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September 13, 2025 9:57 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(18-2),भक्त नरसी मेहता चरित (24),“भवाटवी – संसार का जंगल” & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(18-2),भक्त नरसी मेहता चरित (24),“भवाटवी – संसार का जंगल” & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (24)


तुम बिन हमरी कौन ख़बर ले
गोवर्धन गिरधारी ,गोवर्धन गिरधारी

भक्त मीरा की विपदा में , बस काम तुम्हीं तो आये थे ,
शंकर जी की मुश्किल में , तुम दल बादल सज धाये थे ,
मेरी भी तो आकर सुन लो , ओ जग के रखवारे
गोवर्धन गिरधारी , गोवर्धन गिरधारी

उलझ गये थे तुम्ही जाकर, दुर्योधन के पासों से,
द्रौपदी की लाज बचाई ,लम्पट कामी हाथों से,
मुझ पर भी किरपा हो जाये , अब है मोरी बारी
गोवर्धन गिरधारी , गोवर्धन गिरधारी

जूनागढ़ के नागर ब्राह्मणों का नरसीराम के पुत्र विवाह से द्वेष

जूनागढ के नगरों में यह बात वायु वेग से फैल गयी कि बड़नगर मदन राय की पुत्री के साथ नरसिंह राम के पुत्र का सम्बनध हो गया । इस बात को सुनकर नरसिंह राम से द्वेष रखने वाले कितने ही नागर ब्राह्मणों को मानों जूड़ी आ गयी । कहते हैं, दुष्ट लोग अपनी नाक कटाकर भी दूसरे का सगुन बिगाड़ते है ।

जूनागढ के भी कुछ ब्राह्मणों ने इसी नीति के अनुसार ‘नरसिंह राम के पुत्र के विवाह में विघ्न उपस्थित करने की ठानी ।’ उन्होंने सारंगधर को अपना अगुआ बनाया और एक पत्र मदन मेहता के नाम लिखकर ब्राह्मण के हाथ बड़नगर भेज दिया ।

दीक्षित जी के बड़नगर लौटने के बाद से मदन मेहता ने विवाह की तैयारी शुरू कर दीं थीं । मकान की सजावट हो रही थी ; बारात ठहरने के लिए स्थान बनाया जा रहा था ; बारात के लिए भोजनादि का प्रबंध किया जा रहा था; बाजे-गाजे के सट्टे लिखे जा रहे थे ; राज्य के बड़े -बड़े श्रीमन्तों ,नगर के रईसों तथा सगे सम्बन्धियों को निमंत्रण दिया जा रहा था । इकलौती पुत्री का विवाह खूब सज-धज के साथ करने के विचार से सारा प्रबंध बड़ी सतर्कता के साथ हो रहा था । इसी बीच जूनागढ का ब्राह्मण बड़नगर पहुँचाऔर उसने मदन मेहता को ले जाकर पत्र दे दिया । पत्र में लिखा था —

श्रीयुत मदनरायजी !

आपकी इकलौती पुत्री का सम्बनध जोड़ने के लिये आपके पुरोहित दीक्षित जी जूनागढ आये थे । आपको मालूम होगा कि जूनागढ में हमारे सात सौ घर है ; परंतु उन्होंने किसी योग्य घर में सम्बनध न करके अत्यंत निर्धन और जातिच्युत नरसिंह राम के पुत्र के साथ सम्बनध जोड़ दिया है । हम आपको नम्रता पूर्वक सूचित करते हैं कि घर बिल्कुल आपके योग्य नहीं । घर-घर भीख माँगने वाला तथा जोगी -वैरागियों का संग करने वाला मनुष्य भला बड़नगर के दीवान का कैसे सम्बन्धी हो सकता है । अतः आप उस सम्बनध को तोड़ कर किसी सुयोग्य वर की खोज करें, जिसमें आपकी मर्यादा को बट्टा न लगे । विज्ञेषु किं बहूना ।

आपका—-

सारंगधर

जूनागढ के जितिमण्डल की ओर से ।

क्रमशः ………………!


