Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣7️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#मंगलसगुनसुगमसबताके ……
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
गुरु वशिष्ठ जी नें ये उपाय बताया ।
गुरु देव की बातें सुनकर हँसते हुए बोले चक्रवर्ती नरेश ……..अरे !
गुरुमहाराज ! ऐसे थोड़े ही होता है …………….
पर शकल तो मिलती है ना ……….भरत और राम की …..दोनों एक जैसे लगते हैं …..है की नही ?
चक्रवर्ती नरेश नें कहा ……आपकी बात सब ठीक है …….चलो राम की जगह भरत को आज बरात में दूल्हा बनाकर ले जायेंगें ………..पर जनकपुर में ?
वशिष्ठ जी नें कहा ………….जनकपुर आनें से पहले ही उतार देंगें भरत को घोड़े से ………….।
महाराज अवधेश नें कहा ………..चलो ….लोगों को बता देंगें ………लोग मान भी लेंगें …….क्यों की राम और भरत एक जैसे लगते हैं …..
पर भरत मन में क्या सोचेगा ? अवधेश नें गुरु महाराज से ये बात कहि ।
गुरु वशिष्ठ जी नें कहा …………..भरत क्या सोचेगा ?
नही….विचार कीजिये गुरु महाराज …..विवाह तो राम का होगा ना !
वशिष्ठ जी नें उस समय गम्भीर होकर एक बात कही ………….
नही राजन् ! विवाह मात्र राम का नही हो रहा ……….विवाह तुम्हारे चारों पुत्रों का हो रहा है …………..।
क्या ? दूत की बात सुनकर जनक जी चौंके ।
क्या ? गुरु वशिष्ठ जी की बात सुनकर अवधेश चौंके ।
क्या ? पद्मा सखी की बात सुनकर मै चौंकी ।
सिर झुकाकर खड़ा था वो दूत हमारे महाराज के सामनें ……..
पद्मा नें कहा ………….महराज कुछ समझ नही पा रहे थे ……
तभी सुनयना माँ आगयीं थीं ………………..और सारी बात समझ दी थी सुनयना माँ नें …………
सुनयना माता नें कहा था………..महाराज ! ईश्वर की विशेष कृपा
हम जनकपुर वासियों पर बरस रही है ………
आप सोच में क्यों पड़ गए ……..महाराज ! हमारे यहाँ भी तो सिया के अलावा …….माण्डवी , श्रुतकीर्ति, उर्मिला हैं तो सही …….।
बस इतना क्या सुना हमारे विदेहराज नें …….. उस विशेष दूत को अपनें गले का हार उतार कर दे दिया ………..
आनन्दित हो उठे थे हमारे महाराज …….सिया जू !
पद्मा नें मुझे ये सब बातें बतायीं ।
मै प्रसन्नता से भर गयी ………..मै बहुत खुश हो गयी थी ।
मैने सबसे पहले पद्मा को अपनें हृदय से लगाया ……….
फिर मेरे नयनों से आँसू गिरनें लगे थे…………
पद्मा ! मै सोच रही थी …………कि मै ही जाऊँगी अकेली अवध ?
जाना तो अकेले ही पड़ता है ना …अपनें ससुराल ……
पर ये तो कितना अच्छा हुआ ना …………मेरी बहनें भी मेरे साथ जायेंगी ………….
क्या अच्छा हुआ जीजी ! जरा हमें भी तो सुनाओ !
मेरी सबसे लाड़ली बहन उर्मिला उछलती हुयी आगयी थी ।
अब तेरी चिन्ता भी खतम हो गयी उर्मिला !
मेरी सखी पद्मा उर्मिला से बोली ।
मेरी क्या चिन्ता ?
अब तू भी खुश हो जा ………………….
क्या हुआ पर ? बड़ी मासूमियत से बोली थी उर्मिला ।
लक्ष्मण से अब तेरा विवाह होगा ……………….
जीजी ! देखो ना ……….ये सब मुझे छेड़ती रहती हैं ।
तब मैने उर्मिला को अपनें अंक से लगाया था ………और उससे बोली थी मै …..हाँ ……उर्मिला ! हम चारों बहनें एक साथ विदा होंगीं …..।
शरमा कर भाग गयी थी उर्मिला ।
मै बहुत खुश हूँ आज पद्मा ……………..
हम चारों बहनें विदा होंगी ………….हम चारों साथ रहेंगी ।
पद्मा ! ए पद्मा ! क्या हुआ ? बोल ना !
