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November 21, 2024 5:21 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(12-3),: “महाराज पृथु”,भक्त नरसी मेहता चरित (07) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(12-3),: “महाराज पृथु”,भक्त नरसी मेहता चरित (07) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣2️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#तेहिक्षणराममध्यधनुतोडा ……._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मै देख रही थी ……….मेरे समस्त नगर के गणमान्य व्यक्ति सब उस सभा में उपस्थित थे ……….और सब लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे ………..कोई कोई तो अपनें जीवन का समस्त सुकृत ही श्री राम को दे रहे थे ………..इसलिये ताकि वो पिनाक को तोड़ सकें….।

कितना स्नेह था मेरे जनकपुरवासियों का मेरे प्रति ।

श्री राघवेन्द्र पिनाक के पास जाकर खड़े हो गए थे ……गम्भीर मुद्रा में ।

उन्होंने एक बार चारों और देखा था …………..फिर अपनें गुरुदेव को प्रणाम किया ।

उफ़ ! मेरी तरफ़ भी उन्होंने देखा ………………

मैने तुरन्त अपनी आँखें बन्द कर लीं ……………

हे गणेश जी ! कृपा करो ………….हे गणपति! कृपा करो ……..

मैने प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी ………….

आपके पिता जी का ही पिनाक है ना ये ……….आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं ………..आप आज मेरे ऊपर कृपा बरसायें गणपति ।

मुझे कोई अहंकार नही है कि मै निष्काम भक्ता हूँ आपकी ……….मै सकाम हूँ ……….और ये कहते हुए मुझे खराब भी नही लग रहा ।

हाँ मै कह रही हूँ आपको हे गणपति ! मैने आज तक जितनी आपकी सेवा की है ….उसके फल स्वरूप मुझे आपसे आज यही चाहिए …..कि पिनाक इनके हाथों टूट जाए ……….बस इतना दे दो मुझे ।

हे पिनाक ! अब मै पिनाक से ही प्रार्थना करनें लगी थी ।

हे शिव धनुष ! मुझे देवर्षि नारद जी नें कहा था ……आप जड़ नही हैं आप चिन्मय हैं………..फिर तो आप मेरी प्रार्थना भी सुन लेंगें ना !

तो हे पिनाक ! मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि …….मेरे प्राण श्रीराम अभी जब आपको छुएंगे …….तभी आप फूलों के समान हल्के हो जाना …………क्यों की मेरे प्रभु श्री रम कोमल हैं ……..इनके छूते ही आप स्वयं ही उठ जाना……….मेरी इतनी ही प्रार्थना है आपसे …..।

इतना कहकर मैने अपनें हाथों में जयमाला उठा ली ………..

सखियाँ बोलीं …….जयमाला क्यों ? अभी तो पिनाक टूटा नही है ।

अब टूटेगा…………….मैने पूर्ण विश्वास से कहा ।

वरमाला से मै अपनें श्री राम को देखनें लगी थी ………………

श्री राम नें फिर मेरी ओर देखा ………………..

उनका वो प्यारा मुख मण्डल …………..उनके वें नयन …..उनका वो वक्ष ……उनकी वो पीताम्बरी……उनकी वे घुँघराली अलकें ……..उनके वो बाहु विशाल ।

बस एक क्षण के लिए ही रुके होंगें वो राजीव नयन ……….

एकाएक विद्युत की भाँति पिनाक को एक ही हाथ से उठा लिया ….

और एक तरफ के भाग को धरती में टिकाकर ………….उसकी डोरी दूसरे भाग में बाँधनें के लिए जैसे ही पिनाक को झुकाया ………

एक तीव्रतम ध्वनि के साथ …………ऐसी भीषण आवाज थी जैसे हजारों ज्वालामुखी फूट पड़े हों …….. भीषण विस्फोट हुआ हो ऐसा सबको लगा ……………पिनाक को तोड़ कर फेंक दिया श्री राम नें ।

धरती काँप गयी …………..चाँद तारे इधर उधर हो गए …………सूर्य अपनी गति भूल गया …………..ब्रह्माण्ड कम्पित हो गया …….।

ओह ! उस समय मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ………..आनन्द की मात्रा ज्यादा हो गयी थी ………..आनन्द के आँसू सबकी आँखों में थे ……..

