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June 6, 2025 3:50 am

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दमन में सड़क सुरक्षा अभियान को मिली नई दिशा, “Helmet Hero “मुहिम के अंतर्गत आयोजित हुई जागरूकता ग्राम सभा माननीय प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के कुशल नेतृत्व में दमन में सड़क सुरक्षा के प्रति जनजागरूकता अभियानोंको नई गति

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श्रीसीतारामशरणम्मम(9-2),बृज दर्शन – 3, महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(9-2),बृज दर्शन – 3, महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) &  श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 9️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#तातजनकतनयायहसोई………….
📙( रामचरितमानस )📙&

#मैवैदेही ! ……………._

अरे ! तेरी ये दशा कैसे हुयी ? सखी क्या हुआ ?

मेरी सखियों नें ये प्रश्न एक साथ कर दिए थे ………..।

राजकुमार आये हैं ? वही राजकुमार जिन्होनें नगर में हल्ला मचा रखा है ……..वही अयोध्या के राजकुमार …………जिनका नाम है राम ….और छोटे का नाम है लक्ष्मण …………..।

ओह ! मेरा हृदय धक्क कर गया ………………उस सखी की जो दशा थी वो तो थी ही …..पर अब मेरी दशा बिगड़नें वाली थी ।

मैने तुरन्त अपनी प्रिय सखी चन्द्रकला को आगे किया …………

मै उसके पीछे हो गयी ………….मै अपना प्रेम प्रकट नही करना चाहती थी …….प्रेम जितना छुपा रहे उतना ही अच्छा होता है ……….।

मेरी सखियां चली थीं …….और मै अपनें हृदय को सम्भाले चुपचाप चल रही थी ………………।


आप नही जा सकते बाग़ में ……………….वो माली भी विचित्र था …..रोक दिया था राजकुमारों को बाग़ में प्रवेश करनें से ।

देखो ! भद्र ! हमें जानें दो ………..हमें विलम्ब हो रहा है ……..गुरु जी के लिये फूल लेनें हैं ………..और पूजा समाप्त हो गई तो फूल ले जानें का मतलब क्या हुआ !

हे राजकुमार ! पहली बात तो ये है कि ये बाग़ पुरुषों का नही है ….

ये मात्र महिलाओं का ही बाग़ है ….इसमें मात्र महिलाओं का ही प्रवेश है …….इसलिये आपको जानें के लिये हम कैसे कहें ।

हे भद्र ! बगीचा तो आप मालियों का ही होता है ……आप ही इन पौधों को सींचते हैं ………..अपने पुत्रों की तरह इनका सम्भाल करते हैं …..इसलिये नियम तो आपके ही चलेंगें इस बाग़ में ………..

हे भद्र ! आप हमें जानें की अनुमति दें…..श्री राम नें ये बात कही थी ।

हम सब देख रही थीं …………..झुरमुट में से …..मुझे श्रीराम का मुखारविन्द नही दिखाई दे रहा था ……….हाँ उन दोनों की वार्ता अवश्य सुनाई दे रही थी ।

आप बहुत कोमल हैं ………हे राजकुमार ! कांटे गढ़ जायेंगें ……….

और इतना ही नही ……….आपके मुखारविन्द को ही फूल समझ कर कहीं भौरें आपके मुख मण्डल पर मंडरानें लगे तो ?

मुस्कुराये थे श्री राम ………..मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं …..मै तो आँखें बंदकर खड़ी रही …..मेरा हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा था ।

हे वाटिका के रक्षक ! हमें जानें दो …………….

भैया ! आप भी इस व्यक्ति को इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं ……राजा की आज्ञा है ……….हम कहीं भी जा आ सकते हैं …….फिर इस आदमी से बहस की आवश्यकता ही क्या ?

नही लखन ! वाटिका का राजा तो ये माली ही होता है …………..

आहा ! कितनी मधुर आवाज ! और कितनी सही बात !

मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं ……………….मै श्री राम की बातों को सुन रही थी ………..इतनी मिठास तो मधु में भी नही होती ।

अच्छा ! आप जाइए ……………माली नें मुस्कुराते हुए कहा ।

पर …….आप सरोवर में मत उतरियेगा ……..कमल को लेनें के लिए …….काँटे हैं ….और कीचड़ भी है ……………..थोड़ी सावधानी से ।

धन्यवाद ! सिर झुकाकर माली का धन्यवाद किया श्री राम नें ।

क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

[] Niru Ashra: बृज दर्शन – 3

अच्छा ! तो ये गोवर्धन हैं …


“ये पर्वत हैं गोवर्धन पर्वत, इसकी महिमा अपरम्पार है”

मुझे एक बृजवासी बता रहे थे जिनके साथ मैं बरसाना श्रीजी के दर्शन पश्चात् गोवर्धन के लिए चल पड़ा था …..ये गोवर्धन ही जा रहे थे ….मार्ग में मुझे बताया कि “ गोवर्धन की महिमा कौन गा सकता है ! विचार करो ….भगवान श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं अखिल ब्रह्माण्ड इनके नीचे काम करते हैं ….शिवादि से ये पूजित हैं ….जो समस्त से पूजित हो….जो समस्त को अपने में आकर्षित करके रखता हो ….वो पूजा कर रहा है इस पर्वत की ….जिनके आगे ब्रह्मादि नतमस्तक हैं वो साष्टांग प्रणाम करता है इन गिरिराज जी को ….तो बताओ इनकी महिमा कौन गा सकता है”।

आहा ! एक बात तो है – बृज की बात बृजवासी जितने ठसक से कह सकता है उतना बाहर का नही कह सकता ।

सख्य भाव कूट कूट के भरा है इन बृजवासियों में …लाला ! चौं रे ! सारे ! दारिके ! ये गाली है …किन्तु ये सम्बोधन हैं बृज का । किसके लिए ? परात्पर ब्रह्म के लिए …लेकिन ब्रह्म होगा तुम्हारा , इनका तो यार है ….मैं इस गोवर्धन के दिव्य सख्य भाव से पूर्ण वातावरण में प्रवेश कर चुका था । हे साधकों ! बृज को समझने के लिए सूक्ष्म भाव अत्यंत आवश्यक है ….यहाँ हर तीन कोस में आपको अनुभव होगा कि हम दूसरे परमाणु क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं । जैसे – नन्दगाँव में आपको वात्सल्य के परमाणु मिलेंगे …इसके लिए नन्दगाँव के मन्दिर में ही जाने की आवश्यकता नही है ….बरसाने में आपको मधुर रस के परमाणु चारों ओर मिलेंगे …..गोवर्धन में आपको सख्य भाव के परमाणु । यहाँ अभी भी …सुनने वाला हो …अत्यन्त सम्वेदनशील हो तो उसे यहाँ सब सुनाई देगा ।

कन्हैया ! कन्हैया !

ये आवाज आप भी सुन सकते हो …….जो ग्वाल बाल अपने सखा को पुकार रहे हैं …..गौ चराते हैं इसी गिरिराज में । आज भी ? तो आप इतिहास समझ रहे हैं क्या श्रीकृष्ण को ? वो तो यहीं हैं ….उसकी लीला चल रही है । सुनो …..ग्वाल बाल पुकार रहे हैं उसे ….कन्हैया ! कन्हैया ! सुनाई दी ?

मुझे उन बृजवासी ने गिरिराज जी की तलहटी में ही उतार दिया था ….

मैं वहीं उतरा और गिरिराज जी को साष्टांग किया और ध्यान मग्न !


कन्हैया ! कन्हैया !

