Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣2️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#तेहिक्षणराममध्यधनुतोडा ……._
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
मै अपनें पिता जी को जानती हूँ…….बेटी ही तो जानती है अपनें पिता को …..मै देख रही थी……..अपलक नेत्रों से मेरे पिता श्रीराम को देखे जा रहे थे……….उनके चेहरे में विभिन्न भावों का उदय हो रहा था………ये उत्तरीय बाँध लो वत्स ! इस पीताम्बरी को कमर में कस लो …………या मेरे पिता को लग रहा था ……..पीताम्बरी को कस लेंगे तो शायद कुछ शक्ति आजाये ……और पिनाक टूट जाए …..।
हाँ ……पिनाक तो चिन्मय है ना …………एकाएक ये विचार भी कौंधा होगा मेरे पिता के मन में …………वो हाथ जोड़कर कुछ ही क्षण प्रार्थना की मुद्रा में आगये थे ……….मानों मुझे तो लगा ……पिनाक की ही स्तुति कर रहे थे ……………हल्के हो जाना पिनाक ।
राजिव नयन श्री राम मत्त गज की तरह शान्त भाव से चल रहे थे …पिनाक की ओर ………
हाँ उस समय उन के मुख मण्डल में न ख़ुशी थी ……न चिन्ता ।
जैसे कोई महायोगी ! ऐसा मुख मण्डल था उस समय श्रीराम का ।
मै देख रही थी …………………….
महारानी सुनयना रो रही हैं ……उनके रोनें की आवाज आरही है ।
चुप हो जाओ ! महारानी ! सब ठीक हो जाएगा ।
मैने भी सुना मेरी माँ सुनयना रोनें लगी थीं ………….
उनकी दासियाँ उन्हें समझानें में जुटी हुयी थीं ………..
अब क्यों ये नाटक करवा रहे हैं महाराज !
ये राजकुमार तो फूलों से भी कोमल हैं …………ये भला तोड़ पायेंगें इस पिनाक को ………….क्यों हँसी का पात्र बना रहे हैं महाराज हमें ।
मेरी माँ का वात्सल्य प्रकट हो गया था श्री राम के प्रति ……..।
अरे ! बड़े बड़े वीर, बड़े बड़े महावीर इस पिनाक को कम्पित भी नही कर पाये ………अरे ! रावण कोई कम वीर तो था नही …..पर क्या उस रावण से भी ये पिनाक कम्पित हुआ ……….नही हुआ ना !
फिर ये सुकुमार राजकुमार क्या उठा पायेंगें पिनाक को ……..बन्द करो ये नाटक …….बन्द करो ।
महारानी ! आपकी पुत्री जानकी भी तो सुकुमार हैं …………आपकी पुत्री जानकी भी तो फूलों से भी ज्यादा कोमल हैं …………क्या राजकुँवरी नें पिनाक को नही उठाया …….?
हाँ ये तर्क ठीक दिया था माँ की एक दासी नें …………..।
छोटा कहकर किसी की अवहेलना तो उचित नही है ना ?
मन्त्र छोटा ही तो होता है ………पर क्या वो छोटा मन्त्र देवों को वश में नही करता ?