फूलों की वर्षा आकाश से होनें लगी थी ………….

शहनाइयाँ बज उठी थीं …………….मंच से कूदकर छोटे राजकुमार नीचे आगये थे ……..और वो छाती तान कर सबको ऐसे देख रहे थे …..मानों कह रहे हों ……..देखा ! मेरे श्री राम को …………..

मेरी सखियाँ उछल रही थीं ………………मेरे समझ में नही आरहा था कि मै क्या करूँ ………मेरा मन कर रहा था मै नाचूँ ! मै गाऊँ …….मै ख़ुशी मनाऊँ ……………..पूरा जनकपुर झूम उठा था ।

श्री अवधेश कुमार की …जय ………

जयकारा लगवा रहे थे लक्ष्मण भैया ।

और सब लोग “जय जय जय” किये जा रहे थे ।

श्री कौशल्या नंन्दन की …..जय ……

श्री चक्रवर्ती कुमार की ….जय ……

श्री राघवेन्द्र प्रभु की ……जय जय जय जय ……………

शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: “महाराज पृथु”

भागवत की कहानी – 5


ये पृथ्वी धन्य है …जहाँ श्री हरि अवतरित होते रहते हैं ….ये पृथ्वी धन्य हैं जहाँ यज्ञ आदि से भगवान श्रीहरि का यजन होता है …ये पृथ्वी धन्य है जहाँ श्रीहरि के भक्त आनन्द से उनके नाम गुण का चिन्तन करते हुए उन्मुक्त विचरण करते हैं ….धन्य है ये पृथ्वी जहाँ भारत वर्ष जैसा दिव्य पावन एक खण्ड है …जहाँ कृष्ण मृग चरते हैं …..जहाँ पवित्र यज्ञ की धूम्र से वायु में मन्त्रों की दिव्य शक्ति व्याप्त हो जाती है और मानव उसमें स्वाँसें लेकर तन मन को पवित्र करता है ।

धन्य है ये पृथ्वी ।

देवताओं ने स्तुति की ….देवताओं ने भारत वर्ष के माहात्म्य का इस तरह से गान किया ।

आज पृथ्वी के दिव्य खण्ड भारत वर्ष में एक राजा का प्राकट्य हुआ था …..ये राजा प्रकट हुए थे भगवान विष्णु के अंश से , वैसे सभी जीव उन्हीं के अंश हैं …किन्तु महाराज पृथु विशेष अंशावतार हैं ….उनके साथ उनकी महारानी भी प्रकट हुईं थीं । इन राजा को प्रकटाया था ऋषियों ने , अपने मन्त्रों और तप शक्ति के द्वारा ।

दुष्ट राजा वेन मारा गया था ….नास्तिक राजा था ….धर्म को नही मानता था …धर्म को नही मानता तो ईश्वर को भी नही मानता था अब ईश्वर को न मानने के कारण अहंकार से ग्रस्त हो गया था ये राजा वेन । मैं , मैं , मैं ….मैं ही सब कुछ …..याद रहे – ये भावना आपके अन्दर आयी कि आपने सामने वाले का शोषण आरम्भ कर दिया । नास्तिक या अधार्मिक कोई व्यक्ति हो तो उससे ज़्यादा फर्क नही पड़ता समाज में …..किन्तु प्रजा का नेतृत्व करने वाला राजा ही अगर अधार्मिक होगा तो वो स्वयं को ही सब कुछ मानने लगेगा ..और प्रजा का शोषण उसके द्वारा होगा ही ।

( चीन रुस इसके उदाहरण है )

धर्म आपमें श्रद्धा लाती है …धर्म आपमें विनम्रता लाती है ..धर्म आपमें सरलता लाती हैं …धर्म आपके अहंकार को तोड़ती है ….और धर्म आपकी दृष्टि में समत्व की स्थापना करती है ।

