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September 13, 2025 9:56 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(17-2),श्रीमद्भगवद्गीता,भक्त नरसी मेहता चरित (21) & “भगवान ऋषभदेव और उनका उपदेश” : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(17-2),श्रीमद्भगवद्गीता,भक्त नरसी मेहता चरित (21) & “भगवान ऋषभदेव और उनका उपदेश” : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣7️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#मंगलसगुनसुगमसबताके ……
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

क्या बात है महाराज ! बताइये ………..

गुरु महाराज ! लोग पूछ रहे हैं ………….कि ये सब क्या हो रहा है ….

तब हमारे लोग बता रहे हैं कि …………बरात जा रही है ………।

फिर लोग पूछते हैं ….दूल्हा कहाँ है ?

इसका उत्तर क्या दें ?

कह दो दूल्हा तो वहीँ जनकपुर में ही है …………..

यही तो गुरुमहाराज ! जब हमारे लोगों नें प्रजा से ये कहा …….कि दूल्हा तो वहीं है ……..तो सब हँसनें लगे ………कहनें लगे …….जय हो चक्रवर्ती नरेश की ………ऐसी बरात आज तक नही देखी हमनें …..जिसमें दूल्हा ही न हो ………..और दूल्हा भी बड़ा विचित्र है कि ससुराल में जाकर महीनों पहले से बैठा हुआ है ……..।

पद्मा मुझे बता रही थी ………..इस बात पर तो मुझे भी हँसी आई ।

फिर आगे क्या बताया ….दूत नें …….? मैने पूछा ।

अरे ! सिया जू ! हमारे महाराज भी दूत की बात सुनकर हँसे थे ……

आगे बता , आगे क्या हुआ ? मैने पद्मा से फिर पूछा ।

अपनें विशेष दूत से भी हमारे महाराज नें यही पूछा था …….तो वह गम्भीर होकर बता रहा था …..महाराज ! चक्रवर्ती नरेश के गुरु महाराज भी थोड़े गम्भीर हो गए ………….फिर उन्होंने उपाय बताया …..देखो ! एक काम करते हैं …………….महाराज दशरथ ! हमारे साथ भरत और शत्रुघ्न तो हैं ना ?

हाँ हैं तो सही …………..चक्रवर्ती नरेश नें कहा ।

…….लक्ष्मण की शकल मिलती है ………शत्रुघ्न से ……..है ना ?

हाँ …………दशरथ जी नें कहा ।

और राम की शकल मिलती है ….भरत से …..है ना ?

हाँ …..पर आप कहना क्या चाहते हैं गुरु महाराज ?

देखो ! अवधेश ! मै ये कहना चाहता हूँ ………..कि एक घोड़े को सजा धजा कर ले आओ ………सेहरा बाँध दो …भरत के सिर में ……..और भरत को घोड़े में बैठा दो ………..और कोई भी पूछे …..कहाँ है दूल्हा ….तो बस बोलना – यही है ………इशारे में बता दो ये रहा दूल्हा …..।

गुरु वशिष्ठ जी नें ये उपाय बताया ।

गुरु देव की बातें सुनकर हँसते हुए बोले चक्रवर्ती नरेश ……..अरे !
गुरुमहाराज ! ऐसे थोड़े ही होता है …………….

पर शकल तो मिलती है ना ……….भरत और राम की …..दोनों एक जैसे लगते हैं …..है की नही ?

चक्रवर्ती नरेश नें कहा ……आपकी बात सब ठीक है …….चलो राम की जगह भरत को आज बरात में दूल्हा बनाकर ले जायेंगें ………..पर जनकपुर में ?

वशिष्ठ जी नें कहा ………….जनकपुर आनें से पहले ही उतार देंगें भरत को घोड़े से ………….।

महाराज अवधेश नें कहा ………..चलो ….लोगों को बता देंगें ………लोग मान भी लेंगें …….क्यों की राम और भरत एक जैसे लगते हैं …..

