🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣2️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#तेहिक्षणराममध्यधनुतोडा ……._
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
मेरी वो जनकपुर की सखियाँ !
हँसी आती है उनकी एक एक बातें याद करके ……..
( ये लिखते हुए सीता जी हँसती हैं……उनको हँसता हुआ देख वो सामनें फुदक रही गिलहरी ख़ुशी से उछलती है ……वन के पक्षी चहक उठते हैं ……हिरण के बच्चे जब देखते हैं ….”वनदेवी” आज हँस रही हैं …..तो वह भी ऊँची छलाँग लगाते हुए इधर उधर भागते हैं और अपनी ख़ुशी का इजहार करते हैं …….मोर अपनें पंख फैलाकर नाच उठते हैं ……अरे ! उस समय तो पूरा वन प्रदेश ही उत्सव की ऊर्जा से भर गया था )
जब लक्ष्मण भैया क्रोध कर रहे थे ……….और चिल्लाकर भरी सभा में कह रहे थे ……..मै इस पिनाक को इसके मञ्जूषा सहित ही उठाकर फेंक दूँगा ……….तभी मेरे पिता जी नें उच्च सिंहासन में बैठनें का आग्रह किया था …..ऋषि विश्वामित्र को ……और साथ में इन अपनें शिष्यों सहित ………..।
ये सब लिखते हुए मैथिली हँस रही हैं …………….बड़े राजकुमार नें इशारा किया …………..आँखें तरेरी छोटे राजकुमार को ………
हाँ…….तुम मत तोड़ना पिनाक, नही तो….मै कंवारा रह जाऊँगा ।
पीछे से आकर मेरी सखी, मेरे कान में बोल गयी थी …….यही कह रहे हैं बड़े राजकुमार अपनें छोटे से….देखो ! देखो ….आँखें दिखा रहे हैं ।
होनें वाला ससुराल है…….ज्यादा नही बोलते………पीछे से सखियाँ बोले जा रही थीं …….मुझे ही सुना रही थीं ………मुझे हँसी आरही थी उन बदमाश सखियों की बातें सुनकर ।
होनें वाले ससुर जी हैं ……..ज्यादा नही बोलते ………..
ये सारी आवाजें मेरी सखियों की थीं …जो पीछे से कुछ न कुछ बोले जा रही थीं ………….चुप रहो ……….मैने एक बार पीछे मुड़कर देखा ….और इशारे में ही कहा था ….चुप रहो ।
ओह ! बुरा लग गया …………….अभी से बुरा लग गया ……….
चुप रहो ……..कितना बोलती थीं मेरी सखियाँ……….।
उच्च सिंहासन में विराजे हैं अब ऋषि विश्वामित्र और उनके आजु बाजू दोनों अयोध्या के राजकुमार …………..
सभा स्तब्ध है ……………अभी भी छोटे राजकुमार के नथूने फुले हुए हैं…..क्रोध अभी भी है………पर मर्यादा के चलते चुप हो गए हैं ।
सब की दृष्टि अब राजकुमारों पर ही टिक गयी है ………कि आगे अब क्या होगा ………………..तभी –
हे राम ! उठो और पिनाक को तोड़ दो ।
ऋषि विश्वामित्र नें आदेश दिया था ।
सब लोग देख रहे हैं ………श्री राम उठे …………………
अपनें गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया….और पिनाक की ओर बढ़ चले ।
मै अपनें पिता जी को देखनें लगी थी ………..कि इनको देखकर पिता जी की मानसिक स्थिति कैसी हो रही है .।
मेरे पिता जी प्रसन्न थे …………..वो कभी हाथ जोड़ रहे थे अपनें आराध्य भगवान शंकर को …….तो कभी श्री राम को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ रहा था ………….उनको लग रहा था …….मै कहूँ सावधानी पूर्वक पिनाक उठाना ……….पर कह नही पाये ……क्यों की कहीं ये कहना भी इनको बुरा न लग जाए …………मेरे पिता जनक जी आज तनाव भरी मानसिक स्थिति से गुजर रहे थे ……….क्यों की अब यही श्री राम ही अंतिम आस थे ……..अगर इनसे पिनाक नही टूटा तो उनकी बेटी जानकी कंवारी ही रह जायेगी ………..।