पद्मा रो उठी थी …………..और मेरे हृदय से लग गयी थी ।
सिया जू ! आपके जानें के बाद इस जनकपुर का क्या होगा ?
हमारा क्या होगा ?
मैने पद्मा को देखा …..वो अभी से विदाई के बारे में सोचनें लगी थी ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “ऋषि कर्दम का गृहस्थ आश्रम”
भागवत की कहानी – 21
भागवत महापुराण में आदर्श गृहस्थ तो ऋषि कर्दम का ही दिखाई देता है । जब विरक्ति में थे ये ऋषि , तो पूर्ण विरक्त और जब गृहस्थ आश्रम को स्वीकार किया तब पूर्ण गृही बनकर नौ कन्याओं का जन्म , और एक पुत्र इनके द्वारा प्रकट थे । और हाँ , कन्याएँ भी ऐसी वैसी नही ….अनुसुइया जैसी महान पतिव्रता , अरुंधती जैसी महान पति निष्ठ । इसके बाद पुत्र ! अब पुत्र भी कैसे ? साक्षात् भगवान जिनके पुत्र बनकर आए …भगवान कपिल नारायण ।
सांख्य शास्त्र के प्रवर्तक …भगवान कपिल । आधुनिक इतिहासकार भी एक कपिल को लाकर खड़ा कर देते हैं …जिनका सांख्य दर्शन नास्तिकवाद है । ईश्वर सत्ता को सांख्य दर्शन नही मानता । किन्तु भागवत के जो कपिल भगवान हैं …ये अलग हैं । अब इसका समाधान भी बिना कल्पभेद को समझे सम्भव नही है । या तो आप भी आर्य समाजियों की तरह पुराणों को झूठ बताकर अपने ज्ञान के अहंकार में मग्न रहो । लेकिन साधकों ! एक बात तो मैं बड़ी विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ ….सनातन धर्म में वेद उपनिषद गीता ब्रह्मसूत्र के अलावा भी बहुत कुछ था , है । किन्तु हमने इनको अपने पास रखा बाकी की घोर उपेक्षा की …ये बहुत गलत हुआ है ….इसका कारण ये था कि पश्चिम की जो छुछी नैतिक संस्कृति हम पर हावी हुई और उसी चश्मे से हमने जब देखना शुरू किया ….तब हमें पुराण अनैतिक लगने लगे ….और हमने पुराणों की कहानियों को कपोल कल्पना समझना आरम्भ किया । पुराण मात्र अठारह हैं किन्तु उपपुराण भी हैं ….संहिता भी हैं …और उपसंहिता भी हैं ….अनेक स्मृतियाँ हैं ….नीति शास्त्र हैं …..और तन्त्र के शास्त्र हमारे पास अनगिनत थे …अब कहाँ हैं ? “यवनों ने जला दिए”…..आप ये कह सकते हो ….पर याद रहे जब तक हमारे द्वारा उपेक्षा नही होगी तब तक हमारी वस्तु कोई जला नही सकता । सुरक्षा हमने नही की । कहाँ गए हमारे तन्त्र शास्त्र ? तन्त्र को बदनाम किया गया ….अघोर का नाम लेकर ….आज भी तन्त्र कहते ही ….कापालिक तान्त्रिक ही हमारे मन बुद्धि में छा जाता है । किन्तु ऐसा तो नही है …श्रीगोपाल सहस्त्रनाम जो श्रीकृष्ण भक्तों का जीवन धन है …ये तन्त्र का है …..गोपाल मन्त्र, तन्त्र है ….कहाँ गये और तन्त्र के शास्त्र ? जलाया है यवनों ने किन्तु उससे पहले हमने उपेक्षा द्वारा जलाया …आज भी आर्य समाज जैसी संस्था जला रही है । वेद , गीता , उपनिषद …बस ? अरे भैयाओं ! ये सनातन धर्म है …ये अन्य मज़हब की तरह नही है …कि बस…यही । इतना ही । बाकी नही ।
यहाँ तो धर्मशास्त्र भी हैं , अर्थशास्त्र भी हैं , कामशास्त्र भी हैं , और मोक्षशास्त्र के साथ साथ भक्ति शास्त्र भी हैं । हमारे यहाँ अध्यात्म का मतलब मात्र वेद , गीता , उपनिषद और ब्रह्मसूत्र ही मात्र नही है………आपको पता है पुराणों को हमारे यहाँ पंचम वेद कहा गया है ?