क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 9 . 23
🌹🌹🌹🌹

येSप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः |
तेSपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् || २३ ||

ये – जो; अपि – भी; अन्य – दूसरे; देवता – देवताओं के; भक्ताः – भक्तगण; यजन्ते – पूजते हैं; श्रद्धया अन्विताः – श्रद्धापूर्वक; ते – वे; अपि – भी; माम् – मुझको; एव – केवल; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; यजन्ति – पूजा करते हैं; अविधि-पूर्वकम् – त्रुटिपूर्ण ढंग से |

भावार्थ
🌹🌹🌹

हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं |

तात्पर्य
🌹🌹🌹
श्रीकृष्ण का कथन है “जो लोग अन्य देवताओं की पूजा में लगे होते हैं, वे अधिक बुद्धिमान नहीं होते, यद्यपि ऐसी पूजा अप्रत्यक्षतः मेरी पूजा है |” उदाहरणार्थ, जब कोइ मनुष्य वृक्ष की जड़ों में पानी न डालकर उसकी पत्तियों तथा टहनियों में डालता है, तो वह ऐसा इसीलिए करता है क्योंकि उसे पर्याप्त ज्ञान नहीं होता या वह नियमों का ठीक से पालन नहीं करता | इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों की सेवा करने का अर्थ है आमाशय में भोजन की पूर्ति करना | इसी तरह विभिन्न देवता भगवान् की सरकार के विभिन्न अधिकारी तथा निर्देशक हैं | मनुष्य को अधिकारियों या निर्देशकों द्वारा नहीं अपितु सरकार द्वारा निर्मित नियमों का पालन करना होता है | इसी प्रकार हर एक को परमेश्र्वर की ही पूजा करनी होती है | इससे भगवान् के सारे अधिकारी तथा निर्दशक स्वतः प्रसन्न होंगे | अधिकारी तथा निर्देशक तो सरकार के प्रतिनिधि होते हैं, अतः इन्हें घूस देना अवैध है | यहाँ पर इसी को अविधिपूर्वकम् कहा गया है | दूसरे शब्दों में कृष्ण अन्य देवताओं की व्यर्थ पूजा का समर्थन नहीं करते |

] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (21)


🕉🙇‍♀🙏आज मोरे अँगना में आओ गोपाल
चले आओ नंदलाल
दर्शन को प्यासी गुजरिया
श्याम अँगना में आओ
मेरे माँखन को खाओ
झूँठी साँची बतिया सुनाओ
नंदलाल चले आओ गोपाल
दर्शन को प्यासी गुजरिया श्याम🙏🙇‍♀🕉

दीक्षित जी को सुयोग भक्तवत्सल वर न मिलने से निराशा

दूसरे दिन सारंगधर दीक्षित जी को साथ लेकर घर-वर दिखाने चला । उसने अपने मित्र कृष्णराय की रास्ते में खूब प्रसंशा की और उनके दरवाजे पर पहुँचा । कृष्ण राय ने दीक्षित जी का खूब आदर- सत्कार किया ; प्रकारान्तरसे अपने धन और प्रतिष्ठा का भी कुछ जिक्र कर डाला और पुत्र को कपड़े लते से सजाकर सामने बिठा दिया । दीक्षित जी ने पूछा -‘तुम्हारा नाम क्या है ? परंतु वह चुप रहा । दीक्षित जी पुनः वही प्रश्न दूहराया ; लड़के ने कुछ घबड़ाहट के साथ पूछा -‘ क्या पूछ रहे हैं ?

बस , दीक्षित जी ने ताड़ लिया कि लड़का बघिर है । उन्होंने सारंगधर से वहाँ से उठने का संकेत किया । वहाँ से उठकर सारंगधर आगे बढ़ा । उसने कृष्णराय का पुत्र दिखाने की यथार्थता को समझाने की चेष्टा की और फिर दूसरे मित्र अतिसुखराय की और भी बड़ाई की । अतिसुखराय भी दीक्षित जी को आकृष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया । दरवाजे पर बैठे हुए कुछ गाँव के लोगों ने भी उनकी प्रशंसा के पुल बाँध दिया । जब आतिसुखराय का पुत्र गहने -वस्त्र से सजकर सामने आया तो दीक्षित जी ने उससे भी प्रश्न किया-‘ तुम्हारा नाम क्या है ? लड़के ने तुतली आवाज में उत्तर दिया -‘ वि°° वि°°°वि°°धाधर°°°र°°°र°° राय ।’

