🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣3️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सियजयमालरामउरमेली ……….
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
आज भी उन पलों को याद करती हूँ ………तो मै सारे दुःखों को भूल ही जाती हूँ……और वो तो ऐतिहासिक और विश्वस्तरीय घटना थी ……
कि श्रीराम ने पिनाक को तोड़ कर फेंक दिया ।
ओह ! मुझे अभी भी रोमांच हो रहा है ………..क्या समय था वो !
श्री राघवेन्द्र नें धनुष को तोड़कर फेंक दिया था ।
तभी से देवों नें पुष्प वृष्टि आरम्भ कर दी थी …………और फूल भी दिव्य दिव्य ….उन फूलों की सुगन्ध ही बड़ी आनन्द देनें वाली थी ।
मेरी समझ में नही आरहा था कि मै क्या करूँ ………मै भी अपनें स्थान से उठ गयी……और अचक से अपनें श्री राम को निहारनें लगी थी ।
मेरी सारी सखियाँ ख़ुशी के मारे किलकारियां भर रही थीं ……….मेरी माँ सुनयना मेरे पास में आयीं और उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे गले लगाया था ……………
शहनाई , भेरी , नगाड़े , ये सब बजनें शुरू हो गए थे ……..
पर मैने देखा …….ये शहनाई, नगाड़े भेरी ………..हमारे जनकपुर के भाट नही बजा रहे थे ………..अरे ! जनकपुर के तो सभी लोग देह सुध ही भूल गए हैं श्री राम को पाकर ।
फिर ये शहनाई कौन बजा रहा है ?
मेरी बहन उर्मिला नें उत्तर दिया …….आकाश से गन्धर्व बजा रहे हैं ।
तभी मैने देखा ……..हमारे कुल पुरोहित ऋषि शतानन्द जी एकाएक श्री राम की और दौड़े …..बदहवास से दौड़े…..हाँ बड़ी तेज़ी से दौड़े थे ।
और आश्चर्य की बात तो ये हुयी ……. कि दौड़कर श्री राम के चरणों में ही गिर गए थे ।
अरे ! ये तो ब्राह्मण ऋषि हैं और श्रीराम तो क्षत्रिय हैं ………..
श्री राम नें अत्यंत संकोचवश अपनें चरणों से उन्हें उठाना चाहा ……पर नही, वे उठे नही ।
हे राघव ! इन्हीं चरणों की धूल नें मेरी माता अहिल्या का उद्धार किया है ……माता अहिल्या मेरी माँ हैं ….और मेरे पिता हैं ऋषि गौतम ।
आपनें मेरी माँ का उद्धार करके बहुत बड़ा उपकार किया है हम पर ।
हे राघव ! मुझे भी वही चरण धूल चाहिये ।
ऋषि शतानन्द के नयनों से अश्रु बहनें लगे थे ।
बहुत देर बाद जबरदस्ती उठाया श्री राम नें ……..और अपनें हृदय से लगा लिया ……………मै धन्य हो गया हूँ आज हे राघव !
इतना कहकर ऋषि शतानन्द वहाँ से जानें लगे ……पर फिर रुके ….और श्रीराघव से कहा …..आप अभी कहीं मत जाइयेगा ………जयमाला की विधि पूरी होनें दीजिये पहले ।
श्री राम जानें वाले थे अपनें गुरु विश्वामित्र जी के पास …….पर शतानन्द जी नें रोक दिया ।
जनकपुर की जनता में आज असीम उत्साह भर गया है ……..
वे सब श्री राम के पास आना चाहते हैं ………..कोई वृद्ध हैं वो आशीर्वाद देंनें की कामना लेकर खड़े हैं ………..कोई कह रहा है ….मेरे जीजा जी लगते हैं ………..क्यों की मेरी जीजी हैं सिया जू ।
मेरे तो जमाई हुए ……………..महाराज की उम्र का हूँ मै ……….
वो जनकपुर के वृद्ध थे …………..उनको श्री राम जमाई लग रहे हैं ।
मै तो साली हूँ इनकी !
…….कुछ युवा मिथिलानी मटकते हुए यही कह रही थीं ।
पर ऋषि शतानंद नें रोक दिया, अभी कोई नही आएगा श्रीराम के पास ।
महारानी ! आप क्या कर रही हैं अपनें आपको संभालिये !
ऋषि शतानन्द जी अब मेरी माता के पास में आये थे …….