वर्षा हो रही है ….कन्हैया ! हमारी गौएँ बह रहीं हैं ….कन्हैया ! हमारा घर बह गया …..अब क्या करें ? अन्धकार है चारों ओर बिजली चमक रही है ….उसी से कुछ कुछ दीख रहा है …..चारों दिशाओं से बस एक ही पुकार है ..कन्हैया ! आबाल , वृद्ध , सब इसी को पुकार रहे हैं …कन्हैया ! इनका और है कौन ? यही है इनका सब कुछ । जीवन में एक देवता था जिसे पूजा जाता था , दुःख सुख में वही याद आता था ….किन्तु इन ब्रजवासियों की कौन होड़ करे …अपने देवता तक को त्याग दिया इन्होंने ….इसे सामान्य बात न समझा जाये ….इनके सखा ने इनको कहा ….क्या इन्द्र को पूजते हो …..तो छोड़ दें ? सखाओं ने पूछा । और क्या ….छोड़ो ….कन्हैया ने कह दिया तो बस…….इनके प्यारे सखा ने ….एक बार ही तो कहा था की छोड़ो इन देवता को ….बस उसी दिन , उसी क्षण छोड़ दिया ……अपने माता पिता को भी कह दिया कि इस बार नही होगी इन्द्र की पूजा ! माता पिता भी तो कृष्ण को ही अपना मानते थे …अच्छा ! कन्हैया ने कहा है ? हाँ , बस , उन्होंने भी उसी क्षण इन्द्र को त्याग दिया …..आज की पूजा थी ये ? वैदिक काल से चली आई पूजा थी ….हजारों वर्षों से चली आयी पूजा थी …किन्तु कृष्ण के आगे क्या कोई देवता टिक पाएगा ? छोड़ दिया …और पूजा की गिरिराज गोवर्धन की …..आज तक ऐसा आनन्द आया नही था ।

कन्हैया !

फिर चारों ओर पुकार गूंज उठी ।

रुष्ट हो गया था इन्द्र ….वर्षा कर दी थी उसने । प्रलयक़ालीन वर्षा …..उसकी सदियों से चली आरही पूजा जो छोड़ दी थी । कन्हैया ने देखा चारों ओर , जल ही जल हैं ….चीख पुकार मची है ….प्रलय का दृष्य उत्पन्न था । गम्भीर हो गया था ये मोर मुकुट धारी , कुछ सोचा उसने ….ऊपर की ओर देखा , हंसा, मन ही मन बोला …बेटा होकर बाप से उलझ रहे हो इन्द्र ! और उसी समय कन्हैया ने अपने सखाओं से कहा – दौड़ो मेरे पीछे …और स्वयं विद्युत की भाँति आगे दौड़ा ……कहाँ तक दौड़ना है पता नही …क्यों दौड़ना है पता नही …..जल भर गया है ….घनघोर वर्षा हो रही है …अन्धकार ….पर कन्हैया ने कहा है – दौड़ो …तो सब दौड़ पड़े ….लम्बे ड़ग भरते ….छपाक छपाक …सब पीछे हैं …विश्वास है सबको , हमारा सखा कुछ करेगा ।

तभी एक गुफा देखी – चलो नीचे ….कृष्ण गुफा में उतरे ….पीछे पीछे सखा उतरे हैं ……जोर लगाओ ! कन्हैया चिल्लाये …..सब जोर लगाने लगे ….क्या करना है ? इस पर्वत को उठाना है …कन्हैया बोले । ठीक है ….सखाओं ने पूरी ताकत लगाई ….और ताकत लगाओ ….और ताकत लगाई …..थोड़ा हिला पर्वत , और लगाओ ….कन्हैया ने अपनी पूरी ताकत से …..उठ गया पर्वत …सब उछल पड़े …कन्हैया चिल्लाए …”मनसुख ,सबको बुला गिरिराज पर्वत के नीचे “। मनसुख ने आवाज लगाई …सबने लगाई ….सब ग्वाल बाल चीखे …”आओ पर्वत के नीचे” गौएँ दौड़ीं ….गोपियाँ दौड़ीं ….गोप दौड़े …..अब सब गिरिराज पर्वत के नीचे थे ।