मै अपनें पिता जी को जानती हूँ…….बेटी ही तो जानती है अपनें पिता को …..मै देख रही थी……..अपलक नेत्रों से मेरे पिता श्रीराम को देखे जा रहे थे……….उनके चेहरे में विभिन्न भावों का उदय हो रहा था………ये उत्तरीय बाँध लो वत्स ! इस पीताम्बरी को कमर में कस लो …………या मेरे पिता को लग रहा था ……..पीताम्बरी को कस लेंगे तो शायद कुछ शक्ति आजाये ……और पिनाक टूट जाए …..।
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “राजा अंग”
भागवत की कहानी – 2
गुण तीन हैं जिससे सम्पूर्ण सृष्टि चलती है ….सत्वगुण , रजोगुण और तमोगुण । इनके देवता भी अलग अलग हैं जो जिस प्रकृति का होता है उसी प्रकृति के देवों को चुनता है , स्वाभाविक है …भूत प्रेत भैरव आदि ये तमोगुण के देव हैं …इनके उपासक भी इन्हीं की तरह रौद्र होंगे ही ….भद्रकाली को क्या आपने नही देखा …तमोगुण प्रकृति का व्यक्ति क्या कभी शान्त रूप भगवान श्रीहरि के प्रति आकर्षित हो सकता है ? देवि शक्ति आदि का पूजक रजोगुण से भरा हुआ ही होगा …और सत्वगुण वाला ….शान्त, परम शान्त होगा । इसलिए वो शान्ताकारं भगवान नारायण ( राम कृष्ण आदि ) का ही उपासक होता है ….लेकिन एक बात समझने की है ….तमोगुण के देव या रजोगुण के देव ये तत्क्षण फलदायी होते हैं …और साधक का लाभ हो या हानि साधक जो माँगे वो ये दे देते हैं …किन्तु सत्वगुण का देव ….शान्त है ….उपासक भी शान्त है ….शान्त की ओर ध्यान जाते ही साधक शान्त हो जाता है ….तब वो सत्व का देवता साधक जो माँगे वो नही देता जिससे उसका परम मंगल होगा ये वही प्रदान करता है …भले ही उस क्षण उसे दुःख हो या कष्ट । इसलिए हमें सत्वरूप श्रीहरि की भक्ति करनी चाहिए ।
महाराज अंग की जय हो ! महाराज अंग की जय हो !
ये राजा हैं …बड़े प्रतापी राजा हैं ….परम भक्त ध्रुव के वंश में ये जन्में हैं ……इसलिए भक्ति के गुण इनमें हैं ……प्रजा इन्हें बहुत चाहती है ….अपने प्राणों से भी ज़्यादा ! और क्यों न चाहें …ये भी तो प्रजा को अपने पुत्र की तरह चाहते हैं । पुत्र , सारे सुख हैं इनके पास ….किन्तु पुत्र का सुख नही है ….इनके पुत्र नही हैं । राजा अंग को इस बात की परवाह भी नही ….पर मन में कभी कभी आता है ….कि वंश आगे बढ़ेगा कैसे ? पत्नी का नाम है “सुनीथा” । राजा अंग के यहाँ एक ब्राह्मण ने आकर आतिथ्य ग्रहण नही किया ….वो बैठे और जब सुना कि इनके पुत्र नही हैं तो उठ कर चले गये । मनु के महान वंश में अतिथि का आतिथ्य अस्वीकार कर देना ! ये बात चुभ गयी थी राजा अंग को । उन्होंने तुरन्त अपने पुरोहितों को बुलाया ….राज्य के समस्त ब्राह्मण आये …इन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा ….मुझे पुत्र चाहिए । सब विद्वानों ने कुण्डली खंगाली ….सब ग्रह गोचर देखे …..और अन्तिम में यही कहा कि हे महाराज अंग ! आप यज्ञ कीजिए । महाराज तो तैयार थे ही अब इनके मन में पुत्र की लालसा तीव्र हो चली थी …इन्हें अब पुत्र चाहिये था । यज्ञ हुआ ….आहुति दी जा रही है ….किन्तु ये क्या देवता आहुति ग्रहण नही कर रहे ! पुरोहित के मस्तक से पसीना बहने लगा था …उनके भी समझ में नही आरहा कि इतनी श्रद्धा आहुति देने पर भी देवता ग्रहण क्यों नही कर रहे । तभी एक वयोवृद्ध ब्राह्मण बोले …नारायण को आहुति दो ….देवता आहुति नही ले रहे तो छोड़ो….भगवान नारायण लेंगे श्रीहरि को आहुति दो…….तभी पुरोहितों ने भगवान नारायण का स्मरण किया …..और राजा अंग को भी स्मरण के लिए कहा ….राजा अंग नेत्र बन्दकर बैठे हैं …शान्त गम्भीर …मन प्रसन्न है ….और भगवान नारायण का ध्यान कर रहे हैं ….अब आहुति …पुत्र प्राप्ति के लिए आहुति जैसे ही दी गयी …..उसी यज्ञ कुण्ड में से एक दिव्य पुरुष प्रकटा….और चरु दिया । पत्नी ने उस चरु का भक्षण किया ….तो एक पुत्र हुआ उसका नाम रखा गया था ….वेन । राजकुमार वेन ।