] Niru Ashra: “भवाटवी – संसार का जंगल”

भागवत की कहानी – 23


“पुत्र मत जाओ, अपने देश को छोड़कर परदेश मत जाओ”।
उन वृद्ध पिता के नयनों में अश्रु थे …माता ने ही पिता को कहा था …मेरी बात नही मानेगा , अब तुम ही कहो । पिता ने पुत्र की हर बात मानी थी …किन्तु वो ये आज नही मान रहा कि …उसका पुत्र उससे दूर जाये । मत जा ! यहीं रह न , क्यों जाना परदेश ? होगा क्या ? बेटा ! आनन्द है ना यहीं …जीवन में आनन्द ही तो चाहिए ….फिर क्यों ?

पिता जी ! मुझे मत रोकिये जाने दीजिए…मैं आऊँगा , धन कमाकर आऊँगा …पुत्र ने भी कहा । बड़ा हो गया है पुत्र , इससे ज़्यादा माता पिता कह ही क्या सकते हैं ! आखिर बेटा चला गया ।

चलते चलते आगे एक भयानक जंगल आया …..उसने सोचा नही था कि ये जंगल इतना भयानक होगा …सामान्य जंगल मान कर ये प्रवेश कर गया था किन्तु ये जंगल तो । जंगल के भीतर एक नगर था ….गन्धर्व नगर । बड़ा सुन्दर था ये नगर । ये उस नगर में चला गया …..उस नगर में एक हितैषी मित्र इसे मिली ….जान पड़ती थी हितैषी है ….इसलिए तो मोहित होकर उसके साथ रहना इसने स्वीकार किया था । ये रहने लगा । किन्तु कुछ ही दिनों में ये समझ गया कि इस नगर के हर लोग स्वार्थी हैं …..अपने स्वार्थ को ही प्रधानता देते हैं ….इसने जिसके साथ मित्रता की थी उसकी मधुरता अब जाती रही और कटुता ने स्थान ले लिया । ये चारों ओर देखता था इसे कोई अपना नही लगता ….फिर भी इसके भीतर मोह बढ़ता गया जिसके कारण ये चाहने के बाद भी किसी को छोड़ नही पा रहा था । “कुछ कमाओ, पड़े रहते हो” वही कटु वचन आज फिर कान में पड़े ….ये क्या करता , इसने अपना झोला उठाया और चल दिया …..ये चाहता तो यहीं से वापस अपने पिता के घर जा सकता था किन्तु अब ये इतना सरल नही था …क्यों की बंधन बाहरी नही आंतरिक था ….मोह का बंधन । ये उस भयानक जंगल से चला जा रहा था ….कहाँ जाना है इसे पता नही …बस इतना पता है कि – धन कमाना है । ये जा रहा था कि तभी सामने एक सिंह बैठा हुआ इसने देख लिया …डर गया तो ये भागा …नही भागता तो शायद शेर भी बैठा रहता ….किन्तु ये भागा …इसको भागते देख शेर ने भी पीछा किया । ये पूरी ताकत से भाग रहा था लेकिन शेर भी पीछा क्यों छोड़े ? इसने भागते भागते कूदकर एक वृक्ष की डाली पकड़ ली ….अब इसने सोचा बस , अब बच गया ….शेर भी शेर है वो भी वहीं बैठ गया ….तू कभी तो डाली छोड़ेगा …जब छोड़ेगा तभी मैं तुझे खाऊँगा । ये भी पक्का था …इसने सोचा …मैं डाली छोड़ूँगा ही नही । तभी इसने देखा कि मेरे नीचे तो कुआँ है …कुआँ में गिरूँगा ।
कोई बात नही शेर से तो बच जाऊँगा इसने ये सोचकर जैसे ही कुआँ में देखा ….कुआँ में तो एक अजगर था ….काला अजगर । वो अपनी जीभ लपलपा रहा है ….ओह ! अब ये और डरा ….इसने सोचा डाली छोड़नी ही नही है ….तभी इसे कुछ “किट किट किट” की आवाज़ आयी …ये क्या आवाज़ है ? इसने आवाज़ जहाँ से आरही थी उस ओर देखा तो दो चूहे उसकी डाली को कुतर रहे थे ….अब तो पक्का हो गया कि इसे मरना ही है …..लेकिन तभी – उस वृक्ष से शहद टपकने लगा …पिता जी ! देखो ! इसके बालक इसके ध्यान में आने लगे …”लो जी ! रोटी खाओ …तुम्हारे बिना मन नही लगता”…..इसे अपनी पत्नी याद आने लगी ….परिवार याद आने लगा ….शहद टपकने लगा , ये उसे चाटता है ….उसे चाटने में ये इतना मस्त हो गया कि सब भूल गया ….शेर भूल गया , कुआँ भूल गया , कुआँ में बैठा अजगर भूल गया और तो और अपनी डाली कुतरते चूहे भूल गया ….फिर कुछ समय बाद ही डाली चूहे कुतर गये , डाली टूटी, और अजगर के मुँह का ये ग्रास बन गया था ।