दीक्षित जी ने फिर आगे कुछ न पूछा सारंगधर को उठने के लिए कहा । इस प्रकार कई दिनों तक घूम -फिर कर अपने हित-मित्र और जाति के प्रायः सैकड़ों लड़कों को सारंगधर ने दिखाया । परंतु दीक्षित जी की दृष्टि में एक भी लड़का नहीं चढ़ा । किसी को बघिर, किसी को तुतला, किसी को मूर्ख, किसी को कुरूप इत्यादि एक -न-एक कारण दिखाकर उन्होंने सबको छाँट दिया । स्वयं दीक्षित जी भी अयोग्य लड़कों को देखते -देखते तंग आ गये । उन्हे सन्देह हो गया कि शायद सारंगधर योग्य वर दिखाने की अपेक्षा अपने सगे -सम्बन्धी और मित्रों के लड़के दिखाने की अधिक चिंता रखता है । अब उनका मन सारंगधर पर विश्वास करने की गवाही नहीं देता था । परंतु मदन मेहता ने जब सारंगधर को अपना मित्र समझकर उसके पास उन्हें भेजा था, तब वह उसके विरूद्ध कैसे चल सकते थे ? अतएव उन्होंने सारंगधर से कहा –मेहता जी ! केवल कुलीन या सुन्दर लड़का मुझे नहीं चाहिए, लड़का गुणवान भी होना चाहिए । आपने बहुत से लड़के दिखाये, परंतु सुयोग्य वर एक भी दिखायी नहीं पड़ा ।

सारंगधर भी इधर दीक्षित जी की चाल से तंग आ गया था । उसने सोचा -यह बड़ा विलक्षण आदमी है । इसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आता । यह अपने को बड़ा चालाक समझता है । अब मैं भी ऐसा घर बताता ( नरसीराम का ) हूँ कि यह भी याद रखेगा । सारंगधर ने मुस्कराते हुए दीक्षित जी से कहा -‘ दीक्षित जी ! आप मेरी जाति के सैकड़ों लड़के देख चुके । अब मैं अपनी जाति के मुखिया का एक लड़का दिखाता हूँ । मुझे आशा है, वह लड़का आपको अवश्य पसंद आ जायगा । बहुत तरह की चीजें दिखाने के बाद अच्छी चीज दिखाने पर ही उसका मूल्य ठीक समझ में आता है ।

क्रमशः ………………!


[ Niru Ashra: “भगवान ऋषभदेव और उनका उपदेश”

भागवत की कहानी – 20


राजा नाभि बड़े प्रतापशाली थे ….और धर्मवेत्ता भी थे । इनका विवाह हुआ मरुदेवी से , तो इनकी एक ही कामना थी । देखो – विवाह को लेकर सबकी अपनी अपनी रुचि होती है …कोई सोचता है कि हमारी शादी हो तो वो प्रेम करने वाली हो …सुन्दर हो …ढंग के कपड़े पहने …आधुनिक हो । कोई सोचता है कि शादी हो तो पत्नी भी भोग में रुचि लेने वाली हो ….तो सुख मिले । कोई कोई सोचते हैं ….नही , बस विवाह हो और भोग के लिए ही विवाह हो बालक चाहें हों या न हों ।
अन्यथा न लेना कलियुग का प्रभाव हमने देखा कुछ लोग तो ऐसे हैं कि जो कह रहे थे कि हम तो शादी करके भोग-सुख लेंगे , बच्चे बच्ची की इच्छा नही है ..हो तो भी गिरा देंगे ..और गिरा रहे हैं । ये भोग प्रधान जीवन शैली हमको कहाँ ले जाएगी ? पतन के सिवाय इसमें है क्या ? विवाह संस्था को सुन्दर और स्वस्थ रखना है तो विवाह के द्वारा सन्तान हों …उन्हें हम लोक हित के लिए शिक्षित करें ….और सृष्टि इस तरह से बढ़ती जाए ….यही था विवाह संस्था का उद्देश्य तो ।