जिस पर भगवान नारायण कृपा करते हैं ….उसे अपना बना ही लेते हैं …..सब से छुड़वा देते हैं …सबसे पहले मोह का नाश करते हैं । यही हुआ राजा अंग के साथ । राजा अंग ने भगवान नारायण के नाम की आहुति क्या दी ….नारायण ने तो इन्हें अपना बना ही लिया । फिर अपना बनाया तो ऐसे कैसे छोड़ देते । मनुष्य बहुत छोटा सोचता है …तुरन्त की सोचता है ….लेकिन भगवान तो …वो तो जिससे हमारा परम मंगल हो वो सोचते हैं ।
बाल पने से ही राजकुमार वेन में दुष्टता भर गयी थी ….सज्जनों को पीटना …मारना , वृद्धों का अपमान करना , किसी की भी हत्या कर देना …दीन हीन प्राणियों को विशेष सताना ….ओह ! कितना सोचा था राजा अंग ने कि पुत्र होना चाहिए ….पुत्र होने की ख़ुशी में इन्होंने पूरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा भी की थी ……सातों समुद्र में स्नान किया था ….ग़रीबों में अन्न धन वितरण किए थे ..ब्राह्मणों को भर भर कर दान दिये थे …किन्तु ये पुत्र कैसा हुआ ?
वेन ! वत्स ! ऐसे किसी का अपमान मत करो ….ये उचित नही है …ये भी तुम्हारी प्रजा हैं ….आज राजा अंग अपने पुत्र को शिक्षा दे रहे थे की तभी …..आप मुझे शिक्षा न दें …मैं सब समझता हूँ …..इतना ही बोल कर वो किशोर अवस्था का वेन चला गया । नेत्रों से अश्रु बहने लगे राजा अंग के ….हृदय पीड़ा से कराहने लगा ….वो अपने कक्ष में चले गये ….एकान्त में बैठे हैं ….तभी ….भगवान नारायण इनके हृदय में प्रकट हो गये …..शान्त मुख मण्डल उनका ….मन्द स्मित …नीले आकाश की तरह वर्ण । राजा अंग ने देखा वो रूप हृदय से निकल कर बाहर आगया था …चतुर्भुज चक्रपाणि को अपने सामने देखकर राजा ने साष्टांग प्रणाम किया । फिर कुछ ही देर में भगवान बिना कुछ कहे अन्तर्ध्यान हो गये थे । राजा अंग के मन में प्रकाश छा गया …वो अब आनन्द में झूम उठे ….हे भगवन्! आपने मेरे ऊपर कृपा कर दी …..यही सच्ची कृपा है …मुझे सुपुत्र देते तो वो कृपा नही होती ….क्यों कि मैं मोह में फंस जाता …रजोगुण वाले देव हमारी कामना की पूर्ति करते हैं तमोगुण वाले देव भी हमारी कामना को महत्व देते हैं किन्तु नाथ ! आप हमारे कामना को नही देखते …हम क्या आस लगाये बैठे हैं ये आप नही देखते आप तो हमारा मंगल देखते हो …हमारा मंगल जहाँ हो , जिसमें हो आप वही करोगे । राजा अंग ये कहते हुए अर्धरात्रि को ही महल छोड़कर नारायण की भक्ति करने निकल गये थे ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (05)
🌸😥⛳घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ
अपने विरह की आग बुझाए कहाँ कहाँ
तेरी नजर में जुल्फों में मुस्कान में
उलझा है दिल तो छुडाये कहाँ कहाँ
घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ ||1
चरणों की खाकसारी में खुद ख़ाक बन गये
अब ख़ाक पे ख़ाक रमाये कहाँ कहाँ
घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ ||2
जिनकी नजर देखकर खुद बन गये मरीज
ऐसे मरीज मर्ज दिखाए कहाँ कहाँ
घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ ||3