तभी …..श्रीभानु दुलारी आयीं ….वो भीगीं थीं …..भीगने से उनका सौन्दर्य और बढ़ गया था ….ऐ हट्ट ! देख ! राधा आरही है …इनको कन्हैया के सामने रखना ….मनसुख मधुमंगल के कान में फुसफुसा रहा था …ये रहेंगी सामने तो अपने कन्हैया का मन लगा रहेगा …और कन्हैया का मन लगा रहेगा तो हम सबका भी लगा रहेगा । श्रीराधा रानी सामने खड़ी हैं ….अब कन्हैया मुस्कुराये , भूल गए सब कुछ ….अपनी छोटी उँगली में गिरिराज को उठा लिया है ….थोड़े टेढ़े होकर खड़े हैं , अपनी प्रिया जी को देख रहे हैं …निहार रहे हैं …..सब मन्त्र मुग्ध हैं ….इन युगल सरकार को इस तरह देखकर …..सात दिन कैसे बीते पता ही नही चला ….आठवें दिन सूर्योदय हुआ …..कन्हैया ने संकेत में अपनी प्यारी को दुखी होकर कहा …..क्यों वर्षा बन्द हुई ! अभी और चलती ना ! श्रीराधा रानी इस बात पर जोर से हंस दीं ….उफ़ ! श्रीराधा के उस अनुपम सौंदर्य पर कन्हैया ने अपना हाथ आह भरते हुए हृदय में रखा तो गिरिराज नीचे आने लगे …सब जोर से चिल्लाए …कन्हैया !

कन्हैया ने फिर हाथ ऊपर किया ….और धीरे धीरे गिरिराज पर्वत को नीचे रख दिया था ।

सारे ! राधा रानी के सामने ज़्यादा भाव भंगिमा दिखा रो ! उँगली में खड़ो कर दियो गिरिराज पर्वत कुँ ! कन्हैया बोले …तभी तो मानेंगी ना राधा ! अब तो मान गयी होंगी ।

तुम दोनों के चक्कर में हम सब मर जाते । कन्हैया ने मनसुख से धीरे कहा …अब तो ब्याह होयगो ? हाँ , लाला ! अब तो पक्को ही है ….वैसे भी भानु बाबा ने भी देख लियो …अब मान गए होंगे कि जमाई पहलमान हैं ……मनसुख की इस बात पर सब हंसे थे ।

इस लीला दर्शन के पश्चात मेरी हंसी रुक नही रही थी ……

कन्हैया !

अभी भी मेरे कानों में ये आवाज गूंज रही है ।

अच्छा , तो ये गोवर्धन है ! मैंने नेत्र खोलकर देखा था ।

शेष कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (l


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-3

परिष्वंग माने हृदय से लगा देना, अर्थात हृदय में जो प्रेम है उसको जगानाः कराभिमर्श माने हाथ को छूना, अर्थात संपूर्ण क्रियाशक्ति को लेना। स्निग्धेक्षण- अपने हृदय मे जो स्नेह है, उसको आँखों में भरकर सामने वाले के आँखों में बरसा देना। उद्दाम विलास हास- विलास और हास में कोई मर्यादा नहीं है। और भगवान श्रीकृष्ण रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः…… गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं। बोले- ठीक है, गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति काम होना उनकी उन्नति का लक्षण है परंतु श्रीकृष्ण के हृदय में गोपियों के प्रति काम है कि नहीं? एक यह भी प्रश्न है। अरे, प्रश्न तो ऐसा-ऐसा आता है कि एक बार श्रीकरपात्री जी महाराज से बात हुई। तो कह रहे थे कि आजकल के लोग जैसा तर्क करते हैं, जैसी युक्ति देते हैं, उनको सुनकर तो हँसी आती है। पहले के लोगों ने तो ऐसे-ऐसे तर्क दिए हैं, ऐसी-ऐसी युक्तियाँ दी हैं, ऐसे-ऐसे प्रश्न उठाये हैं कि यदि उनके द्वारा उठाया हुआ प्रश्न लोगों के सामने रख दें तो उनके लिए उनका समाधान करना कठिन हो जायेगा। वह तो उन्होंने ही प्रश्न उठाया है और समाधान किया है।