जयमाला की विधि अब पूरी की जानी चाहिये …….ये आदेश दिया था ।
मेरी माता तो सब कुछ भूल गयी थी इस आनन्द में ……..
मेरी माता सुनयना को अगर ऋषि नही बताते तो शायद ही उन्हें ये पता चलता कि ……….जयमाला भी पहनानी है ।
इस समय किसी को कुछ पता नही है ………सब श्री राम को देखते हुए मुग्ध हैं ……….इन राजीव लोचन नें मिथिला में जादू तो कर दिया था ।
जयमाल – ज्योतिर्मय रत्नों से तैयार यह जयमाला ……….ये तो तभी से बन कर तैयार था ……जब से मेरे पिता जनक जी नें प्रतिज्ञा की थी ।
एक सुन्दर सी सुवर्ण पेटिका में आई जयमाला……..मेरी माता सुनयना नें उस पेटिका को खोला ……..उसमें से जयमाल निकाली गयी ।
( एक माला किशोरी जी के हाथ में ही थी …….पर ये जयमाला है )
मेरे हाथों से फूलों की माला को लेकर मेरी माता नें मेरे हाथों में वो जयमाल पकड़ा दी थी ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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“राजा चित्रकेतु”
भागवत की कहानी – 6
ये राजा चित्रकेतु हैं ……इनकी बहुत रानियाँ थीं आप तो इतना ही समझ लीजिए । अच्छा ! आपको जानना है कि कितनी रानियाँ थीं इस राजा की ….तो चौंकियेगा नही ….एक करोड़ रानियाँ थीं । ये सम्भव है या नही है ….इस बात पर अपनी छोटी बुद्धि मत लगाइये …ये बात अभी की नही है …क़रीब एक दो लाख वर्ष पूर्व की है ….तो आप अभी के हिसाब से मत सोचिए …अरे ! दो सौ वर्ष पहले हैदराबाद के निज़ाम की दो हजार बेगम थीं …..तो दो लाख वर्ष पूर्व तो आप अनुमान भी नही लगा सकते कि स्थिति क्या होगी ! छोड़िये …कहानी क्या सीख देती है उसे ध्यान में रखिए बस । तो राजा चित्रकेतु की एक करोड़ रानियाँ थीं ….किन्तु एक करोड़ पत्नियों के होने के बाद भी राजा के कोई पुत्र नही । राजा बहुत दुखी थे …बहुत दुखी ….उनको यही लगता था कि पुत्र होता तो मैं कितना सुखी होता …..स्वर्ग में मेरा कितना आदर होता….पितर लोग भी मेरा सम्मान करते …किन्तु ! राजा इस तरह से अपने भीतर ही भीतर रोता रहता था । एक दिन राजा चित्रकेतु कहीं जा रहा था तो उसे मार्ग में ऋषि अंगिरा मिल गये ….राजा ने रथ से उतर कर उन्हें प्रणाम किया ….फिर विनती की ….कि हे ऋषिवर ! मुझे पुत्र दीजिए …ऋषि कुछ नही बोले ….तो राजा चित्रकेतु अपना सिर ज़मीन में पटकने लगा । ऋषि को दया आगयी और उन्होंने विधि के विधान से विपरीत जाकर एक यज्ञ कर दिया …और उस यज्ञ की प्रसादी खीर राजा को देकर कहा ….तुम्हें जो प्रिय रानी लगे उसी को खिला दो , पुत्र होगा । छोटी रानी को चित्रकेतु ने खीर खिला दी । राजा को छोटी रानी प्रिय थी …समय होने पर बालक भी हुआ ….अब तो बालक के प्रति चित्रकेतु की आसक्ति बढ़ती गयी ….और परिणाम ये हुआ कि राजा ने अन्य रानियों के महल में तो झाँकना भी छोड़ दिया । बस इसी बात से ईर्ष्या ने जन्म लिया …..परस्पर रानियों में ईर्ष्या बढ़ने लगी ….अन्य रानियाँ कहने लगीं – राजा तो अब छोटी रानी के ही महल में ज़्यादा रहते हैं ….हमारी ओर उनका कोई ध्यान ही है । ध्यान कैसे होगा ! हमने राजा को उनका वंशधर थोड़े ही दिया है ….