अब यहाँ देखिए – राजा नाभि का विवाह हुआ तो नाभि महाराज ने सन्तान की सोची …और उन्होंने कहा भी कि मैं सन्तान के लिए पहले यज्ञ करूँगा ….अपने को तप-याग द्वारा आध्यात्मिक रूप से परिपक्व बनाऊँगा उससे जो मेरी सन्तान होंगी वो दिव्य होंगी । किन्तु जब यज्ञ करने के लिए नव विवाहित पत्नी के साथ राजा बैठे तो उनका मन इतना सत्वगुण से पूर्ण हो गया कि उन्हें बस भगवान नारायण ही स्मरण आते रहे ….वो शांताकारं …..आहा ! क्या ये कृपा होगी कि मेरे यहाँ स्वयं भगवान नारायण ही अवतार लेकर आवें । इस भावना के जागते ही राजा नाभि का रोम रोम पुलकित हो उठा । अब तो इनके मन में दूसरी कामना आती ही नही थी । ये दिन रात अब इसी चिन्तन में मग्न रहने लगे ….कि मेरे यहाँ , मेरे पुत्र बनकर स्वयं नारायण आयें ।

आज यज्ञ की पूर्णाहुति थी …बड़े भाव से अन्तिम आहुति देते हुए राजा नाभि के नेत्रों से अश्रु बहने लगे थे …उनका हृदय पुकार उठा था….क्या आप मेरे पुत्र नही बन सकते । शुकदेव कहते हैं …तभी सबके देखते ही देखते यज्ञ कुण्ड से साक्षात् भगवान नारायण प्रकट हो गये । नाभि राजा ने जब इस दृश्य को देखा ….इनकी तो वाणी ही अवरुद्ध हो गयी …बस मुस्कुरा रहे हैं और नेत्रों से अश्रु प्रवाह । हाथ जोड़कर नाभि राजा कहते हैं – स्तुति करनी मुझे नही आती । कैसे की जाती है स्तुति ये भी मुझे नही पता …हम तो बस नमस्कार करना ही जानते हैं । इतना कहकर सात्विक भावों से राजा भर गये जिसके कारण उनसे अब बोला नही जा रहा …वो अपलक बस निहार रहे हैं भगवान को । कुछ चाहिए ? भगवान मन्द मुस्कुराते हुए बोले । तो राजा नाभि ने सिर ना में हिला दिया …कुछ नही चाहिए । आपके दर्शन हो गये इससे बड़ी बात और क्या होगी मेरे लिए ….कुछ नही चाहिए । किन्तु राजा नाभि के पुरोहित जानते हैं अपने यजमान के मनोरथ को …इसलिए उन्होंने कहा …..हे प्रभो ! हमारे राजा की इच्छा है कि …आप इनके पुत्र बनकर आयें । राजा नाभि की ओर भगवान ने देखा ..राजा तो बस भगवान के दर्शन पाकर ही मत्त तृप्त हो गए हैं …इनका मन इतना पवित्र हो गया की उस पवित्रता में कामनाएँ सब बह गयीं हैं ।

ठीक है …मैं ही पुत्र बनकर आऊँगा । इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये थे ।


महारानी मेरु देवि का तेज दिनों दिन बढ़ रहा है …उनका मुख राजा नाभि देखते हैं तो कमल के सदृश दिखाई देता है ….इनका गर्भ चन्द्रमा की तरह तेज लिए हुए हो गया है । समय आया तो एक सुन्दर बालक को मेरुदेवि ने जन्म दिया ….बालक अत्यन्त सुन्दर और शान्त था ..इतना ही नही ये बालक चक्र शंख गदा कमल सदृश चिन्हों से युक्त था …इनके देह से कमल की सुगन्ध निकल रही थी । इनको देखकर राजा नाभि बहुत प्रसन्न थे । धीरे धीरे बालक बड़ा होने लगा….एक दिन राजा ने विचार किया कि ये बालक तो सर्वगुण सम्पन्न है …इसके जैसा तेज , ओज, बल आदि समस्त गुण अन्यों में दिखाई देता नही हैं …तो इसका नाम आज से ऋषभ हुआ । हे जगत के समस्त देह धारियों ! इस बालक के समान कोई श्रेष्ठ नही है …इसलिए इसका नाम “ऋषभ” है ।

ये घोषणा राजा ने समस्त भूपतियों के सामने की थी …….