“कितना समझाया था मैंने ..किन्तु माना नही ..भवाटवी में भटककर मर गया”।

इसके पिता दुखी होकर यही कह रहे थे ।


हमारी कहानी है ये …..पिता ने समझाया मत जा ! पिता यानि हमारे भगवान ….वो अपने पुत्र जीव को समझाते हैं …मुझे छोड़कर मत जा , किन्तु जीव मानता नही है …वो मना करने पर भी आखिर संसार रूपी जंगल में आकर फंस ही जाता है । अरे ! इसी संसार के जंगल में मोहित करने वाले अनेक स्थान हैं ….बाहरी सौन्दर्य , माया का इंद्रजाल …फंस जाता है इसमें जीव । माया रूप नाना धरती है और जीव को फँसा लेती है ….जब जीव फंस जाता है …तो प्रलोभन देकर इसे भयानक स्वार्थ से भरे स्थानों में ज़बर्दस्ती भेजती है ….धन कमाओ , धन से सब कुछ होता है ….आदि आदि कहकर उसे प्रेरित करती है …..इसके बाल बच्चे हो गए हैं ….मोह में फंस चुका है …चाहने के बाद भी ये कुछ भी छोड़ नही सकता । ये जाता है …तभी काल रूपी शेर इसके पीछे पड़ जाता है …ये भागते हुये “जीवन” को कस कर पकड़ लेता है ….जीवन वृक्ष है ….किन्तु कब तक …नीचे भयानक तुम्हारा ही मोह रूपी कूप है ….उस कूप में अजगर काल का दूसरा रूप वहाँ भी बैठा है …चारों ओर काल ही काल है …मृत्यु ने अनेक रूप धर लिए हैं । ये कुछ नही सोचता । ओह ! इसके जीवन की डाली को तो दो चूहे कुतर रहे हैं …इसने देखा …दिन ओर रात ये दो चूहे हैं …जो जीवन की डाली को कुतर कर एक दिन गिरा देंगे । तभी पत्नी की याद , बच्चों की याद , बच्चे का ‘पापा’ कहना , पत्नी का ‘पतिदेव’ कहना …ये सब याद आने लगा ….यही तो है शहद …मोह का मीठापन …ममता की मधु ….इसको चाटने लगा वो जीव ….फिर सबको भूल गया ….और जल्दी ही काल का ग्रास बन गया ।

क्या ये कहानी आपको अपनी नही लगती ? अपनी ही है । शुकदेव हंसते हुये कहते हैं …जीव समझ नही रहा ….उफ़ ! कितने दुःख में जी रहा है …अपने सनातन पिता को क्यों भूल गया रे ।

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣8️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#प्रथमबरातलगनतेंआई …….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

मै वैदेही ! …………….