उत्तराधिकारी तो छोटी रानी ने ही दिया है …इसलिए राजा का ध्यान अब उस ओर है …जो होना भी चाहिए । ये सुनकर अन्य रानियाँ और कुढ़ने लगीं …अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या से जलने लगीं …..क्या करें , जिससे राजा हमें पहले की तरह प्यार करें ? एक रानी ने धीरे से कहा ….बालक को मार दो । क्या ? सब चौंके । हाँ , मार दो …दूध में विष मिला कर पिला दो । यही किया । जब छोटी रानी ने अपने बालक को न उठते देखा तो उसने राजा को बुलवाया ….राजा अपने साथ राज वैद्य लाये …..”बालक मर गया है” …राज वैद्य ने नाड़ी देखकर कहा ।
बस , राजा मूर्छित हो गये ….राज शोक हो गया…..मूर्च्छा से राजा जब उठे तो वो अत्यन्त व्याकुल होकर दहाड़ मारने लगे …पुत्र के शव को जलाने भी नही दिया …न ले जाने दिया ….उसी शव के साथ राजा चिपक कर रोते रहे ……इस तरह आज पाँच दिन हो गये हैं ।
कहाँ जा रहे हैं महर्षि अंगिरा ? चलते हुए महर्षि को टोक दिया था देवर्षि नारद ने ।
अपने शिष्य राजा चित्रकेतु के यहाँ ! महर्षि अंगिरा ने उत्तर दिया ।
क्यों ? नयन मटकाते हुए देवर्षि ने फिर पूछा ।
उसको हमने पुत्र दिया था उस पुत्र को आशीर्वाद तो दे आयें ….सरल महर्षि के जो मन में था बोल दिये । किन्तु वहाँ तो बहुत गड़बड़ हो गयी है …नारद जी बोले ।
क्या गड़बड़ ? महर्षि ने पूछा ।
कुछ नही …..आप कहें तो मैं भी आपके साथ चलूँ ? देवर्षि इतना बोलकर हंसे …फिर महर्षि अंगिरा का ही हाथ पकड़ कर चल दिये ।
किन्तु वहाँ हुआ क्या है ? महर्षि बारम्बार पूछ रहे हैं । किन्तु देवर्षि चले जा रहे हैं महर्षि का ही हाथ पकड़े ….हंस रहे हैं …बोल कुछ नही रहे ।
महर्षि अंगिरा आगये , साथ में देवर्षि नारद भी हैं ……चित्रकेतु के राज्य में हल्ला हो गया ।
ये दोनों सीधे राज महल में गये …..किन्तु वहाँ तो सब रो रहे हैं ……राजा स्वयं दहाड़ मार कर रो रहा है । राजपुरोहित ने आगे आकर राजा के कान में कहा ….महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद जी आए हैं…….एक क्षण को राजा ने देखा महर्षि को , किन्तु वो पहचान न पाया ।
ये कौन हैं ? राजा ने पूछा ।
महर्षि अंगिरा अपना परिचय देने वाले थे कि देवर्षि नारद जी ने उन्हें रोक दिया …..आगे स्वयं बढ़े ….और राजा से कहा …..ये हैं महर्षि अंगिरा और मैं हूँ नारद । हे राजन्! इन्हीं ने तुम्हें पुत्र दिया था …कुछ स्मरण आया ? बस इतना सुनना था कि चित्रकेतु दौड़ा और महर्षि के पैरों में गिर गया ….हे महर्षि ! आपका दिया हुआ पुत्र मर गया है …इसे जीवित कीजिए । महर्षि चकित भाव से बोले ….ये जीवित कैसे होगा , ये तो मर गया ! । राजा चित्रकेतु बोला …इसे जीवित कीजिए नही तो मैं मर रहा हूँ ….ये कहकर पूर्व की तरह राजा अपना सिर धरती पर पटकने लगा । महर्षि अंगिरा कुछ कहते उससे पहले देवर्षि नारद आगे आये और बोले …सहज बोले …तुम्हें बेटा चाहिए ? जी , चित्रकेतु बोला । यही चाहिए ? नारद जी ने फिर पूछा । हाँ , यही चाहिए । अगर ये नही मिला तो ? मर जाऊँगा । नारद जी फिर बोले …पक्का ? हाँ , पक्का ।
फिर तो इस बालक को जीवित करना ही होगा …ये कहते हुए नारद जी ने महर्षि की ओर देखा….