अंकुश कितना छोटा होता है महारानी ! पर बड़े बड़े हाथियों को भी वश में कर लेता है …………।
इसलिये कोई छोटा है कहकर उसकी अवहेलना न की जाए ………
और आगे क्या पता ……………विधाता नें क्या लिखा है ……..।
उन ज्ञान वृद्ध दासी नें जब मेरी माँ सुनयना को इस तरह समझाया …..तब जाकर शान्त हुयी थीं मेरी माता ।
मै देख रही थी ……….मेरे समस्त नगर के गणमान्य व्यक्ति सब उस सभा में उपस्थित थे ……….और सब लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे ………..कोई कोई तो अपनें जीवन का समस्त सुकृत ही श्री राम को दे रहे थे ………..इसलिये ताकि वो पिनाक को तोड़ सकें….।
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (06)
🕉🙇♀🚩
तुम हमारे थे प्रभुजी, तुम हमारे हो
तुम हमारे ही रहोगे, हो मेरे प्रीतम॥
हम तुम्हारे थे प्रभुजी, हम तुम्हारे हें
हम तुम्हारे ही रहेंगे, ओ मेरे प्रीतम॥
तुम्हें छोड़ सुन नन्द दुलारे
कोई न मीत हमारो ॥
किस्के दुआरे जाएँ पुकारूँ
और न कोई सहारो ॥
अब तो आके बाहाँ पकड़ लो, ओ मेरे प्रीतम
तुम हमारे थे प्रभुजी, तुम हमारे हो
तुम हमारे ही रहोगे, हो मेरे प्रीतम
हम तुम्हारे थे प्रभुजी, हम तुम्हारे हें
हम तुम्हारे ही रहेंगे, ओ मेरे प्रीतम
तेरे कारण सब जग छोड़ा,
तुम संग नाता जोड़ा… प्यारे ॥
एक बार प्रभु बस ये कहदो,
तू मेरा में तेरा … प्यारे ॥
साँची प्रीत कि रीत निबादो, ओ मेरे प्रीतम
तुम हमारे थे प्रभुजी, तुम हमारे हो
तुम हमारे ही रहोगे, हो मेरे प्रीतम
हम तुम्हारे थे प्रभुजी, हम तुम्हारे हें
हम तुम्हारे ही रहेंगे, ओ मेरे प्रीतम
दास कि बिनती सुनलीजो,
ओ व्रिज राज दुलारे॥
आखरी आस यही जीवन कि,
पूरण करना प्यारे॥
एक बार हृदय से लगालो, ओ मेरे प्रीतम
तुम हमारे थे प्रभुजी, तुम हमारे हो
तुम हमारे ही रहोगे, हो मेरे प्रीतम
हम तुम्हारे थे प्रभुजी, हम तुम्हारे हें
हम तुम्हारे ही रहेंगे, ओ मेरे प्रीतम
तुम हमारे ही रहोगे, हो मेरे प्रीतम⛳🙇🕉
नरसी भक्त को शिव का अनुग्रह :——
बड़े भाई की आज्ञा के अनुसार नरसिंहराम बड़ी सावधानी से पशुओं का पालन करते थे । अपनी ओर से जान -बुझाकर काम में तनिक भी लापरवाही नहीं करते थे । जब इससे फुर्सत मिलती थी तब भजन-पूजन करते थे , कथा -कीर्तन में जाते थे अथवा साधुसंग किया करते थे । परंतु भौजाई उनसे कभी सन्तुष्ट नहीं रहती थी ; वह बराबर उन्हें तंग करने का कोई न कोई मौका ढूँढा ही करती थी ।
नरसिंह राम उसके दुष्ट स्वभाव के कारण उससे बहुत डरा करते थे । अपनी और से बराबर ऐसी चेष्टा किया करते थे, जिससे उसे शिकायत करने का मौका ही न मिले । अधिक तर वह घर भी तभी आते जब बड़े भाई घर में होते । जिस दिन सरकारी काम से वंशीधर कहीं बाहर चले जाते, उस दिन तो नरसिंहराम की दुर्दशा हो जाती । दुरितगौरी का सब दिन का क्रोध मानो उसी दिन जाग्रत हो उठता और वह जितना कष्ट पहुँचा सकती , उस दिन उतना दोनों पति -पत्नी को पहुँचाती । फिर भी भक्तराज कभी विचलित न होते ।
श्रीमद्धगवदगीता में जो भगवान ने यह कहा है कि—–‘–
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरूच्यते ।।