ब्रह्मा के पुत्र ऋषि कर्दम । इनका जब जन्म हुआ तभी ब्रह्मा ने इनको कहा था …वत्स ! विवाह करो । सृष्टि को आगे बढ़ाओ । ऋषि कर्दम ने कहा – नही पिता जी ! मैं तप करूँगा , शक्ति अर्जित करूँगा ….बिना शक्ति के गृहस्थ आश्रम में जाने से कोई लाभ नही है …शक्ति हीन मनुष्यों की सन्तानें भी निर्बल ही होती हैं ….फिर ऐसी निर्बल सन्तान से सृष्टि को क्या लाभ ? बात तो सही है ….शक्तिमान पुत्र हो ..चरित्रवान कन्या हो ….पत्नी प्रसन्न हो ….ये सब तब होगा जब स्वयं में ओज , तेज और बल-पराक्रम होगा । ब्रह्मा मुस्कुराए और तप करने की ही उन्होंने आज्ञा दी । ऋषि कर्दम ने घोर तप किया …..तप पहले सकाम था …किन्तु धीरे धीरे तप निष्काम हो गया …मन से सारी कामनाएँ समाप्त हो गयीं …शुद्ध सत्व ऋषि कर्दम के जीवन में छा गया …वो अब पूर्ण शान्त हैं ….भगवान की आराधना के प्रभाव से उनमें भक्ति आगयी है ।
आहा ! मैं तो भगवान की भक्ति में ही लीन रहूँगा …मुझे नही करना अब विवाह । ऋषि के मन में अब विवाह की बात नही आती । उन्हें अब विवाह करनी नही है ।
तभी – साक्षात् नारायण भगवान चतुर्भुज रूप धारण करके ऋषि के सामने प्रकट हो गये ।
ऋषि कर्दम के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ….वो बारम्बार भगवान का दर्शन करके गदगद हो रहे थे । उनको सात्विक आवेश आ रहा था । कुछ देर तक तो वो बोल भी न सके ।
हे ऋषि ! आप विवाह कीजिए ….मन्द मुस्कुराते हुए भगवान बोले ।
ऋषि ने कहा ….हे भगवन् ! विवाह की अब कोई इच्छा नही है ।
किन्तु ….आप विवाह कीजिए …इस बार आदेश दिया था भगवान ने ।
तो फिर मेरी भी एक शर्त है ….भक्त अपनी पे आगया था ….भगवान के प्रति अपनत्व पूर्ण हृदय में जागृत हो गया इसलिए ऋषि ऐसा बोले ।
कहिये ! भगवान ने भी सहजता के साथ कहा ।
अगर आप ही हमारे पुत्र बनकर आयें तो मैं विवाह करूँगा , अन्यथा नही ।
ऋषि की बात सुनकर भगवान हंसे ….फिर बोले – ऋषि ! आप तो बड़े चतुर निकले …..विवाह भी कर रहे हो और मुझे भी नही छोड़ रहे …अपना ही पुत्र बनाओगे ? भगवान के मुखारविंद से ये सुनकर ऋषि साष्टांग भगवान के चरणों में लेट गये थे ….वो कुछ नही बोले ….बस अपने नेत्रों के जल से भगवान के चरणों को धो दिया था ।
आज – चक्रवर्ती सम्राट मनु अपनी धर्मपत्नी शतरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर ऋषि कर्दम की कुटिया में आये ।
रथ सामने से आया जिसमें ये तीनों थे …..ऋषि कर्दम ने दूर से देखा ।
जैसे ही मनु ने रथ से उतरकर ऋषि के आश्रम में प्रवेश किया …सामने ऋषि स्वयं खड़े ….आप अतिथि हैं आप का स्वागत है ….ऋषि ने प्रणाम भी किया ।
आसन ग्रहण करने के बाद ……मनु ने अपनी पुत्री देवहूति को दिखाया ।
सुन्दरता की प्रतिमूर्ति थीं देवहुति । इनकी सुन्दरता पर मनुष्य की कौन कहे गन्धर्व तक मुग्ध थे ।
शुकदेव यहाँ एक बात कहते हैं …………..