गए उस बालक के मृत देह के पास ….कुछ मंत्र बुदबुदाये ….और देखते ही देखते बालक तो जीवित हो गया …..बालक के उठते ही सबके मन में हर्षोल्लास छा गया था …किन्तु बालक आश्चर्य से चारों ओर देख रहा था ।
वत्स ! ये तुम्हारे पिता हैं …….नारद जी ने उस बालक को बताया ।
बालक ने चित्रकेतु को ध्यान से देखा ।
अरे ! पैर छुओ ..गले लगो …यही तुम्हारे पिता हैं ….नारद जी फिर बोले ।
चित्रकेतु दोनों बाहें फैलाकर खड़ा था ….उसके नेत्रों से आनन्द के अश्रु बह रहे थे ।
वो बालक अभी भी वहीं खड़ा है ……इस बार देवर्षि नारद जी ने तेज आवाज़ में कहा ….पिता का स्थान बहुत बड़ा होता है …माता का स्थान उससे भी बड़ा है …ये तुमसे बहुत प्रेम करते हैं ….इसलिए इनके पैर छुओ और गले लगो ।
किस जन्म के माता पिता हैं ये ? वो बालक गम्भीर वाणी से बोला ।
राजा चित्रकेतु चौंक गये …..ये क्या कह रहा है । देवर्षि ने बालक के प्रश्न पर कहा …तुम कहना क्या चाहते हो ? बालक शान्त होकर बोला ….अनन्त जन्म हुए हैं हमारे ….सृष्टि की शुरुआत कब हुई क्या ये कोई बता सकता है ? हे देवर्षि! हम लोग सृष्टि की शुरुआत कल्प से मानते हैं किन्तु ये तो सत्य नही हैं …सृष्टि अनादि है …ऐसे ही हम जीव भी अनादि हैं …हमारे कितने जन्म हुए ये कोई नही बता सकता ….फिर उस अनन्त जन्मों की शृंखला में हमारे माता पिता ? हंसा वो जीव अब । किसी जन्म में ये मेरे माता पिता और किसी जन्म में मैं इनका माता पिता ….ये सब माया है …..मैं पुत्र ये पिता …ये सब माया का खेल है ……इतना ही कहकर वो बालक तो चल पड़ा …..नारद जी राजा को बोले ….अरे ! अपने बेटे को पकड़ , हृदय से लगा ….किन्तु राजा चित्रकेतु समझ चुका था …..उसको वैराग्य हो गया था ……राजा बोला भी ….कोई पुत्र नही , अरे ! जिस पुत्र के लिए मैं पाँच दिन से रो रहा हूँ …..अन्न जल का परित्याग कर दिया है , वो पुत्र मुझ से कहता है ….किस जन्म के माता पिता हैं ? बस , राजा चित्रकेतु यहीं से वन की ओर चल देता है ….वो किसी से कुछ नही कहता । देवर्षि मुस्कुरा रहे हैं ।
भक्त नरसी मेहता चरित (08)
🏵नरसीजी को शँकर भगवान् दर्शन
नरसिंह राम की दृष्टि में शिवलिंग पत्थर नहीं था ,बल्कि साक्षात कैलाशपति थे । अतएव वह निरन्तर विश्वास पूर्वक प्रार्थना करने लगे और रूदन करने लगे । जंगल की भयावनी रात थी ,नाना प्रकार के हिंसक जन्तु चारों और बोल रहे थे, कितने ही उस मंदिर में सोने के लिए आते थे और मनुष्य को देखकर डर से वहाँ से चले जाते थे ; परंतु नरसिंह राम को इन सब बातों की कोई सुधि न थी । वह तो अखिल भुवन पति के ध्यान में पड़े थे और उन्ही की पुकार कर रहे थे ।
धीरे -धीरे रात बीती; सुर्य भगवान के आगमन से पृथ्वी का अन्धकार न मालुम कहाँ विलीन हो गया । फिर भी ब्राहम्ण नरसिंह मेहता उसी स्थिति में जमीन पर सिर टेके रूदन और विनती कर रहे थे । फिर दिन बीतता और रात आती और इस तरह दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता और चला जाता । परंतु वह उसी स्थिति में पड़े रहे । वह अपनी श्रद्धा और संकल्प लेशमात्र भी विचलित नही हुए ।इस प्रकार प्रायः सात दिन की उग्र तपस्या से कैलाशपति का आसन डोल गया ।
सातवें दिन आधी रात के बाद भगवान भोलानाथ भक्त के सामने साक्षात प्रकट हुए । उन्हें देखते ही भक्तराज उनके परमपावन चरणकमलों पर यह कहते हुए लोट गये कि ‘ मेरे भोलानाथ आओ । मेरे शम्भु आओ ।’भगवान शंकर ने कहा -‘बेटा ! मैं तुम्हारी सात दिन की घोर तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ ; तुम मुझसे इच्छित वर माँग लो । भक्तराज नरसीजीI ने नम्रता पूर्वक प्रार्थना की -‘भगवान ! मुझे किसी वरदान की इच्छा नहीं है । फिर भी आपकी आज्ञा वर माँगने की है ; अतएव जो वस्तु आपको अत्यंत प्रिय हो ,वही वस्तु आप वरदान में देने की कृपा करें । वत्स ! तुमने तो वरदान बड़ा सुंदर माँगा । जगत भर में भगवान श्रीकृष्ण से अधिक प्रिय वस्तु मेरी दृष्टि में दूसरी कोई नहीं है । यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करा दूँ । ‘भगवान सदाशिव ने उत्तर दिया ।