‘जिसका मन दुःख प्राप्त होने पर उद्वेग रहित रहता है, सुखों की प्राप्ति की स्पृहा जिसकी दूर हो गयी है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट हो गये है, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता हैं ।’ ठीक इसी स्थिति के अनुसार सब कुछ शान्तिपूर्वक सहन करते हुए ,आनंद पूर्वक अपना काम करते रहते ।
एक दिन वंशीधर राज्य कार्य के लिए बाहर गये हुए थे । नरसिंह राम प्रातः काल घर का काम समाप्त कर घास काटने के लिए गये और प्रायः संध्या -समय घास का बोझ लेकर लौटे । घोड़ों के सामने घास डालकर उनहोने स्नान किया । दिन भर जंगल में घूम -घूमकर घास काटते रहने से वह क्षुधासे पीड़ित हो रहे थे । अतः उनहोने भौजाई से भोजन माँगा ।
इस पर दरितगौरी कड़ककर कहने लगी-देखो तो ! बड़ा भगत आया है । रोज सुबह क्या घास काटने का बहाना करके घर से निकल जाता हैं और दिन भर भिखमंगो के साथ भटकता रहता है ,घर बार की कुछ भी परवाह नहीं करता और फिर कहता है कि भूख लगी है ।’
आज तो मैं सत्संग में बिल्कुल नहीं गया, प्रातःकाल से ही घास लाने चला गया था, आजकल घास के लिये बहुत दूर जंगल में जाना पड़ता है; इसलिए बहुत देर लगती है ।’ इस प्रकार नरसिंहराम ने अपनी निर्दोषता साबित करने की चेष्टा की ।
इस बीच दुरितगौरी ने कुछ बासी रोटियाँ नरसिंहराम के सामने लाकर पटक दी । घर में कई प्रकार की ताजी चीजें तैयार थी ;परंतु वे नरसिंह मेहता के योग्य नहीं समझी गयी । जेठानी के इस व्यवहार को देखकर पतिपरायणा माणिकबाई को असह्य कष्ट हुआ । एक सती भला अपने जीवन सर्वेस्व पतिदेवता की दुर्दशा कैसे सहन कर सकती है , भले ही औरों की दृष्टि में वह सब प्रकार से अयोग्य ही क्यों न हो ? माणिकबाई का हर्दय विदीर्ण हो गया और वह कसक उसके नेत्रद्वार से आँसू के रूप में झरने लगी । उस समय वह और कर ही क्या सकती थी ? द्रवयोपार्जन में अशक्त और पराधीन पति की नारी का घर में अधिकार ही कितना ?
नरसिंह राम ने पेट की ज्वाला शांत करने के लिए ज्यो-त्यों करके कुछ रोटी के टुकड़े गले के नीचे उतारे और पानी पीकर वह उठ गये । बस दुरितगौरी के क्रोधानल में मानो घी की आहुति पड़ गई । वह चिल्ला -चिल्ला कर कहने लगी ,देखो ! भजन में साधु और भोजन में भीम! !’ ऐसा दिमाग मेरे घर में नहीं चलेगा । इतनी तकलीफ तो मैं तेरे भाई के लिए भी नहीं उठाती ।
वह तो बेचारा ‘जो हाजिर सो हुजूर ‘कर लेता है और इसका तो मिजाज ही दूसरा रहता है ।
भाग मजूर का और मन राजा का । मै कहे देती हूँ, कल से जहाँ अच्छा भोजन मिले वही जाकर खा लेना । आज से मेरे घर में तेरा कोई काम नहीं । मैं तेरी और तेरी इस कुभार्या की गुलाम नहीं हूँ ।
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् ।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये।।
खूब बोलना यहाँ तक कि बोलते-बोलते शब्दों की झड़ी लगा देना तथा भाँति-भाँति के व्याख्यान देने की कुशलता और उसी प्रकार विद्वानों की अनेक शास्त्रों की विद्वत्ता- ये सब संसारी भोग्य पदार्थों को ही देने वाली हैं, मुक्ति को नहीं।
Niru Ashra: “महर्षि मांडव्य”
भागवत की कहानी – 3
गलती चेतन से ही होती है …जड़ से क्या गलती होगी । ये बात आपकी समझ में आयी ?