दिन रात अश्रु बिंदु बरसते तो है मगर
सब तन में लगी जो आग बुझाए कहाँ कहाँ
घनश्याम तुम्हे ढूँढने जाए कहाँ कहाँ
अपने विरह की आग बुझाए कहाँ कहाँ ||4⛳😥
नरसी भक्त को पुत्री व् पुत्र रत्नों की प्राप्ति और पुत्र का विवाह
वंशीधर उन्हें अपने मनोऽनुकूल ठीक मार्ग पर लाने के लिए कोई बात उठा न रखी , भौजाई ने भरपूर कोसने तथा पति-पत्नी दोनों को कष्ट पहुँचाने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर न रहने दी ; परंतु ‘जैसे सूरदास की काली कामरी चढत न दूजो रंग ‘—-नरसिंहराम के पक्के रंग पर कोई दूसरा रंग न चढ़ा । धीरे- धीरे उनकी उम्र भी प्रायः पन्द्रह वर्ष की हो गई ।
भाई ने जब देखा कि अब उनका पढना-लिखना कठिन है तब उन्होंने उनको घोड़ों की परचिर्या तथा घास काटने का कार्य सौंप दिया । परंतु इस साईसी के काम से भी नरसिंह राम को कोई कष्ट नहीं हुआ । वह बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवन्नाम-स्मरण करते हुए शक्ति भर सारा कार्य करने लगे ।
प्रायः सोलह वर्ष की अवस्था होते -होते नरसिंहराम की पत्नी माणिकगौरी के गर्भ से एक पुत्री का जन्म हुआ । उसके दो वर्ष बाद फिर मणिकगौरी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ।पुत्री का नाम कुँवरबाई और पुत्र का नाम शामलदास रखा गया ।इस तरह नरसिंहराम को दो सन्तानों का पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
परंतु उनका यह सौभाग्य दुरितगौरी की आँखों का काँटा बन गया । एक तो यों ही देवर-देवरानी को देखकर वह सदा जला करती थी ; अब उनके परिवार की वृद्धि उसके लिए और भी असहाय हो उठी । दोनों भक्त दम्पति यद्यपि सेवक-सेविका की तरह दिन-रात घर के सब छोटे -बड़े काम किया करते थे , फिर भी दुरितगौरी यही समझती थी कि ये लोग मुफ्त ही घर में बैठकर खा रहे हैं और दिन पर दिन इनका खर्च भी बढ़ता ही जाता हैं अतएव वह अब नित्य उनके कामों में अकारण दोष निकालने लगी।
: झूठी ‘झूठी बातों से उनके विरूद्ध अपने पति के कान भरने लगी । नाना प्रकार के कारण दिखाकर उन्हें सताने लगी । वंशीधर यद्यपि यह जानते थे कि मेरी पत्नी बड़ी दुष्टा है ,द्वेषवश छोटे भाई और उसकी पत्नी पर झूठा दोषारोपण करती है ; वे वेचारे तो एकदम निर्दोष और पवित्र है , फिर भी कभी -कभी पत्नी की बातों में आकर वह छोटे भाई को कुछ भला -बुरा सुना दिया करते थे । इस तरह परिवार में कुछ कलह का सुत्रपात्र हो गया ।
वृद्धा जयकुँवरिको इस कलह का भावी कुपरिणाम स्पष्ट दिखाई दे रहा था । परंतु घर में मृत्युशय्या पर पड़ी एक वृद्धा की बात कौन सुनता है ? वह चुपचाप सब देखा करती । धीरे -धीरे उसकी अवस्था भी लगभग 95 वर्ष की हो गयी । उसने मन में सोचा-” अब मेरा जीवन बहुत थोड़ा है । अगर नरसिंहराम् की लड़की का विवाह भी मेरे सामने ही हो जाता तो अपनी यह आन्तिम अभिलाषा भी पूरी करके मैं शान्तिपूर्वक इस संसार से विदा होती और इस बेचारी का भी एक ठिकाना लग जाता ।’ उनहोने एक दिन वंशीधर को पास बुलाकर अपनी अभिलाषा प्रकट की ।
वंशीधर ने वृद्धा दादी की आज्ञा टालना उचित नहीं समझा । उन्होंने एक कुलीन और सुयोग्य वर की खोज करने के लिए कुल के पुरोहित को भेज दिया । पुरोहित जी घूमते -फिरते काठियावाड़ के ‘ऊना’नामक गाँव में आये और उनहोने वहाँ के *श्रीमनत नागर श्रीरंगधर मेहता के पुत्र *वसन्तराय के साथ कुँवरबाई का विवाह निश्चित किया । निश्चित तिथि पर बड़े धूमधाम के साथ कुँवरबाई की शादी हो गयी ।* वृद्धा जयकुँवरी की अभिलाषा पूरी हुई और वह उसके लगभग तीन मास बाद शान्ति पूर्वक इस असार संसार से सदा के लिए विदा हो गई ।