अब यह प्रश्न है कि गोपी श्रीकृष्ण के प्रति कामना करती है तो गोपी का तो उत्थान होता है, क्योंकि संसार की कामना छूटती है और जिसके प्रति कामना है उस भगवान के पास पहुँच जायेगी। हमारे जीवन में शरीर मोटर है, जीव इसमें मालिक बैठा हुआ है और काम इसमें ड्राइवर है। जिसकी कामना होगी उसके पास यह शरीर पहुँच जायेगा, काम जीव को ले जाकर वहीं पहुँचा देगा। लेकिन कृष्ण के प्रति प्रेमियों के मन में काम है कि नहीं? और काम है तो कृष्ण कहाँ पहुँचावेंगे? उनकी क्या गति होगी? एक और प्रश्न उठाते हैं। बोले- भाई, श्रीकृष्ण तो साक्षात ब्रह्म हैं, भगवान हैं, और या ब्रह्मज्ञ तो हैं ही। ये तो धर्म करें अधर्म करें, न वे करत हैं न भोक्ता हैं; इसलिए वह तो पाप-पुण्य-मुक्त हैं, उनको तो पाप-पुण्य लगेगा नहीं। लेकिन ये गोपियाँ तो ब्रह्मज्ञ नहीं है, ये जब धर्म का उल्लंघन करेंगी, उनको तो पाप लगेगा, नारायण! ये सब प्रश्न उठाकर हमारे पूर्वज महात्माओं ने इसका समाधान किया है, भला! श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज ने यह प्रश्न उठाया है। तो अब आपको यह सुनाते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के साथ कैसे रासलीला करते हैं।+

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः-

रासपञ्चाध्यायी के मूल में यह श्लोक है। कहा- यह नहीं समझना कि कृष्ण अकेले थे, अनब्याहे थे, उनको विहार के लिए कोई प्रसंग प्राप्त नहीं था, इसलिए विहार किया। बोले-रेमे रमेशः ये जहाँ-तहाँ सर्वत्र लक्ष्मी के साथ विहार कर रहे हैं, श्रीदेवी और भूदेवी तो बिल्कुल इनके साथ हैं। संपूर्ण श्री के पति और पूर्ण भूके पति। संपूर्ण सौंदर्य और माधुर्य के एकमात्र आकर, सौरस्य, सौरभ्य, सौन्दर्य, सौकुमार्य, सौस्वर्य, सौहृत्य, सौहार्द्र के एकमात्र आकर, भगवान श्रीकृष्ण! इनके यहाँ कोई कामना के लिए अवकाश नहीं है। जैसे पुरुष स्त्रीत्व से हीन और स्त्री पुंस्त्व से हीन है और इसलिए दोनों अपने-अपने अंदर जो कमी है उसको पूरा करने के लिए एक-दूसरे के पास जाते हैं, क्या- भगवान भी ऐसे ही हैं- त्वं स्त्री, त्वं पुमानसि, त्वं कुमार उत वा कुमारी उसमें स्त्रीत्व भी है और पुंस्त्व भी है, वही स्त्री भी है और वही पुरुष भी है। तो उसमें स्त्री-पुरुष विषयक काम कैसे आ सकता है।

बोले- विहार कैसे कर रहे हैं भगवान? कहा- रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः ये रमा से भी ज्यादा सुन्दरी हैं, रमा के पति तो पहले से ही हैं, परंतु गोपियाँ उन्हें लक्ष्मी से भी ज्यादा सुन्दर लगती हैं। और विहार कैसे करते हैं? कि यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः- जैसे बालक शीशे के सामने बैठ जाय, और अपने-आपको ही देखकर खेलना चाहे, अपने-आपसे ही बात करना चाहे। आपने देखा होगा, बड़े शीशे के सामने नन्हें बच्चे हाथ लगाकर अपने प्रतिबिम्ब को पकड़ना चाहते हैं। श्रीकृष्ण को सब गोपियों में कौन दिख रहा है? आप देखो- कृष्ण को गोपियों में गोपी नहीं दिख रही है, कृष्ण को गोपियों में कृष्ण दिख रहे हैं। स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः। श्रीकृष्ण देखते हैं कि इस गोपी में मैं ही हूँ, ये गोपी मैं ही हूँ। तो जैसे शीशे में पडी हुई अपनी परछाईं से बालक निर्विकार ही खेलता है- न काम है, न क्रोध है, न लोभ है, न मोह है- शुद्ध हृदय, सरल-सहज भाव से बालक जैसे अपने प्रतिबिम्ब से खेलता है, वैसे- आत्मारामोप्यरीरमत्‌ आत्माराम भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रमण किया।++

रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः- यह दूसरा श्लोक आया है रासपञ्चाध्यायी में। सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः शरद् ऋतु की कथा का बड़े-बड़े कवियों ने वर्णन किया है। बोले- जितने कवि पहले हुए हैं और जो वर्णन कर चुके हैं, जो आज कर रहे हैं और जो आगे वर्णन करेंगे, उनमें जिस-जिस रस का वर्णन भूत में हुआ है, वर्तमान में हो रहा है और भविष्य में होगा, अभी उन सब रसों का सेवन भगवान श्रीकृष्ण ने रासलीला के प्रसंग में किया। कहा- क्यों? बोले- श्रीकृष्ण अखिल रसामृत-मूर्ति हैं; संपूर्ण रस उन्हीं में से निकलता है; और देखो- क्रिया सब वही है, परंतु विकार बिलकुल नहीं है, भला!

गोपी हजारों हैं पर द्वैत नहीं है, भला! विहार है परंतु काम नहीं है, काम है परंतु विकार नहीं है। क्या लीला है। इसको बोलते हैं ब्रह्म में ब्रह्म का स्फुरण-ब्रह्मणि ब्रह्म भ्रम्यते; आनन्द में आनन्द की तरंग, चित्त में चित्त का स्फुरण सतता में सतत के आकार का स्फुरण। जैसे एक अखण्ड सतता में आकार होते हैं, एक अखण्ड चेतन में स्फुरण होते हैं, वैसे ही एक ही परमानन्दस्वरूप भगवान अनन्त-अनन्त गोपियों के रूप में स्फुरित होकर के और उनके साथ विहार कर रहे हैं। आप सब भी गोपी हैं भला। आपके मन की एक-एक रेखा एक-एक बिन्दु है; आपके हृदय की पोथी, आपके हृदय के वाक्य आपके हृदय के शब्द, अक्षर, रेखा और एक-एक बिन्दु आनन्दस्वरूप है, जैसे गंगाजी बूंद-बूंद हैं पर हैं गंगा वैसै। यह आनन्दस्वरूप बूँद-बूँद होकर के, गोपी-गोपी होकर के, स्फुरित हो रहा है। यह परमानन्दस्वरूप चित्तस्वरूप वृत्ति-वृत्ति होकर के स्फुरित हो रहा है। यह सत्ता आकार-आकार हो करके प्रत्येक आकार में स्फुरित हो रही है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 26
🌹🌹🌹🌹

श्रुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्र्वते मते |
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः || २६ ||

शुक्ल – प्रकाश; कृष्णे – तथा अंधकार; गती – जाने के मार्ग; हि – निश्चय ही; एते – ये दोनों; जगतः – भौतिक जगत् का; शाश्र्वते – वेदों में; मते – मत से; एकया – एक के द्वारा; याति – जाता है; अनावृत्तिम् – न लौटने के लिए; अन्यया – अन्य के द्वारा; आवर्तते – आ जाता है; पुनः – फिर से |

भावार्थ
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वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं – एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का | जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है |

तात्पर्य
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आचार्य बलदेव विद्याभूषण ने छान्दोग्य उपनिषद् से (५.१०.३-५) ऐसा ही विवरण उद्धृत किया है | जो अनादि काल से सकाम कर्मों तथा दार्शनिक चिन्तक रहे हैं वे निरन्तर आवगमन करते रहे हैं | वस्तुतः उन्हें परममोक्ष प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वे कृष्ण की शरण में नहीं जाते |


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