देवता पितर यक्ष आदि आदि जितनी देव योनियाँ हैं ये सब हम ही तो हैं । क्या ये बात आप समझ पा रहे हैं ? हम पुण्य करते हैं ….विशेष पुण्य करते हैं तो देव बनते हैं …और विशेष यज्ञ , अश्वमेध यज्ञ आदि करते हैं तो देवों में जो विशेष हैं …वो बनते हैं ….अश्वमेध यज्ञ अगर हमारे सौ पूर्ण हुए तो देवों के राजा इन्द्र हम ही बनते हैं । ये यमराज , ये पितर के प्रमुख अर्यमा ….कितना नाम गिनाऊँ ….यहाँ तक कि ब्रह्मा भी हम ही बनते हैं …जब हम ही बनते हैं तो जो दोष हममें हैं वही दोष इनमें भी होंगें …..अहंकार इनमें भी पाए जाते हैं ….भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन की पूजा कराई उसका कारण ये भी तो था कि देवों के राजा का अहंकार चरम पर पहुँच गया था …और ये उचित नही , ऊँचाई पर बैठा व्यक्ति ही अहंकार से ग्रस्त होगा ….तो उसके नीचे वाले तो शोषित होंगे ही ना ! जब ईश्वर ने व्यवस्था बनाई है तुम उसके मात्र पालन कर्ता हो ….तुम्हें अपना कर्तव्य पूरा करना है …..नही किया देवराज इन्द्र ने ….असमय वर्षा कर दी ….और वर्षा भी प्रलयकालीन वर्षा ……अपने अहंकार के कारण तुम निरपराध मनुष्यों को कष्ट दोगे ? श्रीकृष्ण ने देवराज को ही दण्ड नही दिया …विधाता ब्रह्मा को भी दण्डित किया …..बेचारे बृजवासी बालकों का दोष क्या ? न इनके कर्म ऐसे थे कि कोई इन्हें दण्ड दे ….फिर विधाता ने क्यों इन्हें एक वर्ष के लिए अपने यहाँ कैदी बनाया ? गलती चेतन से ही होती है ….जड़ से नही …ये बात आपकी अब समझ में आगयी होगी । निर्दोष सिर्फ ईश्वर है …बाकी सबमें दोष भरे हैं ।
क्या आपको पता है ..आज से एक हजार वर्ष पूर्व लोग संकल्प शक्ति से सूक्ष्म देह द्वारा अन्य लोक में भी आ जा सकते थे ? क्या आप जानते हैं …आज से पाँच हज़ार वर्ष पहले पृथ्वी के लोग जैसे आज कल घूमने के लिए अमेरिका जापान आदि जाते हैं ऐसे ही स्वर्ग आदि जाकर छुट्टियाँ मना कर आते थे ….ये मैं विनोद नही कर रहा …ये सत्य है । क्या अर्जुन देवराज इन्द्र के स्वर्ग में अतिथि बनकर नही रहे ….उसी समय तो ब्रह्माण्ड सुन्दरी उर्वशी मोहित हो गयी थी अर्जुन से ।
ये आजकल क्यों सम्भव नही है ?
