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September 13, 2025 9:54 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम (17-1), “मत्स्यावतार”, भक्त नरसी मेहता चरित (20) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम (17-1), “मत्स्यावतार”, भक्त नरसी मेहता चरित (20) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

] Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣7️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#मंगलसगुनसुगमसबताके ……
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मेरा जनकपुर झूम रहा था ……….मेरे जनकपुर में देवों और देवियों के आनें की लाइनें ही लग गयीं थीं …..बाजे गाजे तो बजते ही रहते थे ।

मेरे जनकपुर वासी उन दिनों जब सुबह उठते थे तो मार्गों में फूल बिछे हुये पाते ……..और आश्चर्य ये था कि ये फूल भी इस पृथ्वी के नही थे …….क्यों की उनकी सुगन्ध ही दिव्य थी ……कुछ अलग ।

सिया जू ! सिया जू !

मेरी सखी “पद्मा” दौड़ती हुयी आई थी……..उसकी साँसे चढ़ी हुयी थीं ….वो साँसें लेते हुए भी बोल रही थी और साँसें छोड़ते हुए भी ।

महाराज व्यवस्था में व्यस्त हैं सिया जू ! क्यों की अयोध्या से बारात चल दी है…….वो अब हँसनें लगी……खूब हँसे जा रही है ।
अरी बोल भी …..क्या हुआ ? इतना क्यों हँस रही है ?

मैने पद्मा से पूछा था ।
सिया जू ! ये पहली बरात होगी …..जो बिना दूल्हा की है ।

फिर हँसनें लगी …………….।

और पता है ………सिया जू ! मै जब महाराज के पास से होकर गुजर रही थी ……..तब एक दूत आया था महाराज के पास ……और मै भी खड़ी हो गयी ……..सुननें के लिये कि अयोध्या की बरात के क्या समाचार हैं ……….।

पगली है क्या पद्मा तू ?

इतना हँस क्यों रही है …………मैने उसे डाँटा ……….पर पद्मा है कि हँसे जा रही है …………..।

अरे ! सिया जू ! आप भी सुनोगी न तो हँसोगी !

वो दूत बता रहा था महाराज को ……….और महाराज भी अपनी हँसी नही रोक पाये ……………..

अब बता क्या हुआ ऐसा ! मैने पूछा ।

सिया जू ! बारात चली है अयोध्या से ……………गणेश गौरी शंकर इन सबको प्रणाम करके इनका पूजन करके बारात निकल तो गयी ।

पर ……………….फिर पेट पकड़ कर हँसनें लगी थी पद्मा ।

मारूँगी पद्मा तुझे ……बता क्या हुआ आगे ?

मैने भी हँसते हुए उससे कहा …….क्यों की उसकी हँसी देखकर अब मुझे भी हँसी आरही थी ।

हाँ ….मै कह रही थी कि ……….बरात तो चल दी ……अयोध्या से ……अब आगे जैसे बढ़ी ………तो बीच बीच में नगर पड़नें लगे …..हजारों लोग ……सजे धजे ….कोई हाथी पर बैठा ………..कोई रथ पर ………….चले जा रहे थे ………..

अब सिया जू ! मार्ग में लोग खड़े हो जाते हैं……देखनें के लिए कि ये सब क्या है !

लोग पूछते हैं …………..ये सब क्या है ?

तब अवध के बाराती कहते – कि बरात जा रही है अयोध्या से ………..

फिर लोग पूछते …..कहाँ जा रही है बरात ?

तब अवध के लोग कहते …..जनकपुर जा रही है ।

लोग इतनें में चुप थोड़े ही होंगें ……..फिर पूछते ……….दूल्हा कहाँ है ?

अब बाराती चुप !

पद्मा हँसते हुए लोट पोट हो गयी ……………..

सिया जू ! तब ये बात पहुंची चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पास ।

अब वो क्या कहें ……….लोग तो पूछते हैं ………पूछेंगें ।

महाराज दशरथ गए अपनें गुरु वशिष्ठ जी के रथ के पास ………..

गुरु महाराज ! एक संकट आ खड़ा हुआ है …………..

क्या बात है महाराज ! बताइये ………..

गुरु महाराज ! लोग पूछ रहे हैं ………….कि ये सब क्या हो रहा है ….

तब हमारे लोग बता रहे हैं कि …………बरात जा रही है ………।

फिर लोग पूछते हैं ….दूल्हा कहाँ है ?

इसका उत्तर क्या दें ?