विश्वावसु ये गन्धर्वों का राजा है …गन्धर्व सबसे सुंदर “देव प्रजाति है”…ये बहुत सुंदर होते हैं ।
आज विश्वावसु विमान में बैठकर कहीं जा रहा था …..वो अपनी मस्ती में था । तभी उसकी दृष्टि गयी एक महल में ….महल तो इसके गन्धर्व लोक में भी बहुत हैं , इससे सुन्दर सुन्दर हैं …ये तो पृथ्वी का एक सामान्य सा महल है । किन्तु – इस महल में एक झरोखा था ….उस झरोखे में कोई अत्यन्त सुन्दरी अपने घने लम्बे सुनहरे बालों को बना रही थीं …..गौर मुख उस सुन्दरी का …उसमें भी अत्यन्त मोहित करने वाला सौन्दर्य । ये विश्वावसु सौन्दर्य के क्षेत्र का अधिपति हैं …ये पारखी है ….और स्वयं सुन्दर है ….किन्तु आज इस सुन्दरी के सौन्दर्य ने इसे मोहित कर लिया था ….ये विमान चला रहा था चलाते जब ध्यान इस सुन्दरी पर गया तो विमान चलाना ही भूल गया ….परिणाम ये हुआ कि उल्टा होकर ये नीचे गिरा …तब ये सुन्दरी हंसी थीं …..हंसी ने इस गन्धर्वराज को मूर्छित ही कर दिया । हे परीक्षित ! वो सुन्दरी ये देवहुति ही थीं । शुकदेव ने कहा ।
देवहूति की ओर देखकर महाराज मनु ने कहा ….पुत्री ! ये महर्षि कर्दम हैं । क्या इनके साथ तुम विवाह करोगी ? शुकदेव कहते हैं ….ऋषि से नही पहले अपनी पुत्री से पूछा राजा मनु ने । शरमा गयीं देवहूति । उन्होंने नज़र झुका ली । राजा मनु समझ गए की ऋषि ने मेरी पुत्री का हृदय चुरा लिया है । परीक्षित ! कितने सुन्दर होंगे ऋषि कर्दम ! विचार करो ।
चक्रवर्ती सम्राट की पुत्री एक ऋषि को दी गयी , और पुत्री की प्रसन्नता में । मनु और शतरूपा कन्यादान करके चले गये । देवहूति यहाँ ऋषि के साथ हैं ।
एक कुटी है …..वहीं रहते हैं ऋषि । देवहूति जातीं हैं ….उस कुटिया की सफ़ाई करती हैं …जाले हटाती हैं …..गोबर से लिपती हैं …..वस्त्रों को धोकर सुखाती हैं …..और कन्दमूल फल को सामने रख देती हैं ।
अरे वाह ! देवि ! तुमने तो सब कुछ बदल दिया …..इतना ही कहा ऋषि ने …और फिर ध्यान में बैठ गये ……देवहूति अपने पति की सेवा में जुट गयीं हैं…….समय पर साफ़ सफ़ाई , जल पान आदि के लिए फल । पूजा आदि के लिए फूल दल । इस तरह कई वर्ष बीत गये ।
आज ऋषि बड़े प्रसन्न हैं ….वो देवहूति की सेवा से प्रसन्न हैं …….
हे देवि ! कुछ माँगों ! जो इच्छा हो वो माँगों । मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ ।
कुछ नही बोलीं …बस बैठी रहीं देवहूति ।
मैं पति हूँ पति से कैसा संकोच ! माँगों , जो चाहिए माँगों । ऋषि ने फिर कहा ।
इस बार देवहूति थोड़ा शरमा कर बोलीं …..”संतति की कामना है मेरी”।
ये सुनते ही देवहूति को ऋषि ने आनंदित होकर अपने हृदय से लगा लिया था…..देवहूति बड़ी शरमाईं , उनके मन में आनन्द की हिलोरें चल रहीं थीं …देवहूति को रोमांच हो रहा था ।
ऋषि ने कहा – देवि ! क्या तुम्हें पता है तुम्हारे गर्भ से भगवान अवतरित होने वाले हैं !