एक नें कहा …………कितना सुन्दर सजा हुआ है ये घर ………हमें तो लगता है …..हमारे ठहरनें की व्यवस्था यहीं है ………..बराती यहीं रुके हैं शायद ……….।

सब लोग , जो जो पैदल चल रहे थे ……वो सब लोग ……..घुस गए उस डोम के घर में ……….।

अरे ! आप लोग कहाँ आरहे हैं ………मत आइये इस घर में ।

उस घर का मालिक डोम था ……छोटी जात का …………वो तो घबडा गया ………हमारे घर में …….ये महाराज की बरात कैसे आगयी ….!

हम अवधवासी हैं ………क्या हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था यहीं है ?

वो डोम तो काँप गया ………….हाथ जोड़कर बोला ……..ये घर तो जनकपुर के डोम का घर है ……….हम तो आपको जल के लिये भी नही पूछ सकते ………….।

ये डोम का घर है ?

सिया जू  !   वो सब अवधवासी चकित थे ........डोम के घर में  सोनें चाँदी के बर्तन  ?    

ये सब भी हमारे महाराज जनक की कृपा है …………

डोम ने हाथ जोड़कर सारी बात कही ………..

जूठा, गन्दगी उठानें के लिये हम जब जाते हैं महाराज विदेह के पास …..तो वो मात्र जूठा नही उठानें देते ……….उनके जो बर्तन हैं ……….वो सब सोनें चाँदी के ……….वो भी हमें दे देते हैं …………।

अवध वासी बोले ……….नित्य अपनें बर्तन दे देते हैं ?

जी ! हमारे विदेह राज बहुत उदार हैं ………..वो नित्य अपनें भोजन किये हुए सोनें चाँदी के बर्तन भी हमें दे देते हैं …….!

इतनी सम्पदा , इतनी सम्पत्ती ….दूसरे राज्यों में तो अच्छे अच्छे श्रीमंतों के पास भी नही होती ……वो इस जनकपुर में एक निम्न जाति के लोगों के पास है ………..।

सब हमारे श्रीविदेहराज की कृपा है ………..और उन्हीं विदेहराज राजेश्वरी श्री सिया जू का विवाह महोत्सव हो रहा है ………..तो हम भी खुश हैं …….बाबा , बाबा , कहती रहीं हैं… हमें भी सिया बेटी ।

तो हमारी भी तो बेटी हुयी ना ? डोम के सजल नयन हो गए थे ।

और हाँ …………..कल मै विदेहराज के पास गया था …….तो उन्होंने मुझे कहा ……..माँगों क्या चाहिये तुम्हे ? ये कहते हुए कितनें खुश थे हमारे महाराज ……….।

मैने कहा है…..कुछ नही चाहिये……बस बरातियों को जब भोजन कराया जाएगा…..तो उनके जूठे बर्तन उठानें की सेवा मुझे ही दी जाए ।

तब महाराज नें कहा ……ये सेवा तो तुम्हे मिलेगी ही …….और कुछ ?

हाँ …..विदेह राज ! एक सेवा और । ……..वो डोम अपनी बात अयोध्यावासियों को सुनाते हुए कितना गदगद् हो रहा था ।

हाँ हाँ …..बोलो…….क्या सेवा ? मेरे महाराज जनक जी नें कहा था ।

हमारे जमाई राजा जिस थाल में खायेगें उसे भी मै ही उठाऊंगा ……हमारी बिटिया जिस थाल में खायेगी …….उसे मै ही उठाऊंगा ….और उनके जूठन पर भी मेरा ही हक़ होगा ।

ये कहते हुए कितनें भाव से भर गया था वो डोम ……………..