कह दो दूल्हा तो वहीँ जनकपुर में ही है …………..

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


[] Niru Ashra: मत्स्यावतार

भागवत की कहानी – 19


सृष्टि में तीन ही तत्व हैं ….देश , काल और वस्तु । इसमें से वस्तु तो दिखाई देती है और वस्तु के बिना देश और काल का वर्णन सम्भव भी नही है । हमें इस “पुराण का सिद्धान्त” समझना अतिआवश्यक है । जब प्रलय हो जाता है …पुराणों का कहना है कि प्रत्येक कल्प में प्रलय होता है । वैसे तो भागवत चार प्रकार के प्रलय का वर्णन करती है ..किन्तु अभी वो प्रासंगिक नही होगा । वस्तु कहीं ( देश ) होगी और कभी या अभी ( काल यानि समय ) होगी । इस तरह सृष्टि में ये तीन तत्व पाये जाते हैं । पुराण में जो “देश , काल” का वर्णन है वो हमारी और आपकी बुद्धि से बहुत परे है …..

अच्छा पुराण क्या कहता है देश के सम्बन्ध में ?

भगवान नारायण कितने बड़े हैं ? “नभ एव नाभि” …..सम्पूर्ण आकाश भगवान नारायण की मात्र नाभि है ….अब आप कल्पना कर सकते हैं या आज का विज्ञान कुछ हिसाब कर सकता है …कि भगवान नारायण की नाभि इस तरह कितनी बड़ी होगी ? यानि आकाश कितना बड़ा है ?

ना जी ! मतलब ही नही है कि कोई वैज्ञानिक बता पाएगा । फिर जिनकी नाभि इतनी बड़ी है वो नारायण कितने बड़े होंगे ? यही बात “काल” के विषय में भी है …काल यानि समय का क्या माप है ? पुराण कहते हैं …43 लाख 20 हजार वर्ष का एक चतुर्युग बनता है यानि चारों युग इसमें आगये …चारों युग इतने आयु के हैं ऐसे एक हजार महायुगों का ब्रह्मा का एक दिन होता है ।

अच्छा ! आप मानव वर्षों में ब्रह्मा की आयु निकाल पाएँगे ? चलो आप प्रयत्न कर लें तो निकाल भी लेंगे लेकिन काल यहीं तो समाप्त नही होता ,एक ब्रह्मा की पूरी आयु महारुद्र का एक दिन है ।

इस तरह काल की गणना आप क्या कर पायेंगे ? आपकी बुद्धि सीमित है …इसमें नही लग पाएगी ….फिर क्या आप ये कहेंगे कि ये सब मिथ्या है …झूठ है ?

मैंने पहले ही बोल दिया है …वस्तु प्रलय में नही होती है …देश होता है यानि स्थान और काल तो होता ही है प्रलय में भी । अब आप पूछ सकते हैं …भगवान प्रलय क्यों लाते हैं ….तो इतना समझ लीजिए कि ….ये प्रलय आता है नयी सृष्टि के लिए । भागवत में चार प्रलयों में एक प्रलय नित्य भी कहा है …हाँ , सही है नित्य ही मिट रहा है और नित्य ही बन रहा है । किन्तु कल्प की समाप्ति में आने वाला प्रलय इसमें ऊपर के लोक भी जलमग्न हो गये ….ब्रह्मा का शयन का समय है ये ….यानि ब्रह्मा की रात्रि ….उसी समय उनके यहाँ से वेद चोरी हो गये …वेद लेकर गया एक असुर जिसका नाम है …हयग्रीव ।