भगवन ! यही तो इस असार संसार में सारभूत और दुर्लभ वस्तु है । फिर जो वस्तु आपको प्रियातिप्रिय है उसे अप्रिय कहने की धृष्टता कौन कर सकता है ? नरसिंहराम ने निवेदन किया ।
नरसिंहराम की ऐसी निष्ठा देखकर शंकरजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । उनहोने भक्तराज को दिव्य देह प्रदान कर, उन्हें साथ ले दिव्य द्वारिका के लिए तुरंत प्रस्थान किया ।
एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय।।
अर्थात जिसने एक बार भी कृष्ण के पादपह्यों में श्रद्धा-भक्ति के सहित प्रणाम कर लिया उसे उतना ही फल हो जाता है जितना कि दस अश्वमेधादि यज्ञ करने वाले पुरुष को होता है। किन्तु इन दोनों के फल में एक बड़ा भारी भेद होता है। अश्वमेध-यज्ञ करने वाला तो लौटकर फिर संसार में आता है, किन्तु श्रीकृष्ण को श्रद्धासहित प्रणाम करने वाला फिर संसार-चक्र में नहीं घूमता। वह तो इस चक्र से मुक्त होकर निरन्तर प्रभु के पादपद्मों में लोट लगाता रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 9
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न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय |
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु || ९ ||
न – कभी नहीं; च – भी; माम् – मुझको; कर्माणि – कर्म; निबध्नन्ति – बाँधते हैं; धनञ्जय – हे धन के विजेता; उदासीन-वत् – निरपेक्ष या तटस्थ की तरह; आसीनम् – स्थित हुआ; असक्तम् – आसक्तिरहित; तेषु – उन; कर्मसु – कार्यों में |
भावार्थ
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हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं | मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ |
तात्पर्य
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इस प्रसंग में यह नहीं सोच लेना चाहिए कि भगवान् के पास कोई काम नहीं है | वे वैकुण्ठलोक में सदैव व्यस्त रहते हैं | ब्रह्मसंहिता में (५.६) कहा गया है – आत्मारामस्य तस्यास्ति प्रकृत्या न समागमः – वे सतत दिव्य आनन्दमय आध्यात्मिक कार्यों में रत रहते हैं, किन्तु इन भौतिक कार्यों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता | सारे भौतिक कार्य उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं | वे सदा ही इस सृष्टि के भौतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं | इस उदासीनता को ही यहाँ पर उदासीनवत् कहा गया है | यद्यपि छोटे से छोटे भौतिक कार्य पर उनका नियन्त्रण रहता है, किन्तु वे उदासीनवत् स्थित रहते हैं | यहाँ पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उदाहरण दिया जा सकता है, जो अपने आसन पर बैठा रहता है | उसके आदेश से अनेक तरह की बातें घटती रहती हैं – किसी को फाँसी दी जाती है, किसी को कारावास की सजा मिलती है, तो किसी को प्रचुर धनराशी मिलती है, तो भी वह उदासीन रहता है | उसे इस हानि-लाभ से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता | वेदान्तसूत्र में (२.१.३४) यह कहा गया है – वैषम्यनैर्घृण्ये न – वे इस जगत् के द्वन्द्वों में स्थित नहीं है | वे इन द्वन्द्वों से अतीत हैं | न ही इस जगत् की सृष्टि तथा प्रलय में ही उनकी आसक्ति रहती है | सारे जिब अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते रहते हैं और भगवान् इसमें कोई व्यवधान नहीं डालते |


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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877