अवधवासी गदगद् !………….जनकपुर के भाव की गम्भीरता को समझते हुए ………..आनन्दित हो रहे थे ।


क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
💙💙💙💙💙💙💙
श्लोक 9 . 26
💙💙💙💙

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः || २६ ||

पत्रम् – पत्ती; पुष्पम् – फूल; फलम् – फल; तोयम् – जल; यः – जो कोई; मे – मुझको; भक्त्या – भक्तिपूर्वक; प्रयच्छति – भेंट करता है; तत् – वह; अहम् – मैं; भक्ति-उपहृतम् – भक्तिभाव से अर्पित; अश्नामि – स्वीकार करता हूँ; प्रयत-आत्मनः – शुद्धचेतना वाले से |

भावार्थ
💙💙💙

यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ |

तात्पर्य
💙💙
नित्य सुख के लिए स्थायी, आनन्दमय धाम प्राप्त करने हेतु बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह कृष्णभावनाभावित होकर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तत्पर रहे | ऐसा आश्चर्यमय फल प्राप्त करने की विधि इतनी सरल है की निर्धन से निर्धन व्यक्ति को योग्यता का विचार किये बिना इसे पाने का प्रयास करना चाहिए | इसके लिए एकमात्र योग्यता इतनी ही है कि वह भगवान् का शुद्धभक्त हो | इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई क्या है और कहाँ स्थित है | यह विधि इतनी सरल है कि यदि प्रेमपूर्वक एक पत्ती, थोड़ा सा जल या फल ही भगवान् को अर्पित किया जाता है तो भगवान् उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं | अतः किसी को भी कृष्णभावनामृत से रोका नहीं जा सकता, क्योंकि यह सरल है और व्यापक है | ऐसा कौन मुर्ख होगा जो इस सरल विधि से कृष्णभावनाभावित नहीं होना चाहेगा और सच्चिदानन्दमय जीवन की परम सिद्धि नहीं चाहेगा? कृष्ण को केवल प्रेमाभक्ति चाहिए और कुछ भी नहीं | कृष्ण तो अपने शुद्धभक्त से एक छोटा सा फूल तक ग्रहण करते हैं | किन्तु अभक्त से वे कोई भेंट नहीं चाहते | उन्हें किसी से कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे आत्मतुष्ट हैं, तो भी वे अपने भक्त की भेंट प्रेम तथा स्नेह के विनिमय मे स्वीकार करते हैं | कृष्णभावनामृत विकसित करना जीवन का चरमलक्ष्य है | इस श्लोक मे भक्ति शब्द का उल्लेख दो बार यह करने के लिए हुआ है कि भक्ति ही कृष्ण के पास पहुँचने का एकमात्र साधन है | किसी अन्य शर्त से, यथा ब्राह्मण, विद्वान, धनी या महान विचारक होने से, कृष्ण किसी प्रकार कि भेंट लेने को तैयार नहीं होते | भक्ति ही मूलसिद्धान्त है, जिसके बिना वे किसी से कुछ भी लेने के लिए प्रेरित नहीं किये जा सकते | भक्ति कभी हैतुकी नहीं होती | यह शाश्र्वत विधि है | यह परब्रह्म की सेवा में प्रत्यक्ष कर्म है |

यह बतला कर कि वे ही एकमात्र भोक्ता, आदि स्वामी और समस्त यज्ञ-भेंटों के वास्तविक लक्ष्य हैं, अब भगवान् कृष्ण यह बताते हैं कि वे किस प्रकार भेंट पसंद करते हैं | यदि कोई शुद्ध होने तथा जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने के उद्देश्य से भगवद्भक्ति करना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह पता करे कि भगवान् उससे क्या चाहते हैं | कृष्ण से प्रेम करने वाला उन्हें उनकी इच्छित वास्तु देगा और कोई ऐसी वस्तु भेंट नहीं करेगा जिसकी उन्हें इच्छा न हो, या उन्होंने न माँगी हो | इस प्रकार कृष्ण को मांस, मछली या अण्डे भेंट नहीं किये जाने चाहिए | यदि उन्हें इन वस्तुओं की इच्छा होती तो वे उनका उल्लेख करते | उल्टे वे स्पष्ट आदेश देते हैं कि उन्हें पत्र, पुष्प, जल तथा फल अर्पित किये जायें और वे इन्हें स्वीकार करेंगे | शाक, अन्न, फल, दूध तथा जल – ये ही मनुष्यों के उचित भोजन हैं और भगवान् कृष्ण ने भी इन्हीं का आदेश दिया है | इनके अतिरिक्त हम जो भी खाते हों, वह उन्हें अर्पित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे उसे ग्रहण नहीं करेंगे | यदि हम ऐसा भोजन उन्हें अर्पित करेंगे तो हम प्रेमाभक्ति नहीं कर सकेंगे |