नास्तिक राजा वेन ने धर्म को मानने से इंकार किया ….कोई ईश्वर सत्ता नही है …मैं नही मानता । क्या आवश्यकता है यज्ञ आदि करने की ….इतना घृत क्यों अग्नि में डाल कर बर्बाद किया जाये …..मेरे राज्य में यज्ञ नही होगा । कोई ईश्वर का मन्दिर नही होगा । ऋषियों ने आकर उस वेन राजा को समझाया….कि भगवान को मानने से हानि नही है …बहुत लाभ है …धर्म को मानने से हानि कहाँ है ? किन्तु राजा वेन नही माना …..वो क्रूरता से हंसता हुआ बोला …तुम्हारा भगवान मैं हूँ क्यों की राजा ही भगवान होता है ….मुझे मानों …लो , मेरे पैर छुओ ….ये कहते हुए ऋषियों को राजा वेन अपने पैर दिखाने लगा ….ऋषियों ने क्रोध में भरकर राजा वेन को मार दिया ….मारना आवश्यक था , ऐसा राजा प्रजा का शोषण ही करता इसलिए ऋषियों ने इसे मार दिया और चले गये । किन्तु ये तो कोई समाधान नही था ….राज्य राजा विहीन हो गयी तो प्रजा में चोर डकैत आदि बढ़ गये ….हिंसा का ताण्डव आरम्भ हो गया । ऋषियों को फिर चिन्ता लगी ….उन्होंने राजा वेन के शरीर को अपने पास मँगवाया ….अभी जलाया नही गया था ….जलाने जा रहे थे कि उस देह को , किन्तु ऋषियों ने अपने पास मँगवाया …और उस देह का मन्त्रों के साथ मन्थन किया ….ये मन्थन सात दिन तक चला …आठवें दिन जाकर दाहिने हाथ से एक राजा प्रकट हुए …और बायें हाथ से महारानी ।

इनका नाम पड़ा ….महाराज पृथु । और पत्नी का नाम …महारानी अर्ची ।


महाराज पृथु की जय हो , महाराज पृथु की जय हो ।

दूसरे ही दिन प्रजा रोते हुए आयी ……विनती करने आयी थी अपने नये राजा के पास ।

प्रजा वत्सल महाराज पृथु ने तुरन्त कहा …….जो मेरे लिए आज्ञा हो आप कहिए ।

प्रजा बोली ….पृथ्वी ने हमें अन्न देना बन्द कर दिया है ….आपके जो पिता थे राजा वेन …वो नास्तिक थे , अधार्मिक थे उसके कारण पृथ्वी ने अपने अन्न , अपने भीतर ही छुपा लिए …..हे राजन ! हमें पृथ्वी से हमारा आहार दिलाइये नही तो हम मर जाएँगे …..इतना सुनते ही क्रोध से महाराज पृथु के नेत्र लाल हो उठे ….उन्होंने तुरंत धनुष उठाया और पृथ्वी को दण्ड देने के लिए चल पड़े थे । पृथ्वी डर गयी और गौ का रूप धारण करके भागी …आगे आगे पृथ्वी और पीछे महाराज पृथु । आगे जाकर पृथ्वी ने नारी का रूप धारण किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी ।