अब इधर आइये पृथ्वी में , जहां अब प्रलय होने वाला है ………


राजा सत्यव्रत …..ये उस समय पृथ्वी के राजा थे ……प्रातः की वेला थी कृतमाला नामक नदी में ये स्नान कर रहे थे …..स्नान के बाद इन्होंने जैसे ही सूर्य को अर्घ्य देने के लिए अंजलि में जल लिया ….अंजलि में एक मछली आगयी , मछली सुवर्ण के रंग की थी । अंजलि के जल को राजा वापस नदी में ही डालने जा रहे थे कि उस मछली से आवाज आयी ….राजन्! मुझे नदी में मत डालो …यहाँ बड़े बड़े जीव हैं मुझे खा जायेंगे । राजा को दया आयी , उन्होंने अपने कमंडलु में उस मछली को रख लिया …..और अपने महल में चले आए ….अब मछली ने फिर कहना आरम्भ किया …कमंडलु छोटा है …मुझे जल में खेलना है ..मुझे घुमना है ….बड़े स्थान में रखिये ना महाराज ! राजा ने देखा …फिर मुस्कुराकर उन्होंने बड़े से पात्र में उस मछली को रख दिया …अभी अभी रखकर वो जा ही रहे थे कि मछली ने फिर कहा …ये पात्र भी छोटा है ….राजा ने देखा मछली बड़ी हो गयी थी …..ये इतनी जल्दी बढ़ रही है …ये कोई सामान्य मछली नही है । राजा ने अब उस मछली को अपने सरोवर में डाल दिया …..किन्तु ये क्या ! सुवर्ण के समान चमचमाती मछली ने पूरे सरोवर को घेर लिया था ….महाराज ! ये स्थान भी मेरे लिए छोटा पड़ गया है …कोई बड़े स्थान में रखिए ….राजा चकित ! मछली को लेकर जैसे ही वापस कृतमाला नदी में डालने लगे ….मछली फिर बोली …यहाँ अन्य जीव हैं …मुझे अन्यों के साथ रहना प्रिय नही है । ये सुनते ही राजा सत्यव्रत ने साष्टांग प्रणाम किया उसे और कहा …आप कौन हैं ? आप के दर्शन से , स्पर्श से मेरा मन पूर्ण सात्विक हो उठा है …आप सत्वरूप भगवान नारायण हैं ….मुझ से आप अपने आपको मत छुपाइये । ये कहते हुए जब राजा भाव में भर गए ….तब मछली से साक्षात नारायण भगवान प्रकट हो गये थे ….उनकी मंदमुस्कुराहट राजा का मन मोह रही थी ….भगवान की मधुर वाणी अब गूंजी …..

हे राजन्! मेरी बात ध्यान से सुनो ….आज के सात दिन में प्रलय होने वाला है …ये कोई नई बात नही है …किन्तु इस बार हमने तुमको चुना है इसलिए मैं तुम्हें कुछ सेवा दे रहा हूँ । भगवान की वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत हाथ जोड़कर बोले …आज्ञा दीजिए भगवन् !

सात दिन बाद जब प्रलय होगा ….तब तुम्हें ही सृष्टि के बीजों को बचाना होगा …एक नाव आएगी ……………….भगवान पूरी बात कहकर अन्तर्ध्यान हो गये थे ।


पृथ्वी में भयानक आँधी चली ……फिर वर्षा ..घनघोर वर्षा । और वर्षा ऐसी हुई की पाँच दिनों में जल ही जल दिखाई देने लगा । राजा देख रहे हैं उनका परिवार डूब गया …उनका महल काग़ज़ के पत्तों की भाँति बह गया …..सब कुछ अब जल मग्न था । राजा सत्यव्रत तैरते हुए जा रहे हैं …किन्तु कहाँ जाना है इन्हें पता नही है । थक गये हैं ….घनघोर अन्धकार है …..इतना ही नही समुद्र में उफान और आगया । अब तो राजा के सामने राजा को बड़े बड़े जल के जीव खाने आते हैं ….राजा डर रहे हैं …वो तैरते हुए इधर उधर भाग रहे हैं …….तभी …सामने से एक नौका दिखाई दी , उसमें एक दीया टिमटिमा रहा था …राजा ने फुर्ती दिखाई और तैरते हुये उस नाव पर पहुँच गये …..उस नाव में सप्त ऋषि बैठे थे …उन्होंने राजा का हाथ पकड़ा और ऊपर खींच लिया ।