🌼🌻मीरा माधव 🌻🌼
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 6
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यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् |
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय || ६ ||
यथा – जिस प्रकार; आकाश-स्थितः – आकाश में स्थित; नित्यम् – सदैव; वायुः- हवा; सर्वत्र-गः – सभी जगह बहने वाली; महान – महान; तथा – उसी प्रकार; सर्वाणि भूतानि – सारे प्राणी; मत्-स्थानि – मुझमें स्थित; इति – इस प्रकार; उपधारय – समझो |
भावार्थ
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जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो |
तात्पर्य
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सामान्यजन के लिए यह समझ पाना कठिन है कि इतनी विशाल सृष्टि भगवान् पर किस प्रकार आश्रित है | किन्तु भगवान् उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे हमें समझने में सहायता मिले | आकाश हमारी कल्पना के लिए सबसे महान अभिव्यक्ति है और उस आकाश में वायु विराट जगत् की सबसे महान अभिव्यक्ति है | वायु की गति से प्रत्येक वस्तु की गति प्रभावित होती है | किन्तु वायु महान होते हुए भी आकाश के अन्तर्गत ही स्थित रहती है, वह आकाश से परे नहीं होती | इसी प्रकार समस्त विचित्र विराट अभिव्यक्तियों का अस्तित्व भगवान् की परं इच्छा के फलस्वरूप है और वे सब इस परमइच्छा के अधीन हैं जैसा कि हमलोग प्रायः कहते हैं उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता | इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उनकी इच्छा के अधीन गतिशील है, उनकी ही इच्छा से सारी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उनका पालन होता है और उनका संहार होता है | इतने पर भी वे प्रत्येक वस्तु से उसी तरह पृथक् रहते हैं, जिस प्रकार वायु के कार्यों से आकाश रहता है |
उपनिषदों में कहा गया है – यद्भीषा वातः पवते – “वायु भगवान् के भय से प्रवाहित होती है” (तैत्तिरीय उपनिषद् २.८.१) | बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१) कहा गया है – एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृतौ तिष्ठतः – “भगवान् की अध्यक्षता में परमादेश से चन्द्रमा, सूर्य तथा अन्य विशाल लोक घूम रहे हैं |” ब्रह्मसंहिता में (५.५२) भी कहा गया है –
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः |
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ||
यह सूर्य की गति का वर्णन है | कहा गया है कि सूर्य भगवान् का एक नेत्र है और इसमें ताप तथा प्रकाश फैलाने की अपार शक्ति है | तो भी यह गोविन्द की परम इच्छा और आदेश के अनुसार अपनी कक्षा में घूमता रहता है | अतः हमें वैदिक साहित्य से इसके प्रमाण प्राप्त है कि यह विचित्र तथा विशाल लगने वाली भौतिक सृष्टि पूरी तरह भगवान् के वश में है | इसकी व्याख्या इसी अध्याय के अगले श्लोकों में की गई है ..


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