क्या ! परमानन्द में डूबी देवहूति के लिए इससे बड़ी बात और क्या होगी ।
ये सच है …तुम्हारे गर्भ से भगवान प्रकट होंगे ….मुझे स्वयं भगवान ने ये कहा है ….इसलिए …ये कहते हुए ऋषि ने देवहूति के चिबुक को पकड़ा और अपनी ओर किया ….देवहूति अपना मुख मुस्कुराते हुए फिर झुका लेती हैं । किन्तु अभी नही । ऋषि हट गये , दूर चले गये । देवहूति सोचने लगीं ये कहाँ गये ? तभी सामने एक सरोवर था उस सरोवर में मन्त्र पढ़ा ऋषि ने और देवहूति को अपने पास बुलाया ….देवहूति आयीं ….फिर दोनों ने उस सरोवर में प्रवेश किया ….जब बाहर निकले तब ये दोनों विश्व के सबसे सुन्दर दम्पति लग रहे थे । सामने से हजारो सुंदरियाँ आरहीं हैं, इन सबने देवहूति को पकड़ा और बड़े आदर के साथ श्रृंगार करने लगीं ।
सोलह शृंगार में सजी देवहूति रूप अलग ही निखर रहा था । वहीं कामदेव से कम नही लग रहे थे ऋषि । देखते ही देखते …वहाँ एक विमान आगया …इस विमान का नाम था – कामग विमान । ऋषि कर्दम ने देवहूति का हाथ पकड़ा और विमान में ले गये …उस विमान में भी कई सुंदरियाँ थीं जिनके हाथों में सुगन्धित पेय आदि पदार्थ थे ..विमान में एक सुगन्ध फैल रही थी जो मादक थी । कामना के अनुसार चलने वाला ये विमान जिसे ऋषि ने अपने तप बल से प्रकट किया था । इस तरह ऋषि कर्दम और देवहूति कई वर्षों तक विमान में विहार करते हैं ….इनकी नौ कन्यायें हुईं । और अब नौं कन्याओं के बाद भगवान कपिल नारायण का अवतार देवहूति के कुक्षि से हुआ था । पुत्र कपिल के प्राकट्य होते ही ऋषि कर्दम ने अपनी पत्नी से कहा …देवि ! ये हमारे पुत्र हैं …भगवान ही हमारे पुत्र बनकर आए हैं ……अब ये तुम्हें सम्भालेंगे ……हे पुत्र कपिल ! आपके प्रति मेरे मन में वात्सल्य ही उमड़ रहा है …इसलिए मेरा आशीर्वाद है तुम्हें …अपनी माता को तत्वज्ञान देना …जिससे इनका मोह भंग हो …मैं तो जा रहा हूँ । इतना कहकर ऋषि कर्दम वहाँ से चले गए थे वन के लिए …और वन में जाकर वो भजन में लीन हो गये । इधर देवहूति ने समस्त भोग सामग्री का परित्याग कर दिया , और अपना त्यागमय जीवन बिताने लगीं थीं
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 24
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अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च |
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते || २४ ||
अहम् – मैं; हि – निश्चित रूप से; सर्व – समस्त; यज्ञानाम् – यज्ञों का; भोक्ता – भोग करने वाला; च – तथा; प्रभुः – स्वामी; एव – भी; च – तथा; न – नहीं; तु – लेकिन; माम् – मुझको; अभिजानन्ति – जानते हैं; तत्त्वेन – वास्तव में; अतः – अतएव; च्यवन्ति – नीचे गिरते हैं; ते – वे |
भावार्थ
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मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ | अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं |
तात्पर्य
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यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि वैदिक साहित्य में अनेक प्रकार के यज्ञ-अनुष्ठानों का आदेश है, किन्तु वस्तुतः वे सब भगवान् को ही प्रसन्न करने के निमित्त हैं | यज्ञ का अर्थ है विष्णु | भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में यह स्पष्ट कथन है कि मनुष्य को चाहिए कि यज्ञ या विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ही कर्म करे | मानवीय सभ्यता का समग्ररूप वर्णाश्रम धर्म है और यह विशेष रूप से विष्णु को प्रसन्न करने के लिए है | इसीलिए इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं, “मैं समस्त यज्ञों का भोक्ता हूँ, क्योंकि मैं परम प्रभु हूँ |” किन्तु अल्पज्ञ इस तथ्य से अवगत न होने के कारण क्षणिक लाभ के लिए देवताओं को पूजते हैं | अतः वे इस संसार में आ गिरते हैं और उन्हें जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता | यदि किसी को अपनी भौतिक इच्छा पूर्ति करनी हो तो अच्छा यही होगा कि वह इसके लिए परमेश्र्वर से प्रार्थना करे (यद्यपि यह शुद्धभक्ति नहीं है) और इस प्रकार उसे वांछित फल प्राप्त हो सकेगा |