मैं माता हूँ …मुझे मत मारिये ….पृथ्वी ने हाथ जोड़कर कहा ।

तुम कुमाता हो ….कुमाता को मारने में कोई दोष नही है …महाराज पृथु बोले ।

किन्तु मैं कुमाता कैसे ? पृथ्वी ने फिर पूछा ।

अपने पुत्रों को जो भूखे देखकर भी प्रसन्न रहे ….वो कुमाता ही होती है …माता तो वो है जो स्वयं कष्ट सहकर भी अपने बालकों का भरण पोषण करे । महाराज पृथु तेज वाणी में बोले …क्या तुम्हें पता नही तुम्हारी प्रजा , तुम्हारे बालक , सब भूख से तड़फ रहे हैं और तुमने अन्न आदि अपने गर्भ में छिपा रखें हैं ? महाराज पृथु की बातें सुनकर पृथ्वी बोलीं ….महाराज ! सत्य , तप , पवित्रता , दया , तितिक्षा , करुणा यही धर्म हैं ….अगर यही न रहे तो हम भी अपनी सेवा नही देते …..आपके पिता राजा वेन अधार्मिक थे नास्तिक थे इसलिए मैंने ये अन्न अपने भीतर छिपा लिए थे …अब आप आये हैं ….आप मेरा दोहन कीजिए ….जिसको जो चाहिए मैं दूँगी । पृथ्वी के ये कहते ही समस्त ब्रह्माण्ड में आनन्द व्याप्त हो गया था ….तत्क्षण गाय बन गयी पृथ्वी …उसका दोहन किया गया ……मनुष्य ने स्वायंभु मनु को बछड़ा बनाया और दोहन किया धान्यादि का …ऋषियों ने बृहस्पति को अपना बछड़ा बनाया और वेद रूपी ज्ञान को दुहा । देवताओं ने इन्द्र को बछड़ा बनाकर अमृत का दोहन किया ……पृथ्वी सबको दे रही है । सर्पों ने तक्षक को बछड़ा बनाकर विष दुहा । माँस भक्षी पशुओं ने सिंह को बछड़ा बनाकर माँस आदि दुहा । पर्वतों ने हिमालय को अपना बछड़ा बनाकर नाना प्रकार के धातुओं का दोहन किया ।

पृथ्वी ही सबको देती है …..ये बात यहाँ बताई गयी है ….देवताओं को भी स्वर्ग देने वाली , स्वर्ग में अमृत पिलाने वाली हमारी पृथ्वी ही है । इसका अर्थ ये है कि पृथ्वी कर्म भूमि है ….अन्य लोक भोग भूमि हैं ….स्वर्ग भी जाना है तो पृथ्वी से ही अच्छे कर्म का दूध दुहकर ले जाना पड़ता है । और जब पृथ्वी का कर्म फल समाप्त हो जाता है ….तो फिर यहीं आना पड़ता है ।

महाराज पृथु अब बहुत प्रसन्न हैं …..पृथ्वी ने एक बात और कही ….मुझे समतल कीजिए …ताकि खेती आदि मनुष्य के द्वारा की जा सके ….उन्हें अन्न आदि की प्राप्ति हो जिससे ये सब एक दूसरे को खिलाते , एक दूसरे को देते हुए प्रसन्नता का अनुभव करें । पृथ्वी कहती हैं …हे महाराज पृथु ! दूसरे को खिलाकर जो प्रसन्न होता है उसकी प्रसन्नता से वातावरण प्रसन्न होता है …इस तरह धीरे धीरे प्रसन्नता फैल जाएगी …और प्रजा प्रसन्न रहेगी । इतना कहकर पृथ्वी ने अपना रूप बदल लिया था ।

महाराज पृथु अब बहुत आनंदित थे …..उन्होंने अपने धनुष के बाण से पृथ्वी को समतल कर दिया था …..वो चारों ओर देख रहे थे कि उनकी प्रजा आनन्द के साथ खेती करने लगी थी …..और खेत से उत्पन्न होने वाले अन्न से श्रीहरि को भोग लगाकर परिजनों के साथ प्रसाद पा रही थी ।

धन्य है ये पृथ्वी जहाँ श्रीहरि भक्ति में लोग रत रहते हैं …धन्य है ये पृथ्वी जहाँ दिव्य कर्म करके मनुष्य अनेकानेक लोकों की यात्रा कर सकता है …और धन्य है ये पृथ्वी जहाँ का मनुष्य कर्म फल को श्रीहरि कि चरणों में अर्पित करते हुए मुक्त हो सकता है …या भक्ति को प्राप्त कर सकता है ।

देवता लोग भारत वर्ष की महिमा का गान कर रहे हैं ……..

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (07)


🕉🙇🚩उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े .
भव पार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ..

कैसे तेरा नाम धियायें कैसे तुम्हरी लगन लगाये .
हृदय जगा दो ज्ञान तुम्हरी शरण पड़े ..

पंथ मतों की सुन सुन बातें द्वार तेरे तक पहुंच न पाते .
भटके बीच जहान तुम्हरी शरण पड़े ..

तू ही श्यामल कृष्ण मुरारी राम तू ही गणपति त्रिपुरारी .
तुम्ही बने हनुमान तुम्हरी शरण पड़े ..