ओह ! तो एक पृथ्वी का सामान्य सा राजा कह रहा है कि उसका युवराज सर्वश्रेष्ठ है ?

देवराज को इस बात पर क्रोध आया और उसने पृथ्वी पर वर्षा न करने की सोची । नही की वर्षा ….”अब राजा नाभि स्वयं देखे कि उसका पुत्र जिसका नाम श्रेष्ठ का पर्याय ऋषभ रखा है वो कितना श्रेष्ठ है” देवराज ने यही सोचकर वर्षा नही की …..एक वर्ष तक वर्षा नही हुई । प्रजा में हाहाकार मच गया …राजा नाभि उदास रहने लगे …उनके समझ में नही आरहा था कि इस अकाल की स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए ।

पिता जी ! क्या हुआ ? आप दुखी क्यों हैं ? बालक ऋषभ ने अपने पिता से आज पूछा ।

पुत्र ! इन्द्र पता नही क्यों रुष्ट हो गये ।

होने दीजिए ! होने दीजिए उन्हें रुष्ट ….वैसे भी उन बड़े लोगों से हमारा क्या काम ! वो भोगजीवी हैं और हम कर्मजीवी । किन्तु पुत्र ! वर्षा नही हुई तो ? राजा नाभि को अपने प्रजा की चिन्ता है ….होगी ! क्यों नही होगी वर्षा । इतना कहकर बालक ऋषभ शान्त होकर वहीं बैठ गये ….कुछ देर बाद ही उन्होंने अपने दाहिने हाथ को ऊपर किया ….फिर बाएँ हाथ को भी ऊपर करके मानों बादलों के जल को नीचे खींचा …..बस ….वर्षा आरम्भ ! पूरी प्रजा आनंदित हो गयी ….पृथ्वी में रस की वृष्टि ही थी ये तो ।


नारायण ! नारायण ! नारायण !

ओए देवराज ! पृथ्वी में वर्षा हो रही है …..देवर्षि नारद आज स्वर्ग में पहुँच गये ।

क्या ! अपने सिंहासन से इन्द्र चार हाथ ऊपर उछला ।

ये कैसे हो सकता है ? मैंने तो वर्षा की नही है ! और मेरे बिना वर्षा हो नही सकती । इन्द्र अहंकार में बोलता रहा तो देवर्षि ने धीरे से कहा …”ऋषभ ने वर्षा की है”। वो काहे का ऋषभ ? इन्द्र फिर चिढ़ा । अरे देवराज ! अहंकार को त्यागो …और देखो …..वो भगवान ऋषभ देव हैं ….भगवान के अवतार हैं । ओह ! इन्द्र अब क्या कहे ….उसने सिंहासन से नीचे उतर कर देवर्षि से तुरन्त पूछा ….अपराध होगया ये तो मुझ से …अब मैं क्या करूँ ? नारद जी कुछ नही बोले ….देवराज बोला …मेरी पुत्री है जयन्ती क्या मैं भगवान ऋषभ को उसे दे दूँ । नारायण नारायण …अब ये तुम देखो …हंसते हुए नारद जी वहाँ से चले गये । इन्द्र ने अपनी पत्नी से बात की …इन्द्र पत्नी शचि बोली …आप जैसा उचित समझें । अब तो पुत्र जयंत और अपनी पुत्री जयन्ती और पत्नी शचि महारानी के साथ देवराज पृथ्वी में उतर कर आए ..और बड़े प्रेम से राजा नाभि को प्रणाम करते हुए बोले – आपकी बहू मेरी बेटी बनेगी आप इसकी स्वीकृति दीजिए । ये सुनते ही महाराज नाभि मुस्कुराए और देवराज को अपने हृदय से लगाते हुए बोले ….आप देव हैं और हम मनुष्य, आप हमारे पूज्य हैं फिर भी आप अपनी पुत्री हमें देना चाहते हैं तो आपकी पुत्री हमें स्वीकार है । इन्द्र ने अपनी पुत्री भगवान ऋषभ को दी और स्वर्ग के लिए ये चले गये थे ।


