँ तो भोक्ता कभी निष्काम नहीं हो सकता। जो लोग निष्काम-निष्काम का कोलाहल करते हैं, उनसे पूछना कि तुममें भोक्तापने का भ्रम है कि मिट गया? बोले- मिट गया। ठीक है, मिट गया तो तुम ब्रह्म हो; तब तुम ब्रह्मरूप से निष्काम हो; और जो छोड़ा हुआ अंतःकरण है, वह तो अपने संसार के अनुसार ही चल रहा है न, नारायण? तुम अंतःकरण को निष्काम कह रहे हो कि आत्मा को निष्काम बता रहे हो?
अब देखो- असल में श्रीकृष्ण के प्रति सकाम होने को ही भक्ति-सिद्धांत में निष्कामता मानते हैं, क्योंकि उसमें सबकुछ ईश्वर के भोग के लिए, श्रीकृष्ण के भोग के लिए है, अपने भोग के लिए नहीं है। अब देखो- भोग की स्थिति है प्रेम है। आपको पहले बताया कि श्रीकृष्ण भगवान परमेश्वर हैं और माया उनका श्रृंगार है, और कोटि-कोटि जीवों के मुख से वही अपने रस का आस्वादन कर रहे हैं, भला!
कृष्ण ने कैसी होरी मचाई
एक तो होरी मचै नहीं कबहूँ
एक तो करउँ बहुताई ।
यही प्रभु ने ठहराई ।।
कृष्ण ने कैसी होरी मचाई ।।
तो माया का श्रृंगार करके और स्वयं पिचकारी लेकर के परमेश्वर आया और स्वयं सखी बना, और स्वयं सखा बना, और स्वयं यह होरी का खेल खेल रहा है! उसके सिवाय ना ये जीव सखा हैं, और ना जीव सखी हैं, वही खेल रहा है! तो आओ, उसे खेलने के लिए परिस्थिति चाहिए। क्या?*
वृन्दावन चाहिए, वृन्दावनधाम के सिवाय उस रस की उत्पत्ति अन्यत्र नहीं होती है। आपको एक कथा सुनाता हूँ।
जब व्रजवासी लोग सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र में गये तो सब मिले। श्रीकृष्ण यशोदा मैया और नन्दबाबा की गोद में शिर रखकर खूब रोये! कि माता-पिता! तुम्हारे बिना हमको कितना दुःख है। श्रीकृष्ण एक-एक ग्वाल से मिले; सबको अलग-अलग ले जाकर बातें कीं। फिर सखियों से मिले, गोपियों से मिले, राधारानी से मिले। राधारानी जब श्रीकृष्ण से एकान्त में मिलीं तो बाहर निकलने पर ललिता सखी से बात की। ललिता ने कहा- सखी, आज तो बड़ा आनन्द है, श्रीकृष्ण से मिलना हो गया! राधारानी बोलीं- नहीं, बहुत आनन्द नहीं हुआ। क्यों-
प्रियः सोयं कृष्णः सहचरि कुरुक्षेत्र मिलितः
सखाहं सा राधा सदितमुभयो संगमसुखम् ।
तथाप्यन्तः खेलन् मधुरमुरली पञ्चमजुषे
मनो मे कालिन्दी-पुलिन विपिन-यशस्पृहति ।।
सखी, वही श्रीकृष्ण हैं, श्यामसुन्दर वही, नन्दनन्दन वही, पीताम्बरधारी वही, नित्य नवकिशोर वही, परमसुन्दर वही दिव्य वस्त्र, वही प्रेमानन्द श्रीकृष्ण हैं। आज जिनसे भेंट हुई हैं मैं पहचानती हूँ वही है; और मैं भी वही राधा हूँ और दोनों का मिलना भी वैसा ही हुआ है। परंतु हमारे मन में तो उनकी बांसुरीवाली मूर्ति है वह बैठ गयी-
बिन मुरली बनमाल चंद्रिका और ना जानो नाम ।।
हमारे तो वंशीवाले श्याम ।।++
कृष्ण तो वही थे पर उनके हाथ में बाँसुरी नहीं थी। कृष्ण तो वही थे, पर पाँव में जो उनका ठुमुक-ठुमुक विन्यास था वह नहीं है। वह जो स्फूर्ति है वृन्दावन की, प्रेम में जो गति है, प्रेम में जो स्थिति है, वही नहीं है! प्रेम में गति है। जैसे गंगाजी की धारा अखण्ड बहती रहती है ऐसे प्रेम की धारा संयोग-वियोग दोनों में बहती रहती है। हमेशा वही-वही-वही! दुनिया में कोई चीज दिख जाय, तो मन यही कहेगा कि यह अच्छी-से-अच्छी चीज हमारे प्यारे के पास पहुँच जाय। जैसे गंगाजी की धारा निरन्तर समुद्र की ओर बहती है। वैसे हृदय की वृत्ति-धारा निरन्तर अपने प्रिय की ओर बहती है। राधारानी ने कहा- मेरा मन तो यह चाहता है कि वही वृन्दावन में यमुनाजी का तट हो, वही विशाल पुलिन हो, और वही पञ्चम स्वर में बाँसुरी की तान हो; वही पीतम्बर हो, वही मोर-मुकुट ह, वही श्यामसुन्दर हों; वही चितवन हो, वही मुस्कान हो, वही पाद-विन्यास हो! तब हमको आनन्द आवेगा। हमको तो वह सब चाहिए। बिना वृन्दावन के आनन्द कहाँ?
नारायण! देखो, आपको सुनाते हैं वृन्दावन के रास की बात। यहाँ श्रीकृष्ण काम को शान्त नहीं करते हैं, काम को जगाते हैं। तो क्यों? यह काम शरीर से संसार का स्पर्श करने वाला नहीं है। यह काम कृष्ण का स्पर्श करने वाला है, ईश्वर का स्पर्श करने वाला है। यदि आपके मन में काम हो, तो यदि वह भगवत् स्पर्शी हैं तो सफल है, और यदि संसास्पर्शी है तो उसका रासलीला के साथ संबंध नहीं है। अब देखो, एक दूसरी बात है। रासलीला के श्रवण और वर्णन का जो फल बताया है सो क्या है?- हृदरोगमाश्वपहिनोत्यचिरेणधीरः यह जो हृदय का रोग ‘काम’ है उसको मिटाने वाला है, रासलीला का श्रद्धापूर्वक श्रवण और वर्णन। विचित्र है, यहाँ श्रीकृष्ण काम को जगा रहे हैं। तो एक काम वह है, जो मिटाने के लिए है और एक काम वह है जो जगाने के लिए है। ईश्वर के प्रति, श्रीकृष्ण के प्रति जो काम है, वह जगाने के लिए है। इसी से रास का वर्णन किया-
एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्त्रिग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः।
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः ।। ++
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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