ऐसी अन्तर ज्योति जगाना हम दीनों को शरण लगाना .
हे प्रभु दया निधान तुम्हरी शरण पड़े ….🚩🙇🕉🏵☘

☘🏵नरसी भक्त का घर त्याग और शिवालय में शरण

अकारण भौजाई को इस प्रकार आगबबूला होते देख नरसिंहराम कुछ बोल न सके । चुपचाप उसकी बातें सुन रहे थे । परंतु उनके मौन से दुरितगौरी का रोष बढ़ता ही गया, उसने रणचण्डी स्वरूप धारण कर लिया और गरज- गरजकर वह अनाप- शनाप बकने लगी।

इतने में ही वंशीधर आ पहुँचे । पति को देखते ही दुरितगौरी ने अपनी माया भी फैला दी । वह रूदन करती हुई कहने लगी–घर में अब मेरा कुछ काम नहीं; इन भगत और भगतानी को लेकर खुशी से रहो ; कमाने का तो ठिकाना नहीं और मिजाज इतना ! मैं तो अब थक गयी । बस अब इस घर में या तो नरसिंह नहीं या मै नहीं ।

मायाविनी पत्नी के चक्कर में पड़कर अच्छे-अच्छे पुरूष भी मर्कटवत बन जाते है, फिर बेचारे वंशीधर का क्या दोष ? दुरितगौरी का पक्ष लेकर वह भी नरसिंहराम को ही दोषी मानकर खोटी-खरी सुनाने लगे और अन्त में उनहोने कठोरता पूर्वक घर से निकल जाने की आज्ञा भी दे दी ।

अब नरसिंह राम को क्या सहारा था ? वह पत्नी को वही छोड़कर उदास मन घर से निकल पड़े और मुहल्ले के चबूतरे पर चले आये । वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कला से प्रकाशित होकर पृथ्वी पर अमृत की वर्षा कर रहे थे; परंतु उससे नरसिंह राम को तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी । वह प्रायः आधी रात तक बैठे -बैठे यह विचार करते रहे कि क्रोध उतरने पर बड़े भाई को अवश्य पश्चाताप होगा और वह थोड़ी देर में मुझे बुलाने आयेगे । उसके बाद उन्हें निद्रा आ गयी ।

प्रातः काल हो गया ; पर किसी ने नरसिंह राम की खोज न की । वह मन ही मन विचार करने लगे, ‘इस नश्वर संसार में सभी सम्बन्धी स्वार्थ ही । प्रीति करते हैं ; निःस्वार्थ प्रीति करने वाले तो वही एक विश्व भर परमात्मा है; अतः अब घर जाने से लाभ ही क्या? वह चबूतरे से उठे और एक ओर चल पड़े । वह कहाँ और किसलिए जा रहे हैं ,इसका उन्हें कोई ज्ञान नहीं था ।

वह चलते -चलते शहर से बाहर कोसों दूर एक भीषण जंगल में पहुँच गये । भूख प्यास और रास्ता चलने के कारण वह बहुत थक गये थे ; अतएव विश्राम करने के लिए एक वट वृक्ष की छाया में बैठ गये । अब प्रायः सांयकाल हो रहा था । वह विचार करने लगे कि अब कहाँ जाना चाहिए । इस संसार में दूसरा अपना है ही कौन ? सर्वेसन्तापहारी परमकल्याणकारी भगवान भोलानाथ के अतिरिक्त और कोई शरण देने वाला नहीं । प्रायः आठ वर्षों से रोज शिवजी की पूजा करता आ रहा हूँ ,प्रत्येक सोमवार को रूद्री करता हूँ, श्रावण भर बेलपत्र चढाता हूँ ,अवश्य ही भक्त भय भंजन औढरदानी भगवान शंकर मेरी सहायता करेंगे ।