भगवान ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए …..शुकदेव कहते हैं …राग और विराग का मूर्त स्वरूप । फिर शुकदेव ये भी कहते हैं कि ….भगवान ऋषभ ने जो उपदेश किया आचरण से और वाणी से …हे परीक्षित ! उसकी कोई तुलना नही है । वो गृही लोगों के लिए और विरक्तों के लिए दोनों के लिए अमृत समान है ।

ये अपूर्व राजा थे तो अपूर्व परमहंस । बाहर से कोई देखे तो लगे कि कोई रागी है किन्तु भीतर से ये पूर्ण विरागी थे । राजा नाभि तो इनको राज्य देकर चले गए वन में …इन्होंने राज्य का संचालन किया ………और एक दिन अपने सारे पुत्रों को सामने बिठाकर उपदेश देने लगे ……

हे बालकों ! ये मानव जीवन तुम्हें क्यों मिला है ? ऋषभ देव भगवान पूछते हैं ।

बालकों ने उत्तर दिया खाने पीने के लिए ……तब बड़े स्नेह से ऋषभदेव भगवान कहते हैं …नही , ये जीवन मिला है मुक्त होने के लिए ….सच्चा आनन्द मुक्त होने में है ….हे पुत्रों ! हम बंधन में हैं …नाना प्रकार के बंधन हैं ….मन बंधन की डोर को और मज़बूत किए जा रहा है । इसलिए स्वतन्त्र अपने आत्मरूप में रहना इससे बड़ा सुख और कुछ नही है …इसी सुख को पाने के लिए हमें ये जीवन मिला है । भगवान ऋषभ देव कहते हैं ।

प्रेम करना मन का स्वभाव है …सहज स्वभाव है ….इसलिए प्रेम भी करो तो उनसे जो तुम्हें मुक्त रखे …बाँधे नही । ये प्रेम तुम सन्तों से करो , गुरु से करो और तो और भगवान वासुदेव से करो …उससे क्या होगा मन को प्रेम भी मिल गया और गुरु ,सन्त , भगवान से प्रेम होने की वजह से बन्धन भी नही हुआ …..भगवान ऋषभ देव कहते हैं …..संग में ध्यान में दो …तुम्हारा संग जैसा होगा तुम वैसे ही बनोगे । सन्तों का संग करो । और उन सब को त्याग दो जो तुम्हारे लिए बन्धन का कारण हैं …जो तुम्हारे लिए मुक्ति के द्वार खोलते नही । कब तक बंधे रहोगे ? कितने जन्म हो गये …अब तो बन्धन तोड़ो । भगवान ऋषभदेव कहते – देवता अगर तुम्हें बाँधते हैं तो उस देवता को त्याग दो ..तुम्हें पाप नही लगेगा , तुम्हारे भाई , तुम्हारी माता जी , तुम्हारे पिता जी , तुम्हारी बहन , तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे गुरु भी अगर तुम्हें बाँधते हैं ….यानि इस सृष्टि चक्र से बाहर आने का उपाय न बताकर मात्र अपनी पूजा करवाते हैं …तो हे पुत्रों ! तुम उन सबका त्याग कर दो ….वो चाहे गुरु भी क्यों न हों ।

आहा ! ये कहते हुये ऋषभ देव भगवान उठ गये …अपने बड़े पुत्र भरत को राज्यसत्ता सौंप कर परमहंस की वृत्ति से पृथ्वी में चारों ओर निर्द्वंद्व भ्रमण करने लगे ……इनको कोई पागल समझता था तो कोई परमहंस …पागल समझ कर कोई इन्हें पत्थर मारता तो कोई परमहंस समझकर इनकी आरती पूजा करता …लेकिन इन्हें मतलब नही था ..इनके प्रति कोई कुछ भी कहे , करे …..

ये नहाते नही थे , किन्तु इनके देह से सुगन्ध निकलती थी …..इनके आगे कोई भी आता तो ये उनको देखकर हंसने लग जाते ..या कोई प्रणाम करता तो मिट्टी मुख में रख लेते …..ये भगवान थे ….ये भगवान हैं ….इन्होंने विधि निषेध से परे जाकर ज्ञान का दीप जलाया ।

ये कहते हुए शुकदेव जी भगवान ऋषभदेव के चरणों में प्रणाम करते हैं ।

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