हे राजन्! ये बीज है , पृथ्वी तो अब जल मग्न हो गयी बीज सब बह गए समाप्त हो गये …अब आने वाली सृष्टि के लिए ये बीज हैं…जिन्हें सुरक्षित रखना अनिवार्य था । ये वेद हैं …ज्ञान का संरक्षण अनिवार्य है ….इनको तो चुरा लिया था एक दैत्य ने । ऋषियों की बात सुनकर राजा सत्यव्रत ने देखा कि नाव में औषधि भी थीं , कुछ वनस्पति के बीज थे और वेद थे ……तभी राजा ने देखा कि नाव डगमगाने लगी ….क्यों की प्रलयक़ालीन हवा चल पड़ी थी ..जिसके कारण समुद्र में हजारों फ़िट की लहरें आने लगीं थीं ….राजा ने हाथ जोड़कर ऋषियों से कहा …हे ऋषियों ! मुझे भगवान ने कहा था कि मैं मछली के रूप में आऊँगा ….और मेरे सुवर्ण के सींग भी होंगे …तुम्हारी नाव डगमगाने लगेगी तो मेरे सींग में उसे बाँध देना । राजा ने चारों ओर देखा …..तभी सामने से एक सुवर्णमयी आभा का सबको दर्शन हुआ …..वो मछली के रूप में भगवान बड़ी तीव्रता से चले आरहे थे ….सत्यव्रत राजा ने देखा सामने भगवान नारायण मछली के रूप में आकर खड़े हैं ….और उनके पास वासुकि नाग भी है …उसी नाग को लेकर राजा सत्यव्रत ने मत्य भगवान के सींग से नाव को बाँध दिया …अब तो वो दिव्य झाँकी प्रकट हुई कि मत्यभगवान जल में दौड़ रहे हैं …नाव उनके पीछे है …ये सौ वर्षो तक चलता रहा …इसके बाद जल कम होने लगा था । सूर्य उदित हो गये थे । पृथ्वी जल से ऊपर आगयी थी ।

जय हो ! सबने मत्स्यावतार नारायण की स्तुति की ।
[

] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (20)


बता मेरे यार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

बालक था रे जब आया करता
रोज खेल के जाया करता
बालक था रे जब आया करता
रोज खेल के जाया करता
हुई कै तकरार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

बता मेरे यार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

मन्ने सुना दे कुटुंब कहानी
क्यों कर पड़ गयी ठोकर खानी

मन्ने सुना दे कुटुंब कहानी
क्यों कर पड़ गयी ठोकर खानी

टोटे की मार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

बता मेरे यार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

सब बच्चो का हाल सुना दे
मिसरानी की बात बता दे

सब बच्चो का हाल सुना दे
मिसरानी की बात बता दे

रे क्यों गया हार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

बता मेरे यार सुदामा रे
भाई घणे दिना में आया

बड़नगर ( गुजरात ) के व्यापारी को भक्त योग्य वर की तलास

उन्हीं दिनों गुजरात के बड़नगर नामक शहर के रहने वाले मदन मेंहता की पुत्री के लिए एक सुयोग वर की खोज चल रही थी । मदन मेहता एक प्रतिष्ठित नागर गृहस्थ थे । वह स्वयं एक राज्य के दीवान के पद पर थे और आठ-दस लाख की सम्पत्ति भी उनके पास थी । उनकी रूप शील से युक्त पुत्री जूठीबाई विवाह योग्य हो गयी थी । उन्होंने कई जगह सुयोग “भक्तवत्सल वर” की खोज की , परंतु कहीं उनका मन नहीं जमा । अन्त में कुल -परिवार के लोगों को एकत्र कर उन्होंने पूछा कि पुत्री का विवाह कहाँ करना चाहिए । सब लोगों ने राय दी कि आसपास तो आपके योग्य कोई ईश्वर भक्त गृहस्थ नहीं । जूनागढ़ हमारी जाति के सात सौ घर बसते है । अतः वहाँ कोई योग्य घर अवश्य मिल जायगा ।

सगे -सम्बन्धियों की सलाह के अनुसार मदन मेहता ने अपने कुल -पुरोहित को एक सुन्दर,सुशील, कुलीन और गुणवान वर की खोज करने के लिए वाहन तथा द्रव्यादि देकर जूनागढ भेज दिया । मदन मेहता के एक सहपाठी मित्र सारंगधर जूनागढ में रहते थे । अतः उन्होंने उनके नाम एक पत्र भी पुरोहित जी को दे दिया । पुरोहित जी को सब लोग दीक्षित नाम से पुकारा करते थे ।

जुनागढ जिस मुहल्ले में नागर लोगों की घनी बस्ती थी , उसके बीच में एक चबूतरा बना हुआ था, जिस पर शाम को बहुत से लोग बैठकर गपशप किया करते थे । उस दिन भी कुछ लोग बैठकर बातें कर रहे थे कि दीक्षित जी का रथ आकर खड़ा हुआ । सब लोगों का ध्यान उस ओर आकृष्ट हो गया । दीक्षित जी ने पूछा -‘महोदय ! सारंगधर जी मेहता का घर कहाँ पर है?