नरसिंह राम इसी विचार में निमग्न थे कि उनकी दृष्टि समीप में ही एक जीर्ण मंदिर पर पड़ी । वहाँ पर एक सुरभ्य सरोवर भी था । यह देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । वह शिवालय पर जा पहुँचे। उनहोने कपड़े उतारे ,सरोवर में स्नान किया और बेलपत्र , फूल आदि से शंकर की पूजा की । फिर शिवलिंग के सामने सिर टेक कर फूट-फूटकर रोने लगे -‘दीनानाथ ! क्या मेरी दशा पर आपको दया नहीं आती ?भाई -भौजाई ने मुझे घर से निकाल दिया है । अब मेरा और कौन सहारा है ? जन्म से ही आप पर मेरा भरोसा रहा है, आपके ही नाम का बल रहा है । आप यदि शरण में नहीं रखेंगे तो दूसरा कौन रखेगा ? अब मैं आपके द्वार पर पड़ा गया ; आप प्रसन्न होइये ,अन्यथा मैं अन्न -जल के बिना यही प्राण त्याग दूँगा और इस ब्रह्महत्या का दोष आप पर लगेगा ।

संसारकूपे पतितो ह्यगाधे
मोहान्धपूर्णे विषयातिसक्त:।
करावलम्बं मम देहि नाथ
गोविन्द दामोदर माधवेति।।

इस संसाररूपी अगाध समुद्र में डूबते हुए विषयासक्त मुझ अधम को अपने हाथों का सहारा देकर हे नाथ! आप उबार लीजिये। हे गोविन्द! हे माधव!!! मैं आपकी शरण हूँ

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 8
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प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् || ८ ||

प्रकृतिम् – प्रकृति में; स्वाम् – मेरी निजी; अवष्टभ्य – प्रवेश करके; विसृजामि – उत्पन्न करता हूँ; पुनः पुनः – बारम्बार; भूत-ग्रामम् – समस्त विराट अभिव्यक्ति को; इमम् – इस; कृत्स्नम् – पूर्णतः; अवशम् – स्वतः; प्रकृतेः – प्रकृति की शक्ति के; वशात् – वश में |

भावार्थ
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सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है | यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट होता है |

तात्पर्य
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यह भौतिक जगत् भगवान् की अपराशक्ति की अभिव्यक्ति है | इसकी व्याख्या कई बार की जा चुकी है | सृष्टि के समय यह शक्ति महत्तत्त्व के रूप में प्रकट होती है जिसमें भगवान् अपने प्रथम पुरुष अवतार, महाविष्णु, के रूप में प्रवेश कर जाते हैं | वे कारणार्णव में शयन करते रहते हैं और अपने श्र्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड निकालते हैं और इस ब्रह्माण्डों में से हर एक में वे गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करते हैं | इस प्रकार प्रत्येक ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है | वे इससे भी आगे अपने आपको क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में प्रकट करते हैं और विष्णु प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि प्रत्येक अणु में प्रवेश कर जाते है | इसी तथ्य की व्याख्या यहाँ हुई है | भगवान् प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करते हैं |

जहाँ तक जीवात्माओं का सम्बन्ध है, वे इस भौतिक प्रकृति के गर्भस्थ किये जाते हैं और वे अपने-अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते हैं | इस प्रकार इस भौतिक जगत् के कार्यकलाप प्रारम्भ होते हैं | विभिन्न जीव-योनियों के कार्यकलाप सृष्टि के समय से ही प्रारम्भ हो जाते हैं | ऐसा नहीं है कि ये योनियाँ क्रमशः विकसित होती हैं | सारी की सारी योनियाँ ब्रह्माण्ड की सृष्टि के साथ ही उत्पन्न होती हैं | मनुष्य, पशु, पक्षी – ये सभी एकसाथ उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पूर्व प्रलय के समय जीवों की जो-जो इच्छाएँ थीं वे पुनः प्रकट होती हैं | इसका स्पष्ट संकेत अवशम् शब्द से मिलता है कि जीवों को इस प्रक्रिया से कोई सरोकार नहीं रहता | पूर्व सृष्टि में वे जिस-जिस अवस्था में थे, वे उस-उस अवस्था में पुनः प्रकट हो जाते हैं और यह सब भगवान् की इच्छा से ही सम्पन्न होता है | यही भगवान् की अचिन्त्य शक्ति है | विभिन्न योनियों को उत्पन्न करने के बाद भगवान् का उनसे कोई नाता नहीं रह जाता | यह सृष्टि विभिन्न जीवों की रुचियों को पूरा करने के उद्देश्य से की जाती है | अतः भगवान् इसमें किसी तरह से बद्ध नहीं होते हैं।

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