ये प्रश्न आप कर सकते हैं ….इसका कारण भी सुन लो ….कारण है मन की शक्ति का अभाव । मन में बहुत शक्ति होती है ….मेरे बाबा कहते हैं ….मन में इतनी शक्ति है कि वो दूसरा संसार खड़ा कर सकता है ….उसी मन शक्ति के ह्रास से संकल्प शक्ति में कमी आयी है ….इसलिए हम इन लोकों के सम्पर्क से कट गये हैं ….मन्त्र शक्ति अब रही नही …क्यों की जो नियम पण्डित पुरोहितों में चाहिए वो उनमें है नही ….और जो श्रद्धा यजमानों में चाहिए वो उनमें भी नही है ….यज्ञ अनुष्ठान में जो वस्तु चाहिए उसमें शुद्धता है नही …..फिर उन दिव्य लोकों में जाना आना तो छोड़ो …हम सम्पर्क में भी नही हैं जी । क्या आपको पता है ….अगर आप सत्य हैं …अपने आप पर आत्म विश्वास है …..अपने सिद्धान्त पर अडिग हैं ….और सत्य मार्ग के पथिक हैं …..तो आप किसी को भी चुनौती दे सकते हैं ……जी , यमराज को भी …जिन्हें धर्मराज कहते हैं । दिया है भागवत में एक ऋषि ने ….उनका नाम है महर्षि मांडव्य ।
महर्षि मांडव्य की शान्त कुटिया ……चारों ओर सुन्दर वन हैं …उन वनों में मोर शुक पपीहा आदि स्वच्छंद विचरण करते हैं ….हिंसा की किसी को अनुमति नही है ….सिंह किसी गौ को खाने की हिम्मत इस वन में नही करता । ये प्रताप महर्षि का है ….महर्षि सबको प्रेम करते हैं ….और सब महर्षि मांडव्य को । भजन परायण है ऋषि …..इनके पग से चींटी भी नही मर सकती ….ये कीट पतंगे से भी प्यार करते हैं । सामने एक पर्वत है उसमें से सुन्दर झरना बहता है …उसी का जल सब पीते हैं …..ऋषि उसी में स्नान करते हैं ….त्रिकाल सन्ध्या का स्थान भी यही है । बाकी समय भगवत्चिन्तन । इन सबमें यहाँ के जीव जन्तु ऋषि का साथ देते हैं ….दूध स्वयं गौ आकर एक गड्डे में गिरा जाती है …उसी में से दूध लेकर ऋषि भगवद-अर्पण करते पी लेते हैं ।
जब से जन्म हुआ तब से ऋषि ने कभी झूठ नही बोला …कभी इन्हें क्रोध नही आया ..किसी की हिंसा नही की ….किसी को कष्ट नही दिया …पर ये क्या हुआ ?
हुआ ये था की ….एक चोर राजा के यहाँ चोरी करके भागता हुआ ऋषि के उस पावन वन में प्रवेश कर गया ….ऋषि ध्यान में लीन थे …पीछे राजा के सैनिक पड़े थे ….इसलिए चोर अपनी चोरी का सामान वहीं छोड़कर चला गया ….सैनिक आये और उन्होंने देखा कि – ये चोर ? यहाँ ढोंग करके बैठा है….ढोंगी…..यही चोर है ….इसे ले चलो । महर्षि ध्यान में मग्न थे ….लेकिन जबरन उठा कर सैनिक उन्हें ले गये ।
क्यों चोरी की तुमने ? राजा ने पूछा महर्षि मांडव्य से ।
महर्षि मांडव्य कुछ नही बोले …अपनी ओर से सफाई भी नही दी ।
बताओ , तुमने चोरी क्यों की ? राजा ने फिर प्रश्न किया ।
इस बार महर्षि हंसे ….किन्तु बोले कुछ भी नही ….उन्हें लगा कि मैं सफाई क्यों दूँ ? जब मैंने कुछ किया ही नही तो । तभी ….राजा ने क्रोध में भरकर आदेश दिया …सूली पर चढ़ाओ इसे ।
महर्षि को सूली पर चढ़ाने लगे किन्तु सूली टूट गयी । फिर दूसरी सूली …वो भी टूट गयी ….राजा समझ गया कि ये कोई साधारण नही हैं …ये महान हैं सत्य के उपासक हैं …इनसे कहाँ चोरी ?
तुरन्त राजा ने साष्टांग प्रणाम किया …और क्षमा माँगते हुये गिड़गिड़ाने लगा ।
तुम पर मुझे कोई रोष नही ….तुम तो पृथ्वी के भी एक सामान्य क्षेत्र विशेष के राजा हो ….किन्तु वो न्याय करने वाला यमराज कहाँ है ? अब बातें उससे होंगी । महर्षि मांडव्य उसी समय अपने संकल्प बल से चले गए यमपुरी ….यम लोक ….वहाँ यमराज बैठे हुए थे …महर्षि ने जाते ही यमराज को कहा ….तुमसे गलती क्यों हुई ? तुम गलती करोगे तो कितने निरपराधी को दण्ड दोगे ? क्या विधाता ने तुम्हें इसीलिए यहाँ न्याय के लिए बैठाया है ?