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Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (22)
दीक्षितजी को नरसीजी का घर बार कुलीन लगा
लड़के को देखने की जिग्यासा
दीक्षित जी ने कहा –अच्छा , अन्त में दिखाइये, पर दिखाइये सुयोग्य वर,अब अधिक तरह की चीजें देखने की मेरी इच्छा नहीं है । अब तो काम खत्म करके मैं शीघ्र वापस होना चाहता हूँ ।’
सारंगधर ने मन में मजाक का भाव लेकर दूर से ही इशारा करते हुए कहा -‘वह देखिये स्वर्ण-कलशवाला जो मन्दिर दिखाई देता है, वह नरसिंह राम जी मेहता का घर है । वे बड़े ही कुलीन और भगवद्भक्त गृहस्थ है । उनका व्यवहार बड़ा सच्चा है और उन्होंने धन भी खूब एकत्र कर रखा है । उनका पुत्र भी हर तरह से योग्य है । वहाँ आपको पूर्ण सन्तोष होगा । वहाँ मेरे जाना कोई विशेष आवश्यक नहीं ।’ आप स्वयं ही चले जाये ।
‘अच्छा महाराज ! नमस्कार मैं अभी वहाँ जाता हूँ । यदि सब प्रकार से सन्तोष हो जायगा तो मैं अवश्य सम्बन्ध कर लूँगा और नहीं तो किसी दूसरे स्थान के लिये रवाना हो जाऊँगा । बस,आज्ञा दीजिये। इस तरह कहते हुए दीक्षित जी ने विदा माँगी ।
‘अच्छा महाराज ! नमस्कार ।’ कहकर सारंगधर ने भी मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर विदा किया ।
दीक्षित जी तुरंत नरसिंह राम के घर पहुँचे । उस दिन कोई व्रत -उत्सव था । भक्त राज हरि-कीर्तन में संलग्न थे । उनकी एकाग्रता और तन्मयता देखकर दीक्षित जी दंग रह गये । उन्होंने मन में विचार किया, ‘भगवान की लीला भी विचित्र है । सारे जूनागढ में केवल यही एक घर ऐसा मिला है जहाँ आते ही चित को शान्ति प्राप्त हुई है । यह घर जैसा पवित्र है वैसा ही यदि वर भी मिल जाय तो मदन मेहता की पुत्री का भाग्य ही खुल जाय ।
दीक्षित जी को यथोचित सत्कार करके बैठा दिया गया । मध्याहन-समय हरिकीर्तन समाप्त हुआ । दीक्षित जी ने भक्त राज के पास आकर अभिवादन किया । भक्त राज ने उन्हें भगवान का प्रसाद देकर प्रश्न किया -आपका शुभ निवास कहाँ है ?
भक्त राज ! मैं बड़नगर के दीवान मदन राय जी की पुत्री का सम्बन्ध करने के लिए यहाँ कुछ दिनों से आया हुआ हूँ । सौभाग्य से आज आपके दर्शन करने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ है । सुना है, आपके भी एक विवाह योग्य पुत्र है । कृपया उसे मुझे दिखाईये ।’ दीक्षित जी नम्रता पूर्वक कहा ।
महोदय ! इस शहर में सात सौ नागर गृहस्थ के घर है और प्रायः सभी धनाढ्य और कुलीन है । आप तो जानते ही है कि –
यस्यास्ति वितं स नरः कुलीन :
स पण्डितः स श्रुतिमान गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयनते।।
भावार्थ :- जिसके पास धन है वहीं मनुष्य कुलीन है, वहीं पण्डित है, वहीं वेदविद है, वहीं गुणवान है, वहीं वक्ता है और वहीं दर्शनीय है । सब गुण एक कंचन का ही आश्रय करके रहते हैं ।
इस नीति के अनुसार न तो मैं कुलीन हूँ, न गुणवान और न पण्डित ही । मैं तो केवल राधेश्याम का नाम मात्र जानता हूँ । नरसिंह राम ने साफ-साफ अपनी सच्ची परिस्थिति का वर्णन कर दिया ।
क्वाहं दरिद्र: पापीयान् क्व कृष्ण: श्रीनिकेतन:।
ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भित:।।[श्रीमद्भा.10/81/16]
सुदामा भगवान की दयालुता और असीम कृपा का वर्णन करते हुए कह रहे हैं- ‘भगवान की दयालुता तो देखिये-कहाँ तो मैं सदा पापकर्मों में रत रहने वाला दरिद्र ब्राह्मण और कहाँ सम्पूर्ण ऐश्वर्य के मूलभूत निखिल पुण्याश्रय श्रीकृष्ण भगवान! तो भी उन्होंने केवल ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए मुझ जातिमात्र के ब्राह्मण को अपनी बाहुओं से आलिंगन किया। इसमें मेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कृपालु कृष्ण की अहैतु की कृपा ही इसका एकमात्र कारण है।’
क्रमशः ………………!


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