तृतीय अध्याय के तेरहवें श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ का उच्छिष्ट ही शुद्ध होता है, अतः जो लोग जीवन की प्रगति करने तथा भवबन्धन से मुक्त होने के इच्छुक हैं, उन्हें इसी को खाना चाहिए | उसी श्लोक मे वे यह भी बताते हैं कि जो लोग अपने भोजन को अर्पित नहीं करते वे पाप भक्षण करते हैं | दूसरे शब्दों में, उनका प्रत्येक कौर इस संसार की जटिलताओं में उन्हें बाँधने वाला है | अच्छा सरल शाकाहारी भोजन बनाकर उसे भगवान् कृष्ण के चित्र या अर्चाविग्रह के समक्ष अर्पित करके तथा नतमस्तक होकर इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करने की प्रार्थना करने से मनुष्य अपने जीवन में निरन्तर प्रगति करता है, उसका शरीर शुद्ध होता है और मस्तिष्क के श्रेष्ठ तन्तु उत्पन्न होते हैं, जिससे शुद्ध चिन्तन हो पाता है | सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह समर्पण अत्यन्त प्रेमपूर्वक करना चाहिए | कृष्ण को किसी तरह के भोजन कि आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनके पास सब कुछ है, किन्तु यदि कोई उन्हें इस प्रकार प्रसन्न करना चाहता है, तो वे इस भेंट को स्वीकार करते हैं | भोजन बनाने, सेवा करने तथा भेंट करने में जो सबसे मुख्य बात रहती है, वह है कृष्ण के प्रेमवश कर्म करना |

वे मायावादी चिन्तक भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ नहीं समझ सकेंगे, जो यः मानकर चलते हैं कि परब्रह्म इन्द्रियरहित है | उनके लिए यह या तो रूपक है या भगवद्गीता के उद्घोषक कृष्ण के मानवीय चरित्र का प्रमाण है | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि कृष्ण इन्द्रियों से युक्त हैं और यह कहा गया है कि उनकी इन्द्रियाँ परस्पर परिवर्तनशील हैं | दूसरे शब्दों में, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कार्य कर सकती है | कृष्ण को परम ब्रह्म कहने का आशय यही है | इन्द्रियरहित होने पर उन्हें समस्त ऐश्र्वर्यों से युक्त नहीं माना जा सकता | सातवें अध्याय मे कृष्ण ने बतलाया है कि वे प्रकृति के गर्भ मे जीवों को स्थापित करते हैं | इसे वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके करते हैं | अतः यहाँ पर भी भक्तों द्वारा भोजन अर्पित करते हुए भक्तों को प्रेमपूर्ण शब्द सुनना कृष्ण के द्वारा भोजन करने तथा उसके स्वाद लेने के ही समरूप है | इस बात पर इसीलिए बल देना होगा क्योंकि अपनी सर्वोच्च स्थिति के कारण उनका सुनना उनके भोजन करने के ही समरूप है | केवल भक्त ही बिना तर्क के यह समझ सकता है कि परब्रह्म भोजन कर सकते हैं और उसका स्वाद ले सकते हैं |

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