यमराज ने अहंकार में भरे स्वर में कहा …..मुझ से लगती नही होती ।
फिर मुझे सूली पर क्यों चढ़ाया गया ? ये किस कर्म का दण्ड है …यमराज कुछ कहते उससे पहले यही बोलते रहे …मुझे अपने सारे जन्म स्मरण हैं …और किसी जन्म में मैंने ऐसा अपराध नही किया कि मुझे सूली मिले ….फिर क्यों ?
यमराज ने सामने दिखाया , एक दृष्य ….एक छोटा बालक किसी कीड़े को पकड़ कर उसकी पूँछ में काँटा गढ़ा रहा है …और वो कीड़ा मर गया ।
ये तुम हो महर्षि ! यमराज ने अपनी मूँछ ऐंठी ।
यमराज! क्या बता सकते हो इस समय मेरी आयु कितनी होगी ?
“तीन वर्ष”…….यमराज ने कहा ।
क्या तुम इतना नही जानते कि पाँच वर्ष तक का किया हुआ पाप उस बालक को नही लगता उसके माता पिता को लगता है ..फिर मुझे दण्ड क्यों मिला ? ये बात तेज आवाज़ में बोले थे महर्षि ।
काँप गये यमराज …..वो दौड़े चरण छूने महर्षि के ….तभी महर्षि का शाप गूंजा उस यमलोक में …जाओ ,मर्त्यलोक में मनुष्य बनो और मनुष्य में भी दास बनो …दासी के गर्भ से जन्म लो ।
इतना कहकर मर्त्यलोक में उतर गए थे महर्षि मांडव्य ।
और यमराज ही एक दासी के गर्भ से विदुर के रूप में हस्तिनापुर में जन्म लेकर आये ।
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 7
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सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् |
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् || ७ ||
सर्वभूतानि – सारे प्राणी; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; प्रकृतिम् – प्रकृति में; यान्ति – प्रवेश करते हैं; मामिकाम् – मेरी; कल्प-क्षये – कल्पान्त में; पुनः – फिर से; तानि – उन सबों को; कल्प-आदौ – कल्प के प्रारम्भ में; विसृजामि – उत्पन्न करता हूँ; अहम् – मैं |
भावार्थ
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हे कुन्तीपुत्र! कल्प का अन्त होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ |
तात्पर्य
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इस विराट भौतिक अभिव्यक्ति का सृजन, पालन तथा संहार पूर्णतया भगवान् की परम इच्छा पर निर्भर है | कल्पक्षये का अर्थ है, ब्रह्मा की मृत्यु होने पर | ब्रह्मा एक सौ वर्ष जीवित रहते हैं और उनका एक दिन हमारे ४,३०,००,००,००० वर्षों के तुल्य है | रात्रि भी इतने ही वर्षों की होती है | ब्रह्मा के एक महीने में ऐसे तीस दिन तथा तीस रातें होती हैं और उनके एक वर्ष में ऐसे बारह महीने होते हैं | ऐसे एक सौ वर्षों के बाद जब ब्रह्मा की मृत्यु होती है, तो प्रलय हो जाता है, जिसका अर्थ है कि भगवान् द्वारा प्रकट शक्ति पुनः सिमट कर उन्हीं में चली जाती है | पुनः जब विराटजगत को प्रकट करने की आवश्यकता होती है तो उनकी इच्छा से सृष्टि उत्पन्न होती है | एकोSहं बहु स्याम् – यद्यपि मैं अकेला हूँ, किन्तु मैं अनेक हो जाउँगा | यह वैदिक सूक्ति है (छान्दोग्य उपनिषद् ६.२.३)| वे इस भौतिक शक्ति में अपना विस्तार करते हैं और सारी विराट अभिव्यक्ति पुनः घटित हो जाती है |


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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877