सारंगधर मेहता नागर -जाति का एक प्रतिष्ठित गृहस्थ था । उस समय वह भी वहाँ मौजूद था । उसने उतर दिया -‘ कहिए महोदय ! आप कहाँ से पधार रहे हैं, क्या काम है मुझे ही लोग सारंगधर कहते है ।’

दीक्षित जी ने रथ से उतर कर यजमान की दी हुई चिठ्ठी उसके हाथ में दे दी। चिठ्ठी खोलकर वह बाँचने लगा —

प्रिय मित्र श्री सारंगधरजी
सप्रेम् प्रणाम ।

आपके पास अपने कुल पुरोहित श्री दीक्षित जी को भेज रहा हूँ । मेरी पुत्री जूठीबाई की अवस्था अब विवाह योग्य हो गयी है । कृपया कर अपने यहाँ किसी कुलीन घर में एक रूप -शीलयुक्त सुयोग्य घर देखकर सम्बन्ध करा दीजियेगा । आपको अपना अभिन्न मित्र जानकर यह कष्ट दे रहा हूँ ।

आपका—मदन मेहता

सारंगधर पत्र पढ़कर उठ खड़ा हुआ और दीक्षित जी को लेकर अपने घर आया । दीक्षित जी का उचित सत्कार कर उसने अपने मित्र मदन राय जी का कुशल समाचार पूछा–

बात की बात में यह समाचार सारी नागर-जाति में फैल गया कि बड़नगर से एक पुरोहित जी वर की खोज में आये है । चारों ओर से एक-न-एक बहाना लेकर लोग सारंगधर के घर पर एकत्र होने लगे । जो आता , वहीं पहले अनजान की तरह दीक्षित जी की ओर इशारा करते हुए प्रश्न करता -‘ कहिए सांरगधर जी ! आप महोदय कौन है ? ‘ सारंगधर सबको यही उत्तर देता –‘आप बड़नगर के मेरे मित्र मदन राय जी के पुरोहित है ।मेरे मित्र की कन्या के लिए एक सुयोग्य वर की खोज में आये है ।’

वर की खोज में आये हुए मनुष्य को देखकर प्रायः गृहस्थ लोग चंचल हो उठते हैं । जो लोग विशेष स्वार्थी होते हैं, उनका तो कहना ही क्या ? वे तो येन केन प्रकारोण अपना काम बनाने के लिए बेचैन हो उठते हैं । ऐसे कुछ लोग जो वहाँ बैठे थे, अपने को रोक न सके । उन्होनें अपनी राय प्रकट करना शुरू कर दिया । किसी ने प्रकारान्तर से अपने पुत्र का ही गुणगान कर डाला । किसी ने अपने मित्र की कुलीनता का बखान किया । किसी ने अपने सम्बन्धी की उन्नति का रोचक वर्णन सुनाया । किसी ने व्यापार चतुर वर का और किसी ने विधाव्यसनी वर का पता बताया । दीक्षित जी चुपचाप सब बातें सुनते रहे ।

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 9 . 22
🌹🌹🌹🌹🌹

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || २२ ||

अनन्याः – जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; चिन्तयन्तः – चिन्तन करते हुए; माम् – मुझको; ये – जो; जनाः – व्यक्ति; पर्युपासते – ठीक से पूजते हैं; तेषाम् – उन; नित्य – सदा; अभियुक्तानाम् – भक्ति में लीन मनुष्यों की; योग – आवश्यकताएँ; क्षेमम् – सुरक्षा, आश्रय; वहामि – वहन करता हूँ; अहम् – मैं |

भावार्थ
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किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |

तात्पर्य
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जो एक क्षण भी कृष्णभावनामृत के बिना नहीं रह सकता, वह चौबीस घण्टे कृष्ण का चिन्तन करता है और श्रवण, कीर्तन, स्मरण पादसेवन, वन्दन, अर्चन, दास्य, सख्यभाव तथा आत्मनिवेदन के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की सेवा में रत रहता है | ऐसे कार्य शुभ होते हैं और आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होते हैं, जिससे भक्त को आत्म-साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि वह भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करे | ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान् के पास पहुँचता है | यह योग कहलाता है | ऐसा भक्त भगवत्कृपा से इस संसार में पुनः नहीं आता | क्षेम का अर्थ है भगवान् द्वारा कृपामय संरक्षण | भगवान् योग द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने में सहायक बनते हैं और जब भक्त पूर्ण कृष्णभावनाभावित हो जाता है तो भगवान् उसे दुखमय बद्धजीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं |

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